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अपठित गद्यांश - 2 | Course for UPPSC Preparation - UPPSC (UP) PDF Download

गद्यांश - 6

उठे राष्ट्र तेरे कंधो पर,
बढे प्रगति के प्रांगण में,
पृथ्वी को रख दिया उठाकर
तूने नभ के आँगन में |

तेरे प्राणो के ज्वरो पर,
लहराते है देश सभी,
चाहे जिसे इधर कर दे तू
चाहे जिसे उधर क्षण में |

विजय वैजयंती फहराती जो,
जग के कोने - कोने में,
उनमे तेरा नाम लिखा है
जीने में बलि होने में |

घहरे राण घनघोर बढ़ी
सेनाए तेरा बल पाकर,
स्वर्ण - मुकुट आ गए चरण तल
तेरे शस्त्र संजोने में |

तेरे बाहुदंड में वह बल,
जो केहरि- कटि तोड़ सके,
तेरे दृढ़ कंधो में वह बल
जो गिरी से ले होड़ सके |
उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) 'उठे राष्ट्र तेरे कंधो पर'- इसमें 'तेरे' किसके लिए कहा गया है?
उत्तर:
प्रस्तुत काव्यांश में 'तेरे' शब्द देश के नवयुवको अर्थात देश के तरुणो के लिए कहा  गया है; क्योकि देश कि बागडोरअब बूढ़े कि अपेक्षा जवानो के हाथो में होनी चाहिए|  देश का उद्धार और चौमुखी प्रगति वे ही कर सकते है |


(ख) प्रस्तुत काव्यांश का मूल भाव क्या है? लिखिए
उत्तर: 
प्रस्तुत काव्यांश के मूल भाव यह है कि संसार में जितने भी सामाजिक परिवर्तन एवं लोक कल्याण के कार्य हुए है, वे नौजवानो कि आदम्य शक्ति एवं साहस से ही हुए है | यदि वे कर्तव्य बोध और आत्मविश्वास से मंडित हो जावे, तो वे अपनी क्षमता का सही उपयोग क्र सकते है तथा विश्व में समरसता एवं मानवता कि स्थापना क्र सकते है |

(ग) प्रस्तुत काव्यांश में कविको तरुणोसे क्या क्या अपेक्षाएं है?
उत्तर: 
प्रस्तुत काव्यांश में कवि का तरुणो से ये अपेक्षाएं है-

  • वे देश कि प्रगति और रक्षा का बाहर अपने कंधो पर ले |
  • वे देश में सकारात्मक क्रांति और बदलाव लाये |
  • वे मुश्किलों का मुकाबला करे और बाधाओं से जरा भी नहीं घबराये |
  • वे कमजोर लोगों एवं पद- दलितोंकि रक्षा करे |
  • वे अपनी शक्ति का पूरा उपयोग करे|

(घ) 'केहरि-कटि' से कवि क्या आशय है?
उत्तर:
'केहरि - कटि' शब्द वस्तुत: उपमान है| शेर की कमर लचीली और मजबूत मानी जाती है | शेर अपने शरीर की इस विशेषता से वन्य जीवों का आसानी से शिकार कर लेता है तथा अतीव वेग से दौड़ सकता है | कवि का यहां यही आशय है |


(ड़) ' विजय वैजयंती फहरी' से कवि का क्या तापर्य है?
उत्तर:
'विजय वैजयंती फहरी' से कवि का तातपर्य यह है कि देश के नौजवान जिधर अपनी नजरे दौडा देते है अर्थात जिधर अपना पराक्रम दिखते है उधर ही अपनी विजय पताका फहरा देते है |

गद्यांश - 7

अब न गहरी नींद में तुम सो सकोगे,
गीत गाकर मैं जगाने आ रहा हूँ |
अतल अस्ताचल तुम्हे जाने न दूंगा,
अरुण उदयकाल सजाने आ रहा हूँ ||
कल्पना में आज तक उड़ाते रहे तुम,
साधना से मुड़कर सिहरते रहे तुम |
अब तुम्हे आकाश में उड़ने न दूंगा,
आज धरती पर बसाने आ रहा हूँ ||
सुख नहीं यह, नींद में सपने संजोना,
दुःख नहीं यह शीश पर गुरु भर ढोना ||
शूल तुम जिसको समझते थे अभी तक,
फूल मैं उसको बनाने आ रहा हूँ ||
फूल को जो फूल समझे, भूल है यह,
शूल को जो शूल समझे, भूल है यह |
भूल में अनुकूल या प्रतिकूल के कण,
धूलि भूलो की हटाने आ रहा हूँ ||
देखकर मंझधार में घबड़ा न जाना,
हाथ ले पतवार को घबड़ा न जाना |
मैं किनारे पर तुम्हे थकने न दूंगा,
पार मैं तुमको लगाने आ रहा हूँ ||

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) प्रस्तुत काव्यांश में क्या सन्देश व्यक्त हुआ है?
उत्तर:
प्रस्तुत काव्यांश में कवि न देश के नवयुवको को सन्देश दिया है कि वे कोरी कल्पनाओं को छोड़कर यथार्थ को समझने का प्रयास करें | जीवन में आलस्य, निराशा, अधीरता और संकीर्णता को त्यागकर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर बने और दासता अस्वीकार कर वंदनीय बनने का प्यास करें, तभी देश का कल्याण और उनका जीवन सफल हो सकेगा |


(ख) 'शूल को जो शूल समझे, भूल है यह'- कवी न ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर: 
'शूल' का अर्थ है दुःख और बाधा| दुःख से मत घबराओ तथा घबराकर पीछे भी मत हटो | उससे सबक लो, उसका मुकाबला करो और ऐसा काम करो कि हमारे तथा दुसरो के दुःख वेदना से मुक्त रहे | अतएव शूल से मत घबराओ, अपितु उससे प्रेरणा प्राप्त करो|


(ग) 'अरुण उदयाचल सजाने आ रहा हूँ '- इसका क्या आशय है?
उत्तर:
रात्रि के बढ़ प्रभातकाल होता है, अस्ताचल के बाद उदयाचल पर आभा फैलती है| इसी प्रकार जीवन में निराशा के बाद आशा का संचार करो, आलस्य के स्थान पर सक्रियता अपनाओ| तभी जीवन मार्ग प्रशस्त हो सकेगा|


(घ) 'गीत गाकर मैं जगाने आ रहा हूँ' में कवी किसे जगाने की बात कह रहा है और क्यों? समझाइये |
उत्तर: 
इसमें कवि नवयुवको को जगाने कि बात ख रहा है; क्योकि आज का नवयुवक आलस्य, अधीरता और संकीर्णता को अपना सुख मानकर कल्पनाओं में जी रहा है


(ड़) 'अब तुम्हे आकाश में उड़ने न दूंगा' से कवी का क्या आशय है?
उत्तर: 
कवि उन नवयुवको को सचेत करते है जो कल्पनाओं के संसार में जी रहे है, उन्हें कोरी कल्पनाओं को छोड़कर यथार्थ जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए|

गद्यांश - 8

विज्ञान के द्वारा मनुष्य ने जिन चमत्कारों को प्राप्त किया है, उनमें दूरदर्शन का स्थान अत्यन्त महान और उच्च है। दूरदर्शन का आविष्कार 19वीं शताब्दी के आस पास ही समझना चाहिए। टेलीविजन दूरदर्शन का अंग्रेजी नाम है। टेलीविजन का अविष्कार महान वैज्ञानिक वेयर्ड ने किया है। टेलीविजन को सर्वप्रथम लंदन में सन् 1925 में देखा गया। लंदन के बाद इसका प्रचार प्रसार इतना बढ़ता गया है कि आज यह विश्व के प्रत्येक भाग में बहुत लोकप्रिय हो गया है। भारत में टेलीविजन का आरंभ 15 सितम्बर सन् 1959 को हुआ। तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने आकाशवाणी के टेलीविजन विभाग का उदघाटन किया था।
टेलीविजन या दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है- दूर की वस्तुओं या पदार्थों का ज्यों का ज्यों आँखों द्वारा दर्शन करना। टेलीविजन का प्रवेश आज घर घर हो रहा है। इसकी लोकप्रियता के कई कारणों में से एक कारण यह है कि एक रेडियो कैबिनेट के आकार प्रकार से तनिक बड़ा होता है। इसके सभी सेट रेडियो के सेट से मिलते जुलते हैं। इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह या स्थान पर ले जाया जा सकता है। इसे देखने के लिए हमें न किसी प्रकार के चश्मे या मनोभाव या अध्ययन आदि की आश्वयकताएँ पड़ती हैं। इसके लिए किसी विशेष वर्ग के दर्शक या श्रोता के चयन करने की आश्वयकता नहीं पड़ती है, अर्थात् इसे देखने वाले सभी वर्ग या श्रेणी के लोग हो सकते हैं।
टेलीविजन हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक प्रभावित करता है। यह हमारे जीवन के काम आने वाली हर वस्तु या पदार्थ की न केवल जानकारी देता है अपितु उनके कार्य-व्यापार, नीति ढंग और उपाय को भी क्रमश बड़ी ही आसानीपूर्वक हमें दिखाता है। इस प्रकार से दूरदर्शन हमें एक से एक बढ़कर जीवन की समस्याओं और घटनाओं को बड़ी ही सरलता के साथ आवश्यक रूप में प्रस्तुत करता है। जीवन से सम्बन्धित ये घटनाएँ-व्यापार कार्य आदि सभी कुछ न केवल हमारे आस पास पड़ोस के ही होते हैं, अपितु दूर दराज के देशों और भागों से भी जुड़े होते हैं। ये किसी न किसी प्रकार से हमारे लिए जीवनोपयोगी ही सिद्ध होते हैं। इस दृष्टिकोण से हम यह कह सकते हैं कि दूरदर्शन हमारे लिए ज्ञान वर्द्धन का बहुत बड़ा साधन है। यह ज्ञान की सामान्य रूपरेखा से लेकर गंभीर और विशिष्ट रूपरेखा की बड़ी ही सुगमतापूर्वक प्रस्तुत करता है। इस अर्थ से दूरदर्शन हमारे घर के चूल्हा-चाकी से लेकर अंतरिक्ष के कठिन ज्ञान की पूरी पूरी जानकारी देता रहता है।
दूरदर्शन द्वारा हमें जो ज्ञान विज्ञान प्राप्त होते हैं। उनमें कृषि के ज्ञान विज्ञान का कम स्थान नहीं है। आधुनिक कृषि यंत्रों से होने वाली कृषि से सम्बन्धित जानकारी का लाभ शहरी कृषक से बढ़कर ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले कृषक अधिक उठाते हैं। इसी तरह से कृषि क्षेत्र में होने वाले नवीन आविष्कारों, उपयोगिताओं, विभिन्न प्रकार के बीज, पशु पक्षी, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि का पूरा विवरण हमें दूरदर्शन से ही प्राप्त होता है।
दूरदर्शन के द्वारा पर्वों, त्योहार, मौसमों, खेल, तमाशे, नाच, गाने-बजाने, कला, संगीत, पर्यटन, व्यापार, साहित्य, धर्म, दर्शन, राजनीति आदि लोक परलोक के ज्ञान विज्ञान के रहस्य एक एक करके खुल जाते हैं। दूरदर्शन इन सभी प्रकार के तथ्यों का ज्ञान हमें प्रदान करते हुए इनकी कठिनाइयों को हमें एक एक करके बतलाता है और इसका समाधान भी करता है।
दूरदर्शन से सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि इसके द्वारा हमारा पूर्ण रूप से मनोरंजन हो जाता है। प्रतिदिन किसी न किसी प्रकार के विषय आयोजित और प्रायोजित कार्यक्रमों के द्वारा हम अपना मनोरंजन करके विशेष उत्साह और प्ररेणा प्राप्त करते हैं। दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फिल्मों से हमारा मनोरंजन तो होता ही है, इसके साथ ही साथ विविध प्रकार के दिखाए जाने वाले धारावाहिकों से भी हमारा कम मनोरंजन नहीं होता है। इसी तरह से बाल-बच्चों, वृद्धों, युवकों सहित विशेष प्रकार के शिक्षित और अशिक्षित वर्गों के लिए दिखाए जाने वाले दूरदर्शन के कार्यक्रमों से हम अपना मनोरंजन बार बार करते हैं। इससे ज्ञान प्रकाश की किरणें भी फूटती हैं।
जितनी दूरदर्शन में अच्छाई है, वहाँ उतनी उसमें बुराई भी कही जा सकती है। हम भले ही इसे सुविधा सम्पन्न होने के कारण भूल जाएँ, लेकिन दूरदर्शन के लाभों के साथ साथ इससे होने वाली कुछ ऐसी हानियाँ हैं, जिन्हें हम अनदेखी नहीं कर सकते हैं। दूरदर्शन के बार बार देखने से हमारी आँखों की रोशनी मंद होती है। इसके मनोहर और आकर्षक कार्यक्रम को छोड़कर हम अपने और इससे कहीं अधिक आवश्यक कार्यों को भूल जाते हैं। दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम कुछ तो इतने अश्लील होते हैं कि इनसे न केवल हमारे युवा पीढ़ी का मन बिगड़ता है, अपितु हमारे अबोध और नाबालिग बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते हैं। दूरदर्शन के खराब होने से इसकी मरम्मत कराने में काफी खर्च भी पड़ जाते हैं। इस प्रकार दूरदर्शन से बहुत हानियाँ और बुराइयाँ हैं, फिर भी इससे लाभ अधिक हैं। यही कारण है कि यह अधिक लोकप्रिय हो रहा है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए|
उत्तर: 
इस गद्यांश का उचित शीर्षक 'दूरदर्शन एक वरदान' है|


(ख) दूरदर्शन तथा टेलीविज़न का अर्थ बताइये?
उत्तर: टेलीविजन या दूरदर्शन का शाब्दिक अर्थ है- दूर की वस्तुओं या पदार्थों का ज्यों का ज्यों आँखों द्वारा दर्शन करना। टेलीविजन का प्रवेश आज घर घर हो रहा है। इसकी लोकप्रियता के कई कारणों में से एक कारण यह है कि एक रेडियो कैबिनेट के आकार प्रकार से तनिक बड़ा होता है। इसके सभी सेट रेडियो के सेट से मिलते जुलते हैं। इसे आसानी से एक जगह से दूसरी जगह या स्थान पर ले जाया जा सकता है। इसे देखने के लिए हमें न किसी प्रकार के चश्मे या मनोभाव या अध्ययन आदि की आश्वयकताएँ पड़ती हैं।


(ग) दूरदर्शन एक वरदान के रूप में किस प्रकार है?
उत्तर: दूरदर्शन हमारे जीवन में काम आने वाली हर वस्तु या पदार्थ की न केवल जानकारी देता है अपितु उनके कार्य-व्यापार, नीति ढंग और उपाय को भी क्रमश बड़ी ही आसानीपूर्वक हमें दिखाता है। दूरदर्शन के द्वारा हमे ज्ञान विज्ञान की बहुत सी जानकारी प्राप्त होती है| दूरदर्शन के द्वारा हम विभिन्न पर्वो, खेल -तमाशो की जानकारी प्राप्त कर सकते है| दूरदर्शन से सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि इसके द्वारा हमारा पूर्ण रूप से मनोरंजन हो जाता है।          


(घ) दूरदर्शन की कुछ हानियाँ भी है, लिखिए?
उत्तर: दूरदर्शन के बार बार देखने से हमारी आँखों की रोशनी मंद होती है। इसके मनोहर और आकर्षक कार्यक्रम को छोड़कर हम अपने और इससे कहीं अधिक आवश्यक कार्यों को भूल जाते हैं। दूरदर्शन से प्रसारित कार्यक्रम कुछ तो इतने अश्लील होते हैं कि इनसे न केवल हमारे युवा पीढ़ी का मन बिगड़ता है, अपितु हमारे अबोध और नाबालिग बच्चे भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते हैं।


(ड़) दूरदर्शन का अविष्कार कब और किस ने किया?
उत्तर: दूरदर्शन का अविष्कार 19वीं शताब्दी में हुआ| टेलीविजन का अविष्कार महान वैज्ञानिक वेयर्ड ने किया है। टेलीविजन को सर्वप्रथम लंदन में सन् 1925 में देखा गया।

गद्यांश - 9

युवा उस पीढ़ी को संदर्भित करता है जिन्होंने अभी तक वयस्कता में प्रवेश नहीं किया है लेकिन वे अपनी बचपन की उम्र को पूरी कर चुके हैं। आधुनिक युवक या आज के युवा पिछली पीढ़ियों के व्यक्तियों से काफी अलग हैं। युवाओं की विचारधाराओं और संस्कृति में एक बड़ा बदलाव हुआ है। इसका समाज पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह का प्रभाव पड़ा है।
मानसिकता और संस्कृति में परिवर्तन के लिए एक कारण पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है और दूसरा तकनीक के क्षेत्र में बढ़ती उन्नति है।
पहले ज़माने के लोग एक-दूसरे की जगह पर जाते थे और साथ में अच्छा वक्त बिताते थे। जब भी कोई ज़रूरत होती थी तो पड़ोसी भी एक-दूसरे की मदद के लिए इक्कठा होते थे। हालांकि आज के युवाओं को यह भी पता नहीं है कि बगल के घर में कौन रहता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वे लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं करते हैं। वे सिर्फ उन्हीं लोगों के साथ मिलते-जुलते हैं जिनसे वे सहज महसूस करते हैं और ज़रूरी नहीं कि वे केवल किसी के रिश्तेदार या पड़ोसी ही हो। तो मूल रूप से युवाओं ने आज समाज के निर्धारित मानदंडों पर संदेह जताना शुरू कर दिया है।
आधुनिक युवक अपने बुजुर्गों द्वारा निर्धारित नियमों के अनुरूप नहीं चलते हैं। वे अपने माता-पिता और अभिभावकों का साथ तो चाहते हैं लेकिन हर कदम पर उनका मार्गदर्शन नहीं चाहते। आज की युवा पीढ़ी नई चीजें सीखना चाहती है और दुनिया में खुद को तलाश करना चाहती है। आज के युवा काफी बेसब्र और उतावले भी हैं। ये लोग तुरन्त सब कुछ करना चाहते हैं और अगर चीजें उनके हिसाब से नहीं चलती हैं तो वे जल्द नाराज हो जाते हैं।
हालांकि आधुनिक युवाओं के बारे में सब कुछ नकारात्मक नहीं है। मनुष्य का मन भी समय के साथ विकसित हुआ है और युवा पीढ़ी काफी प्रतिभाशाली है। आज के युवक उत्सुक और प्रेरित हैं। आज के युवाओं का समूह काफ़ी होशियार है और अपने लक्ष्य को हासिल करना अच्छी तरह से जानता है। वे परंपराओं और अंधविश्वासों से खुद को बांधे नहीं रखते हैं। कोई भी बाधा उन्हें उन चीज़ों को प्राप्त करने से नहीं रोक सकती जो वे चाहते हैं।
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उन्नति के साथ-साथ विभिन्न गैजेट्स के आगमन से जीवन शैली और जीवन के प्रति समग्र रवैया बदल गया है और आबादी का वह हिस्सा जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है वह युवा है।
इन दिनों युवा अपने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया में इतने तल्लीन रहते हैं कि वे यह भूल गए हैं कि इसके बाहर भी एक जीवन है। आज के युवा स्वयं के बारे में बहुत चिंतित होते हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से वह सब कुछ दिखाना और बताना चाहते हैं जो उनके पास है। हर क्षण का आनंद लेने की बजाए वह यह दिखाना चाहते हैं कि उनका जीवन कैसा रहा है। ऐसा लगता है कि कोई भी वास्तव में खुश नहीं है लेकिन हर कोई दूसरे को यह बताना चाहता है कि उसका जीवन बेहद दूसरों की तुलना में अच्छा और मज़ेदार है।
मोबाइल फोन और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के अलावा जो आधुनिक युवाओं के जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव डाल रहे हैं वह है अन्य गैजेट्स और अन्य तकनीकी रूप से उन्नत उपकरण जिन्होंने लोगों की जीवन शैली में बहुत बड़ा बदलाव लाया है। आज के युवा सुबह पार्क में घूमने की बजाए जिम में कसरत करना पसंद करते हैं। इसी प्रकार जहाँ पहले ज़माने के लोग अपने स्कूल और कार्यस्थल तक पहुंचने के लिए मीलों की दूरी चलकर पूरी करते थे वही आज का युवा कार का उपयोग करना पसंद करता है भले ही उसे छोटी सी दूरी का रास्ता पूरा करना हो। सीढ़ियों के बजाए लिफ्ट का इस्तेमाल किया जा रहा है, गैस स्टोव की बजाए माइक्रोवेव और एयर फ्रायर्स में खाना पकाया जा रहा है और पार्कों की जगह मॉल पसंद किये जा रहे हैं। सारी बातों का निचोड़ निकाले तो तकनीक युवाओं को प्रकृति से दूर ले जा रही है।
पश्चिमी चकाचौंध से अंधे हो चुके भारत के युवाओं को यह एहसास नहीं है कि हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा से बहुत अच्छी थी। हालांकि अंधविश्वासों से अपने आप को बाँधना अच्छा नहीं है लेकिन हमें हमारी संस्कृति से अच्छे संस्कार लेने चाहिए। इसी तरह किसी के जीवन में विकास के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिए। हमें प्रौद्योगिकी का गुलाम नहीं बनना चाहिए।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए?
उत्तर: उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक 'आज का युवा’ है|


(ख) युवाओ की मानसिकता और संस्कृति में परिवर्तन के कारण बताइये?
उत्तर: युवाओ की मानसिकता और संस्कृति में परिवर्तन का कारण पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव है और दूसरा तकनीक के क्षेत्र में बढ़ती उन्नति है। पहले ज़माने में लोग एक दूसरे से मिलते थे और एकदूसरे के काम में हाथ बाटते, बाते करके अपनी समस्याओ को खत्म करते थे परन्तु आज का युवा अपने काम से काम रखने वाला हो चूका है आधुनिक युवक अपने बुजुर्गों द्वारा निर्धारित नियमों के अनुरूप नहीं चलते हैं। वे अपने माता-पिता और अभिभावकों का साथ तो चाहते हैं लेकिन हर कदम पर उनका मार्गदर्शन नहीं चाहते। आज की युवा पीढ़ी नई चीजें सीखना चाहती है और दुनिया में खुद को तलाश करना चाहती है। आज के युवा काफी बेसब्र और उतावले भी हैं।


(ग) आधुनिक युवा की सोच सकारत्मक किस प्रकार है?
उत्तर: मनुष्य का मन भी समय के साथ विकसित हुआ है और युवा पीढ़ी काफी प्रतिभाशाली है। आज के युवक उत्सुक और प्रेरित हैं। आज के युवाओं का समूह काफ़ी होशियार है और अपने लक्ष्य को हासिल करना अच्छी तरह से जानता है। वे परंपराओं और अंधविश्वासों से खुद को बांधे नहीं रखते हैं। कोई भी बाधा उन्हें उन चीज़ों को प्राप्त करने से नहीं रोक सकती जो वे चाहते हैं।


(घ) प्रौद्योगिकी की उन्नति से युवाओ में क्या नकारत्मकता आई है? लिखिए|
उत्तर: युवा अपने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया में इतने तल्लीन रहते हैं कि वे यह भूल गए हैं कि इसके बाहर भी एक जीवन है। आज के युवा स्वयं के बारे में बहुत चिंतित होते हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से वह सब कुछ दिखाना और बताना चाहते हैं जो उनके पास है। हर क्षण का आनंद लेने की बजाए वह यह दिखाना चाहते हैं कि उनका जीवन कैसा रहा है। ऐसा लगता है कि कोई भी वास्तव में खुश नहीं है लेकिन हर कोई दूसरे को यह बताना चाहता है कि उसका जीवन बेहद दूसरों की तुलना में अच्छा और मज़ेदार है।


(ड़) पश्चिमी चकाचौंध से अंधे हो चुके भारत के युवाओं को किस बात का एहसास होना चाहिए?
उत्तर: पश्चिमी चकाचौंध से अंधे हो चुके भारत के युवाओं को यह एहसास नहीं है कि हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा से बहुत अच्छी थी। हालांकि अंधविश्वासों से अपने आप को बाँधना अच्छा नहीं है लेकिन हमें हमारी संस्कृति से अच्छे संस्कार लेने चाहिए। इसी तरह किसी के जीवन में विकास के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाना चाहिए। हमें प्रौद्योगिकी का गुलाम नहीं बनना चाहिए।

गद्यांश - 10

माध्यम का अर्थ होता है वह साधन या ढंग, जिसको अपनाकर कोई व्यक्ति या हम कुछ ग्रहण करते हैं। शिक्षा के माध्यम पर विचार करने से पहले उसका उद्देश्य जान लेना आवश्यक है। मनुष्य की सोई और गुप्त शक्तियों को जगाना, उन्हें सही दिशा में प्रयुक्त कर सकने की क्षमता प्रदान करना ही शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य और महत्व हुआ करता है। अपने इस महत्वपूर्ण उद्देय की पूर्ति किसी देश की कोई शिक्षा-पद्धति तभी सफलतापूर्वक कर सकती है, जब वह उस माध्यम या भाषा में दी जाए जिसे शिक्षार्थी भली प्रकार से समझ-बूझ सकता है-जो उसे अपरिचित और कठिन न लगे और जो उसकी अपनी परिस्थितियों के सर्वथ अनूकूल हो। स्वतंत्र भारत में शिक्षार्थी का यह दुर्भाज्य ही कहा जाएगा कि एक तो यहां शिक्षा-पद्धति वही पुरानी, पराधीन मानसिकता की परिचायक, गुलाम मनोवृति वाले मुंशी और क्लर्क पैदा करने वाली चालू हैं, दूसरी तरफ उसे प्रदान करने का तभी तक सर्वसुलभ माध्यम भी नहीं अपनाया जा सका। परिणामस्वरूप हमारी समूची शिक्षा-पद्धति और उसका ढांचा एक खिलवाड़ बनकर रह गया है। इस खिलवाड़ को मिटाने के लिए यह आवश्यक है कि समूची शिक्षा-पद्धति को बदलकर उसे प्रदान करने का कोई एक सार्वदेशिक माध्यम भी निश्चित-निर्धारित किया जाए। ऐसा करके ही शिक्षा, शिक्षार्थी और राष्ट्र का भला संभव हो सकता है।
इस देश में शिक्षा का माध्यम क्या होना चाहिए, इस प्रश्न पर सामान्य और उच्च स्तरों पर कई बार विचार हो चुका है, पर संकल्प शक्ति के अभाव में आज तक हमारी शिक्षाशास्त्री, नेता और सरकार किसी अंतिम निर्णय तक नहीं पहुंच सके। भिन्न प्रकार के विचार अवश्य सामने आए हैं। एक मुख्य विचार यह आया कि आरंभ से अंत तक शिक्षा का माध्यम तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय भाष अंग्रेजी ही रहना चाहिए। पर इस विचार को एक तो मानसिक गुलामी का परिचायक कहा जा सकता है, दूसरे इस देश की आम जनता के लिए ऐसा हो पाना संभव और व्यावहारिक भी नहीं है। सामान्य एंव स्वतंत्र राष्ट्र के गौरव की दृष्टि से भी यह उचित नहीं। दूसरा विचार यह है कि अन्य सभी स्वतंत्र राष्ट्रों के समान क्यों न हम भी अपनी संविधान-स्वीकृत राष्ट्रभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनांए। लेकिन इस विचार के रास्ते में निहित स्वार्थों वाले राजनीतिज्ञ उत्तर-दक्षिण का प्रश्न उठा, हिंदी में तकनीकी और ज्ञान-विज्ञान के विषयों से संबंधित पुस्तकों के अभाव की बातें कहकर रोड़े अटकाए हुए हैं। इसे हमारी शिक्षा-पद्धति और उससे जुड़े अधिकांश शिक्षार्थियों का दुर्भाज्य ही कहा जाएगा। अन्य कुछ नहीं।
उपर्युक्त मतों के अतिरिक्त एक मत यह भी सामने आया है कि प्रारंभिक शिक्षा तो प्रदेश विशेष की प्रमुख मातृभाषा में ही हो। उसके बाद पांचवीं-छठी कक्षा से राष्ट्रभाषा और अंग्रेजी का अध्ययन-अध्यापन भी आरंभ कर दिया जाए। यह क्रम उच्चतर माध्यमिक शिक्षा तक चलता रहे। उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए राष्ट्रभाषा या कोई भी एक भाषा माध्यम के रूप में स्वीकार कर उसी में शिक्षा दी जाए। प्रश्न यह उठता है कि वह भाषा कौन सी हो? निश्चय ही वह विदेशी भाषा अंग्रेजी नहीं, बल्कि राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है।
इस प्रकार यह विचार भी सामने आ चुका है कि देश को भाषा के आधार पर कुछ विशेष संभागों में बांटकर एक विशिष्ट और प्रचलित संभागीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। पर इस प्रकार करने से व्यावहारिक स्तर की कई कठिनाइयां हैं। सबसे बड़ी बाधा तो यह है कि तब विशेष प्रतिभाओं का उपयोग सार्वदेशिक स्तर पर न होकर मात्र संभागीय स्तर तक ही सीमित होकर रह जाएगा। दूसरी कठिनाई किसी एक संभागीय भाषा विशेष के चुनाव की भी है। सभी अपनी-अपनी भाषा पर बल देंगे। तब एक संभाग भी भाषाई झगड़ों का अखाड़ा बनकर रह जाएगा। अत: यह विचार भी व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। ऐसा करके भाषा के आधार पर प्रांतों का और विभाजन कतई संगत नहीं हो सकता।
हमारे विचार में शिक्षा की माध्यम-भाषा का जनतंत्री प्रक्रिया से ही निर्णय संभव हो सकता है। जनतंत्र में बहुमत का निर्णय माना जाता है। अत: देखा  यह जाना चाहिए कि संविधान-स्वीकृत पंद्रह-सोलह भाषाओं में से सर्वाधिम क्षेत्र किसी भाषा का है, कौन-सी ऐसी भाषा है जिसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक पढ़ा-लिखा, उसके बाद बोला और अंत में काम चलाने के लिए समझा जाता है। जनतंत्र की इस बहुमत वाली प्रणाली को अपनाकर शिक्षा की माध्यम-भाषा का निर्णय सरलता से किया जा सकता है। इसके लिए क्षेत्रीय भाषाओं तथा अन्य स्वार्थों के त्याग की बहुत आवश्यकता है और आवश्यकता है राष्ट्रीय एकत्व की उदात्त भावना की। इसके अभाव में निर्णय कतई संभव नहीं हो सकता। यदि अब भी हम शिक्षा के सारे देश के लिए एक माध्यम स्वीकार कर उसकी व्यवस्था में नहीं जुट जाते, तो चालू पद्धति और समूची शिक्षा अंत में अपनी वर्तमान औपचारिक स्थिति से भी हाथ धो बैठेगी। अत: प्राथमिकता के आधार पर अब इस बात का निर्णय हो ही जाना चाहिए कि शिक्षा का सर्वाधिक उचित माध्यम क्या हो सकता है। स्वंय शिक्षा और उसके साथ भारतीय समाज एंव राष्ट्र का वास्तविक भला तभी संभव हो सकेगा। अन्य कोई उपाय नहीं। इस ज्वलंत समस्या से आंखे चुराए रहने के कारण देश का बहुत अहित हो चुका है और निरंतर हो रहा है। परंतु अब अधिक नहीं होना चाहिए।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए?
उत्तर: उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ‘शिक्षा का महत्व’ है|


(ख) किसी देश में शिक्षा का माध्यम क्या होना चाहिए?
उत्तर: 
एक मुख्य विचार यह आया कि आरंभ से अंत तक शिक्षा का माध्यम तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय भाष अंग्रेजी ही रहना चाहिए। पर इस विचार को एक तो मानसिक गुलामी का परिचायक कहा जा सकता है, दूसरे इस देश की आम जनता के लिए ऐसा हो पाना संभव और व्यावहारिक भी नहीं है। 
दूसरा विचार यह है कि अन्य सभी स्वतंत्र राष्ट्रों के समान क्यों न हम भी अपनी संविधान-स्वीकृत राष्ट्रभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनांए। लेकिन इस विचार के रास्ते में निहित स्वार्थों वाले राजनीतिज्ञ उत्तर-दक्षिण का प्रश्न उठा, हिंदी में तकनीकी और ज्ञान-विज्ञान के विषयों से संबंधित पुस्तकों के अभाव की बातें कहकर रोड़े अटकाए हुए हैं। इसे हमारी शिक्षा-पद्धति और उससे जुड़े अधिकांश शिक्षार्थियों का दुर्भाज्य ही कहा जाएगा।


(ग) देश को बाँट कर किस प्रकार शिक्षा का माध्यम बनाया जा सकता है?
उत्तर: देश को भाषा के आधार पर कुछ विशेष संभागों में बांटकर एक विशिष्ट और प्रचलित संभागीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। पर इस प्रकार करने से व्यावहारिक स्तर की कई कठिनाइयां हैं। सबसे बड़ी बाधा तो यह है कि तब विशेष प्रतिभाओं का उपयोग सार्वदेशिक स्तर पर न होकर मात्र संभागीय स्तर तक ही सीमित होकर रह जाएगा।


(घ) शिक्षा का सर्वाधिक उचित माध्यम क्या है बताइये?
उत्तर: 
यदि अब भी हम शिक्षा के सारे देश के लिए एक माध्यम स्वीकार कर उसकी व्यवस्था में नहीं जुट जाते, तो चालू पद्धति और समूची शिक्षा अंत में अपनी वर्तमान औपचारिक स्थिति से भी हाथ धो बैठेगी। अत: प्राथमिकता के आधार पर अब इस बात का निर्णय हो ही जाना चाहिए कि शिक्षा का सर्वाधिक उचित माध्यम क्या हो सकता है। स्वंय शिक्षा और उसके साथ भारतीय समाज एंव राष्ट्र का वास्तविक भला तभी संभव हो सकेगा। अन्य कोई उपाय नहीं। इस ज्वलंत समस्या से आंखे चुराए रहने के कारण देश का बहुत अहित हो चुका है और निरंतर हो रहा है। परंतु अब अधिक नहीं होना चाहिए।


(ड़) ‘राष्ट्रभाषा’ का समास विग्रह कीजिये तथा भेद की परिभाषा भी बताइये|
उत्तर: राष्ट्रभाषा - राष्ट्र की भाषा - तत्पुरुष समास
तत्पुरुष समास - जिस समास में अंतिम पद प्रधान रहता है, अर्थात प्रथम पद गौण होता है, उसे तत्पुरुष समास कहते हैं । इस में दोनों पदों के बीच कारक की विभक्ति लुप्त रहती है।

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