कविता का सार
नशीर अकबराबादी की चार नश्में इस पाठ में संकलित हैं। इसका शीर्षक ‘आदमीनामा’ है। आदमी कवि की दृष्टि में कुदरत का सबसे नायाब तोहपफा है। कवि ने आदमी को आईना दिखाकर उसको अपना सही चेहरा दिखाना चाहा है। आदमी में क्या-क्या अच्छाइयाँ हैं, क्या-क्या बुराइयाँ हैं तथा उसकी क्या सीमाएँ एवं संभावनाएँ हैं - कवि ने हमें बखूबी बता दिया है। आदमी अपने-आपको जो कुछ भी समझता हो लेकिन उसे हमेशा याद रखना चाहिए कि सबसे पहले वह एक आदमी है। यह अलग बात है कि आदमी में ही कोई बादशाह है तो कोई फकीर है, कोई कलाकार है तो कोई दगाबाज़ है। आदमी का स्वभाव तरह-तरह का होता है। यह दीगर बात है कि आदमी में ही कोई हिंदू है तो कोई मुसलमान है। कोई मंदिर में बैठकर पूजा-पाठ करता है, घंटी और शंख बजाता है, तो कोई मसजिद में सिजदे करता है, नमाश अदा करता है, अशान देता है और कोई गुरफद्वारे में गुरफ ग्रंथसाहब का सस्वर पाठ करता है। कवि ने आदमी के दुर्गुणों की ओर इशारा करते हुए यह भी कहा है कि आदमी, आदमी होते हुए भी आदमी को ही जान से मारता भी है, आदमी ही तलवार और कटार चलाता है, आदमी किसी की पगड़ी ‘इज्ज़त’ उतार देता है और आदमी वह भी है जो किसी के दुख-दर्द में उसकी चीत्कार सुनकर दौड़ पड़ता है। आदमी में शरीफ लोग भी हैं और कमीने भी हैं।
आदमी अच्छा भी है और बुरा भी है। यह अपनी अपनी समझदारी है कि आदमी आदमी होते हुए भी किस तरह के आदमी का काम करें अशराफ का या कमीनों का। कवि ने आदमी के चरित्रा पर मयान दिया तो उसे पता चला कि कुछ लोग चरित्रावान हैं तो वुफछ चरित्राहीन हैं। काफी तल्ख शब्दों में कवि ने बेबाक कहना उचित समझा और कहा कि कुछ आदमी मसशिद में अज़ान देने या पा!चों वक्त की नमाश अदा करने जाते हैं तो कुछ लोग जूतिया! चुराने भी जाते हैं। और कुछ वे लेाग भी हैं जो न तो नमाज़ अदा करते हैं, न कुरान का पाठ करते हैं, न जूतिया! चुराते हैं बल्कि जूतिया! चुराने वाले को ताड़ या भाप लेते हैं।