किसी भी विषय की अपनी एक लयबद्धता होती है। अपने नियम-आयाम होते हैं। अपने दायरे और क्षेत्र होते हैं। जैसे विज्ञान के लिए कहा जाता है कि विज्ञान किसी भी विषय का सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं क्रमबद्ध ज्ञान होता है। इसी तरह से अगर हम साहित्य की बात करें तो साहित्य अपने आप में भाव समेटे होता है। उसमें एक रस होता है। फिर वह वीर रस, वात्सल्य रस, वियोग, करुणा अथवा प्रेम कुछ भी हो सकता है। हम ऐसे साहित्य की कल्पना नहीं कर सकते हैं, जिसमें कोई भाव ही न हो। इसी तरह से गणित का भी अपना एक गुण होता है। अपनी एक आभा होती है। इसका दायरा असीमित है। यह दायरे को नहीं मानता है। यह ज्ञान का ऐसा किरण पुंज है, जिसकी रोशनी व मार्गदर्शन की सभी विषयों को किसी न किसी स्तर पर ज़रूरत पड़ती रहती है।
गणित का एक गुण यह भी होता है कि इसकी हर अगली सीढ़ी चढ़ने के लिए उसका पिछली सीढ़ी से सामंजस्य होना आवश्यक होता है। गणित टूटी हुई सीढ़ियां कभी नहीं चढ़ता है। यह छलांग नहीं लगाता। संगीत की तरह यह सतत लय मांगता है। ठीक वैसे ही, जैसे किसी संगीतज्ञ के संगीत यंत्र का तार अगर बीच में कहीं बाधित हुआ तो फिर उसकी तरंगें आगे यात्रा नहीं कर पातीं। फिर बाकी सभी तार चाहे जितने नवीन और गुणवत्तापूर्ण क्वालिटी के हों, संगीतज्ञ चाहे जितना प्रवीण हो, किंतु संगीत उत्पन्न नहीं हो पाता है। ज्ञान से परिपूर्ण गणित का भी ऐसा ही स्वभाव है। गणित के किसी भी प्रमेय को सिद्ध करने के लिए उसे कई-कई सिद्ध प्रमेयों का सीढ़ियों की भांति सहारा लेना पड़ता है। अगर बीच मार्ग में कोई एक तर्क फेल हुआ या वह अगले शर्त को संतुष्ट नहीं कर रहा है तो गणित उस संकल्पना को मानने से नकार देता है या फिर समय लेता है और आगे की गुत्थियां सुलझाता है। और जब उनके तार (प्रमेयों को) जोड़ लेता है, और उन तारों से गणित के तर्क व प्रमेय (संगीत) प्रवाहित होने लगते हैं तब गणित उन्हें प्रमाणित करता है। किंतु छलांग नहीं लगाता। भले ही वो चीजें स्पष्ट रूप से सिद्ध साबित हो रही हों।
यहां तक कि न्युटन भी गुरुत्वाकर्षण बल को तभी सिद्ध कर पाए जब वह गणितीय पैमाने पर खरी उतरी और यह सिद्ध हुआ कि धरती के गुरुत्व बल F का मान m.g होता है। जहां धरती पर गुरुत्वीय त्वरण g का मान गणितीय मानक पर 9.8 मी/सेकंड.सेकंड साबित हुआ।
इसी तरह से जब यह पाया गया कि किसी परमाणु की कक्षाओं में रहने वाले ऋणायन इलेक्ट्रॉन नाभिक में स्थित धनायन प्रोटानों के आकर्षण से नाभिक में गिर जाने की बजाय नाभिक में चक्कर लगाते रहते हैं, तो इस गुत्थी को भी तबतक नहीं सुलझाया जा सका, जबतक गणितीय गणना से यह साबित नहीं हो सका कि प्रोटानों के आकर्षण की वज़ह से उसपर लगने वाला अभिकेंद्र (नाभिक की दिशा में) बल उसपर लगने वाले अपकेंद्र (वृत्तीय गति से बाहर की दिशा में उत्पन्न होने वाले) बल के बराबर व विपरीत दिशा में होने के चलते निरस्त हो जाता है।
ब्रम्हांड की उम्र बतानी हो या धरती पर समुंदर की आयु, इनमें से किसी का भी ज्ञान बिना गणित की कसौटी पर खरे उतरे अमान्य होकर रह जाते हैं। इस तरह से हम कह सकते हैं कि गणित की अपनी लय होती है। उसका स्वभाव तरंग गति जैसी होती है। जिस तरह से हारमोनियम, गिटार, संतूर या ढोल से निकली आवाज बीच में कहीं बाधित होने पर अथवा यंत्र के किसी तार के अवरोधित होने पर पूरी तरह से टूट जाती है, उसी तरह से गणित की कसौटी पर भी कोई भी चीज पूर्णतया बाधित होते ही।
संगीत भी कुछ ऐसा ही होता है। संगीत की ध्वनि तरंग एक बार जहां बाधित हुई, वह उसके आगे नहीं जा सकती। संगीत के लिए लयबद्धता आवश्यक है, छलांग नहीं। संगीत बीच में टूटता नहीं बल्कि उसकी तरंगों का ग्राफ भी स्मूद होता है। जितना ही मधुर संगीत, उतनी ही लयबद्धता होती है। और जिसमें लय न हो, वो संगीत भी नहीं होता। संगीत भी गणित की तरह दो तरह से शुरू होता है। संगीत के शुरुआती चरण में भी गीत के बोल में गीतकार या तो कोई बड़ी/मीठी बात निष्कर्ष के तौर पर कह देता है और फिर गीत उसी को साबित करने के इर्द-गिर्द घूमता रहता है या फिर गीत की शुरुआत किसी कल्पना से करता है और अंत आते-आते किसी एक निश्चित निष्कर्ष पर ले जाकर छोड़ता है। उदाहरण के लिए, “गंगा तेरा पानी अमृत!” इस बोल में गीतकार शुरुआती पंक्ति में ही गंगा के जल को अमृत की संज्ञा देकर बात आगे बढ़ाता है और अपनी बात साबित करने के लिए आगे लयबद्ध तर्क देते हुए कहता है,
“खेतों-खेतों तुझसे जागी, धरती पर हरियाली।
फसलें तेरा राग अलापें, झूमे बाली-बाली।
तेरा पानी पीकर मिट्टी, सोने में ढल जाए
युग-युग इस देश की धरती तुझसे जीवन पाए…”
इस तरह से गीतकार अपनी पहली पंक्ति की बात को सिद्ध करने के लिए एक से बढ़कर एक वजनदार तर्क देता है और साबित करता है कि गंगा की पानी में वो सारी गुण हैं, जिसकी अमृत के गुणों (प्राणऊर्जा) में संकल्पना की जाती है। गीतकार के तर्क हैं कि गंगा के पानी से धरती पर हरियाली होती है और फसलें उगती हैं। जिससे मानव जीवन पोषित होता है। इसलिए गंगा के पानी को अमृत की संज्ञा दी जा सकती है। इसी तरह से एक गीत जिसके बोल हैं, “मेरे देश प्रेमियों, आपस में प्रेम करो देश प्रेमियों”। इस गीत में गीतकार कुछ संदेश दे रहा है और अपने इस संदेश के पीछे गीतकार के सुंदर और क्रमबद्ध तर्क कुछ इस तरह से होते हैं,
“देखो, ये धरती, हम सब की माता है
सोचो, आपस में, क्या अपना नाता है
हम आपस में लड़ बैठे,
हम आपस में लड़ बैठे तो देश को कौन सम्भालेगा
कोई बाहर वाला अपने ही घर से हमें निकालेगा
दीवानों होश करो, मेरे देश प्रेमियों
आपस में प्रेम करो देश प्रेमियों…”
इस तरह से गीतकार अपनी गीतों को लयबद्ध और मधुर तर्कों से साबित करता है। उसकी लयबद्धता, मधुरता और तर्क बीच में टूटते नहीं हैं। वह सुनने वालों को न सिर्फ एक सुखद अनुभूति कराता है बल्कि एक ऊंचा और उपयोगी संदेश भी देता है। अगर हम गौर करें तो पाएंगे कि गणित भी तो ऐसे ही करता है। गणित भी किसी प्रमेय को सिद्ध करने के लिए शुरुआत में ही कोई एक संकल्पना करता है और तर्कों व अन्य प्रमेयों की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए लयबद्ध तरीके से उसे साबित करता है। इसलिए गणित सिर्फ ज्ञान ही नहीं है। यह एक संगीत भी है। इसलिए यह कथन बिल्कुल सत्य है कि गणित ज्ञान का संगीत है।