‘निबंध’ शब्द ‘नि’ और ‘बंध’ के योग से बना है, जिसका अर्थ है - बँधा हुआ। यह साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है। इसे लिखने के लिए अध्ययन और अभ्यास की आवश्यकता होती है। अच्छे निबंध में निम्नलिखित गुणों का समावेश होना चाहिए :
आइए निबंध् के कुछ उदाहरण देखें:
1- दीपों का पर्व—दीपावली
भारत त्योहारों एवं पर्वों का देश है। यहाँ साल का शायद ही कोई ऐसा महीना हो जब कोई न कोई पर्व या त्योहार न मनाया जाता हो। यहाँ मनाए जानेवाले त्योहारों में रक्षाबंधन, दशहरा, दीपावली, ईद, गुरुपर्व, होली, बैसाखी आदि पूरे उत्साह एवं उमंग के साथ मनाए जाते हैं। इनमें से दीपावली एक अत्यंत लोकप्रिय त्योहार है। हिंदुओं के त्योहारों में इसे सबसे महत्वपूर्ण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
दीपों के पर्व दीपावली की महत्ता, व्यापकता तथा लोकप्रियता अद्वितीय है। यह त्योहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। अमावस्या की काली रात में असंख्य जगमगाते दीप, मोमबत्तियाँ इस रात की कालिमा को खत्म करने का प्रयास करते हैं। आकाश में जगमगाते असंख्य तारे तथा धरती पर जलते असंख्य दीप एक अलग ही नजारा प्रस्तुत करते हैं।
भारत में मनाए जानेवाले कुछ त्योहार ऐसे हैं, जिनके पीछे कुछ न कुछ पौराणिक दंतकथाएँ जुड़ी हैं। दीपावली का त्योहार भी इससे अछूता नहीं है। इस त्योहार के पीछे जुड़ी पौराणिक कथा यह है कि भगवान श्री राम रावण को मारकर इसी दिन लक्ष्मण और सीता के साथ अयोध्या वापस आए थे। उनके आगमन से प्रसन्न अयोध्यावासियों ने घी के दीप जलाए। इससे सारी अयोध्या सज गई। लोगों ने एक-दूसरे को मिठाइयाँ खिलाई। तभी से दीपावली का त्योहार मनाने की परंपरा चल पड़ी। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ भी पूरा हुआ था। एक अन्य पौराणिक कथा के आधार पर इसी दिन सागर-मंथन के बाद लक्ष्मी जी का उदय हुआ था। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद को इसी दिन निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन समुदाय भी इस त्योहार को मनाता है क्योंकि महावीर स्वामी को इसी दिन निर्वाण प्राप्त हुआ था।
इस त्योहार को मनाने के लिए कई सप्ताह पहले ही सफ़ाई आरंभ कर दी जाती है। इस दिन प्रात:काल से खुशी का वातावरण होता है। बच्चे नहा-धोकर, सा.फ कपड़े पहनकर माता-पिता के साथ आतिशबाजी की वस्तुएँ, दीप, मोमबत्तियाँ, खील, बताशे तथा पूजा का सामान खरीदने निकल जाते हैं। इस दिन बाजारों की सजावट देखते ही बनती है। बच्चों का उत्साह, दिन चढऩे के साथ-साथ बढ़ता जाता है। शाम होने पर नए कपड़े पहनकर वे माता-पिता के साथ लक्ष्मी और गणेश की पूजा करते हैं। इसके बाद दीप जलाकर घरों में विभिन्न स्थानों पर तथा बाहर रखते हैं। फिर वे अपनी मनपसंद आतिशबाजियाँ चलाने में जुट जाते हैं। इसी का तो वे मानो इंतजार करते हुए दिखाई पड़ते हैं। इसके बाद वे मिठाइयाँ खाते हुए खुशियाँ मनाते हैं, लोग एक-दूसरे को दीपावली की बधाई देते हुए मिठाइयाँ तथा उपहार देते हैं। इस दिन लोग आपसी मन-मुटाव भुलाकर एक-दूसरे से गले मिलते हैं। वणिक वर्ग के लिए यह त्योहार बहुत महत्वपूर्ण है। वे अपने पुराने बही - खातों का समापन कर के न, बही-खाते बनाते हैं। तांत्रिक वर्ग अपनी कला की सिद्धि के लिए मंत्रों का जाप करते हैं। चोर भी इस रात में हाथ आजमाने से नहीं चूकते। दीपावली की इस रात में कुछ लोग अधिक लाभ पाने के लिए जुआ खेलते हैं, जो अच्छी आदत नहीं है। वास्तव में, इस दिन हमें अपनी बुराइयों को त्यागने का प्रण लेना चाहिए।
दीपावली उल्लास और समृद्धि का प्रतीक है। यह अत्यंत पावन पर्व है। इस दिन जुआ जैसी बुराइयों को त्यागकर इस पर्व को अत्यंत सादगी एवं पवित्रता से मनाना चाहिए, जिससे यह हमारे लिए अधिकाधिक शुभ हो।
2- रंगों का त्योहार—होली
त्योहारों एवं पर्वों के देश भारत में समय - समय पर त्योहार मनाए ही जाते रहते हैं। इन त्योहारों में होली का त्योहार अपना विशेष महत्व रखता है। यह त्योहार अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है। हर भारतवासी इसे उल्लासपूर्वक मनाता है। इस दिन बच्चों की उमंग तो देखने लायक होती है।
रंगों का त्योहार होली जाड़ा बीतने पर वसंत ऋतु में मनाई जाता है। भारतीय महीनों के अनुसार यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इससे वसंत ऋतु की सुंदरता और भी बढ़ जाती है। वास्तव में यह त्योहार वसंत ऋतु का दूत बनकर आता है। इस समय वातावरण में न अधिक सर्दी होती है और न अधिक गर्मी। इस समय दो ऋतुओं का संधिकाल होता है। इस समय प्रकृति भी पूर्ण सौंदर्य को प्राप्त कर चुकी होती है। चारों ओर फूलों से युक्त लताएँ, फलों से लदे वृक्ष होते हैं। खेतों में फसलें पकने को तैयार होती हैं। यह देखकर किसान भी खुश रहते हैं।
इस त्योहार के पीछे एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु नामक दैत्यराज ईश्वर का कट्टर विरोधी था। वह स्वयं को ईश्वर समझता था। वह प्रजा पर तरह-तरह के अत्याचार करता था। वह लोगों से अपनी पूजा कराता था। ईश्वर की भक्ति करनेवालों को वह तरह-तरह से दंडित करता था। संयोग ऐसा कि उसी का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर का परम भक्त था। वह सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति करता था। उसे मारने के लिए हिरण्यकशिपु ने अनेक उपाय किए, पर सभी विफल रहे। उसकी बहन होलिका को वरदान था कि आग उसे नहीं जला सकेगी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन को प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठने का आदेश दिया। उसका सोचना था कि इस तरह प्रह्लाद आग में भस्म हो जाएगा और होलिका पर आँच भी नहीं आएगी, किंतु ईश्वर की महिमा देखिए कि होलिका आग में जलकर भस्म हो गई और प्रह्लाद बच गया। इस तरह बुराई पर अच्छाई की जीत हुई्र इसी याद में होली से एक दिन पहले रात में होलिका-दहन करने का रिवाज चल पड़ा। तब से प्रतिवर्ष होलिका-दहन किया जाता है।
इसके अगले दिन होली मनाई जाती है। लोग रंग-गुलाल लेकर घरों से निकल पड़ते हैं। वे एक-दूसरे के साथ खूब रंग खेलते हैं। नर-नारी, युवा-युवतियाँ, बच्चे-बूढ़े सभी रंग-गुलाल लेकर एक-दूसरे के साथ रंग-बिरंगे हो जाते हैं। वे ढोल-मजीरे के साथ फाग गाते फिरते हैं। उनका शैर-भाव धुल चुका होता है। वे एक-दूसरे के मुँह पर गुलाल मलकर गले मिलते हैं और होली की मुबारकबाद देते हैं। इस अवसर पर मिठाई या विशेष पकवान गुझिया खाने-खिलाने का भी रिवाज है। इस समय लोगों के चेहरे रंग-गुलाल में इतने डूबे होते हैं कि जिनको पहचानना मुश्किल हो जाता है।
इस दिन कुछ लोग शराब पीकर गाली-गलौच करते हैं तथा एक-दूसरे के ऊपर रंग-अबीर लगाने की बजाए पेंट, कालिख तथा दूषित पदार्थ मल देते हैं। ये सब दूषित पदार्थ आँखों तथा त्वचा के लिए हानिकारक होते हैं। यह अच्छी प्रथा नहीं है। होली रंगों का त्योहार है। खुशी से भरपुर इस त्योहार को हमें पवित्रता के साथ मनाते हुए किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जिससे उसका मन दुखे। हमें इस त्योहार को हँसी-खुशी से मनाना चाहिए।
3- पर्यावरण प्रदूषण
'पर्यावरण' दो शब्दों - परि और आवरण से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है - चारों ओर का आवरण या घेरा। इस तरह पर्यावरण प्रदूषण का अर्थ है—वातावरण का प्रदूषित होना। मनुष्य आजकल ऐसे-ऐेसे काम करता जा रहा है, जिससे वातावरण दूषित होता जा रहा है। प्रदूषण की इस समस्या से भारत ही नहीं वरन समूचा विश्व प्रभावित हो रहा है। प्रकृति ने मनुष्य को वायु, जल, वनस्पति, मृदा आदि शुद्ध् रूप में प्रदान प्रदान किया था, पर मनुष्य ने इनको दूषित करके अपने तथा आनेवाली पीढ़ी के लिए खतरा मोल लिया है। मनुष्य ने अपने स्वार्थपूर्ण कार्यों से कई प्रकार के प्रदूषण पैदा किए है। ये हैं - वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तथा भूमि प्रदूषण।
इस बात से तनिक भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विज्ञान के आविष्कारों ने मानव-जीवन को सुखमय बनाया है, परंतु मनुष्य ने आर्थिक प्रगति की आड़ में अनेक कल-कारखानों तथा उद्योगों का विकास किया। इनकी स्थापना के लिए उसने वनों का निर्दयतापूर्वक सफ़ाया किया। इससे एक ओर जहाँ जीवनदायिनी ऑक्सीजन की कमी हुई, वहीं इन फ़ैक्टरियों की ज़हर उगलती चिमनियों ने जहरीली गैसों में वृद्धि की। इसके अलावा मोटर-गाडिय़ों की बढ़ती संख्या तथा उनसे निकलनेवाला धुआँ वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। जनसंख्या में हो रही लगातार वृद्धि के कारण आवास की समस्या गंभीर होती जा रही है। इस समस्या के निवारण के लिए हरे-भरे वृक्षों को काटकर कंकरीट के जंगल बनाए जा रहे हैं, जिनसे वर्षा में कमी, तापमान में वृद्धि प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं।
कल-कारखानों से जहाँ एक ओर जहरीला धुआँ निकलता है, वहीं दूसरी ओर उनका गंदा पानी नदियों में मिलकर पीने के पानी को प्रदूषित करता है। इस दूषित पानी के कारण मनुष्य के साथ-साथ उसमें रहनेवाले जलजीव भी प्रभावित हो रहे हैं। इसके अलावा जल-कोतों में नहाने, कपड़े धोने, उनके आस-पास मल त्यागने, जानवरों को नहलाने, शवों को जलाकर
उनकी राख बहाने, पूजा-पाठ की अपशिष्ट सामग्री, फूल-मालाओं, मूर्तियों आदि के विसर्जन से जल प्रदूषण बढ़ता ही जा र द्दद्म है। कल-कारखानों का शोर तथा मोटर-गाडिय़ों के हाङ्खर्न की आवाज से ध्वनि प्रदूषण को लगातार बढ़ावा मिल रहा है। इनके अलावा लाउडस्पीकरों, रेडियो, टेपरिकार्डर आदि से ध्वनि प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इस कारण लोगों के सुनने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो रही है।
बढ़ती जनसंख्या की खाद्य संबंधी आवश्यकता को पूरा करने के लिए किसानों द्वारा रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। इसके अलावा फसलों को बचाने के लिए कीटनाशकों के प्रयोग से लगातार मृदा प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, जिससे धरती की उपज बुरी तरह प्रभावित हो रही है। इससे पैदा होनेवाली सब्जियों और फलों को खाने से हमारा स्वास्थ्य खराब हो रहा है।
पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए हम मनुष्यों को अत्यधिक जागरूक होना पड़ेगा। सर्वप्रथम हमें वृक्षों की कटाई बंद कर के वृक्षारोपण करना होगा। जनसंख्या नियंत्रण पर बल देना होगा। कल-कारखानों से निकले प्रदूषित जल को नदियों में मिलने से रोकना होगा ताकि हम अपने तथा आनेवाली पीढ़ी को प्रदूषणमुक्त वातावरण प्रदान कर सकें।
4- दहेज - एक सामाजिक कुप्रथा
मनुष्य को सभी प्राणियों में बुद्धिमान माना जाता है। वह सामाजिक प्राणी है, जो समाज में रहकर समाज के लिए उपयोगी प्रथाओं तथा परंपराओं को प्रचलन में लाता है। इन्हीं में से कुछ प्रथाएँ समाज के लिए अत्यंत उपयोगी बन जाती हैं, जबकि कुछ अन्य समाज के लिए हानिकारक बन जाती हैं। इन प्रथाओं से समाज शीघ्र मुक्ति पाना चाहता है। ऐसी ही एक शह्नक्तप्रथा है, जिसे हम दहेज प्रथा के नाम से जानते हैं।
वास्तव में कन्या पक्ष की ओर से वर-वधू के भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए उपहारस्वरूप कुछ वस्तुएँ तथा नकद राशि दी जाती थी, जिसे 'दहेज' कहा जाता था, पर कालांतर में यह प्रथा विकृत रूप धारण कर गई और वर पक्ष द्वारा इसकी माँग की जाने लगी। वर पक्ष के लोग दहेज की आड़ में इतनी मोटी रकम माँगने लगे, जिसे पूरा करना कन्या के परिवारवालों के वश में नहीं होता। दहेज के अभाव में योग्य कन्याओं का बेमेल या अयोग्य वर के साथ विवाह किया जाने लगा। आज वर पक्ष के लिए दहेज सामाजिक प्रतिष्ठा बन गया है। जो कन्या पक्ष से जितना अधिक दहेज ले लेता है, वह स्वयं को उतना ही प्रतिष्ठित समझता है। वर पक्ष विवाह तय करने से पूर्व कन्या पक्ष की आर्थिक स्थिति को देखता है। ऐसे में सपन्न वर्ग यह सौदा खरीद लेता है, पर समस्या मध्यम और निम्न वर्ग के समक्ष आ खड़ी होती है। ऐसे में वह कज्र्ज लेकर वर पक्ष की माँग पूरी करे या खेती-बारी जैसी अपनी संपत्ति औने-पौने दाम में बेचे। कन्या पक्ष से एक बार दहेज मिल जाने पर ससुराल वर पक्ष को कामधेनु नजर आने लगती है। वह मौके-बेमौके अनुचित माँग करने लगता है जो सर्वथा अनुचित होता है। ऐसे में ससुराल में कन्या को अपमानित किया जाता है तथा उसे आत्महत्या तक करने के लिए विवश किया जाता है। समाचार-पत्रों में ऐसी घटनाएँ आए दिन प्रकाशित होती रहती हैं।
दहेज प्रथा भारतीय समाज के माथे पर कलंक के समान है। यह प्रथा समाज को लकड़ी में लगे घुन के समान खोखला करती जा रही है, जिससे समाज का एक पक्ष बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। दहेज प्रथा अब एक सामाजिक बुराई बन चुकी है। इसे रोकने के लिए देश के युवाओं को दहेज न लेने के लिए स्वेच्छापूर्वक आगे आना होगा। इसके अलावा लड़कियों को स्वावलंबी बनाना होगा, जिससे वे दहेज लोभी युवा से विवाह करने से पूर्व स्वयं उसे मना करने की स्थिति में हो सके। सरकार को ऐसे युवाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिन्होंने दहेज लिए बिना विवाह किया।
वास्तव में विवाह ऐसा संस्कार है, जिसमें दो आत्माओं का मिलन होता है। इस मिलन में हमें दहेज को बाधक नहीं बनने देना चाहिए।
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