प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त बुद्धचरित पुस्तक से लिया गया है. इस अध्याय में सिद्धार्थ के गृह-त्याग का वर्णन किया गया है. प्रस्तुत अध्याय के अनुसार शाक्त पुत्र सिद्धार्थ को विविध प्रकार के आमोद-प्रमोद तथा भोग-विलासों द्वारा लुभाने का प्रयत्न किया गया था, परन्तु उसे उनमें न शांति मिली न सुख. जैसे कोई सिंह विषाक्त बाण के लग जाने पर बहुत बेचैन हो जाता है, वैसे ही राजकुमार बेचैन हो गया था. इसलिए उसके मन में शांति प्राप्ति के लिए वन की ओर जाने की इच्छा हुई. सिद्धार्थ ने अपने कुछ मित्रों को साथ लिया और वन जाने के लिए महाराज से आज्ञा माँगी. तत्पश्चात आज्ञा मिलते ही राजकुमार सिद्धार्थ अपने मित्रों के साथ सुन्दर घोड़े पर सवार राजभवन से निकला और सुदूर वन-प्रांतर की ओर चल पड़ा. राजकुमार सिद्धार्थ ने जब रास्ते में जुते हुए खेत, खेतों में हल से उखड़ी हुई घास, अन्य खरपतवार और हल की जुताई से मरे हुए कीड़े-मकोड़े को देखा तो उसका हृदय द्रवित हो उठा. उसका मन शोक से भर गया. वह घोड़े की पीठ से उतर गया और ज़मीन पर इधर-उधर घुमने लगा. राजकुमार सिद्धार्थ का मन जन्म और मृत्यु के बारे में सोचते-सोचते बहुत ही व्याकुल हो गया.
इसके बाद राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने मन को एकाग्र करने की इच्छा से अपने मित्रों को वहीं रोककर खुद सामने जामुन के के नीचे बैठकर ध्यान करने लगा. थोड़ी देर ध्यान करने से वह कुछ स्थिर हुआ तथा तत्पश्चात वह राग-द्वेष से मुक्त होकर तर्कसंगत विचारों में डूब गया. धीरे-धीरे राजकुमार सिद्धार्थ ने मानसिक समाधि प्राप्त की और उसे शान्ति और सुख का अनुभव हुआ. अब वह हर्ष, संताप और संदेह से मुक्त था. इस समय वह न निद्रा में था, न तन्द्रा में, अब उसके मन में किसी के लिए न राग था और न द्वेष.
इस मानसिक समाधि से सिद्धार्थ की बुद्धि जब निर्मल हो गई तो उसे भिक्षु वेश में एक पुरुष दिखाई दिया. वह और किसी को नहीं दिखाई पड़ रहा था. सिद्धार्थ ने उस पुरुष से पूछा की आप कौन हैं ? तो उसने बताया कि मैं जन्म-मृत्यु से डरा हुआ एक संन्यासी हूँ, मैं मोक्ष की खोज में हूँ, अपने-पराए के प्रति समान भाव रखते हुए अब मैं राग-द्वेष से मुक्त हो गया हूँ, अतः अब विचरण ही करता रहता हूँ, कभी किसी वन-प्रांतर में रहता हूँ, सभी आशाओं से मुक्त, संग्रहशीलता से मुक्त, अनायास जो कुछ मिल जाए उसे ही खाकर मैं मोक्ष की खोज में घूमता रहता हूँ. इतना कहते-कहते वह संन्यासी राजकुमार सिद्धार्थ के देखते-देखते अंतर्धान हो जाता है. उस संन्यासी के अदृश्य हो जाने के बाद राजकुमार को बहुत ही प्रसन्नता हुई. उसे धर्म का ज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए उसने अब अपने मन में घर त्यागने का संकल्प कर लिया था. राजकुमार जब अपने राजभवन की ओर जा रहा था तो रास्ते में किसी राजकन्या ने उसे देखा और हाथ जोड़कर कहा कि हे विशाल नयन ! आप जिस स्त्री के पति हैं, वह निश्चित ही निवृत्त है, सुखी है. उस कन्या की बातों में निवृत्त शब्द के श्रवण मात्र से परम शान्ति का अनुभव हुआ और वह निर्वान के विषय में सोचने लगा.
राजकुमार ने सीधा राजसभा में पहुँच कर राजा को प्रणाम किया और फिर निवेदन किया कि हे नरदेव, मैं अब मोक्ष-प्राप्ति के लिए संन्यास लेना चाहता हूँ, आप कृपाकर मुझे आज्ञा प्रदान करें, क्यूंकि यह निश्चित है कि एक न एक दिन मेरा आपका वियोग होगा, अतः अभी जाने की आज्ञा प्रदान कर मुझे उपकृत करें. राज कुमार की बातों को सुनकर राजा के होश उड़ जाते हैं. वे विभिन्न तर्क देते हुए राजकुमार को ऐसा करने से मना करते हैं. परन्तु राजकुमार ने उनके सभी तर्क व बातों को निरस्त कर देता है. आखिरकार, राजकुमार ने छंदक (घोड़े का रक्षक) को आदेश देकर कंथक नामक घोड़े को मंगवाया और उस पर सवार होकर दृढ़ संकल्प के साथ अपने प्रियजनों को त्यागकर राजमहल से दूर निकल गया.
कुछ देर बाद सामने भार्गव ऋषि का आश्रम दिखाई दिया. आश्रम के द्वार पर पहुंचकर तपस्या को सम्मान देने के लिए वह विनम्रभाव से घोड़े की पीठ से उतर गया. तत्पश्चात राजकुमार छंदक को संबोधित करते हुए कहता है कि हे सौम्य, गरुड़ के समान द्रुतगति से चलने वाले इस घोड़े के साथ-साथ दौड़कर तुमने जो मुझमें भक्ति दिखाई है, उसने मेरा मन जीत लिया है. अब तुम घोड़े को लेकर लौट जाओ, मुझे मेरा गंतव्य मिल गया है. छंदक और राजकुमार के मध्य बात-चित हो ही रही थी की इतने में एक वहां एक शिकारी प्रकट हो गया, जो काषाय वस्त्र धारण किए हुए था. राजकुमार ने उस शिकारी से परस्पर वस्त्र बदलने का निवेदन करता है, तो शिकारी राजकुमार की बातों से सहमत हो जाता है. तत्पश्चात दोनों ने परस्पर वस्त्र बदले. इसके बाद शिकारी वह से चला जाता है. यह सब देखकर छंदक आश्चर्यचकित रह गया. छंदक ने काषाय वस्त्रधारी राजकुमार को विधिवत प्रणाम किया. राजकुमार ने उसे प्रेमपूर्वक विदा किया और स्वयं अकेला आश्रम की ओर चल पड़ा.
आश्रम में प्रवेश करने के बाद आश्रमवासियों ने सिद्धार्थ का स्वागत किया. सिद्धार्थ ने भी सभी आश्रमवासियों का अभिनन्दन किया. प्रारंभिक परिचय के बाद सिद्धार्थ ने आश्रम के तपस्वी साधकों से कहा --- आज मैं पहली बार आश्रम देख रहा हूँ. मैं यहाँ के नियमों से नितांत अपरिचित हूँ. कृपया आप बताइए कि आपका लक्ष्य क्या है ? आप क्या कर रहे हैं ? तभी एक तपस्वी ने उन्हें विभिन्न प्रकार की साधनाओं के विषय में बताया और उनके फलों की जानकारी भी दी. राजकुमार सिद्धार्थ ने तपस्वियों की सारी बातें ध्यान से सुनीं. तत्पश्चात उसने सोचा कि यदि इस लोक में शरीर पीड़ा सहन करना धर्म है, तो निश्चित ही शरीर के सुख को अधर्म कहना चाहिए. उन्हें लगा यह शरीर तो मन के अधीन है. मन के अनुसार ही यह कर्मों में प्रवृत है और उनसे निवृत्त होता है, अतः मन का दमन करना ही उचित होगा. राजकुमार ने इस आश्रम में कई दिनों तक रहकर यहाँ की चल रही साड़ी तप-विधियों का गहन अध्ययन और परीक्षण किया, किन्तु उन्हें संतोष नहीं मिला. अतः एक दिन उसने इस तपोवन को छोड़ देने का निश्चय किया.
अपने स्वामी (राजकुमार सिद्धार्थ) के तपोवन जाने के बाद अश्व-रक्षक छंदक धीरे-धीरे अपने घोड़े के साथ कपिलवस्तु में प्रवेश किया. राजकुमार के जाने के बाद महल में सभी शोक में डूब गए. पुत्र को प्राप्त करने के लिए राजा शुद्धोदन देव-मंदिर में हवन आदि अनुष्ठान कर रहे थे. परन्तु जब उनहोंने सुना कि छंदक और कंथक लौट आए हैं और कुमार ने संन्यास ग्रहण कर लिया है तो वे व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े. तत्पश्चात राजा शुद्धोदन की आज्ञा से राजपुरोहित आर राजमंत्री दोनों राजकुमार सिद्धार्थ की तलाश में तापवन अथवा उस आश्रम की तरफ चलने लगे, जहाँ पर राजकुमार गए थे. आश्रम से जब पता चला कि राजकुमार अराड मुनि के आश्रम चले गए हैं, तो वे लोग पुनः राजकुमार की खोज में निकल पड़े. तभी रास्ते में एक वृक्ष के नीचे राजकुमार उन्हें बैठे मिल गया. राज महल से आए दोनों अपने घोड़े से उतर कर राजकुमार की आज्ञा प्राप्त करके उनके पास बैठ गए. राजपुरोहित आर राजमंत्री दोनों ने मिलकर राजकुमार को बहुत विनम्र और तर्कपूर्ण भाव से समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु राजकुमार ने अपनी बातों में अंतिम रूप से यह कहकर आगे बढ़ गए कि धर्म की खोज में मैं वन में आया हूँ. मेरे लिए अब अपनी प्रतिज्ञा को तोड़कर घर लौटना उचित नहीं होगा. मैं अब घर और बंधुओं के बंधन में नहीं पड़ना चाहता.
राजकुमार सिद्धार्थ अपने कर्म मार्ग पर चलते-चलते उत्ताल तरंगों वाली गंगा को पार किया और धन-धान्य से संपन्न राजगृह नामक नगर में प्रवेश किया. जब मगध के राजा बिम्बिसार ने राजकुमार सिद्धार्थ को देखा तो अपने अनुचरों को आज्ञा दी कि जाओ और पता लगाओ, वह कहाँ जा रहा है ? तभी राजकर्मचारी महल से बाहर आए और परिव्राजक वेशधारी सिद्धार्थ के पीछे-पीछे चलने लगे. उनहोंने देखा कि परिव्राजक की दृष्टि स्थिर है, वाणी मौन है, गति नियंत्रित है, वे भिक्षा मांग रहे हैं, भिक्षा में जो कुछ मिलता है, वह उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं. भिक्षा में मिले अन्न को लेकर वे एक पर्वत पर गए. एकांत निर्झर के पास बैठकर उन्होंने भोजन किया और फिर वे पांडव पर्वत पर जाकर बैठ गए. काषाय वेशधारी सिद्धार्थ पर्वत पर वैसे ही सुशोभित हो रहे थे, जैसे कि उदयाचल पर बालसूर्य प्रकट हो गया हो. जब राजकर्मचारियों ने बिम्बिसार को सूचित किया तो वे अपने साथ कुछ अनुचरों को लेकर खुद बोधिसत्व (सिद्धार्थ) से मिलने के लिए चल पड़े. वहां पहुंचकर राजा बिम्बिसार ने राजकुमार सिद्धार्थ को उसके चुने हुए धर्म के मार्ग से परे हटकर राजकाज के वर्चस्व को आगे बढ़ाने का सलाह दे रहा था. काफी देर तक बातें सुनने के पश्चात राजकुमार सिद्धार्थ ने राजा बिम्बिसार को संबोधित करते हुए अंतिम रूप से कहता है कि हे राजन ! अब मुझे ठगा नहीं जा सकता. मैं वह सुख भी नहीं चाहता, जो दूसरों को दुःख देकर प्राप्त किया जाता है. मैं यहाँ आया था और अब मोक्षवादी अराड मुनि से मिलने जा रहा हूँ. आपका कल्याण हो. आप मुझे कठोर सत्य कहने के लिए क्षमा करें. कुमार भिक्षु के ये आशीर्वचन सुनकर मगधराज ने बड़े अनुनय के साथ हाथ जोड़े और कहा – आप अपना अभीष्ट प्राप्त करें, कृतार्थ हों और समय आने पर मेरे ऊपर भी अनुग्रह करें. तत्पश्चात दोनों अपने-अपने मार्ग के ओर प्रस्थान कर जाते है...||
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