♦ अरब और मंगोल
जिस समय हर्ष उत्तर भारत में शासन कर रहे थे तथा विद्वान हुआन-त्सांग नालंदा में अध्ययन कर रहा था, उस समय अरब में इस्लाम अपने प्रभाव बढ़ा रहा था। उसे भारत आने में 600 वर्ष लग गए। अरबवाले भारत के उत्तर-पश्चिमी छोर पर ठहर गए। मध्य एशिया से आई तुर्क जातियाँ इस्लाम को लेकर भारत आईं। अरबों ने अनेक इलाके जीते, पर वे भारत में सिंध से आगे न बढ़ सके। सिंध बगदाद की केंद्रीय सत्ता से अलग होकर छोटा-सा स्वतंत्र राज्य बन गया। भारत और अरब के बीच यात्रियों का आना-जाना, राजदूतावासों की अदला-बदली हुई। भारतीय पुस्तकों का अरबी में अनुवाद हुआ। भारत के पश्चिमी तट से व्यापार करनेवाले राष्ट्रकूटों ने भी इसमें हिस्सा लिया।
धीरे-धीरे भारतीयों को इस्लाम की जानकारी होती गई। इस्लाम धर्म के प्रचारकों का स्वागत हुआ। मस्जिदें बनीं। शासन या जनता ने इसका विरोध नहीं किया। सभी धर्मों का आदर करना भारत की प्राचीन परंपरा थी। इस तरह राजनीतिक ताकत बनने के का.फी पूर्व इस्लाम भारत आ चुका था।
♦ महमूद ग़जनवी और अफ़गान
लगभग तीन सौ सालों तक भारत विदेशी आक्रमण से बचा रहा। 1000 ई. के आसपास महमूद ग़जनवी ने भारत पर आक्रमण किया। गज़नवी तुर्क था, जिसने मध्य एशिया में अपनी ताकत बढ़ा ली। उसके निर्ममतापूर्ण आक्रमण में बहुत खून-खराबा हुआ। वह हर बार खज़ाना लूटकर ढेरों धन अपने साथ ले गया। हिंदू धूल के समान बिखर गए थे। उनके मन में मुसलमानों के प्रति न.फरत भर चुकी थी। गज़नवी ने उत्तर भारत के एक टुकड़े को लूटा था, जो उसके रास्ते में था।ग़जनवी ने पंजाब और सिंध को अपने राज्य में मिला लिया, पर वह कश्मीर को न जीत सका। काठियावाड़ में सोमनाथ से लौटते समय रेगिस्तानी इलाके में वह पराजित हुआ और फिर वापस नहीं आया। उसकी मृत्यु 1030 में हुई। इसके 160 वर्षों बाद शहाबुदीन नामक अफगान ने गज़नी पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उसने लाहौर और दिल्ली पर आक्रमण किया। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान ने उसे पराजित किया। वह अफगानिस्तान लौट गया, पर एक साल बाद उसने फिर आक्रमण किया। 1192 ई में वह दिल्ली का शासक बन गया।
शहाबुदीन दवारा दिल्ली को जितने के बाद भी दक्षिण भारत शक्तिशाली बना रहा। यहाँ अफगानों को कब्ज़ा करने में डेढ़ सौ वर्षों का समय लग गया, फिर भी दिल्ली महक्रवपूर्ण बनी रही। बारहवीं शताब्दी में आनेवाले अफगान हिंदू आर्य जाति के लोग थे तथा भारत की जनता से उनका निकट का संबंध था।
चौदहवीं शताब्दी के अंत में तुर्क-मंगोल, तैमूर, ने उत्तर की ओर से आक्रमण किया और दिल्ली की सत्ताको ध्वस्त कर दिया। वह जिस रास्ते से आया उसे वीरान कर दिया। दिल्ली मुर्दों का शहर बन चुकी थी। उसके आक्रमण से दिल्ली और पंजाब के कुछ भागों को भयानक विपत्ति का सामना करना पड़ा। दक्षिण भारत में चौदहवीं शताब्दी में बहमनी और विजयनगर नाम के दो बड़े हिंदू राज्य कायम हुए थे।
दिल्ली की बर्बादी के बाद उत्तर भारत कमज़ोर पड़ गया। इस समय दक्षिण भारत की शक्तिशाली रियासत विजयनगर ने बहुत-से हिंदू शरणाथयों को अपनी ओर आकर्षित किया। यह बहुत सुंदर तथा समृद्ध शहर था। विजयनगर की तरक्की के समय उत्तरीय पहाडिय़ों से होकर एक हमलावर दिल्ली के पास पानीपत के मैदान में आया। उसने 1526 में दिल्ली को जीतकर मुगल साम्राज्य की नींव डाली। यह तैमूर वंश का तुर्क-मंगोल बाबर था।
♦ समन्वय और मिली-जुली संस्कृति का विकास - कबीर, गुरु नानक और अमीर खुसरो
इस्लाम भारत में कुछ सदियों बाद आया, इसलिए यह कहना गलत है कि इस्लाम ने भारत पर आक्रमण किया। भारत पर तुर्कों, अफ़गानो उसके बाद तुर्क-मंगोल या मुगल आक्रमण हुए। अफ़गानो को सीमावर्ती समुदाय कहा जा सकता है। मुगल भारत के लिए अजनबी थे, पर वे भारतीय ढाँचे में समा गए और मुगल युग की शुरुआत की। अफ़गानो और उनके साथ आए लोगों का भी भारतीयकरण हो गया। वे भारत को अपना घर और बाकी दुनिया को विदेश मानने लगे। अधिकतर राजपूतों के साथ उन्होंने अच्छे संबंध कायम कर लिए, पर कुछ इनके खिलाफ भी थे।
इस मुस्लिम शासन में देश में प्रशासन मज़बूत हुआ। यातायात के साधन सुधरे। अफगान शासकों में शेरशाह सबसे योग्य था। उसके द्वारा लागू की गई मालगुजारी व्यवस्था का विकास अकबर के काल में हुआ। टोडरमल की नियुक्ति शेरशाह ने ही की थी। उसने हिंदुओं की क्षमता का भरपूर उपयोग किया। अफ़गानो की जीत का भारत और धर्म पर यह प्रभाव पड़ा कि अफगान शासन में बसने वाले लोग दक्षिण भारत की ओर चले गए। बचे हुए लोगों ने विदेशी प्रभावों से बचने के लिए वर्ण-व्यवस्था को कठोर बना दिया। धीरे-धीरे लोगों ने समन्वय की नीति अपनाई। इससे इनका खान-पान और वास्तुकला प्रभावित हुआ। भारतीय संगीत प्रभावित हुआ। फ़ारसी दरबार की सरकारी भाषा बन गर्ई। फारसी के अनेक शब्द आम बोलचाल के शब्द बन गए।
मुगलकाल में ही परदा-प्रथा की शुरुआत हुई। यह हिंदुओं और मुसलमानों में पद और आदर की निशानी समझा जाता था। मुसलमानों के प्रभाववाले क्षेत्रों में परदा-प्रथा अधिक प्रभावी हुई। आश्चर्य की बात यह है कि पंजाब और सीमावर्ती मुस्लिम इलाकों में परदे की प्रथा उतनी कड़ी न थी। दिल्ली में अफ़गानो के प्रतिष्ठित होने का ज़्यादा असर उच्च वर्गों तथा अमीर उमरावों में हुआ। इनका असर विशाल देहाती जनता पर कम हुआ। इसके प्रभावस्वरूप आर्य संस्कृति का एक बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत की ओर चला गया जो बाद में हिंदूृ रूढि़वादिता का घर बना।
तैमूर के हमले से कमज़ोर दिल्ली की सल्तनत के काल में ही जौनपुर में एक मुस्लिम रियासत बनी जो कला, संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता का केंद्र बनी। यहाँ आम भाषा हिंदी को प्रोत्साहित किया गया तथा हिंदू-मुसलमानों के बीच समन्वय का प्रयास किया गया। इसी समय ऐसे ही कार्यों के लिए एक कश्मीरी शासक जैनुल आबदीन को बहुत यश मिला।
इस समय भारतीय विदेशी विचारों को अपनाने के साथ अपनी सभ्यता और संस्कृति के साथ तालमेल बस्ठा रहे थे। इसी समय कुछ समाज-सुधारकों का उदय हुआ, जिन्होंने इस समन्वय का समर्थन तथा वर्ण-व्यवस्था की उपेक्षा की। पंद्रहवीं शताब्दी में रामानंद और उनके शिष्य कबीर ऐसे ही समाज-सुधारक थे। कबीर की साखियाँ और पद आज भी जनमानस में लोकप्रिय हैं। उक्रह्म्र भारत में गुरु नानक देव ने सिख धर्म की स्थापना की। हिंदू धर्म इन सुधारकों के विचार से प्रभावित हुआ।
विदेशी तत्वों द्वारा देश की आम भाषा का प्रयोग किया जाने लगा। दरबारी भाषा बनी रही। शुरुआती लेखकों में अमीर खुसरो अधिक प्रसिद्ध हुए। वे फ़ारसी के कवि होने के साथ-साथ संस्कृत के भी ज्ञाता थे। भारतीय वाठ्ठ;-यंत्र तंंत्री सितार उनके ठ्ठ9शारा ही आविष्कृत है। उन्होंने धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र आदि विषयों पर लिखा। उनके लिखे लोकगीत और अनगिनत पहेलियाँ बहुत ही प्रसिद्ध है छद्द सौ साल पहले लिखे 3, गीतों को आज भी ज्यों-का-त्यों गाया जाता है, जो उनकी लोकप्रियता प्रमाण है
♦ बाबर और अकबर - भारतीयकरण की प्रक्रियान्
सन 1526 में पानीपत का युद्ध जीतकर बाबर ने भारत में मुगल वंश की नींव रखी। उसका व्यक्तित्व आकर्षक था। वह नई जागृति का शहज़ादा था। वह केवल चार वर्ष ही शासन कर सका। इस समय को उसने युद्ध करने तथा आगरा को राजधानी बनाने में बिताया।
अकबर बाबर का पौत्र था। वह बहादुर, योग्य सेनानायक, विनम्र और दयालु होने के साथ-साथ लोगों का दिल जीतना चाहता था। वह भारत में एकजुटता देखना चाहता था। 1556 ई: से आरंभ हुए,, अपने शासन काल की पचास वर्षों की अवधि में वह इसे पूरा करने का प्रयास करता रहा। उसने स्वाभिमानी राजपूतों को अपनी ओर मिलाया तथा एक राजपूत राजकुमारी से शादी की। उसका बेटा तथा पौत्र मुगल और भारतीय (राजपूत) थे। राजपूतों के राजघरानों से संबंध बनाने में उसका साम्राज्य मज़बूत हुआ। इससे सरकार, प्रशासन, सेना, कला और संस्कृति भी प्रभावित हुई। अकबर को मेवाड़ के राणा प्रताप को अधीन बनाने में सफलता नहीं मिली। अकबर की अधीनता स्वीकारने कद्ध बजा; वे जंगलों में फिरते रहे।
अकबर ने प्रतिभाशाली लोगों का समुदाय एकत्र किया। इनमें फैजी, अबुल फजल, बीरबल, राजा मान सिंह , अब्दुल रहीम खानखाना प्रमुख थे। उसने दीन-ए-इलाही नामक नए धर्म की स्थापना करके मुगल वंश को भारत के वंश जैसा ही बना दिया।
♦ यांत्रिक उन्नति और रचनात्मक शक्ति में एशिया और यूरोप के बीच अंतर
अकबर जिज्ञासु प्रवृति का था। उसे राजनीतिक यांत्रिक कलाओं और सैनिक मामलों का ज्ञान था। उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि समाज में क्या घटित हो रहा है। उसके सामने यह समस्या थी कि वह राष्ट्रीय एकता कैसे कायम करे। अकबर भारत की सामाजिक स्थिति में अंतर नहीं पैदा कर सका।
अकबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की मज़बूत नींव रखी थी तथा उस पर जो इमारत बनाई, वह सौ वर्षों तक बनी रही। ख्नसहासन के लिए उक्रह्म्राधिकारियों में युद्ध होते रहे और केंद्रीय शक्ति कमज़ोर होती गई। यूरोप में मुगल बादशाहों का यश फैला था। दिल्ली और आगरा में सुंदर इमारतें बनीं, जो दक्षिण और उत्तर के मंदिरों की शैली से भिन्न थीं। वास्तुकारी में आगरा का ताजमहल इसका प्रमाण है।
पश्चिमोत्तर से आनेवाले आक्रमणकारियों और इस्लाम का भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। इससे समाज में व्याप्त जाति -पाति की , अछूत प्रथा, अलग-अलग रहने की प्रवृति जैसी सामाजिक बुराइयाँ सामने आ गईं। इस्लाम के भाईचारे का उन लोगों पर विशेष असर हुआ जिन्हें हिंदू समाज बराबरी का दज्ज्द्र्मा नहीं देता था। भारत के बहुत-से हिंदुओं ने धर्म-परिवर्तन कर लिया। निम्न श्रेणी के लोग समुदाय के साथ धर्म-परिवर्तन करने लगे। भारत के हिंदुओं और मुसलमानों के साथ रहने के कारण उनकी आदतें, रहने-सहने के ढंग और कलात्मक रुचियों में समानता दिखाई देती थी। वे शांतिपूर्वक साथ रहने, उत्सवों में आने-जाने में एक जैसे थे तथा वे एक ही भाषा का प्रयोग करते थे। यह सब उस वर्ण-व्यवस्था के बाद हुआ जो मेलजोल में बाधक थी। उनमें खान-पान और शादी-ब्याह साथ नहीं होते थे। गाँव की आबादी के बड़े हिस्से में जीवन मिला-जुला था। गाँव के हिंदू और मुसलमानों के बीच गहरे संबंध थे। हिंदू मुसलमानों को भी एक जाति मान चुके थे। उनके कुछ त्योहार तथा लोकगीतों में समानता थी। इनमें अधिकतर लोग किसान, दस्तकार और शिल्पी थे।
मुगल शासनकाल में हिंदुओं ने दरबारी भाषा फ़ारसी में अनेक पुस्तकें लिखीं। मुसलमान विद्वानों ने संस्कृत की पुस्तकों का फ़ारसी में अनुवाद किया। हिंदी के प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी तथा अब्दुल रहीम खानखाना की कविताओं का स्तर बहुत ऊँचा होता था। रहीम ने राणा प्रताप की प्रशंसा में भी बहुत कुछ लिखा, उन्होंने मुगलों से युद्ध करते हुए कभी पराजय स्वीकार नहीं की।
♦ औरंगज़ेब ने उल्टी गंगा बहाई—हिंदू राष्ट्रवाद का उभार - शिवा जी
औरंगजेब मुगल वंश का ऐसा धर्मांध और कठोर नैतिकतावादी था, जिसने अपने पूर्वजों की मेहनत तथा उनके कार्यों पर पानी फेर दिया। वह साहित्य तथा कला स्रद्म प्रेमी नहीं था। उसने हिंदुओं पर घृणित 'जजिया कर' लगाया। उसने मंदिरों को तुड़वाकर प्रजा को नाराज़ कर दिया। उसके कार्यों ने राजपूतों, सिखों और लड़ाकू मराठों को नाराज़ कर दिया। इससे मुगल साम्राज्य में उत्तेजना फैल गई और पुनर्जागरण के विचार उठने लगे जिसमें धर्म और राष्ट्रीयता का मेल था।
धर्म और राष्ट्रीयता के मेल ने शक्ति और सम्बंधता तो पाई, पर यह विशेष तरह की तथा आंशिक थी। हिंदू राष्ट्रवाद, व्यापक राष्ट्रवाद न बन सका जो धर्म तथा जाति से ऊपर हो। मराठों के मन में राष्ट्रवाद की व्यापक अवधारणा थी। वे अपनी राजनीतिक, सैनिक व्यवस्था और आदतों में उदार थे। शिवाजी ने औरंगज़ेब से लड़ाई लड़ी, पर मुसलमानों को खुलकर नौकरियाँ दीं, क्योंकि मुसलमानों से उनका कोई बैर नहीं था।ï
आर्थिक व्यवस्था कमज़ोर होने से मुगल साम्राज्य खंडित होने लगा। किसान बार-बार आंदोलन कर रहे थे। 1669 के बाद जाट किसान बार-बार केंद्रीय सत्ता के खिलाफ खड़े हो जाते थे। फूट और बगावत के इसी समय में मराठा शक्ति विकास कर रही थी। 1627 ई. में जन्मे शिवाजी आदर्श छापामार नेता थे। उनके घुड़सवार दूर-दूर तक छापामार युद्ध करते थे। शिवाजी ने सूरत में अंग्रेेज़ की कोठियों को लूटा तथा मुगल साम्राज्यवाले क्षेत्रों में चौथ नामक कर लगाया। उन्होंने मराठों का शक्तिशाली फौजी दल बनाया। उनकी मृत्यु 1680 ई.में हुई। इनकी मृत्यु के बाद भी मराठा शक्ति बढ़ती गयी
♦ प्रभुत्व के लिए मराठों और अंग्रेजो के बीच संघर्ष—अंग्रेजो की विजय
सन 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद सौ वर्षों तक भारत की सक्रह्म पाने के लिए संघर्ष चलता रहा। इनमें चार शक्तियाँ—मराठे, हैदर अली और उसका बेटा टीपू सुलतान (भारतीय), फ्रांसीसी और अंग्रेजो (विदेशी) थे। मराठों की शक्ति देखकर लगता था कि वे पूरे भारत पर अधिकार कर लेंगे, क्योंकि उस समय उनके जैसी कोई दूसरी शक्ति मजबूत न थी।
सन 1739 में ईरान के नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया और भयंकर मारकाट की। उसने बेशुमार दौलत लूटी और तख्ते-ताऊस भी अपने साथ ले गया। उसके हमले से मराठों का काम आसान हो गया। वे भारत को अपने अधीन करने की स्थिति में आ गए। वे पंजाब तक फैल गए। ऐसे में मुगल शासन लगभग समाप्त हो गया। इसके अलावा अगानिस्तान भारत से अलग होकर नादिरशाह के राज्य का हिस्सा बन गया।
भारत की कमज़ोरी का फायदा उठाते हुए क्लाइव ने बंगाल में जालसाजी और बगावत को बढ़ावा दिया। उसने 1757 में प्लासी का युद्ध जीत लिया। जल्दी ही बिहार एवं बंगाल भी उद्यके हाथ आ गया। 1770 में बंगाल तथा बिहार में अकाल पड़ा, जिसमें एक-तिहाई आबादी नष्ट हो गई। दक्षिण में अंग्रेजो और फ्रांसीसियों के बीच हुए युद्ध में फ्रांसीसियों का नामोनिशान मिट गया। भारत पर अधिकार के लिए मराठे, अंग्रेज और हैदर अली रह गए थे। शक्तिशाली मराठे भारत पर अधिकार कर सकते थे, क्योंकि हैदर अली ने अंग्रेजो को हरा दिया था, पर वह दक्षिण भारत तक ही सीमित रह गया। इससे भारत पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। 1799 में अंतत: अंग्रेजो ने टीपू सुलतान को हरा दिया। इससे अंग्रेजो की राह आसान हो गई ।
आपसी फूट के कारण आपस में लडऩेवाले मराठों से अंग्रेजो ने अलग-अलग युद्ध किया और उन्हें हराया। अंग्रेजो ने 1804 में आगरा के पास बुरी तरह हार खाई, पर 1818 तक उन्होंने मराठों को हराकर भारत पर कब्ज़ा कर लिया।
भारत अब अंग्रेजो के अधीन था। मराठे जिसे ‘आतंक का युग’ कहते थे, उसकी समाप्ति हो गई थी अर्थात अंग्रेजो की मारकाट अब बंद हो चुकी थी। वे अब सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था लागू कर रहे थे। यह कल्पना की जा सकती है कि अंग्रेजो की मदद के बिना भी भारत में शांति-व्यवस्था कायम हो सकती थी।
♦ रणजीत सिंह और जयसिंह
आतंक के जिस दौर में जनता परेशान और दुखी थी, उस समय भी कुछ ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने कार्यों एवं नीतियों से इतिहास में अपना स्थान बनाया। ऐसे ही व्यक्तियों में थे—महाराजा रणजीतसिंह और जयसिंह |
महाराजा रणजीत सिंह जिज्ञासु स्वभाववाले जाट सिख थे। उन्होंने पंजाब में राज्य कायम किया, जो कश्मीर और सरहदी सूबे तक फैल गया। उन्होंने मानवीय विचारों को आधार बनाया तथा खून-खराबे को नापसंद किया। युद्ध के सिवा उन्होंनेे किसी की जान नहीं ली। उनके शासन में दमन और निर्दयता के लिए जगह न थी।
राजपूताने में जयपुर का शासक जयसिंह चतुर एवं अवसरवादी शासक था, जो कि अनेक परिवर्तनों और उथल-पुथल के बाद भी बचा रहा। वह बहादुर योद्धा कुशल राजनयिक होने के साथ गणितज्ञ, खगोल विज्ञानी, नगर-निर्माण करानेवाला तथा इतिहास के अध्ययन में रुचि रखनेवाला था। उसने विदेशी नक्शे के आधार पर बनाए गए नक्शे से जयपुर शहर बसाया। उसमें यूरोपीय नगरों के कई नक्शे जयपुर में अब भी सुरक्षित हैं। उसने जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, बनारस, और मथुरा में बड़ी-बड़ी वेधशालाएँ बनवाईं।
भारतीय इतिहास के सबसे अंधकारपूर्ण युग में जब माहौल युद्ध तथा उपद्रव से भरा था, जयख्नसह ने एक वैज्ञानिक की तरह कार्य किया जिनकी प्रशंसा आज भी की जाती है।
♦ भारत की आर्थिक पृष्ठभूमि—इंग्लैंड के दो रूप
ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब भारत में शासन करना शुरू किया, उस समय उसका मुख्य काम था—भारत में बना माल यूरोपीय देशों में बेचना। भारतीय कारीगरी वहाँ (इग्लैंड) की तकनीकों का सफलतापूर्वक मुकाबला करती थी। कंपनी का उद्देश्य अधिकाधिक धन कमाना था। इग्लैंड में मशीनों का दौर शुरू होने पर मशीनों से बने माल के साथ-साथ भारतीय वस्तुएँ भरी थीं। उस औद्योगीकरण से बने माल का भारतीय अर्थतंत्र मुकाबला न कर सका। इसके लिए उन्होंने यहद्मँ कल-कारखाने लगाए। कंपनी ने यहाँ का अर्थतंत्र बुरी तरह नष्ट कर दिया। उसकी जगह कोई नयी रचनात्मक चीज़ सामने न आई। लगभग सौ साल बाद कपड़ा बुनने की तेज़ मशीन का आविष्कार हुआ और उसके बाद कातने की कला, इंजन और मशीन के करघे निकाले गए। कंपनी को ज़्यादा-से-ज़्यादा धन कमाने की जल्दी पड़ी थी।
एडम स्मिथ ने सन्ï 1776 में ‘द वेल्थ ऑफ़ नेशस’ में लिखा—‘‘एकमात्र व्यापारियों की कंपनी की सरकार किसी भी देश के लिए बुरी सरकार है।’’
इंग्लैंड में भी इस समय दो दौर साथ-साथ काम कर रहे थे। एक शेक्सपीयर और मिल्टनवाला शालीन बातों, लेखन और बहादुरी के कारनामों वाला, राजनीतिक क्रांति और स्वाधीनता के लिए संघर्ष करनेवाला, विज्ञान तथा तकनीक में प्रगति करने-वाला था तो दूसरा बर्बर दंड संहिता और नृशंस व्यवहारवाला वह इंग्लैंड जो सामंतवाद और प्रतिक्रियावाद से घिरा था। इग्लैंड में यह सब साथ-साथ चल रहा था।
जिस समय भारत ने अपनी आज़ादी खोई, उसी समय अमेरिका स्वतंत्र हुआ। अमेरिका के पास नयी शुरुआत के लिए साफ तथा अनछुआ मैदान था, जबकि भारतीय प्राचीन परंपराओं से जकड़े हुए थे। इन सबके बाद भी यह सत्य है कि यदि ब्रिटेन मुगलों के शक्ति खोने पर भारत का बोझ न उठाता तो भारत अधिक स्वतंत्र तथा समृद्ध होता।
शब्दार्थ—
पृष्ठ 72; छोर—किनारा। सीमावर्ती—सीमा के आस-पास बसे हुए। फतह—जीत। हद—सीमा।
पृष्ठ 73; प्रचारक—प्रचार करनेवाला। शताब्दी—सौ सालों का समय। निर्ममता—निर्दयता। नफ़रत—घृणा। तबाही—बर्बादी। धावा—हमला।
पृष्ठ 74; तख्त—सिहांसन। नियति—भाग्य, किस्मत। ध्वस्त—नष्ट। वीरान—सुनसान।
पृष्ठ 75; बेहतर—अधिक अच्छा। शरणार्थी—असहाये और अस्थापित व्यक्ति। भ्रामक—भ्रम पैदा करनेवाली। अज़नबी—जिससे हमारी पहचान न हो,अनजान।
पृष्ठ 76; अधिराज—राजा, शासक। अधीनता—किसी के अधीन रहना। हस्तक्षेप—दखलंदाजी। मालगुजारी—कृषि ज़मीन पर लिया जानेवाला कर। अधिकाधिक—ज़्यादा-से-ज़्यादा। तत्काल—तुरंत। रुझान—रुचि। अनुसरण—अपनाना।
पृष्ठ 77; जनभाषा—आम लोगों दवारा बोली जानेवाली भाषा। अज़ीब—विचित्र, । उमराव—जिसे कोई पदवी मिली हो। रूढिवादित्ता—पुराने रीति-रिवाज़ मानने की परंपरा। सल्तनत—सक्रह्म, साम्राज्य। प्रोत्साहित—उत्साहित।
पृष्ठ 78; सहिष्णुता—सहनशीलता। उत्तेजना—नया जोश। आत्मसात—अपनाना। सुधारक—सुधार करनेवाला। उपेक्षा—अनादर। संस्थापक—स्थापना करनेवाला। एकेश्वरवाद—एक ईश्वर की सक्रह्म स्वीकारना। चोटी के—सर्वोच्च। उद्भावना—विचार।
पृष्ठ 79; लोकप्रचलित—लोगों में प्रचलित, लोकप्रिय। पहलू—भाग, अंग। अनगिनत—बहुत-से। मिसाल—उदाहरण। बुनियाद—नींव। भव्य—शानदार। जागृति—चेतना पैदा करने वाले विचार। दुस्साहसी—बुरे कार्यों को भी हिम्मत से करनेवाला। स्वप्नदर्शी—भविष्य के प्रति अच्छी सोच रखनेवाला। अनुयायी—बात को माननेवाला शिष्य।
पृष्ठ 80; अखंड—समूचा। सम्बंध—जुड़ा हुआ। स्वाभिमानी—अपने अभिमान का ख्याल रखनेवाला। अदम्य—जिसका दमन न किया जा सके, बलशाली। दमन—नाश। मारे-मारे फिरना—भटकना।
पृष्ठ 81; दिलचस्पी—रुचि। हासिल करना—पाना या प्राप्त करना। जिज्ञासा—कुछ जानने की इच्छा।
पृष्ठ 82; गतिहीन—रुका हुआ। प्रताप—प्रभुत्व। अलंकरण—सजावट। सड़ाँध—बदबू। बेढब—अज़ीब।
पृष्ठ 83; कौम—जाति। शरीक—शामिल।
पृष्ठ 84; सामूहिकता—एक साथ रहने की भावना। कालजयी—अत्यधिक प्रसिद्ध। सिपहसालार—सेनाप्रमुख, सेनानायक। हथियार डालना—हार मानना। विपरीत—उल्टा। पानी फेरना—नष्ट करना। धर्मांध—दूसरे धर्मों का अपमान तथा निरादर करनेवाला। जायज़ा कर—धर्म संबंधी कार्यों पर लगाया गया कर। अभिमानी—गर्व करनेवाला। अवलंब—सहारा। स्तंभ—खंभा।
पृष्ठ 85; प्रतिनिधि—अगुआ। बिरादरी—जाति। धर्मनिरपेक्ष—किसी धर्म-विशेष के साथ पक्षपात न करना। व्याप्ति—फैलाव। सम्बंधता—एकजुटता। समावेश—मेल। दक्खिन—दक्षिण। चरमराना—कमज़ोर होकर टूटना।
पृष्ठ 86; बगावत—विद्रोह। छापामार—गुप्त रूप से अचानक हमला कर देनेवाला। चौथ कर—अमीरों पर लगाया गया वह कर, जिसमें उनको अपनी आमदनी का चौथाई भाग देना होता था। दुर्जेय—जिसे कठिनाई से जीता जा सके । प्रभुत्व—अधिकार, प्रभाव। दावेदार—दावा करनेवाला।पूर्वादर्ध—पहले का आधा भाग। हुकूमत—शासन। बवंडर—तूफ़ान। बेशुमार—अपार, बहुत अधिक। तख्ते-ताऊस—शाहजहाँ ठ्ठ9शारा बनवाया गया मयूर सिंहासन। नपुंसक—शक्तिहीन।
पृष्ठ 87; विकट—अत्यधिक। वैर—शत्रुता, दुश्मनी। अराजकता—लूटपाट, छीना-झपटी आदि का माहौल। दौर—समय, युग। त्रस्त—परेशान, दुखी। पस्त—शक्तिहीन।
पृष्ठ 89; सरहदी—सीमा पर स्थित। मानवीय—नेक, दयालु। अवसरवादी—मौका देखकर पक्ष बदल देनेवाला। गणितज्ञ—गणित का ज्ञानी। अजायबघर—संग्रहालय। षडयंत्र—छल-कपटपूर्ण चाल।
पृष्ठ 90; चुंगी—कर, टैक्स। अर्थतंत्र—आर्थिक ढाँचा। औद्योगीकरण —मशीनों का अधिकाधिक प्रयोग। सर्वशक्तिमान—हर प्रकार से शक्तिशाली। आगमन—आना। परवाना—लिखत आज्ञा हुकुमनामा,
पृष्ठ 91; ढरकी—कपड़ा बुनने की मशीन। शालीन—विनम्र। बर्बर—क्रूर। नृशंस—अत्यंत कठोर। स्मृतियों—यादों।
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