♦ गुप्त शासन में राष्ट्रीयता और साम्राज्यवाद
मौर्य साम्राज्य के अवसान के बाद शुंग वंश का उदय हुआ। इसका शासन छोटे क्षेत्र पर था। उत्तर में काबुल से पंजाब तक बाख्त्री या भारतीय-यूनानी फैल गए थे। उन्होंने मेनांडर के नेतृत्व में पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर दिया, पर उनकी हार हुई। उसने बुध धर्म स्वीकार कर लिया और मिख्नलद नाम से प्रसिद्ध हुआ। बुध आख्यानों में उसे संत कहा गया है। इस प्रकार यूनानी और बुध कला का जन्म हुआ।
मध्य एशिया में शक लोग ऑक्सस नदी की घाटी में बस गए। ये शक बुध और हिंदू हो गए। युइ-चीयों सह्नदूर पूरब से आए। इनमें से एक दल कुषाणों का था। उन्होंने उत्तर भारत पर अधिकार करके अपने राज्य का विस्तार कर लिया। उन्होंने मध्य एशिया के बड़े भाग पर कब्ज़ा करके अपने साम्राज्य को और व्यापक तथा मज़बूत बना लिया। उनमे से कुछ ने हिंदू धर्म तथा अधिकांश ने बुध धर्म अपना लिया। कनिष्क उनका सबसे प्रसिद्ध शासक था, जिसका बुध कथाओं में उल्लेख मिलता है। इसकी राजधानी तक्षशिला के निकट पेशावर थी। यहाँ भारतीयों की मुलाकात चीनियों, ईरानियों तथा तुर्कों से होती थी। इनकी विभिन्न संस्कृतियों के मेल के फलस्वरूप मूर्तिकला और चित्रकला की एक सशक्त शैली का जन्म हुआ। कुषाण काल में बुध धर्म दो संप्रदायों—हीनयान और महायानद्ब्रमें बँट गया। इनके मध्य विवाद उठने लगा। इन विवादों से अलग एक नाम नागार्जुन का है जो बुध शास्त्रों तथा भारतीय दर्शन दोनों के ही विद्वान थे। उनके कारण महायान की विजय हुई। चीन में महायान तथा लंका और ब्रमा में हीनयान को माननेवाले लोग थे।
ईसा की चौथी शताब्दी में जब विदेशियों का आगमन हुआ तब तक राष्ट्रीय आंदोलन अपना निश्चित रूप ग्रहण कर चुका था। एक अन्य शासक चंद्रगुप्त ने नए हमलावरों को मार भगाया और 320 ई. में गुप्त साम्राज्य की नींव रखी। इस साम्राज्य में एक के बाद एक अनेक महान शासक हुए, जो युद्ध और शांति दोनों कलाओं में सफल थे।
आरंभ में जब आर्य भारत आए तब उन्होंने इसे आर्यावक्रर्त' या भारतवर्ष' कहा था तब भारतवर्ष के सामने यह समस्या थी कि इस नयी जाति और संस्कृति के बीच समन्वय कैसे किया जाए? दूसरे विदेशी तत्त्व आकर यहाँ जज़्ब होते गए। विदेशी आक्रमणों ने उह्वके सांस्कृतिक आदर्शों और सामाजिक ढाँचे के लिए खतरा पैदा कर दिया। इनके विरुद्ध हुई प्रतिक्रिया का स्वर राष्ट्रवादी था, जिसमें राष्ट्रवाद की शक्ति के साथ-साथ संकीर्णता भी थी। हिंदूवाद या ब्राह्मणवाद इस राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। बुध धर्म का जन्म भारतीय विचारधारा से हुआ था, पर यह धर्म मूल रूप में अंतर्रांष्ट्रीय या विश्वधर्म था। ऐसे में ब्राह्मण धर्म के लिए स्वाभाविक था कि वह बार-बार राष्ट्रीय पुनर्जागरण का प्रतीक बने।
गुप्त शासकों का समय बहुत प्रबुद्द, शक्तिशाली, अत्यंत सुसंस्कृत तथा तेजस्विता से भरपूर था। इसके प्रसिद्ध शासक, समुद्रगुप्त, को भारत का ‘नेपोलियन’ कहा गया है। साहित्य और कला की दृष्टि से यह काल बहुत ही शानदार था। गुप्त वंश के शासकों ने लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक शासन किया और इतने ही समय तक स्वयं को बचाने के लिए संघर्ष करते रहे। यशोबर्मन के नेतृत्व में संगठित होकर नए आक्रमणकारियों ने ‘गोरे हूण’ पर हमला किया और उनके सरदार मिहिरगुल को कैद कर लिया। गुप्तों के वंशज बालादित्य ने उसे छोड़ दिया जो उसे भारी पड़ा। हूणों का शासन थोड़े समय के लिए रहा। कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने उनका दमन करके उत्तर से मध्य भारत तक एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। वह कवि और नाटककार भी था। हर्ष ने हिंदू और बुध दोनों धर्मों को बढ़ावा दिया। 629 ई.में उसी के काल में चीनी यात्री हुआन-त्सांग भारत आया। हर्ष की मृत्यु 648 ई.में हुई। इस समय अरब से एशिया और अफ्रीका में फैलने के लिए इस्लाम अपना सिर उठाने लगा था।
♦ दक्षिण भारत
दक्षिण भारत में मौर्य साम्राज्य का अंत होने पर भी बड़े राज्य हज़ारों साल तक फलते-फूलते रहे। दक्षिण भारत दस्तकारी और समुद्री व्यापार का केंद्र बना रहा। यहाँ यूनानियों की बस्तियाँ थीं और यहाँ रोमन के सिक्के भी पाए गए हैं। उत्तर भारत पर बार-बार होनेवाले हमलों से दक्षिण भारत पर अधिक असर नहीं हुआ। उत्तर भारत के बहुत-से लोग दक्षिण में बस गए। इनमें राजगीर, शिल्पी और कारीगर भी थे। इस तरह दक्षिण भारत पुरानी कलात्मक परंपरा का केंद्र बन गया।
♦ शांतिपूर्ण विकास और युद्ध के तरीके
भारत पर बार-बार विदेशी हमले तथा एक के बाद एक नए साम्राज्य की स्थापना होती रही, परंतु इसके बाद यहाँ शांतिपूर्ण और व्यवस्थित शासन का दौर रहा है।
मौर्य, कुषाण, गुप्त, दक्षिण में चालुक्य, राष्ट्रकूट आदि ने दो-दो सौ, तीन-तीन सौ वर्षों तक राह्ल किया। कुषाण जैसे लोगों ने भी अपने आपको इस देश की परंपरा के अनु:प ढाल लिया। यहाँ यूरोपीय देशों की तुलना में अधिक शांतिपूर्ण और व्यवस्थित जीवन के दौर चले हैं। अंग्रेज़ी राज्य में यहाँ शांति व्यवस्था कायम हुई, यह भ्रामक है। अंग्रेज़ी शासन के समय देश अवनति की पराकाष्ठा तथा सबसे कमज़ोर अर्थव्यवस्था के दौर से गुज़र रहा था। इसी कारण यहाँ अंग्रेज़ी शासन कायम हो सका।
♦ प्रगति बनाम सुरक्षा
भारत में जिस सभ्यता का निर्माण किया गया उसका आधार स्थिरता और सुरक्षा की भावना थी। इस दृष्टि से वह पाश्चात्य सभ्यताओं से अधिक सफल रही। वर्ण-व्यवस्था और संयुक्त परिवारयुक्त सामाजिक ढाँचे ने इसे पूरा होने में मदद की। इसमें व्यक्तिवाद के लिए स्थान नहीं रह जाता। इसके विपरीत, भारतीय दर्शन नितांत व्यक्तिवादी है। उसकी सारी चिंता व्यक्ति के विकास को लेकर है। भारत का सामाजिक ढाँचा सामुदायिक था, जिसमें रीति-रिवाज़ों का कड़ाई से पालन करना पड़ता था। इसके बावजूद समुदाय को लेकर लचीलापन था। सारे कायदे या सामाजिक नियमों को रीति-रिवाज़ से बदला जा सकता था। नए समुदाय भी अपने अलग रीति-रिवाज़ों, विश्वासों को बनाए रखकर सामाजिक संगठन के अंग बने रहे। इसी कारण विदेशी तक्रव यहाँ आत्मसात होते गए।
भारत में व्यक्ति के बाहरी और भीतरी जीवन तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच भी समन्वय का प्रयास दिखाई देता है। इसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ने भारत का निर्माण किया तथा एकता की मोहर लगाई। यहाँ अनेक राजा आते-जाते रहे, पर यह व्यवस्था नींव की तरह बनी रही। बाहरी लोग इसमें केवल सतही हलचल ही भर पैदा कर पाते थे। इस तरह यहाँ समुदाय और व्यक्तित्व दोनों की ही स्वतंत्रता सुरक्षित रहती थी। यहाँ आनेवाले हर बाहरी तत्त्व को भारत ने अपने में जज़्ब कर लिया। जिसने अलग-थलग रहने की कोशिश की, वह नष्ट हो गया और उसने स्वयं को या भारत को नुकसान ही पहुँचाया।
♦ भारत का प्राचीन रंगमंच
भारतीय रंगमंच अपने मूल में, सम्बंध विचारों में और अपने विकास में पूर्णतया स्वतंत्र था। इसका मूल उद्गम ऋग्वेद की ऋचाओं में खोजा जा सकता है। रामायण और महाभारत में नाटकों का उल्लेख मिलता है। ई. पू. छठी या सातवीं शताब्दी के महान वैयाकरण पाणिनि दवारा कुछ नाट्य रूपों का उल्लेख किया गया है।
नियमित रूप से लिखे 3, नाटकों में जो मिले हैं, उनमें ऐसे रचनाकारों और नाटकों का हवाला मिला है] जो अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। उन्हीं में से एक नाटककार ‘भास’ था। इस शताब्दी के आरंभ में उसके तेरह नाटकों का संग्रह मिला है। ‘अश्वघोष’ के प्राचीनतम संस्कृत नाटक ताड़-पत्रों पर लिखे गोबी रेगिस्तान की सीमा पर तूफान में मिले हैं। ‘अश्वघोष’ दवारा लिखित बुध की जीवनी ‘बुध चरित’ भारत, चीन और तिब्बत में बहुत लोकप्रिय हुई। संस्कृत साहित्य में कालिदास को सबसे बड़ा कवि और नाटककार माना गया है। वे चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य के शासनकाल में उज्जयिनी में थे। कालिदास उनके नवरत्नों में से एक थे। ‘मेघदूत’ उनकी लंबी कविता है, जिसमें एक बंदी प्रेमी अपनी प्रिया को मेघ को दूत बनाकर संदेश भिजवाता है। उनके प्रसिद्ध नाटक ‘शकुंतला’ की प्रशंसा अनेक विद्वानों ने की है। इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कालिदास से पहले शद्रक की एक रचना ‘मृच्छकटिकम्’ यानी 'मिट्टी की गाड़ी' प्राप्त हुई है] जो बनावटी नाटक प्रतीत होता है।
400 ई. के लगभग चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक लिखा, जो विरुद्ध राजनीतिक था। सातवीं शताब्दी में हर्षदवारा लिखे गए तीन नाटक मिलते हैं। इसी समय के नाटककार ‘भवभूति’ हैं जो भारत में बहुत लोकप्रिय रहे हैं। सदियों तक बहनेवाली संस्कृत नाटकों की इस धारा में उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में गुणात्मक ह्रास आने लगा।
प्राचीन नाटकों की (कालिदास तथा अन्य लोग) भाषा मिली-जुली है—संस्कृत और उसके साथ एक या एकाधिक प्राकृत, यानी संस्कृत कद्ध बोलचाल में प्रचलित रूप। उसी नाटक में शिक्षित पात्र संस्कृत बोलते हैं तो स्त्रियाँ तथा सामान्य वर्ग प्राकृत। यह साहित्यिक भाषा और लोकप्रिय कला के बीच समझौता था। नाटक समाज के अभिजात वर्ग तक सीमित रहा।
इसके साथ-साथ लोकमंच का भी विकास होता रहा। इनकी कथाओं का आधार भारतीय पुराकथाएँ तथा महाकाव्यों से ली गई कथाएँ होती थीं। ये अलग-अलग क्षेत्रीय बोलियों में रचे जाते थे, इसलिए ये क्षेत्र-विशेष तक द्दद्ध सीमित रहते थे।
♦ संस्कृत भाषा की जीवंतता और स्थायित्व
संस्कृत भाषा अत्यंत विकसित, अलंकृत और अद्भुत रूप से समृद्ध भाषा है। यह उस व्याकरण से युक्त है जिसका निर्माण करीब ढाई हज़ार वर्ष पूर्व पाणिनि ने किया था। इसका मूल रूप आज भी वही है। संस्कृत साहित्य के पतन के काल में इस भाषा ने अपनी कुछ शक्ति और शैली की सादगी खो दी। सर विलियम जोंस ने इसके बारे में कहा था संस्कृत भाषा पुरानी होने के साथ अद्भुत बनावटवाली तथा यूनानी और लातीनी के मुकाबले अधिक उत्कृष्ट है। इसके साथ ही यह भाषा इन दोनों के साथ खूब मिलती-जुलती है, जिसे देखकर कहा जा सकता है इन सभी भाषाओं का स्रोत एक ही है।
संस्कृत आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी है। उनका अधिकांश शब्दकोश और अभिव्यक्ति का ढंग संस्कृत की देन है।
♦ दक्षिण- पूर्वी एशिया में भारतीय उपनिवेश और संस्कृति
भारत ने अपने व्यापार एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार अपनी भौतिक सीमा को लाँघकर उसके बाहर भी किया। यह प्रचार-प्रसार दक्षिण-पूर्वी एशिया में दूर-दूर तक फैले क्षेत्रों में हुआ। इसे व्रेहतर भारत कहा गया। भारतीय उपनिवेशों का हवाला भारतीय पुस्तकों के अलावा अरब यात्रियों के वृक्रतांतों से मिलता है। इससे अधिक महक्रवपूर्ण प्रमाण है—चीन से प्राप्त ऐतिहासिक विवरण। इसके अलावा पुराने शिलालेख और ताम्र-पत्र हैं, जावा-बाली में भारतीय स्रोतों पर आधारित समृद्ध साहित्य जिसमें भारतीय महाकाव्यों और पुराकाव्यों का अनुवाद तथा इमारतों के विशाल खंडहर हैं।
ईसा की पहली शताब्दी तक उपनिवेशीकरण की चार प्रमुख लहरें दिखाई देती हैं। इन उपनिवेशों की शुरुआत लगभग एक साथ हुई। ये युद्ध की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों और मार्गों पर स्थापित किए जाते थे। इनका नामकरण पुराने भारतीय नामों के आधार पर किया जाता था; जैसे—आज का कंबोडिया तब कंबोज कहलाता था। ‘जौ’ एक विशेष प्रकार का अन्न है जिसके आधार पर जौ का टापू आज ‘जावा’ कहलाता है। इन उपनिवेशों के नाम खनिज, धातु, किसी उद्योग या खेती की पैदावार के आधार पर होता था। इससे हमारा ध्यान स्वयमेव व्यापार की ओर जाता था। उपनिवेशों से व्यापार तो बढ़ा ही, व्यावसायियों एवं व्यापारियों के आवागमन से धर्म का भी प्रचार-प्रसार बढ़ा। संस्कृत और यूनानी साहित्य से भारत और सुदूर पूरब के देशों के बीच नियमित समुद्री व्यापार होने का पता चलता है। उस समय बने जहाज़ों का ब्यौरा मिलने से पता चलता है कि प्राचीन भारत में जहाज़ बनाने का उठ्ठ9;ोग भी उन्नत और विकसित था। भारतीय बंदरगाहों का उल्लेख तथा दक्षिण भारतीय सिक्कों पर दोहरे पालवाले जहाज़ों के चित्र इसकी पुष्टि करते हैं। महाद्वीप देशों पर चीन का प्रभाव अधिक तथा टापुओं और मलय प्रायद्वीप पर भारत की छाप अधिक दिखाई देती है।
भारतीय उपनिवेशों का इतिहास ईशा की पहली-दूसरी शताब्दी से आरंभ होकर पंद्रहवीं शताब्दी तक अर्थात तेरह सौ साल का है।
♦ विदेशों पर भारतीय कला का प्रभाव
भारतीय सभ्यता का प्रभाव विशेष रूप से दक्षिण-पूर्वी एशिया पर पड़ा। चंपा, अंगकोर, श्रीविजय, भज्जापहित सहित अनेक संस्कृत के अध्ययन केंद्र थे। ये स्थान भारतीय कला से प्रभावित भी थे। यहाँ के शासकों के नाम विशुद्ध भारतीय और संस्कृत हैं। इनका भारतीयकरण किया गया था। राजकीय समारोह भारतीय ढंग से संपन्न कराए जाते थे। कर्मचारियों की पदवियाँ संस्कृत की प्राचीन पदवियाँ थीं। इसे थाईलैंड और मलाया में अभी भी देखा जा सकता है। इंडोनेशिया के प्राचीन साहित्य तथा जावा एवं बाली के मशहूर नृत्य भारत से हैं। यहाँ हिंदू धर्म सर्वाधिक प्रचलित है। कंबोडिया की वर्णमाला, दीवानी और फौजदारी कानून आदि में भारत का प्रभाव दिखाई देता है। यहाँ भारतीय प्रभाव भारतीय बस्तियों की भव्य कला और वास्तुकला में दिखाई देता है। यहाँ के अद्भुत मंदिरों में पत्थरों पर उत्कीर्ण बुध की जीवनगाथा तथा नक्काशी दवारा विष्णु, राम और कृष्ण की कथाएँ अंकित हैं।
भारतीय कला में हमेशा धार्मिक पे्ररणा एवं पारदृष्टा होती है, जिससे यूरोप के गिरजाघरों के निर्माता भी प्रभावित हुए। सौंदर्य का संबंध आत्मा से जोड़ा गया है, भले ही वह पदार्थ शह्यक्त रूप या आकार ग्रहण कर ले। यूनानियों को सौंदर्य में केवल आनंद ही नहीं मिलता, बल्कि वे उसमें सत्य के दर्शन भी करते थे। भारतीय भी सौंदर्य-प्रेमी थे। वे अपनी रचनाओं में गहरा अर्थ भरने का प्रयत्न भी करते थे। भारत की विशेषता उसकी मूर्तिकला और स्थापत्य में है] जबकि चीन और जापान की विशेषता उनकी चित्रकला में है। भारतीय संगीत और यूरोपीय संगीत में भिन्नता थी, पर भारत के विशिष्ट संगीत ने चीनद्ध और एशियाई संगीत को प्रभावित किया।
भारतीय कला प्रकृति-चित्रण से भरपूर है। इस पर चीनी प्रभाव दिखाई देता है। गुप्तकाल में अजंता की गुफाएँ, उन पर भीतित चित्र तथा बाग और बादामी की गुफाएँ बनाई गईं। अजंता की गुफाएँ हमें वास्तविकता की दुनिया में ले जाती हैं। ये भीतित चित्र बुध भिक्षुओं दवारा बनाए गए हैं। सुंदर स्त्रिया राजकुमारिया गायिका , नर्तकियों आदि के चित्र उन्होंने उतने ही प्रेम से बनाए, जितने प्रेम से उन्होंने बुधको उनकी शांत, लोकोतरर गरिमा में चित्रित किया है। एलोरा की गुफाएँ सातवीं-आठवीं शताब्दी में तैयार की गईं, जिनके बीच कैलाश का विशाल मंदिर है। एलीफेंटा की गुफाएँ, जिनमें प्रभावशाली तथा रहस्यमयी त्रिमूर्ति है, तथा महाबलीपुरम का निर्माण भी इसी समय हुआ। एलीफेंटा की गुफाओं में नटराज शिव नृत्य मुद्रा में हैं। ब्रिटिश संग्रहालय में विश्व का सृजन और शनाश करते हुए नटराज शिव की मूर्ति है।
बोरोबुदुर से कोपेनहेगेन ले जाए गए बोधिसत्व के सिर का सौंदर्य अद्भुत है। इसमें उनकी आत्मा को दर्पण में प्रतिबिंब की तरह उद्घाटित किया गया है। इसमें मनुषय; की पहुँच से दूर परम सौंदर्य विद्यमान है।
♦ भारत का विदेशी व्यापार
ईसवी सन के पहले एक हज़ार वर्षों में भारतीय व्यापार की प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। यह व्यापार पूर्वी समुद्र के देशों तथा भूमध्य सागर तक फैला था। भारत में कपड़ा उद्योग बहुत विकसित था। यहाँ का बना कपड़ा दूर-दूर के देशों में जाता था। रेशमी कपड़ा भी यहाँ बनता था, पर अच्छी किस्म का रेशम चीन से आयात किया जाता था। भारतीय रेशम उद्योग बाद में विकसित हुआ। यहाँ पक्के रंग खोजकर कपड़ों की रँगाई में प्रगति की गई। इनमें से एक नील का रंग था, जिसे इंडिगो' कहा जाता था। यह शब्द इंडिया से बना था।
ईसवी सन की शुरुआती शताब्दियों में भारत का रसायनशास्त्र विकसित हुआ। प्राचीन समय से ही भारतीय फौलाद और लोहे की विदेशों में कद्र थी। विशेषत: युद्ध के सामान बनाने में इनकी माँग थी। विभिन्न धातुओं का प्रयोग आसव और भस्म बनाने में किया जाता था। औषध विज्ञान का.फी विकसित था। रक्त संचार का ज्ञान यहाँ के लोगों को हार्वे के पहले से था।
विज्ञानों में प्राचीनतम खगोलशास्त्र विश्विद्लाया पाठ्यक्रम का नियमित अंग था। ज्योतिष की मदद से पंचांग तैयार किए जाते थे। समुद्री यात्रा पर जानेवालों के लिए खगोलशास्त्र का ज्ञान सहायक होता था। उस समय तक जहाज़ बनाने का कारखाना खूब फला-फूला था।युद्ध में काम आनेवाली मशीनों का वर्णन मिलता है। उस समय तक इन क्षेत्रों में अपने ज्ञान के बल पर भारत विश्व की कई मंडियों पर अधिकार रखता था।
♦ प्राचीन भारत में गणितशास्त्र
यह माना जाता है कि आधुनिक अंकगणित और बीजगणित की शुरुआत भारत में ही हुई। गिनती की चौखटे के इस्तेमाल की पद्धति ने इसकी प्रगति को बाधित किया। दस भारतीय संख्याओं के अंक बेजोड़ थे। ये चिह्न अन्य देशों में प्रयुक्त अनेक देशों में से अलग थे।
भारत में ज्यामिति, अंकगणित और बीजगणित का आरंभ बहुत पहले ही हो गया था। वैदिक वेदियों पर आकृति बनाने के लिए ज्यामितीय बीजगणित प्रयोग में लाई जाती थी। ज्यामिति के क्षेत्र में यूनान और सिकदरिया आगे बढ़ गए। अंकगणित और बीजगणित में भारत अग्रणी रहा। शून्य आरंभ में एक बिंदी के रूप में था। बाद में यह विरत्ताकर बन गया।
शून्यांक और स्थान-मूल्य वाली दशमलव विधि को अपनाने के बाद अंकगणित और बीजगणित ने तेज़ी से विकास किया। भारतीय गणित के क्षेत्र में 427 ई. में जन्मे ज्योतिर्विद आर्य, भास्कर 522 ई., ब्रह्मपुत्र 628 ई. ने अपना-अपना योगदान दिया। 1114 ई. में जन्में भास्कर द्वितीयने खगोलशास्त्र, बीजगणित, अंकगणित पर ग्रंथ लिखे। ‘लीलावती’ नामक उनकी पुस्तक बहुत प्रसिद्ध हुई। सरल, स्पष्ट शैली में लिखी गई यह पुस्तक कम उम्रवालों के लिए अधिक उपयुक्त है।
आठवीं शताब्दी में कई भारतीय विद्वान गणित तथा खगोलशास्त्र की पुस्तकें लेकर बगदाद गए। वहाँ भारतीय अंक प्रचलित हुए। बगदाद उस समय विद्याध्ययन का केंद्र था। यूनानी और यहूदी विठ्ठ9शान वहाँ एकत्र होकर अपने साथ यूनानी दर्शन, ज्यामिति और विज्ञान अपने साथ ले गए। अरबी अनुवादों के माध्यम से भारतीय गणित का ज्ञान व्यापक क्षेत्र में फैल गया।
यह नया गणित स्पेन के पूरे विश्वविद्यालय के माध्यम से यूरोपीय देशों में पहुँचा। इसका प्रयोग 1134 मे सिसली के एक सिक्के में तथा इसका पहला प्रयोग ब्रिटेन में 1490 में हुआ।
♦ विकास और ह्रास
ईसवी सन के पहले हज़ार वर्ष आक्रमणों तथा झगड़ों का समय होने के बावजूद भारत ने सभी दिशाओं में प्रगति की। उसका संबंध ईरान, चीन, यूनानी जगत तथा मध्य एशिया से बढ़ता रहा। यह भारत का स्वर्णयुग था। इस बीच उत्तर-पश्चिम से हूणों का आगमन शुरू हो गया था। आधी शताब्दी तक पूरे उत्तर भारत पर उनका राज्य हो गया था, जिन्हें गुप्त वंश के अंतिम शासक यशोष्र्मन के साथ मिलकर बहुत प्रयत्न के बाद बाहर निकाला गया । इस संघर्ष में राजनीतिक और सैनिक दोनों दृष्टियों में भारत कमज़ोर हो गया था।
सातवीं शताब्दी में हर्ष के शासनकाल मेें उज्जयिनी पुन: कला और संस्कृति का केंद्र बनी, पर नवीं शताब्दी तक कमज़ोर होकर नष्ट हो गई। नवीं शताब्दी में मिहिरभोज ने उत्तर और मध्य भारत में राज्य कायम करके कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। ग्यारहवीं शताब्दी में एक और पराक्रमी भोज ने उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाई। भोज अद्भुत व्यक्ति था जो वैयाकरण तथा कोशकार होने के साथ भेषज और खगोलशास्त्र में भी रुचि रखता था। वह स्वयं कवि और लेखक था, जिसके नाम से कई रचनाएँ मिलती हैं।
इस उन्नति के बाद भी भारत राजनीतिक तथा रचनात्मक रूप से कमज़ोर पड़ गया था। दक्षिण भारत आक्रमणों तथा हमलों से बचा रहा। उत्तर भारत की अनिश्चित स्थिति से बचने के लिए बहुत-से लेखक, कलाकार और शिल्पी दक्षिण में जाकर बस गए। इन सबके बाद भी उत्तर भारत का जीवन समृद्ध था। बनारस धार्मिक और दार्शनिक विचारों का गढ़ था। नालंदा विश्वविद्यालय का नाम खूब प्रसिद्ध था। इसके विद्वानो का आदर पूरे भारत में किया जाता था। यहाँ चीन, जापान और तिब्बत के विद्यार्थी पढऩे आते थे। यहाँ अनेक विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा भागलपुर के पास विक्रमशिला तथा काठियावाड़ में वल्लभी विश्वविदायलय उज्जयिनी विश्वविदायलय तथा दक्षिण में अमरावती विश्वविदायलय था। पर सहधाब्दी की समाप्ति तक ढलान की बेला आ जाती है। आठवीं शताब्दी में शंकर के बाद कोई दार्शनिक न हुआ। ब्राह्मणगण और बुध ह्रास की ओर थे। पूजा अपने विकृत रूप में दिखने लगी। साहित्य में भवभूति तथा गणित में भास्कर द्वितीय(बारहवीं शताब्दी) आखिरी बड़ा नाम था। प्राचीन भारतीय कला की रचनात्मक प्रवृति सोलहवीं शताब्दी तक स्पष्ट रूप से घटने लगे थे । कला के क्षेत्र में यह परंपरा दक्षिण भारत में लंबे समय तक कायम रही। अंतत: पतन की यह प्रक्रिया दक्षिण भारत तक पहुँच गई। राधाकृष्णन का कहना है कि भारतीय दर्शन ने अपनी शक्ति, राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ खो दी।
हर सभ्यता के जीवन में ह्रास और विकास के दौर बार-बार आते हैं, पर भारत ने उनसे बचकर अपनी स्थिति सुधार ली। सभ्यताओं के ध्वस्त होने के कई उदाहरण हैं; जैसे यूरोप की प्राचीन सभ्यता, जिसका अंत रोम के पतन के साथ हुआ। भारतीय सभ्यता का पतन यूँ अचानक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे हुआ। यह भारतीय समाज-व्यवस्था के बढ़ते कट्टरपन और गैर-मिलनसारी का परिणाम था, जिसे जाति-व्यवस्था में देखा जा सकता है। इस गैर-मिलह्वसारी की भावना ने रचनात्मकता को नष्ट कर दिया। हर आदमी का धंधा निश्चित और स्थायी हो गया। समाज जाति-व्यवस्था में जकड़ गया। ऊँची जातिवाले नीची जातिवालों को नीची नजर से देखा करते थे। नीची जाति के लोगों को शिक्षा तथा विकास से वंचित रखा जाता था। इस सामाजिक ढाँचे ने एक ओर अद्भुत दृढ़ता तो दी, परंतु इससे समाज के एक बड़े वर्ग के लोग समाज की सीढ़ी में निचले दर्जे में रहने को विवश हो गए।
इन सब कारणों से विचारों में, दर्शन में, राजनीति में, युद्ध की पद्धति में अर्थात हर तरफ ह्रस हुआ। क्षेत्रीयता, सामंतवाद और गिरोहबंदी बढऩे लगी थी, पर इसके बाद भी भारत में जीवनी शक्ति और अद्भुत दृढ़ता, लचीलापन और स्वयं को ढालने की क्षमता शेष थी।
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1. युगों का दौर क्या होता है? |
2. हिंदी भाषा का उदय कब और कैसे हुआ? |
3. कक्षा 8 के छात्रों के लिए युगों का दौर क्यों महत्वपूर्ण है? |
4. युगों का दौर कितने प्रकार का होता है? |
5. हिंदी भाषा का उदय किसलिए महत्वपूर्ण है? |
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