इस पाठ में रहीम के ग्यारह नीतिपरक दोहे संकलित हैं। ये दोहे जहाँ एक ओर पाठक वर्ग को दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए - इसकी सीख देते हैं, वे सभी मनुष्यों को करणीय-अकरणीय आचरण का ज्ञान करा देते हैं। सबसे पहले दोहे में कवि ने प्रेम रूपी धगे को तोड़ने से मना किया है क्योंकि आपसी प्रेम-संबंध में एक बार दरार पड़ जाने पर उसमें गाँठ पड़ जाती है, वह पहले जैसा नहीं रहता है। दूसरे दोहे में बताया गया है कि अपने मन की वेदना या कष्ट को अपने मन में ही छिपाकर रखना चाहिए। तीसरे दोहे में कवि कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष के मूल ‘जड़’ को सींचने से वृक्ष में फल-ूफल स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार इस सृष्टि के मूल परमात्मा की साध्ना करने से इस संसार की सभी कामनाएँ स्वतः पूरी हो जाती हैं। चैथे दोहे में कहा गया है कि विपत्ति आने पर मनुष्य शांति प्रदान करने वाले स्थान में चला जाता है
पाँचवें दोहे में ‘दोहा’ छंद की विशेषता का वर्णन हुआ है। छठे दोहे में रहीम बताते हैं कि कीचड़ का पानी भी धन्य है क्योंकि उससे न जाने कितने छोटे-छोटे प्राणी अपनी प्यास बुझाते हैं। इसके विपरीत विशाल जल का भंडार होकर भी सागर किसी की प्यास नहीं बुझा सकता। सातवें दोहे में कवि ने कहा है कि संगीत की सुर-लहरी पर मुग्ध् होकर मृग अपने प्राण तक न्योछावर कर देता है किंतु मनुष्य यदि किसी की कला पर मोहित होकर कुछ दान नहीं करता तो वह पशु से भी अध्म है। आठवें दोहे में कवि ने कहा है कि कोई बात यदि एक बार बिगड़ जाए तो लाख प्रयत्न करने पर भी वह बात बनती नहीं है, जैसे दूध् फट जाने पर मक्खन नहीं निकलता। नवें दोहे में कवि ने कहा है कि प्रत्येक वस्तु का अपना महत्व होता है। बड़ी वस्तु को देखकर छोटी वस्तु का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। दसवें दोहे में अपनी निजी संपत्ति का महत्व बताया गया है। ग्यारहवें दोहे में कवि ने विभिन्न संदर्भोंं में पानी की महत्ता स्थापित की है।