प्रश्न 13 : ‘यदि अरविन्द स्वदेशी आन्दोलन के प्रथित पुरोधी थे तो रविन्द्र नाथ इस आन्दोलन के कवि मनीषी थे।’ पल्लवित कीजिए।
उत्तर : अरविन्दो घोष ने अपने सत्याग्रह के सिद्धान्त व स्वदेशी आंदोलन के जरिये अंग्रेज सरकार की नीतियों एवं उनकी सत्ता का बहिष्कार किया। श्री घोष भारतीय सिविल सेवा में चयनित हो गये थे, लेकिन अनिवार्य घुड़सवारी परीक्षा में भाग नहीं लिया और इस सेवा को त्यागना पड़ा। 1906 में प्रोफेसर पद से त्यागपत्रा देकर स्वतंत्राता आंदोलन में सक्रिय हो गए और बंग-भंग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने प्रशासन, पुलिस, ब्रिटिश वस्तुओं व न्यायालयों का बहिष्कार किया और देशी वस्त्रों व स्कूलों का उपयोग आरंभ किया। बन्देमारम् पत्रिका द्वारा अपने लेखों में श्री घोष ने राष्ट्रप्रेम का संदेश दिया तथा धर्म व दर्शन को राष्ट्रीयता का आधार बताया। श्री घोष के अनुसार, आत्मविकास स्वतंत्राता के वातावरण में ही संभव है। भारत की स्वतंत्राता, उनकी आत्मा की पुकार थी तथा राष्ट्रीयता मानव जीवन का सर्वोत्तम भाव।
टैगोर ने अपनी लेखनी व संभाषणों के द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को गतिशील बनाया। उन्होंने देश भक्ति गीतों द्वारा भारत के गौरवपूर्ण अतीत व संस्कृति को प्रस्तुत करके जन.जन को प्रेरित किया। ‘आमार-सोनार बांग्ला.............’ जैसे गीतों ने राष्ट्रप्रेमियों को क्रांति के लिए प्ररेणा प्रदान की। जलियांवाला बाग काण्ड के विरोध में उन्होंने अपनी ‘सर’ की उपाधि त्यागी दी । इस प्रकार घोष के आध्यात्म व टैगोर के देशभक्ति गीतों ने स्वदेशी आंदोलन को प्रेरणा प्रदान की।
प्रश्न 14 : रामकृष्ण मिशन में स्वामी विवेकानन्द की भूमिका का विशेष रूप से ध्यान में रखते हुए इस संस्था का समीक्षात्मक परिचय दीजिए।
उत्तर : रामकृष्ण मिशन की स्थापना मई, 1897 में स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस की स्मृति में की थी। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरू के सिद्धांत ”मानवता की सेवा“ का अपने व्यवहारिक जीवन में अक्षरशः पालन किया। रामकृष्ण मिशन द्वारा विवेकानन्द, वेदान्त दर्शन के ‘तत् त्वमसि’ सिद्धान्त को व्यवहार रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। यह संस्था वैज्ञानिक प्रगति चिन्तन के साथ प्राचीन आध्यात्मवाद को जन-कल्याणकारी बनाने को प्रयत्नशील है। स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से कहा, वह धर्म किस काम का जो भूखे को रोटी देने और विधवा के आंसू पोंछने में असमर्थ हो। यह मिशन, समाज सुधार व सेवा में देश के अग्रगामियों में से एक है। इसके द्वारा विद्यालय, चिकित्सालय, काॅलेज चलाए जा रहे है, तथा कृषि, कला व शिल्प के प्रशिक्षण की व्यवस्था के साथ ही पुस्तकें व परित्राकाएं भी प्रकाशित की जाती हैं। स्वामी जी ने भावनात्मक उत्कृष्टता व हिन्दूवाद पर भी जोर दिया। उन्होंने ”गर्व से कहो हम भारतीय है“ उद्घोष द्वारा लोगों के मन में राष्ट्रवाद का दीप जलाया। स्वामी जी के वेदांत दर्शन संदेशों को रामकृष्ण मिशन ने विदेशों में भी प्रसारित किया।
प्रश्न 15 : राॅयल इंडियन नेवी अनाज्ञप्त नौ सैनिक (रेटिंग) का विद्रोह कब और क्यों हुआ? उन्होंने इस आन्दोलन को स्थगित क्यों कर दिया? इस आंदोलन के प्रति गांधी और पटेल के दृष्टिकोण क्या थे?
उत्तर : 1945.46 की शीत ऋतु में सैनिक सेवाओं में भी विद्रोह फैल गया, जिसने ब्रिटिश सम्मान को ठेस पहुंचाई। कलकत्ता से प्रारंभ होकर यह तीनों सेनाओं में फैल गया। 18 फरवरी, 1946 को बम्बई में राॅयल इंडियन नेवी के प्रशिक्षण पोत ‘तलवार’ के 1,100 नाविकों के बीच स्वतः स्फूर्ति विद्रोह भड़क उठा तथा उन्होंने खुला विद्रोह कर दिया। विद्रोह के पीछे प्रमुख कारण नाविकों द्वारा कमान अफसरों की कोई बात न मानना व उसके प्रत्युत्तर में कमान अफसरों द्वारा उनके विरुद्ध अनुशासनिक तथा प्रतिशोधात्मक कार्रवाई था। विद्रोही नौसैनिकों की प्रमुख मांग नस्ली भेदभाव समाप्त करना, बी.सी. दत्त की रिहाई, भारतीय व ब्रिटिश नाविकों के लिए समान सेवा शर्तें व जहाज पर कार्य की दशाओं में सुधार आदि थीं। इस विद्रोह के समर्थन में अनेक स्थानों पर मजदूरों ने भी हड़ताल की।
अंग्रेजी सरकार ने विद्रोहियों के आंदोलन को कुचलने के लिए दमनात्म्क कार्रवाई का सहारा लिया। सरदार पटेल ने आन्दोलनकारियों को आत्म समर्पण की सलाह दी तथा गांधी जी ने इसे अविवेकपूर्ण आन्दोलन कहा। गांधी जी ने विद्रोहियों को राजनीतिक पहल की प्रतीक्षा करने की सलाह दी। पटेल व गांधी जी का मानना था कि इस आन्दोलन के पूरी सेना में फैलने पर स्वतंत्राता के लिए जारी प्रक्रिया में अड़चन आएगी तथा अंग्रेजों को भारत को स्वतंत्रा करने में विलम्ब का एक अच्छा अवसर मिलेगा। कांगे्रस ने समस्या के समाधान हेतु पटेल को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया तथा पटेल के प्रयासों से आन्दोलन स्थगित कर दिया गया।
प्रश्न 16 : ‘डाॅ भीमराव अम्बेडकर का बहुमुखी जीवन अनेक स्थितियों से गुजरा’। उनके जीवन के अनेक पहलुओं का वर्णन संक्षेप में कीजिए।
उत्तर : (a) : डाॅ भीमराव अम्बेडकर का जन्म गरीब ‘महार’ परिवार में हुआ था। उन्होंने बड़ी कठिन परिस्थितियों में शिक्षा ग्रहण की थी। उनकी शिक्षा इंग्लैण्ड तथा अमरीका में हुई थी। 1923 में उन्होंने ‘वकालत’ का पेशा अपनाया। 1924 से 1934 तक वे बम्बई विधान सभा में सेवा कार्य करते रहे। उन्होंने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया था। वे भारतीय संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष भी रहे। डाॅ अम्बेडकर ने प्रथम विधिमंत्राी के रूप में भारत की सेवा भी की थी। उन्होंने सामाजिक एवं राजनीतिक समानता के लिए संघर्ष किया। उनका संघर्ष मुख्यतः दलितों व हरिजनों के लिए था। इसके अतिरिक्त ‘लेबर पार्टी’ की स्थापना का श्रेय भी ‘अम्बेडकर’ को है।
प्रश्न 17 : रवीन्द्रनाथ टैगोर कहां तक मानव जाति के कवि थे?
उत्तर (b) : रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताएँ विश्व बंधुत्व एवं भाई चारे का संदेश देती हैं। उनके काव्य में मानव की गरिमा तथा ब्रह्म व मानवीय एकता का स्वर प्रस्फुटित होता है। उन्होंने सदैव ही मानवतावाद एवं अंतराष्ट्रीयता पर बल दिया है। उन्होंने नैतिक विकास के लिये साधना, योग तथा तत्व मीमांसा पर अधिक जोर दिया। वे राष्ट्रवाद को मानवतावादि के विकास में अवरोध मानते थे तथा मानव की स्वतंत्राता के पक्ष में थे। टैगोर की प्रसिद्ध रचना गीतांजली है, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला।
प्रश्न18 : भारत में धार्मिक आंदोलन के इतिहास में थियोसोफिकल सोसाइटी की भूमिका का विवेचन कीजिए।
उत्तर (c) : थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1875 में अमरीका में हुई। इसकी स्थापना एक रूसी महिला मैडम हेलना पेट्रोवना व्लावात्सकी और एक अमरीकी सैनिक अफसर कर्नल हेनरी स्टील आॅलकाट ने की थी। धर्म को समाज सेवा का मुख्य साधन बनाने और धार्मिक भ्रातृभाव के प्रचार और प्रसार हेतु उन्होंने इस संस्था की स्थापना की थी। उन्होंने हिन्दू धर्म (जो राष्ट्रीय धर्म था) और बौद्धधर्म जैसे प्राचीन धर्मों को पुनर्जीवित कर उन्हें मजबूत बनाने की वकालत की। भारत में ‘ऐनी बेसेन्ट’ ने अडयार (मद्रास) में इस सोसाइयटी की स्थापना 1882 में की। दक्षिण भारत में इसका प्रभाव ज्यादा रहा। देखते.ही.देखते थियोसोफिकल हिन्दूवाद एक अखिल भारतीय आंदोलन बन गया। बेसेंट ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु बनारस में ‘सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल’ की स्थापना की, जो 1915 में विश्वविद्यालय के रूप में परिणित हो गया।
प्रश्न 19 : प्रेस की स्वतंत्राता कम करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए विभिन्न अधिनियमों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर (d) : प्रारंभ में किसी भी प्रेस संबंधी कानून के अभाव में समाचार पत्रा ईस्ट इण्डिया कंपनी के अधिकारियों की दया पर ही निर्भर करते थे। कंपनी के अधिकारी नहीं चाहते थे कि वे समाचार पत्रा जिनमें उनके उपक्रमों का उल्लेख होता था, किसी प्रकार लंदन पहुंच जाएं। जिन संपादकों से उन्हें परेशानी होती थी, उसे लंदन वापस भेज दिया था, लेकिन यह कृत्य भारतीयों के साथ संभव नहीं था। अतः 1799 में वेलेजली ने प्रेस नियंत्राण अधिनियम द्वारा समाचार पत्रों पर नियंत्राण लगा दिया। इसकेे अंतर्गत समाचार पत्रा पर समाचार पत्रा के संपादक व मुद्रक का नाम प्रकाशित करना अनिवार्य हो गया था। लार्ड हेस्टिंग्ज ने इसे कड़ाई से लागू नहीं किया तथा 1818 में फ्री सेंसरशिप को समाप्त किया। जाॅन हडम्स के समय (1823) भारतीय प्रेस पर पूर्ण प्रतिबंध रहा। लाइसेंस के अभाव में समाचार पत्रा प्रकाशित करने पर जुर्माना या कारावास की सजा भुगतनी पड़ती थी। 1835 के लिबरेशन आॅफ दि इंडियन प्रेस अधिनियम के लागू होने पर प्रकाशक को केवल प्रकाशन स्थान की सूचना देना आवश्यक था।1867 में पंजीकरण अधिनियम लागू करने का उद्देश्य समाचार पत्रों को नियंत्रित करना था तथा मुद्रक व प्रकाशक का नाम प्रकाशित करना अनिवार्य था। 1878 के वर्नाकुलर प्रेस अधिनियम में देशी भाषा समचार पत्रों को अधिक नियंत्राण में लाने का प्रयास किया गया। 1908 के अधिनियम द्वारा आपत्तिजनक सामग्री छापने पर मुद्रणालय जब्त कर लिए जाते थे। 1910 के इण्डियन प्रेस एक्ट के तहत प्रकाशकों से पंजीकरण जमानत जमा की जाती थी। इसके बाद क्रमशः 1931 व 1951 में भी प्रेस विरोधी अधिनियम लागू किये गए।
प्रश्न 20 : 1919 तक हुए सुधारों में, स्थानीय स्वायत्त शासन का एक संक्षिप्त इतिहास लिखिए।
उत्तर : 1816.19 में ऐसे अनेक कानून बनाए गए, जिससे स्थानीय शासन को सड़कों, पुलों व सामूहिक विकास संबंधी ग्रामीणोन्मुखी कार्य करने का अधिकार मिल गया। 1865 में मद्रास व बम्बई की सरकारों को भूमि पर कर लगाने का अधिकार दिया गया। मद्रास में नगर निगम की स्थापना की गयी। 1870 में लार्ड मेयो ने स्थानीय स्वायत्त सरकार की स्थापना पर बल देते हुए उसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, परिवहन व अन्य लोक निर्माण संबंधी कार्यों के अधिकार दिए जाने की घोषण की। 1871 में नगरपालिका अधिनियम पारित किया गया। इस संबंध में महत्वपूर्ण कार्य करने का श्रेय लार्ड रिपन को दिया जा सकता है। 1882 में उसने नगरीय व ग्रामीण क्षेत्रों में म्यूनिसपल बोर्ड, जिला बोर्ड व स्थानीय बोर्डों की स्थापना की तथा उन कमियों को ढूंढने का प्रयास किया, जो स्थानीय सरकारों को बाधा पहुँचाते थे। ग्रामीण क्षेत्रों में जिला व स्थानीय बोर्डों को ‘तहसील’ व ‘तालूका’ बोर्ड के नाम से जाना जाता था। जब कभी आवश्यकता महसूस होती थी, प्रतिनिधियों का चुनाव सरकार द्वारा नामित किये जाने के स्थान पर अदायगी के अनुसार कर लिया जाता था। 1907 में रायल कमीशन की स्थापना की गयी, जिसने ग्राम पंचायतों के पुनरुद्धार की वकालत की। 1919 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा स्थानीय स्वशासन को राज्येां की ‘स्थानान्तरि’ सूची में रख दिया गया।
प्रश्न 21 : ब्रिटिश सरकार के श्रम विधान कहाँ तक श्रमिक वर्ग की स्थिति को सुधारने के लिए बनाए गए थे?
उत्तर : प्रथम फैक्ट्री ऐक्ट में केवल बाल श्रमिकों के संरक्षण संबंधी प्रावधान लागू किये थे। द्वितीय फैक्ट्री ऐक्ट में साप्ताहिक छुट्टी तथा केवल महिलाओं व बच्चों के लिए कार्य करने के घण्टे निश्चित करने के प्रावधान किये गए।
(i) 1901 में पारित खादान ऐक्ट में खानों में कार्य करने वाले कर्मचारियों को लाभ मिला।
(ii) 1926 में भारतीय श्रमिक संघ ऐक्ट पारित हुआ। जिससे श्रम संगठनों की स्थिति मजबूत हुई।
(iii) 1926 में श्रमिक क्षति पूर्ति ऐक्ट पारित हो जाने से श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ।
(iv) 1994 में खानों में कार्यशील महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व हित लाभ ऐक्ट पारित किया गया।
(v) 1929 में पारित श्रम संघर्ष ऐक्ट के पारित हो जाने के बाद औद्योगिक संघर्षों को समझौता बोर्ड या अस्थायी जांच न्यायालय को दिए जाने की व्यवस्था की गयी।
(vi) 1929 में बंबई, 1930 में मद्रास, 1937 में दिल्ली, 1938 में उत्तर प्रदेश, 1939 में बंगाल, 1943 में पंजाब, 1944 में असम, 1945 में बिहार आदि राज्यों की सरकारों ने ‘मातृत्व हित लाभ ऐक्ट’ पारित किया।
(vii) 1947 में कोयला खान श्रम-कल्याण कोष ऐक्ट पारित हुआ व इसी वर्ष अभ्रक खान श्रमिक कल्याण कोष ऐक्ट पारित हुआ।
(viii) 1947 में परित औद्योगिक विवाद अधिनियम द्वारा औद्योगिक झगड़ों को निपटाने के लिए कार्य समितियां व समझौता अधिकारी की व्यवस्था की गयी।
ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित उपरोक्त सभी कानूनी प्रावधानों का मुख्य उद्देश्य मजदूरों की स्थितियों मेें सुधार लाना था।
प्रश्न 22 : भारत के सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन में आर्य सामज के क्या योगदान थे?
उत्तर : आर्य सामज का योगदान
1. वेदों को अभ्यान्तरिक एवं अचूक शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया तथा वेदों को सारे ज्ञान का स्त्रोत व भ्रम.रहित बताया।
2. मूर्तिपूजा, धार्मिक अनुष्ठान, पुरोहिताई, पशुबलि, बहुविवाह, अवतारवाद आदि का विरोध। उन्होंने पुजारियों पर, हिन्दूवाद को पथ भ्रष्ट करने का आरोप लगाया। उनके विचार से यह कार्य मिथ्यावादिता पर आधारित था।
3. जाति प्रथा, छुआदूत एवं बाल विवाह पर भी प्रहार किया गया तथ सामाजिक एकता व समानता को आदर्श माना गया।
4. इसके प्रोत्साहन से विधवा विवाह तथा अंर्तजातीय विवाह को बल मिला।
5. स्त्रिायों की दशा सुधारने व उनके बीच शिक्षा के प्रसार पर बल दिया गया।
6. प्राकृतिक आपदाओं के दौरान सामाजिक सेवा के कार्य किये गए।
7. पाश्चात्य विद्वानों के अध्ययन का समर्थन किया। साथ ही, हिन्दी भाषा के विकास में उल्लेखनीय कार्य किया।
8. जनता में स्वावलम्बन व आत्म प्रतिष्ठा की भावना जाग्रत की।
प्रश्न 23 : शिक्षा पर टैगोर के विचार की विवेचना कीजिए। रूढ़िगत शिक्षा पद्धति से यह कहाँ तक भिन्न था?
उत्तर : टैगोर को स्कूल की चार दीवारी में कैद शिक्षा स्वीकार नहीं थी। वे प्रकृति के निकट होकर अनौपचारिक शिक्षा के पक्षधर थे। वे बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्राता देने व शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को ही बनाए जाने के पक्षपाती थे। टैगोर प्राच्च सभ्यता के आधार पर केंद्रित शिक्षा प्रणाली अंगिकार करने पर बल देते थे। उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य मानव के व्यक्तित्व का विकास करना होना चाहिए। गांधीजी के बुनियादी शिक्षा संबंधी विचारों से टैगोर सहमत नहीं थे। उनके अनुसार, बालक अपनी रुचि की शिक्षा की और स्वयं ही अग्रसर होता है। अतः उसे स्वतन्त्राता देना चाहिए न कि स्वच्छन्दता। टैगोर के अनुसार, शिक्षा ऐसी होनाी चाहिए, जो ऐसी जीवन दृष्टि प्रदान करे और जिससे मानव समस्त समाजिक व प्राकृतिक परिवेश में विश्वात्मा को देखे।
प्रश्न 24 : बच्चों के गुणों का विकास कैसे करेगें।
उत्तर : प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने कहा था कि बच्चों का दिमाग ‘टेबुला रासा’ यानि कोरी कागज होता है। यह पूर्णत सफेद होता है। आप जैसा चाहें वैसा लिख सकते हैं और वह संग्रहित होता जाता है। प्लेटो ने इसे ‘कोरी स्लेट’ की संज्ञा दी। साधारण शब्दों में कहें तो बच्चा गीली मिट्टी होता है। आप इससे जिस तरह का घड़ा बनाना चाहें बना सकते हैं। बच्चों में अनेक प्रकार के गुण पाये जाते हैं और वह स्वाभविक होता है। बच्चा जिज्ञासु होता है। वह सब कुछ जानना चाहता है। शिक्षक को उसके इस स्वाभाविक इच्छा के अनुसार चलना चाहिए। उनके हरेक जिज्ञासा का उत्तर शिक्षक के पास होना चाहिए।
बच्चों का मन एक उड़ते हुए पक्षी की तरह होता है। मुक्त स्वभाव। शिक्षक को उनके स्वभाव को वातावरण के अनुसार ढालना होता है। बच्चा अवोघ और निष्पाप होता है। उनका समझ विकासशील होता है, इनको विकास की प्रक्रिया में लगाना ढालना ही हमारा उद्देश्य है। बच्चों का एक प्रमुख गुण होता है अनुकरण करना। तो सवाल यह उठता है कि जिसकी वह अनुकरण करता है वही अगर सही नहीं तो अनुकरण करने वाला भी गलत हो जाएगा।
इसके लिए शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावकों का भी जिम्मेदारी है। क्योंकि बच्चा, जो छोटा होता है, वह मात्रा 4 घंटे ही स्कूल में होते हैं और 20 घंटे घर। अतः घर का वातावरण भी उतना ही जरूरी है।
विभिन्न बच्चों की मानसिक एवं शारीरिक क्षमता अलग-अलग होती है। और उनकी रुचि भी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि उनकी इन विषमताओं को कैसे संतुलित किया जाए। जो बच्चा जिस विभाग में कमजोर है उसे उस विभाग में आगे बढ़ाना चाहिए।
एक कहावत है ”पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कुदोगे बनोगे खराब“ पर आज के संदर्भ में यह कहावत उचित नहीं है। किसी बच्चे को पढ़ने में मन नहीं लगता है पर वह खेलने में बहुत ही अच्छा है। अगर उसकी रुचि खेल में है तो शिक्षक को उसके इसी गुण को उदारपूर्ण लेना चाहिए और और उससे ही बढ़ावा देना चाहिए। आप अगर देखें कोई भी अच्छा खिलाड़ी पढ़ने में अच्छा नहीं था। हरेक आदमी कोई एक खास गुण लेकर जन्म लेता है- उसे बढ़ावा दें। कोई तबला बजाना पसन्द करते हैं -क्या आप उसे वैज्ञानिक बना देंगे। जैसे श्री लालु प्रसाद यादव अगर राजनीतिज्ञ नहीं होते तो क्या होेते। उनकी मानसीकता एवं सोच एक राजनीतिज्ञ का था। वे उस पर चल पड़े वे आज कहाँ है यह आप भी जानते हैं।
एक बच्चा प्रेम और प्रंशसा चाहता है। शिक्षकों को उनकी इस भावना का कद्र करना चाहिए। बच्चा हरेक बात जल्द जानना चाहता है। और उनको जानने का अपना तरीका होता है। उनको अपनी तरह से ही सीखना चाहिए।
भारत के हरेक क्षेत्रा में पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियाँ अलग-अलग होता है। उन सबों को सामंजस्य में रखना एक बहुत ही बड़ा काम है। मुझे ऐसा लगता है कि इन बातों के सामंजस्य में रखकर चलना शिक्षक की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
बच्चा सही और गलत में अंतर नहीं कर पाता है। वह अविकसित विवेक वाला होता हैै। उसको यह समझाना होगा कि क्या गलत है और क्या सही। पाठ्यक्रम का सही चुनाव होना चाहिए। शिक्षकों को ध्यान देना होगा कि उनकी इस मनःस्थिति में कैसे परिवर्तन ले आऐ।
उनके मनोवैज्ञानिक भाव को भी पढ़ना उचित होगा। कुछ बच्चा संकोची होता है तो कुछ बच्चा ज्यादा बोलने वाला। कुछ गुस्सैल होता है तो कुछ आत्मविश्वासपूर्ण।
इनको बच्चों का गुण कहें या अवगुण पर यह स्वाभाविक होता है। आप जैसा चाहें इनके इन गुणों को या अवगुणों को घटा बढ़ा सकते हैं। शिक्षकों का उचित गुण ही बच्चों में उचित गुणों का संचार एवं विकास कर सकता है।