प्रश्न 10 : भारत में जिला-योजना पर नवीकृत बल दिया जा रहा है। उसके तर्काधार, विगत अनुभव तथा सफलता की संभाव्यता का परीक्षण कीजिए।
उत्तर : जिला नियोजन से यह तात्पर्य है कि जिला स्तर की योजना का नियोजन एक प्रतिनिधित्व प्रशासन के माध्यम से किया जाए। पूर्व अनुभव यह दर्शाता है कि सामुदायिक विकास योजना का नियोजन एक प्रतिनिधित्व प्रशासन के माध्यम से किया जाए। पूर्व अनुभव यह दर्शाता है कि सामुदायिक विकास योजना असफल रहीं, क्यों कि इसमें लोगों की भागीदारी नहीं थी। साथ ही देखा गया है कि जो भी योजना ऊँचे स्तर पर तैयार होती है वह लोगों की आवश्यकता के अनुरूप कार्य नहीं कर पाती है। लकिन जिला नियोजन में स्थानीय संसाधनों एवं लागों का उपयोग किया जा सकता है। स्थानीय क्षमता का उपयोग काॅलेजों, विद्यालयों, स्वैच्छिक संस्थाओं या पेशेवर संगठनों के लोगों को लेकर किया जा सकता है। अगर जिला स्तर पर इनका सहयोग नहीं रहा तो विकास के सारे कार्य ठप्प पड़ सकते हैं। जिला नियेजन दो बातों पर ध्यान देता है। पहली, जिला स्तर पर ही नियोजन के लिए संसाधन जुटाए जाएं ताकि लोगों की आकांक्षायें पूरी हो सकें। दूसरी, कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा की जाए। पंचायती राज संस्थाओं का इस नियोजन में सहयोग लिया जाना चाहिए। इनकी मदद इसलिए भी जरूरी हो जाती है क्यों कि ये एक जिले में धमिनियों का काम करती हैं।
प्रश्न 11 : निम्नलिखित के सम्बन्ध में लिखिएः
(i) उपनिषद् (ii) वज्रायण
(iii) कुमारसम्भव (iv) रज़्मनामा
(v) मिर्ज़ा हैदर (vi) मुहम्मद बर्कतुल्ला
(vii) सोहन सिहं माकना (viii) अलूरी सीतारामराजू
(ix) जाडौंग (x) जादुनाथ सरकार
(xi) नाज़िर हसन (xii) सुभाष गुप्ते
(xiii) आचार्य निर्मलय (xiv) ज्योतिराव फुले
(xv) कांजीवरम् नटराजन अन्नादुराई
उत्तर-(i) उपनिषद- ई. पू. 800 से 500 के बीच रचित 108 उपनिषद् वेदों के अन्तिम भाग हैं। ये ग्रन्थ उत्तर वैदिककाल में गुरु.शिष्य परम्परा के अनुपम सोपान हैं। जिनमें गुरु अपने शिष्य को पास बैठाकर दर्शन का ज्ञान प्रदान करता है। गीता का सम्पूर्ण दर्शन उपनिषदों से प्रभावित है।
(ii) वज्रायण-बौद्ध धर्म की एक शाखा है जिसका विकास सातवीं शताब्दी में हुआ। इस शाखा के समर्थक मन्त्रों तथा तान्त्रिाक क्रियाओं को मोक्ष प्राप्ति का साधन मानते थे। ये लोग तारा देवी की पूजा करते थे तथा मांस एवं मैथुन पर जोर देते थे।
(iii) कुमारसम्भव- महाकवि कालिदास द्वारा रचित एक महाकाव्य है जिसमें भगवान शिव तथा पार्वती के पुत्रा कार्तिकेय (कुमार) के जन्म की कथा का वर्णन है।
(iv) रज़्मनामा- सम्राट् अकबर के शासनकाल में बदायूँनी, अबुल फज़ल तथा फैजी आदि के सम्मिलित प्रयासों से महाभारत का फारसी में अनुवाद किया गया था जिसे रज़्मनामा के नाम से जाना जाता है।
(v)मिर्जा हैदर- सन् 1540 में कश्मीर का शासक मिर्जा हैदर मुगल सम्राट् हूमायुँ का रिश्तेदार था। कुछ वर्षों बाद ही मिर्जा हैदर को वहाँ के हिन्दू राजा द्वारा अपदस्थ कर दिया गया।
(vi) मुहम्मद बर्कतुल्ला-क्रान्तिकारी नेता महेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा सन् 1915 में स्थापित स्वतन्त्रा भारत की अस्थायी सरकार के प्रथम प्रधानमंत्राी थे।
(vii) सोहन सिहं भाकना -पंजाब के नामधारी सिख सोहन सिंह भाकना ने सन् 1913 में लाला हरदयाल के साथ मिलकर अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना की थी। इन्ही के द्वारा सन् 1915 में हिन्दू संघ की स्थापना की गई। माकना का सम्बन्ध कामागाटामारू जहाज की घटना से भी था।
(viii) अलूरी सीतारामराजू-रंपा क्षेत्रा में साहूकारों द्वारा कृषकों के शोषण के विरुद्ध। इनूम खेती तथा शताब्दियों से चले आ रहे चरागाह सम्बन्धी अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाए जाने के विरोध में सन् 1922 से 1924 के बीच छापामार युद्ध को नेतृत्व करने वाले सीताराम राजू को क्रान्तिकारी कहा जाता है।
(xi) जाडौंग- मणिपुर में नागा जनजाति के नेता एवं स्वतन्त्राता सेनानी, समाज सुधारक एवं धार्मिक सुधारों के समर्थक थे। इन्हें अंग्रेज सरकार द्वारा सन् 1831 में फाँसी की सजा सुनाई गई।
(x) जदुनाथ सरकार-भारत के एक प्रमुख इतिहासवेत्ता हैं। इन्होंने मुख्य रूप से मध्यकालीन इतिहास पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं जिनमें मराठाओं के आर्थिक एवं राजनीतिक उत्थान.पतन का उल्लेख है।
(xi) नाज़िर हसन-उन्नीसवीं शताब्दी में मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विकास के लिए समर्पित रहे नाजिर हसन ने सर सैयद अहमद खाँ के साथ मिलकर अलीगढ़ आन्दोलन में कार्य किया था।
(xii) सुभाष गुप्ते-भारत के लेग स्पिनर सुभाष गुप्ते ने वेस्टइण्डीज के विरुद्ध एक टेस्ट मैच में 9 विकेट गिराकर भारत को विजयश्री दिलाई थी।
(xiii) आचार्य निर्मलय-बंगाली साहित्य एवं सिनेमा के एक पुरोधा आचार्य निर्मलय ने ष्चलचित्रों प्रथम सूत्राष् नामक निबन्ध लिखा है जिसमें भारतीय सिनेमा के प्रारम्भिक दौर का उल्लेख है।
(xiv) ज्योतिराव फुले-महाराष्ट्र के एक प्रमुख समाज सुधारक ज्योतिराव फुले ने सन् 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। वे ब्राह्मणों एवं ब्राह्मणवाद के घोर विरोधी थे। उन्होंने गुलामगीरी, इशारा तथा शिवाजी की जीवनी नामक पुस्तकों की रचना की।
(xv) कांजीवरम् नटराजन अन्नादुराई - तमिलनाडु के प्रमुख समाज सुधारक तथा राजनीतिज्ञ कांजीवरम् नटराज अन्नादुरई ने सी.एन. अन्नादुरई नयकर के साथ मिलकर सन् 1944 में द्रविड़ कजगम की स्थापना की। बाद में वे इससे अलग हो गए तथा 1949 में द्रविड़ मुनेत्रा कजगम (DMK) की स्थापना की।
प्रश्न 12 : भारत सरकार अधिनियम 1919 के द्वारा लागू की गई द्वैध शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
उत्तर : द्वैध शासन प्रणाली से अभिप्राय - 1919 ई. के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार भारत के प्रान्तों में द्वैध-शासन की व्यवस्था की गई। द्वैध शासन का तात्पर्य शासन की दोहरी प्रणाली से है। इस शासन प्रणली के अन्तर्गत शासन को दो भागों में विभाजित किया गया अर्थात् प्रान्तीय को (i) हस्तांतरित तथा (ii) सुरक्षित दो श्रेणियों में विभाजित किया गया। संरक्षित विषयों में न्याय, प्रबन्ध, पुलिस, सिंचाई, भूराजस्व, समाचार-पत्रा नियन्त्राण आदि ऐसे विषय सम्मिलित थे जो जन-कल्याण और देशों में शान्ति बनाएं रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक थे। हस्तांतरित विषयों में शिक्षा, कृषि स्थानीय स्वशासन, स्वास्थ्य प्रबन्ध आदि विषयों को रखा गया। ये विषय स्थानीय समस्याओं से सम्बन्धित थे।
विषयों की भाँति प्रान्तीय कार्यकारिणी के भी दो भाग किए गए हैं। एक भाग में गवर्नर तथा उसकी कौंसिल के सदस्य सम्मिलित थे और दूसरे में गवर्नर तथा प्रान्तीय मन्त्राी। संरक्षित विषय गवर्नर तथा कौंसिल के सदस्यों को और हस्तांतरित विषय भारतीय मंत्रियों को सौंपे गये थे। गवर्नर तथा कौंसिल के सदस्य अपने विषयों के लिए ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी थे और मन्त्राीगण अपने कार्यों के लिए प्रान्तीय विधान मण्डल के प्रति उत्तरदायी थे
भारत के विभिन्न प्रान्तों में लगभग 16 वर्षों तक द्वैध शासन लागू रहा। उसके बाद इसे वहाँ से समाप्त कर दिया गया।
प्रश्न 13 : भारत सरकार अधिनियम 1935 से पूर्व घटित प्रमुख राजनीतिक घटनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर : (i) असहयोग आन्दोलन - रौलेट एक्ट, जलियांवाला बाग हत्याकांड तथा खिलाफत समस्या ने गाँधी जी को सहयोगी से असहयोगी बना दिया। कांग्रेस ने 1920 में गांधी जी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन चलाया परन्तु 5 फरवरी को चैरा-चैरी के स्थान पर जनता ने उत्तेजित होकर एक पुलिस चैकी को आग लगा दी जिसमें कई सिपाही मारे गए। गाँधी जी इस दुर्घटना से बहुत दुःखी हुए क्योंकि वे हिंसात्मक ढंग से ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लड़ना नहीं चाहते थे। इसलिए इस हिंसात्मक काण्ड से दुःखी होकर उन्होंने आन्दोलन समाप्त करने की घोषणा की।
(ii) स्वराज पार्टी - चितरंजनदास ने पण्डित मोतीलाल से मिलकर इलाहाबाद में मार्च 1923 में स्वराज पार्टी की स्थापना की। स्वराज पार्टी और कांगे्रस का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर रहकर औपनिवेशक स्वराज के अधिराज्य स्थिति प्राप्त करना था। स्वराज पार्टी को 1923 के आम चुनावों में बहुत अधिक सफलता मिली परन्तु देशबन्धु चितरंजनदास की मृत्यु के पश्चात् स्वराज पार्टी कमजोर पड़ गई। 1926 ई. के चुनावों में स्वराज पार्टी को कोई विशेष सफलता प्राप्त न हुई। इसके बाद स्वराज पार्टी के अधिकतर सदस्य कागे्रंस में वापस चले गये।
(iii) साइमन आयोग - 1927 ई. में ब्रिटिश सरकार ने साइमन आयोग की नियुक्ति की परन्तु इस आयोग के सात सदस्यों में से सभी सदस्य अंग्रेज थे और कोई भी भारतीय नहीं था। यह आयोग दो बार भारत आया और भारतीयों के असहयोग आन्देालन के बावजूद भी इसने दो वर्ष कड़ा परिश्रम करके अपनी रिपोर्ट तैयार की। यह रिपोर्ट मई 1930 में प्रकाशित हुई। साइमन कमीशन की सिफारिशें बड़ी दोषपूर्ण थीं जिस कारण कांग्रेस ने इसको अस्वीकार कर दिया।
(v) सविनय अवज्ञा आन्दोलन - अंग्रेजों के दिलासों से तंग आकर अन्त में कांग्रेसी नेताओं ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारंम्भ कर दिया। 1928 में सरदार पटेल के नेतृत्व में किसानों ने बारदोली में सफल सत्याग्रह किया और भूमि कर देने से इन्कार कर दिया।
अहिंसात्मक ढंगों को अपनाते हुए 12 मार्च 1930 को 79 कार्यकत्र्ताओं के साथ गाँधीजी साबरमती आश्रम से समुद्र तट की ओर चल पड़े। गांधीजी और उनके साथी 3 अपै्रल, 1930 को डांडी पहुंचे। 6 अप्रैल, 1930 को प्रातः काल प्रार्थना के बाद गांधीजी ने 2000 लोगों से अधिक के सामने नमक का कानून तोड़ा। नमक कानून तोड़ने के साथ ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हो गया और सारे देश में सत्याग्रह फैल गया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कार्यक्रम के अनुसार स्थान-स्थान पर नमक का नियम तोड़ा गया, विदेशी वò जलाए गए तथा स्त्रिायों ने शराब की दुकानों पर धरना दिया और पर्दों को उतार कर सत्याग्रह में बड़े जोश से भाग लिया। धरासना में 25000 सत्याग्रहियों ने नमक के गोदाम पर आक्रमण किया जिसमें अनेकों घायल हुए, 1930 में बम्बई में अंग्रेजों की 16 मिलें बन्द हो गईं और भारतीय मिलें दुगुनी हो गईं। किसानों ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इस आन्दोलन से देश भर में नई लहर दौड़ गई।
(v) पूना समझौता - साम्प्रदायिक एवार्ड में हरिजनों के लिए अलग चुनाव प्रणाली की व्यवस्था किए जाने के विरोध में गांधी जी ने आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। सरकार ने इसकी कोई परवाह नहीं की और गांधी जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। ऐसी परिस्थिति में भारतीय नेताओं ने गांधी जी से पूना में भेंड की। छः दिन के विचार-विमर्श के बाद उन्होंने ‘पूना पैक्ट’ के रूप में इस समस्या का हल निकाला। ब्रिटिश सरकार ने पूना समझौता को स्वीकार हरिजनों के लिए पृथक् चुनाव क्षेत्रा नहीं होंगे और उनके लिए सामान्य चुनाव क्षेत्रों में ही स्थान सुरक्षित किए जाने की व्यवस्था की गई।
(vi) क्रान्तिकारी आन्दोलन - राष्ट्रीय आन्दोलन के तीसरे चरण (1919.1939) में क्रान्तिकारियों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव इत्यादि क्रान्तिकारियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन क्रान्तिकारियों ने भारतीयों को इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा दिया।
निष्कर्ष - इस प्रकार साइमन आयोग की सिफारिशों एवं अन्य राजनीतिक घटनाओं और विकास के परिणामस्वरूप ब्रिटिश संसद ने 1935 ई. में एक अधिनियम पास किया जिसे भारत सरकार अधिनियम 1935 के नाम से जाना जाता है। इस अधिनियम के अनुसार भारत में कुछ सुधार करने की कोशिश की गई।
प्रश्न 14 : भारत सरकार अधिनियम 1935 की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर : भारत सरकार अधिनियम 1919 में यह व्यवस्था की गई थी कि 10 वर्ष बाद एक संसदीय कमीशन नियुक्त किया जाएगा जो इस बात पर विचार करेगा कि भारतवासियों ने संवैधानिक दिशा में कितनी प्रगति की है और भविष्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना के उद्देश्य से और क्या सुधार किए जाएं। भारतीय नेताओं ने 1919 के एक्ट के अन्तर्गत स्थापित किए गए द्वैध शासन की कड़ी आलोचना की और इसमें सुधार मांग की। ब्रिटिश सरकार ने 1933 में एक श्वेत पत्रा प्रकाशित किया जिसमें भारत के भावी संविधान की रूपरेखा का उल्लेख था। श्वेत-पत्रा ब्रिटिश संसद् के दोनों की एक संयुक्त प्रवर समिति को सौंपा गया जिससे इस पर विचार करके अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कीं। इस समिति के सुझावों के आधार पर 1935 का एक्ट संसद् द्वारा पास किया गया जो 1937 में लागू हुआ। 1935 के भारत सरकार अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं -
1935 के अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं
(i) केन्द्र में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना - 1935 ई. के अधिनियम के द्वारा केन्द्र में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना की गई। इसके अनुसार केन्द्रीय विषयों को सुरक्षित और हस्तांतरित करके दो वर्गों में बांटा गया और उसी के अनुरूप कार्यपालिका को दो विभागों में विभाजित किया गया। सुरक्षित विषयों को गवर्नर जनरल और उसके द्वारा मनोनीत मंत्रियों के अधिकार में रखा गया। वे विषय थे सुरक्षा, धार्मिक मामले तथा वैदेशिक सम्बन्ध आदि। सुरक्षित विषयों से सम्बन्धित मंत्राी विधान-मण्डल के प्रति उत्तरदायी नहीं होते थे तथा हस्तांतरित विषयों के प्रशासन के लिए विधान-मंडल में से नियुक्त करने की व्यवस्था थी। ये मंत्राी विधान-मंडल के प्रति उत्तरदायी होते थे। ये मन्त्राी सामूहिक उत्तदायित्व के आधार पर कार्य करते थे। विधान-मण्डल इन मन्त्रिायों को हटा भी सकता था।
(ii) विषयों की तीन सूचियां - इस अधिनियम के द्वारा भारत में संघीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई तथा तीन सूचियों की भी
यवस्था की गई: (i) संघ सूची, (ii) प्रान्तीय सूची तथा ;3द्ध समवर्ती सूची। (1)संघ सूची - इस सूची में 59 विषय थे जिनमें सेना, वैदेशिक विभाग, मुद्रा, डाक तार आदि प्रमुख थे। (ii) प्रान्तीय सूची - इस सूची में प्रान्तीय महत्त्व के 54 विषय शामिल थे जिनमें शिक्षा, कृषि, जन-स्वास्थ्य, न्याय आदि थे। (iii) समवर्ती सूची कृ इस सूची में 36 विषय शामिल थे जिनमें विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, श्रम कल्याण आदि थे। संघीय सूची के विषयों पर केन्द्र तथा प्रान्तीय सूची के विषयों पर प्रान्तों को तथा समवर्ती सूची के विषयों पर दोनों को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त था।
(iii) विधान-मण्डलों के सदस्यों तथा निर्वाचकों की संख्या में विस्तार - 1935 ई. के अधिनियम द्वारा संघीय व्यवस्थापिका के दो सदनों की व्यवस्था की गई जिनमें एक संघीय विधान सभा और दूसरी राज्य परिषद थी। संघीय विधान सभा के सदस्यों की संख्या 144 से बढ़ाकर 375 और राज्य सदस्यों की संख्या 60 से बढ़ाकर 260 कर दी गई। इसी तरह प्रान्तों के विधान-मण्डलों के सदस्यांे की संख्या भी बढ़ा दी गई। बंगाल की विधान सभा के सदस्यों की संख्या 140 से बढ़ाकर 250 और पंजाब विधान सभा के सदस्यों की संख्या 94 से बढ़ाकर 175 कर दी गई। इस अधिनियम द्वारा मताधिकार का भी विस्तार किया गया। प्रान्तों के लिए 10 प्रतिशत से भी कुछ अधिक जनता को मताधिकार दिया गया।
(iv) प्रान्तों में स्वायत्त शासन - 1919 ई. के अधिनियम द्वारा प्रान्तों को आंशिक रूप से उत्तरदायित्व प्रदान किया गया था। 1935 ई. के अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में ‘द्वैध शासन व्यवस्था’ का अन्त कर दिया गया तथा उन्हें स्वतन्त्रा और स्वशासित संवैधानिक आधार प्रदान किया। सुरक्षित व हस्तान्तरित विषयों में कोई भेद न रखकर सभी विषय यत्रियों के अधिकार में दे दिए गए। सभी मन्त्रिायों को प्रान्तीय विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया ताकि सामूहिक उत्तदायित्व के आधार पर कार्य किया जाए। इस प्रकार प्रान्तों को पूर्ण स्वायत्त शासन प्राप्त हो गया।
(v) गवर्नर जनरल और गवर्नरों की विशेषाधिकार - 1935 ई. के अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल और गवर्नरों को विशेष उत्तरदायित्व सौंपे गये जिससे कि वे स्वविवेक से कार्य कर सकते थे। इन अधिकारों के कारण केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान-मण्डलों पर काफी सीमाएं लगाई गई। उन्हें मन्त्रिायों के परामर्श के विरुद्ध कार्य करने तथा उनके कार्योें में हस्तक्षेप करने की विभिन्न शक्तियां प्राप्त थीं।
(vi) संघीय न्यायालय की स्थापना - 1935 ई. के अधिनियम द्वारा भारत में एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। अधिनियम के अनुसार न्यायाधीशों की संख्या 6 निश्चित की गई थी। परन्तु वास्तव में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 2 अन्य न्यायाधीश नियुक्त किए गए। इस न्यायालय को केन्द्र और राज्य के झगड़ों को निपटाने और संविधान की व्याख्या करने का अधिकार दिया गया। इस न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध लंदन की प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।
प्रश्न 15 : 1935 ई. के अधिनियम द्वारा लागू की गई प्रान्तीय स्वायत्तता का विवेचन कीजिए।
उत्तर : प्रान्तीय स्वायत्तता का अर्थ - प्रान्तीय स्वायत्तता का अर्थ है प्रान्तीय सरकारों को केन्द्र के नियन्त्राण से मुक्त किया जाना तथा उन्हें अपने प्रान्त का प्रशासन करने की स्वतन्त्राता या स्वायत्तता प्रदान करना। इसके अनुसार प्रान्तों का कार्यक्षेत्रा निश्चित कर दिया जाता है। प्रान्तों की विधायिकी शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार प्रान्तीय विधानमण्डलों को ही दिया जाता है। प्रान्तों की कार्यपालिका शक्तियां निर्वाचित मंत्रियों को सौंप दी जाती हैं और वे अपने प्रान्त के लोगों का इच्छा व आवश्यकता अनुसार शासन करते हैं। मंत्राी अपने कार्यों के लिए अपने प्रान्त के विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
भारत सरकार अधिनियम 1935 ई. के अनुसार भी भारत के प्रान्तों में इसी प्रकार की स्वायत्तता स्थापित की गई। इसके अनुसार प्रान्तों को अपने अधिकार क्षेत्रा की सीमाओं में स्वतन्त्रातापूर्वक शासन करने का अधिकार प्रदान किया गया।
(i) प्रान्तों में उत्तरदायी शासन की स्थापना - 1935 ई. के भारत सरकार अधिनियम की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसके अनुसार प्रान्तों में उत्तरदायी शासन की व्यवस्था की गई थी। मन्त्रिायों की नियुक्ति, जो प्रान्त के सभी प्रशासकीय विभागों के इन्चार्ज थे, गवर्नर द्वारा विधान सभा के बहुमत दल के नेता की सिफारिश पर दी जाती थी। मन्त्राी अपने कार्यों के लिए विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी थे और उसी समय तक अपने पद पर रह सकते थे जब तक कि उन्हें विधानसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त रहता था।
(ii) प्रान्तों की निश्चित शक्तियां - 1935 ई. के अधिनियम द्वारा प्रान्तों तथा केन्द्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्रों को निश्चित कर दिया गया। समस्त विषयों को तीन सूचियों में विभाजित किया गया थाः (क) संघीय सूची, (ख) प्रान्तीय सूची, (ग) समवर्ती सूची। प्रान्तीय सूची में 54 विषय थे जिनका सम्बन्ध प्रान्तीय प्रशासन से था जैसे कि कानून और व्यवस्था, शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, जेल, न्याय, जंगल, कृषि, सिंचाई आदि। अब प्रान्तों की अपनी शक्तियां मौलिक रूप से 1935 के एक्ट द्वारा मिली हुई थीं जिसमें केन्द्रीय विधानमण्डल अपनी इच्छा से परिवर्तन करके प्रान्तों के अधिकार क्षेत्रा पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता था।
(iii) प्रान्तीय विधानमण्डल - प्रान्तीय स्वायत्तता की एक विशेषता यह थी कि इसके अन्तर्गत प्रान्तीय विधानमण्डल की शक्तियों को भी विस्तृत तथा निश्चित किया गया। विधानसभाओं में सदस्यों की संख्या बढ़ाई गईं और मनोनीत सदस्यों के सिद्धान्त को समाप्त कर दिया गया। मताधिकार भी पहले से अधिक लोगों को प्रदान किया गया। छः प्रान्तों में विधानमण्डल के दूसरे सदन की भी व्यवस्था की गई। प्रान्त की समस्त कार्यपालिका प्रान्तीय विधानसभा के प्रति उत्तरदायी थी। बजट के लगभग 70% भाग पर उसे नियन्त्राण का अधिकार भी दिया गया था। प्रान्तीय विधानमण्डल प्रान्तीय तथा समवर्ती सूचियों पर स्वतन्त्रातापूर्वक कानून बना सकता था।
(iv) प्रान्तीय गवर्नर - प्रान्त की सभी कार्यपालिका शक्तियाँ प्रान्तीय गवर्नर में ही निहित थीं, परन्तु अब उसकी संवैधानिक स्थिति को बदल दिया था। उसे कुछ स्वेच्छाचारी तथा विशेष शक्तियों सहित एक संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में रखा गया जो अपनी इन शक्तियों के अतिरिक्त अन्य सभी कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छा से करके मन्त्रिापरिषद् की सलाह से करता था। गवर्नर पूर्ण रूप से संवैधानिक अध्यक्ष नहीं था, परन्तु उससे यह आशा की गई की कि प्रशासन के दैनिक जीवन तथा साधारण मामलों में वह जहां तक सम्भव हो, मन्त्रिापरिषद् की सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।
(v)प्रान्तीय मन्त्रिापरिषद - प्रान्तीय स्वायत्तता के अन्तर्गत प्रान्त के सभी प्रशासकीय विभाग लोकप्रिय मन्त्रिायों के नियन्त्राण में रखे गये। प्रान्त में ऐसा कोई विभाग नहीं था जो कि रक्षित हो और जिनका प्रशासन गवर्नर अपनी इच्छा से चला सकता हो। केवल पुलिस विभाग के सम्बन्ध में गवर्नर को कुछ विशेष शक्तियां प्राप्त थीं।
(vi) प्रान्तीय सेवाएँ - प्रान्तीय स्वायत्तता के अन्तर्गत प्रान्तों में अलग सार्वजनिक सेवाओं का निर्माण किया गया। इन प्रान्तीय सेवाओं के सदस्य प्रान्तीय सरकारों द्वारा नियुक्त किए जाते थे और उनके भत्ते तथा सेवा की शर्तें भी प्रान्तीय सरकारों द्वारा निश्चित की जाती थीं।
प्रश्न 16 : माउंट बेटन योजना के प्रमुख प्रावधाओं का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर : माउंट बेटन योजना - भारत के नए गवर्नर जनरल लार्ड माउंट बेटन ने 3 जून, 1947 को भारतीय नेताओं को देश के विभाजन के लिए तैयार कर लिया। इस समय जो योजना गवर्नर जनरल ने भारतीय नेताओं के सामने रखी उसे माउंट बेटन योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना की प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं -
(i) भारत को बांटकर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दो राज्य बना दिए जाएंगे।
(ii) बंगाल और पंजाब की विधानसभाओं का विचार पूछा जाएगा कि इन प्रान्तों का विभाजन किया जाए या नहीं।
(iii) उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रान्त और आसाम में सिलहट जिले में लोकमत करवाया जाए कि लोग पाकिस्तान जाना चाहते हैं या भारत में रहना चाहते हैं।
(iv) संविधान सभा के दो भाग कर दिए जाएंगे एक भारत के लिए और दूसरा भाग पाकिस्तान के लिए संविधान बनायेगा।
(v) देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान से मिलने का अधिकार दिया जायेगा।
(vi) 15 अगस्त 1947 ई. को भारत और पाकिस्तान दो नए राज्य बना दिए जाएंगे।
प्रश्न 17 : भारतीय संविधान सभा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर : ब्रिटेन में मजदूर दल की सरकार बनते ही उसने भारत की राजनीतिक गुत्थी को सुलझाने के लिए कैबिनेट मिशन को भारत भेजा। इस मिशन ने भारत के लिए संविधान निर्माण के कार्य को पूरा करने के लिए एक संविधान सभा (Constitution Assembly) के निर्माण की सिफारिश की। इस मिशन ने संविधान सभा के सदस्यों की कोई अधिकतम संख्या निर्धारित नहीं की। संविधान सभा में प्रत्येक प्रान्त से सिख, मुसलमान तथा सामान्य इन तीन प्रमुख जातियों में से उनकी जनसंख्या के अनुपात से प्रतिनिधि लिए गए। ब्रिटिश प्रान्तों से कुल 292 सदस्य और देशी रियासतों से 93 सदस्य चुने गए थे। देश के विभाजन के कारण संविधान सभा के सदस्यों की संख्या कम हो गई। संविधान सभा में प्रान्तों के 235 तथा देशी रियासतों के 73 प्रतिनिधि रह गए। संविधान के अन्तिम मूल मसौदे पर इन्हीं 308 सदस्यों ने हस्ताक्षर किए थे।
9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। जिसकी अध्यक्षता सच्चिदानन्द सिन्हा ने की किन्तु शीघ्र ही डा. राजेन्द्र प्रसाद इसके सर्व सम्मति से अध्यक्ष चुने गये। संविधान सभा के समक्ष अनेक जटिल समस्यायें थीं। इसे संविधान सम्बन्धी अनेक पक्षों का गम्भीर अध्ययन करना था। इसीलिए सभा में से ही अनेक सदस्य लेकर अनेक समितियों व उपसमितियों का गठन किया गया। इन सभी समितियों के केन्द्र में प्रारूप समिति थी। प्रारूप समिति में डा. भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में अन्य छः सदस्यों को शामिल किया गया।
स्वतन्त्रा भारत का नया संविधान 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन के अथक परिश्रम के बाद 26 नवम्बर, 1949 ई. को संविधान सभा के 308 सदस्यों के हस्ताक्षर के बाद पारित हो गया। परन्तु यह नया संविधान 26 जनवरी, 1950 ई. को लागू किया गया।
प्रश्न 18 : निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर : खोल (Khol) - गंगा-यमुना नदियों के दोआब क्षेत्रा में पुरानी भांगर जलोढ़ मिट्टी से चैरस उच्चभूमियों का निर्माण हुआ है, जो नवीन जलोढ़ से निर्मित खादर भूमियों से भिन्न है। बांगर जलोढ़ से निर्मित इन उच्चभूमियों के मध्यवर्ती ढालों को, जो कि अपने उच्चावच में 15 से 30 मी. की सापेक्षिक भिन्नता के कारण दूर से ही स्पष्ट होते है, स्थानीय भाषा में खोल कहा जाता है। यमुना नदी के साथ वाले खोलों के ढालों के औसत उच्चावच में 5 से 6 मी. तथा गंगा के साथ वाले खोलों के औसत उच्चावच में 12 से 20 मी. तक का अन्तर मिलता है।
भूर (Bhur) - ऊपरी गंगा दोआब में असामान्य भू-आकृतिक लक्षण वाले वायुनिर्मित निक्षेपों को भूर के नाम से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद तथा बिजनौर जिलों में गंगा के पूर्वी तट पर ये भूर निक्षेप असमतल बलुई मिट्टी के उच्च प्रदेश का निर्माण करते है। इनकी उत्पत्ति अभिनूतन काल (प्लायोसीन) में मानी जाती है। इनसे ही मध्य दोआब क्षेत्रा में विशेष भूर मिट्टी का निर्माण हुआ है।
बरखान (Barkhan) - अरावली पर्वतश्रेणी के पश्चिम में एवं बिन्ध्य उच्च भूमि के बाह्य परिरेखीय क्षेत्रा में स्थित शुष्क भू-आकृतियों वाली थार मरुस्थल की बलुई बंजर भूमि पर निर्मित अर्द्धचन्द्राकार बलुई मिट्टी के टीलों को बरखान कहा जाता है। विश्व के अन्य मरुस्थली भागों में भी बरखानों का निर्माण वातिक क्रियाओं द्वारा हुआ है।
धाया (Dhaya) - पंजाब क्षेत्रा में प्रवाहित होने वाली पांचों नदियों (व्यास, सतलज, रावी, चिनाब तथा झेलम) द्वारा अपने मार्गों से जमा की गयी जलोढ़ राशि को तोड़ कर पाश्र्ववर्ती क्षेत्रों में उच्चभूमियों का निर्माण किया है। इन्हीं उच्च भूमियों को स्थानीय भाषा में धाया कहा जाता है। इन धाया की ऊंचाई लगभग 3 मी. या इससे भी अधिक है तथा इनके बीच में काफी संख्या में खड्डा का निर्माण हो गया है।
बेट भूमि (Bet Land) - नदी घाटियों का खादर क्षेत्रा कहीं-कहीं बेट भूमि के नाम से भी अभिहित किया जाता है। बाढ़ से प्रभावित रहने वाला यह क्षेत्रा कृषि के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है।
चोस (Chos) - भारतीय पंजाब में शिवालिक पहाड़ियों से जुड़े हुए मैदान के ऊपरी भाग में स्थित नदियों के जाल को चोस कहते है। इन चोस द्वारा काफी अपरदन किया गया है, जिसके कारण यहाँ काफी खड्डों का निर्माण हो गया है। प्रत्येक बाढ़ के बाद चोस द्वारा जमा की गयी बालुका राशि व्यवस्थित एवं पुनव्र्यवस्थित होती रहती है तथा नदियों के कगार के अधिक अस्थायी होने के कारण उनका मार्ग भी हमेशा परिवर्तित होता रहता है। चोस अपरदन के स्पष्ट उदाहरण होशियारपुर में पाये जाते है।
करेवा (Karewa) - जम्मू-कश्मीर राज्य में पीरपंजाल श्रेणी के पाश्र्वों में 1,500 से 1,850 मी. की ऊँचाई पर मिलने वाले झीलीय निक्षेपों को करेवा के नाम से जाना जाता है। इनके नति तल निश्चित रूप से इस ओर संकेत करते है कि हिमालय पर्वत अभिनूतन (प्लायोसीन) युग में भी अपनी उत्थान की प्रक्रिया में था।
दून (Doon) - हिमालय पर्वतीय क्षेत्रा में मिलने वाली संकीर्ण एवं अनुदैध्र्य घाटियों को ‘दून’ कहा जाता है। इसके प्रमुख उदाहरण है - देहरादून, कोठरीदून तथा पटलीदून।
वालेस रेखा (Wallace Line) - दक्षिण-पूर्वी एशिया एवं आस्ट्रेलिया के बीच स्थित रेखा, जो कि एशियाई एवं आस्ट्रेलियाई प्राणी जगत तथा पादप जगत के बीच पायी जाने वाली विभिन्नता का स्पष्ट विभाजन करती है। यह रेखा बोर्नियो द्वीपों को एक ओर सेलीबीज से तथा दूसरी ओर लोमवोक (इण्डोनेशिया) से अलग करती है। इसके दोनों ओर मिलने वाले प्राणी इतने भिन्न है कि वे दो स्पष्ट प्रदेशों का निर्माण करते हैं।
भाट (Bhat) - पूर्वी सरयू पार क्षेत्रा तथा बिहार के मध्य पश्चिमी भाग में मिलने वाली चूना-प्रधान जलोढ़ मिट्टी को भाट के नाम से जाना जाता है। इस मिट्टी में चूना-पदार्थों के साथ ही साथ जैव पदार्थों एवं
नाइट्रोजन की भी अधिकता पायी जाती है। इसमें गन्नांे की कृषि अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न की जाती है।
कैसिम्बो (Cacimbo) - इस शब्द का प्रयोग अंगोला तट पर मिलने वाले धूमिल मौसम के लिए किया जाता है। उल्लेखनीय है कि यहाँ बैग्युला धारा के कारण साधारणतया सुबह एवं शाम को घना कुहासा एवं निम्न मेघ छाये रहते है।
कटिंगा (Caatinga or Katinga) - उत्तरी-पूर्वी ब्राजील में मिलने वाली उष्णकटिबन्धीय जंगली वनस्पति के समुदाय को कटिंगा नाम से जाना जाता है। इसमें विशेषकर कांटेदार झाड़ियाँ तथा छोटे-छोटे वृक्ष पाये जाते है।
ब्लिजार्ड का घर (Home of Blizzard) - अण्टार्कटिका महाद्वीप के एडिलीलैण्ड (Adelie land) क्षेत्रा में ब्लिजार्ड नामक शीत प्रकृति की हवाओं के लम्बे समय तक स्थायी रूप से प्रवाहित होने के कारण इसे ‘ब्लिजार्ड का घर’ की संज्ञा दी जाती है।
वायुदाबमापी ज्वार (Barometric Tide) - एक दिन के 24 घण्टे के वायुभार अथवा वायुदाब के उतार-चढ़ाव को ‘वायुदाबमापी ज्वार’ के नाम से जाना जाता है। यह महासागरों में आने वाले ज्वार-भाटा से कथमपि सम्बन्धित नहीं है।
फैदम (Fathom) - यह सागरीय गहराइयों को मापने का एक पैमाना है। 1 फैदम 1.829 मीटर अथवा 6 फीट के बराबर होता है। 100 फैदम = 10 के बिल तथा 1000 फैदम = 100 के बिल = 1 समुद्री मील।
अल्बिडो (Albedo) - किसी सतह पर पड़ने वाली सूर्यातप की सम्पूर्ण मात्रा तथा उस सतह से अन्तरिक्ष में परावर्तित होने वाली मात्रा के बीच का अनुपात अल्बिडो कहलाता है। अल्बिडो को दशमलव अथवा प्रतिशत में प्रकट करते है। यह सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए स्थिर नहीं होता बल्कि बादलों की मात्रा में परिवर्तन, हिमावरण तथा वनस्पति-आवरण इसको प्रभावित करते है। कुछ विशिष्ट सतहें एवं उनका अल्बिडो निम्नलिखित है -
हिमाच्छादित धरातल - 78-80%,घासयुक्त धरातल -
10-33%, चट्टान - 10-15%, मेघा की सतह - 75%।
ऐप्राॅन (Apron)- हिमानी द्वारा निक्षेपित किसी अन्तस्थ हिमोढ़ के आगे कुछ दूरी तक फैली हुई बालू तथा बजरी की राशि को ऐप्राॅन कहा जाता है।
काॅकपिट दृश्यभूमि (Cockpit Landscape) - कास्र्ट प्रदेशों में मिलने वाली वह दृश्यभूमि, जिसके एक सीमित क्षेत्रा में ही अनेक डोलाइन पाये जाते है।
अपोढ़ रेखा (Drift Line) - किसी जलधारा के किनारे पर उसके द्वारा बहाकर लाये गये पदार्थों के जमाव से बनी वह रेखा जो बाढ़ की उच्चतम अवस्था को व्यक्त करती है, अपोढ़ रेखा कहलाती है।
फटाव भ्रंश (Tear Falt) - भिंचाव की तीव्र प्रक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले ऐसे भ्रंश जिनमें भ्रंश रेखा के सहारे क्षैतिज खिसकाव होता है, फटाव भ्रंश कहलाते है। इनमें लम्बवत बल साधारण होने के कारण क्षैतिज गति पायी जाती है। विश्व का सबसे लम्बा फटाव भ्रंश पश्चिमी कैलीफोर्निया में स्थित ‘सान एण्ड्रियाजा भ्रंश’ है जिसकी लम्बाई लगभग 360 कि. मी. है। ब्रिटेन का सबसे बड़ा फटाव भ्रंश है ‘ग्रेट ग्लेन आॅफ स्काॅटलैण्ड’ जो 65 कि. मी. लम्बा है।
वृष्टि छाप (Rain Print) - महीन कणों वाली चट्टानों पर वर्षा की बूंदे पड़ने से बनने वाले छोटे-छोटे चिन्हों को वृष्टि छाप की संज्ञा दी जाती है।
रक्त वृष्टि (Blood Rain) - सहारा रेगिस्तान से चलने वाली रेतीली आँधियाँ जब भूमध्यसागर को पार करके आगे बढ़ती है तो इटली में लाल रंग के रेत कण नीचे उतरने या बैठने लगते है। इन लाल रंग के रेत कणों के गिरने को ही रक्त वृष्टि कहा जाता है।
चान्द्र मास अथवा नाक्षत्रामास (Lunar Month or Synodic Month) - जितनी अवधि में चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का एक चक्कर लगाया जाता है उसे चान्द्रमास अथवा नाक्षत्रा मास कहा जाता है। यह अवधि 29 दिन, 12 घण्टे तथा 44 मिनट की होती है।
सिडरल मास (Sideral Month) - इस मास की गणना पृथ्वी द्वारा की जाने वाली सूर्य की परिक्रमा को ध्यान में रखकर की जाती है। यह मास 27 दिन, 7 घंटे, 43 मिनट तथा 11.55 सेकण्ड का होता है।
सौर-दिवस (Solar Day) - जब सूर्य को गतिहीन मानकर पृथ्वी द्वारा उसके परिक्रमण की गणना दिवसों के रूप में की जाती है तब सौर-दिवस ज्ञात होता है। इसकी अवधि पूर्णतः 24 घण्टे होती है।
नाक्षत्रा दिवस (Sideral Day) - इस दिवस की गणना सूर्य को आकाशगंगा का चक्कर लगाते हुए मानकर की जाती है। यह दिवस 23 घण्टा 56 मिनट की अवधि का होता है। इससे स्पष्ट है कि सौर दिवस, नाक्षत्रा दिवस से लगभग 4 मिनट लम्बी अवधि का होता है। यही 4 मिनट संकलित होकर 4 वर्षों पश्चात् जुड़ जाता है तथा फरवरी को बढ़ाकर 29 दिन का करके चैथे वर्ष को अधिवर्ष (Leap year) घोषित किया जाता है।
ऊष्मा द्वीप (Heat Island) - नगरों के केन्द्रीय व्यवसाय क्षेत्रा या चैक क्षेत्रा में मिलने वाले उच्च तापमान के क्षेत्रा को ऊष्माद्वीप कहा जाता है। इनकी स्थिति वर्ष भर हमेशा बनी रहती है और इनके कारण नगर विशेष तथा उसके चतुर्दिक स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में तापीय विसंगति उत्पन्न हो जाती है।
प्रदूषण गुम्बद (Pollution Dome) - पर्यावरण के प्रदूषक तत्त्वों द्वारा नगरों के ऊपर सामान्यतया 1,000 मी. की ऊंचाई पर एक मोटी परत का निर्माण कर दिया जाता है जिसे जलवायु गुम्बद या प्रदूषण गुम्बद कहा जाता है।
विसरित परावर्तन (Diffused Reflection) - जब वायुमण्डल में स्थित अदृश्य कणों का व्यास विकिरण तरंग से बड़ा होता है तब उनसे होने वाले परावर्तन को विसरित परावर्तन कहा जाता है। इसके माध्यम से सौर्यिक शक्ति का कुछ भाग परावर्तित होकर अन्तरिक्ष में वापस चला जाता है जबकि कुछ भाग वायुमण्डल में चारांे ओर बिखर जाता है। विसरित परावर्तन के कारण चन्द्रमा का अंधेरा भाग भी आसानी से दृष्टिगोचर हो जाता है।
कृष्णिका सीमा (Black Body Limit) - किसी सतह या चट्टान की वह सीमा जहां पर वह सूर्यातप का अवशोषण करके पूर्णतः संतृत्प हो जाती है तथा उसमें और अधिक गर्मी नहीं समा सकती। उल्लेखनीय है कि इस सीमा के पश्चात् चट्टान अथवा सतह द्वारा पार्थिव दीर्घ तरंगों के रूप में विकिरण प्रारम्भ हो जाता है।
आइसोजेरोमीन (Isoxeromene) - यह वह रेखा होती है जो समान वायुमण्डलीय शुष्कता वाले स्थानों को मिलाते हुए मानचित्रों पर खींची जाती है।
बात फुरान (Bat Furan) - यह एक अरबी भाषा का शब्द है जो जाड़े के मौसम अथवा उत्तरी-पूर्व मानसून काल में अरब सागर के खुले समुद्र (Open sea) की दशा की ओर संकेत करता है। जब दबाव का प्रमुख तन्त्रा एशिया के ऊपर स्थापित होता है तथा अरब सागर के ऊपर साइबेरियाई प्रतिचक्रवातों की शान्त पवन का विस्तार हो जाता है।
बात हिड्डान (Bat Hiddan) - यह भी अरबी भाषा का शब्द है जो बात फुरान की विपरीत दशा का परिचायक है। इसमें अरब सागर पर ‘बन्द सागर’ (Closed sea) की दशा प्रभावी होती है क्योंकि ग्रीष्मकाल अथवा दक्षिणी-पश्चिमी मानसून काल में सोमालिया की ओर से चलने वाली अपतटीय हवाओं के कारण अरब सागर की दशाएं इतनी तूफानी हो जाती है कि नौपरिवहन बन्द कर देन पड़ता है।
पवन-रोध (Wind Break) - रेगिस्तानी अथवा अन्य क्षेत्रों से चलने वाली तीव्र पवनों की गति को कम करने के उद्देश्य से उनके सामने लगायी जाने वाली वृक्षों की कतार अथवा हरित पट्टी (Green belt) को पवन-रोध भी कहा जाता है।
चुम्बकीय विचलन रेखा (Agoic Line) - पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवों को मिलाने वाली रेखा चुम्बकीय विचलन रेखा कहलाती है। इस रेखा का चुम्बकीय झुकाव शून्य होता है। इसे शून्य दिक्पाती रेखा, अकोण या कोणरहित रेखा, आकलन रेखा आदि नामों से भी जाना जाता है।
जलोढ़ सभ्यता (Alluvial Civilization) - इस शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से एशिया में फैले जनसंख्या समूहन (Asiatic agglomeration of population) के लिए किया जाता है।
आरोही पवन(Anabatic Wind) - गर्मी के मौसम में अपरों के समय संवहन की क्रिया द्वारा पर्वतीय ढालों की वायु के अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण घाटियों में ऊपर उठने वाली हवा को आरोही पवन कहते है। ये स्थानीय हवाओं की श्रेणी में आती है तथा कुछ स्थानों पर रात के समय भी चलती रहती है।
ध्रुवीय ज्योति (Aurora) - आयन मण्डल में विद्युत चुम्बकीय घटनाओं के परिणामस्वरूप दिखायी पड़ने वाला प्रकाशमय प्रभाव ध्रुवीय ज्योति कहलाता है। यह रात्रि के समय धरातल से लगभग 100 कि. मी. की ऊँचाई पर उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में ही दिखता है। यह प्रकाश श्वेत, लाल एवं हरे चापों के रूप में दिखायी पड़ता है।
दक्षिण ध्रुवीय ज्योति (Aurora Australis) - दक्षिणी गोलार्द्ध में 60॰ अक्षांशों से दक्षिण की ओर ध्रुवीय क्षेत्रों में दिखायी पड़ने वाली ध्रुवीय ज्योति को ‘दक्षिण ध्रुवीय ज्योति’ या ‘अरोरा आस्ट्रालिस’ के नाम से जाना जाता है।
उत्तर ध्रुवीय ज्योति (Aurora Borealis) - केवल उत्तरी गोलार्द्ध में दृष्टिगोचर होने वाली ध्रुवीय ज्योति को ‘उत्तर ध्रुवीय ज्योति’ अथवा ‘अरोरा बोरियालिस’ कहा जाता है। सामान्यतया यह ज्योति उत्तरी अमेरिका एवं यूरोप के उत्तरी भागों में उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है।
अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा (International Date Line)- 0॰ देशान्तर अथवा ग्रीनविच माध्य समय से 180॰ देशान्तर तक जाने में 12 समय पेटियों को पार करना पड़ता है और पूर्व की ओर घड़ी को 12 घंटे आगे तथा पश्चिम की ओर 12 घंटे पीछे करना पड़ता है। इस कारण से 180॰ पूर्व या पश्चिमी देशान्तर पर दो अलग-अलग पंचांग दिवस मिलने से होने वाली परेशानी को समाप्त करने के लिए वाशिंगटन में हुई 1884 की सभा में 180॰ देशान्तर को अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा निर्धारित किया गया है। घड़ियों का समय ठीक रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा के पूर्व से पश्चिम की ओर जाने पर एक दिन घटाते है तथा पश्चिम से पूर्व की ओर जाने पर एक दिन बढ़ाते है।
पशुवर्द्धन (Besticulture) - यह मानव एवं पशुओं के बीच समायोजन की क्रिया का एक पक्ष है जिसमें मानव द्वारा किया जाने वाला पशुओं का शिकार, पशुपालन तथा पशुओं के प्रति उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन के कारण पशुबध-निषेध की क्रिया को शामिल किया जाता है।
चापाकार डेल्टा (Arcuate Delta) - त्रिभुजाकार आकृति वाले डेल्टाओं को यह नाम दिया जाता है। नील, गंगा, सिन्धु, राइन, नाइजर, ह्नांगहो, इरावदी, वोल्गा, डेन्यूब मीकांग, पो, रोन, लीना, मर्रे आदि नदियों के डेल्टा इसी प्रकार के डेल्टा है।
पंचाकार डेल्टा (Bird-foot Delta) - इस प्रकार के डेल्टा का निर्माण नदियों द्वारा बहाकर लाये गये बारीक कणों के जलोढ़ पदार्थों (जैसे सिल्ट आदि) के जमाव से होता है। इसमें नदी की मुख्य धारा बहुत कम शाखाओं में विभाजित हो पाती है। मिसीसिपी नदी का डेल्टा पंजाकार डेल्टा का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है।
ज्वारनदमुखी डेल्टा (Esturine Delta) - जब कोई नदी लम्बी एवं संकरी एश्चुअरी के माध्यम से सागर में प्रवेश करती है एवं उसके मुहाने पर जमा किया गया अवसादी पदार्थ ज्वार के समय बहाकर दूर ले जाया जाता है तब उसका डेल्टा ज्वारनदमुखी डेल्टा कहलाता है। नर्मदा, ताप्ती, मैकेन्जी, ओडर, विश्चुला, एल्ब, सीन, ओब, हडसन, साइन, लोअर आदि नदियों द्वारा इसी प्रकार के डेल्टा का निर्माण किया गया है।
रुण्डित डेल्टा (Truncated Delta) - जब किसी नदी की मुख्यधारा एवं उसकी वितरिकाओं द्वारा निक्षेपित अवसाद समुद्री लहरों एवं ज्वार-भाटा द्वारा बहा लिया जाता है तब उसके मुहाने पर बनने वाले कटी-फटी आकृति के डेल्टा को रुण्डित डेल्टा की संज्ञा दी जाती है। इसके प्रमुख उदाहरण है वियतनाम की होंग तथा सं. रा. अमेरिका की रायो ग्रैण्डे नदियों के डेल्टा।
पालियुक्त या क्षीणाकार डेल्टा (Lobate Delta) - जब नदी की मुख्य धारा की अपेक्षा उसके मुहाने पर किसी वितरिका द्वारा अलग डेल्टा का निर्माण किया जाता है तब मुख्य डेल्टा को पालियुक्त डेल्टा कहते है। इसमें मुख्य डेल्टा का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
प्रगतिशील डेल्टा (Growing Delta)- जब किसी नदी द्वारा सागर की ओर निरन्तर अपने डेल्टा का विकास किया जाता है तब उसे प्रगतिशील डेल्टा की संज्ञा दी जाती है। गंगा तथा मिसीसिपी नदियों के डेल्टा इसी प्रकार के है।
अवरोधित डेल्टा (Blocked Delta)- जब किसी नदी का डेल्टा सागरीय लहरों अथवा धाराओं द्वारा अवरुद्ध कर दिया जाता है तब उसे अवरोधित डेल्टा कहते है।
प्रश्न 19 : बच्चों को वर्ग में कैसे केन्द्रित रखा जा सकता है?
उत्तरः बच्चों को वर्ग में केन्द्रित रखने के लिए सबसे पहला उपाय उन्हें वर्ग में सक्रिय रखना है। उनको निम्न प्रकार से वर्ग में केन्द्रित रखा जा सकता हैः
1. पाठ्य-विषय में छात्रों को रुचि पैदा करना होगा।
2. पाठ्य-विषय को छात्रों की जानकारी के अनुसार जोड़ना।
3. पाठ को आगे बढ़ाने में सहायक होना।
4. विषय-वस्तु के प्रति रुचि जगाना।
5. जानने में और उत्तर देने में रुचि विकसित करना।
6. उनकी अभिव्यक्ति क्षमता को विकसित करना।
7. विश्लेषण और संश्लेषण तथा तुलना क्षमता का विकास करना।
8. जो पाठ पहले पढ़ाया गया है उसकी जानकारी एवं उसमें कौन कहां है उसका पता करना।
9. छात्रों को सोचकर उत्तर देने की प्रेरणा देना।
10. छात्रोें को उत्तर सुनकर उनकी कठिनाइयों को जानना।
11. बच्चों को अपने समझ और अनुभवों को बताने का अवसर देना होगा।
12. कक्षा को हर समय अपनी जानकारी से सजग रखें।
13. बच्चों की कोई भी समस्या हो उसे हल करने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहने की आदत विकसित करना होगा।
14. जो भी प्रश्न शिक्षक पुछें वह सरल, सीधा, और संक्षिप्त हो। अनर्गल प्रश्न बच्चे से न पुछे जाऐं।
15. जो भी प्रश्न पुछे जाएं वह विषय वस्तु से संबंधित हो।
16. प्रश्नों की भाषा सरल एवं समझने वाला हो।