प्रश्न 14. आयकर बढ़ाने के लिए सरकारी प्रयास, इसमें सुझावों पर प्रकाश डालें।
उत्तर : देश में कराधान से सम्बन्धित समस्याओं और उसके समाधान हेतु सरकार द्वारा समय-समय पर कई समितियां/आयोग गठित किए गए जिनमें कुछ समितियों- (i) प्रत्यक्ष कर जांच समिति (1971). (ii) प्रत्यक्ष कर कानून समिति (1977),(iii) कृषि धन और कराधान समिति (1972) और (iv) कर सुधार समिति (1991) द्वारा कृषि क्षेत्रा में लगाए जाने वाले करों और उनकी समस्याओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए। लेकिन विभिन्न कारणों से इन समितियों के सुझावों को पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका।
बाधाएं
सुझाव
(i) जिन राज्यों में कृषि आय कर से प्राप्त आय सरकारी कोष में महत्वपूर्ण भागीदारी अदा कर रही है, वहां इस कर का जारी रखना न्यायसंगत है।
(ii) कृषि लागत व मूल्य आयोग द्वारा कृषि पदार्थों के मूल्यों की घोषणा करने में अनावश्यक विलम्ब किया जाता है जिससे कृषक विभिन्न फसलों के उत्पादन में वरीयता तथा विभिन्न फसलों के बीच अपनी जोत का सही आबंटन कर पाता। आयोग द्वारा मूल्य की घोषणा समय से की जानी चाहिए।
(iii) कृषि आयकर में दी गई छूटों का अनुचित लाभ लेने वाले ‘बेनामी किसानों’ को इस छूट से वंचित किया जाना चाहिए। यह कार्य कृषि आय कर प्रावधानों में संशोधन/सुधार करके किया जा सकता है।
(iv) कृषि आय पर कर लगाने का अधिकार राज्य सरकारों का है। ऐसी स्थिति में कृषि उपज के मूल्य निर्धारण का अधिकार भी राज्य सरकारों को दिया जाना चाहिए क्योंकि राज्य सरकारें अपने राज्य की भौगोलिक स्थिति, सरकार कृषि आदानों पर दी जाने वाली आर्थिक सहायता, भूमि की उर्वरा शक्ति, कृषि लागत, उत्पादन और आय, सिंचाई व्यवस्था, तकनीकी ज्ञान सभी बातों का ध्यान रखते हुए कृषि पदार्थों के मूल्य का निर्धारण करेंगी जो वर्तमान व्यवस्था से कहीं अधिक सही एवं उचित होगा।
(v) सरकार द्वारा कृषि क्षेत्रा में दी जाने वाली सहायता की धनराशि धीरे-धीरे कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
(vi) किसानों को शिक्षित -प्रशिक्षित करने की अधिक आवश्यकता है। अतः इस दिशा में सरकारी प्रयास और तेज होने चाहिएं।
(vii) देश में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और कृषि आयकर से सम्बन्धित प्रशासनिक जटिलता बाध्य करती है कि कृषि आय पर करारोपण की अपेक्षा विभिन्न करों में सामंजस्य स्थापित करके प्राप्त आय की वसूली अधिक-से-अधिक की जाए तथा वर्तमात परिवेश में कर अधिनियम की उन धाराओं को पुनः परिभाषित किया जाए जो दोषपूर्ण हैं और कर-वंचन के अवसर उत्पन्न करती हैं।
(viii) राज्य सरकारों को अनुत्पादक मदों पर व्यय की जाने वाली धनराशि में कटौती कर मितव्ययी बनाने की दिशा में पहल करनी चाहिए। उनकी राजस्व वृद्धि का एकमात्रा विकल्प कृषि क्षेत्रा में कृषि आय कर लगाना ही नहीं है।
(ix) यह एक विडम्बना है कि कृषक को अपनी उपज की कीमत निर्धारित करने का अधिकार प्राप्त नहीं है जबकि उत्पादन कृषक करता है। यह कार्य सरकार द्वारा गठित कृषि लागत एवं मूल्य आयोग करता है जबकि उद्योगों में उद्योगपति अपने उत्पादन का मूल्य निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाता है। अतः कृषक को भी कृषि उपज के मूल्य निर्धारण में समूचित भागीदारी दी जानी चाहिए।
(x) एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि ‘कृषि आय’ की गणना करते समय कृषि कार्य में लगे कृषक परिवार के सदस्यों की संख्या, उनके द्वारा किए गए परिश्रम का आरोपित मूल्य एवं जोत का क्षेत्राफल-सभी को दृष्टि में रखा जाना चाहिए। जिस प्रकार नौकरी पेशे में लगे व्यक्ति की आय उस व्यक्ति विशेष की आय कहलाती है, इसी प्रकार कृषि आय एक कृषक परिवार की संयुक्त आय होती है। इस प्रकार कृषि आय की गणना परिवार के सदस्यों की संख्या को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए।
(xi) देश की सम्पूर्ण आर्थिक व्यवस्था कृषि पर आधारित है और पूंजी किसानों की सबसे बड़ी समस्या है। यदि कृषि को औद्योगिक रूप देकर इसमें और पूंजी निवेश किया जाए तो यह क्षेत्रा अधिक उत्पादन करके राष्ट्रीय आय में वृद्धि कर सकता है। इस सम्बन्ध में विश्व स्तर पर देखने पर ज्ञात होता है कि पूरे विश्व की कृषि नीति में एकरूपता लाने का प्रयास किया जा रहा है। यह सम्भव है कि प्रारम्भ में पंूजी निवेशकों का कम लाभ हो लेकिन यह धीरे-धीरे विकसित करके समग्र राष्ट्र को लाभान्वित करेगा जिसमें पूंजी-निवेशक भी सम्मिलित होंगे।
प्रश्न 15. ‘ताशकंद घोषणा’ क्या है? यह किस-किस के बीच हुआ? इसका क्या परिणाम सामने आया?
उत्तर : 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद रूस की मध्यस्थता से रूस के ताशकंद नामक स्थान पर 10 जनवरी, 1966 को भारत और पाकिस्तान के बीच हुए समझौते को ‘ताशकंद घोषणा’ के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्राी लाल बहादुर शास्त्राी तथा पाकिस्तान के अयूब खां ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्रा के अनुसार अपने-अपने कत्र्तव्यों की दुबारा पुष्टि की तथा शक्ति का प्रयोग किए बिना सभी विवादों को शांतिपूर्वक तरीके से हल करने का समझौता किया। इसमें प्रमुख रूप से यह व्यवस्था की गयी कि 25 फरवरी, 1966 तक दोनों देशों की सेनायंे 5 अगस्त, 1965 के पहले के स्थानों तक पीछे हटा ली जायें और दोनों देशों द्वारा युद्ध विराम का पूरी तरह से पालन किया जाये। दोनों देशों ने एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने तथा आर्थिक व राजनीतिक सम्बन्ध दृढ़ करने की घोषणा की। लेकिन कालांतर में पाकिस्तान की लगातार भारत विरोधी नीति के चलते उक्त घोषणा-पत्रा अधिक कारगर नहीं हो सका।
प्रश्न 16. एका आंदोलन पर संक्षिप्त प्रकाश डालिये।
उत्तर : वर्ष 1921 में किसान सभा आंदोलन की समाप्ति के बाद ‘एका आंदोलन’ का उदय हुआ। वर्ष 1921 के अंत में संयुक्त प्रांत के उत्तरी क्षेत्रा हरदोई, बहराइच, बाराबंकी और सुल्तानपुर जिलों के किसानों द्वारा इस आंदोलन को आरंभ किया गया। इस आंदोलन में ऐसे जमींदार भी सम्मिलित हुए जो कि बढ़े हुए लगान के बोझ से दबे हुए थे। आंदोलनकारी किसानों की मुख्य शिकायतें बढ़े हुए लगान ;50 प्रतिशत वृद्धिद्ध तथा उसकी वसूली के ढंग को लेकर थी।
एका आंदोलनकारियों की सभा की शुरूआत अनोखे ढंग से की जाती थी। सभा शुरू करने के पूर्व गड्ढा खोदकर उसमें पानी भरा जाता था, जिसको गंगा का दर्जा दिया जाता था। इसके समक्ष एक पुरोहित एकत्रा किसानों को निर्धारित लगान समय पर देने, अधिक लगान देने, बेदखल किये गये जमीन को न छोड़ने, बेगार न करने, अपराधियों की मदद न देने तथा पंचायत के फैसले मानने की शपथ दिलाता था। आरम्भ में एका आंदोलनों का नेतृत्व स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के हाथों में था, लेकिन कालांतर में इसका नेतृत्व गरमपंथी मदारी पासी के हाथ में चला गया। इस आंदोलन में पिछड़ी जाति के नेताओं का बोलबाला था, जो अंहिसा की नीति को नहीं मानते थे। फलतः इस आंदोलन का भी वही हाल हुआ जो अन्य अहिंसक आंदोलनों का हुआ था। जून 1922 में मदारी पासी को गिरफ्तार करके सरकार ने इस आंदोलन को कुचल दिया।
प्रश्न 17. बंगाल के विभाजन ने भारत के स्वतंत्राता संग्राम की दिशा को किस प्रकार प्रभावित किया? विवेचना कीजिए।
उत्तर : लाॅर्ड कर्जन ने 20 जुलाई, 1905 को बंगाल विभाजन इस उद्देश्य से कर दिया कि बंगाल में बढ़ती हुई राष्ट्रवाद की भावना को रोका जा सके, परन्तु हुआ इसका उल्टा। राष्ट्रवादियों ने इसे एक प्रशासनिक कार्यवाही न मानकर भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति चुनौत अतः 7 अगस्त, 1905 को बंग-भंग विरोधी आंदोलन प्रारम्भ किया गया। बंग-भंग विरोधी आंदोलन केवल बंगाल में ही सीमित नहीं था इसका अखिल भारतीय स्वरूप था। इस आंदोलन के दौरान नरमपंथी और गरमपंथी दोनों ने एक-दूसरे को सहयोग दिया। 16 अक्टूबर को जिस दिन बंग-भंग लागू होना था उस दिन राष्ट्रीय शोक मनाया गया। आंदोलन में स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर बल दिया गया। विदेशी कपड़ों एवं सामान की होली जलाई गई। भविष्य में ‘स्वदेशी एवं बहिष्कार’ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख हथियार बन गया। इस आंदोलन में छात्रों, औरतों और सामान्य जनता ने आंदोलन में अखुलकर भाग लिया। इसके बाद तो छात्रा, औरतें और जनता भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के महत्वपूर्ण अंग बन गए।
बंग-भंग विरोधी आंदोलन का नेतृत्व लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्र पाल और अरविंद घोष जैसे राष्ट्रवादियों के हाथों में पहुंच जाने से, इसका स्वरूप उग्र हो गया। तब सरकार ने दमन चक्र चलाया और आंदोलन को बलपूर्वक दबाने का प्रयास किया। सरकार की कार्यवाहियों के फलस्वरूप आंदोलन तो शांत हो गया, लेकिन क्रांतिकारी विचारधारा का जन्म हुआ। जिसने भारतीय स्वतंत्राता संग्राम में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। इस प्रकार बंग-भंग का भारतीय स्वतंत्राता संग्राम पर व्यापक असर हुआ।
प्रश्न 18. भारत छोड़ो आंदोलन में बिहार में ‘आजाद दस्ते’ की क्या भूमिका थी?
उत्तर : भारत छोड़ो आंदोलन में बिहार में ‘आजाद दस्ते’ की अहम् भूमिका रही, क्योंकि 8 अगस्त, 1942 को ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के पारित होने के अगले दिन ही सभी प्रमुख राष्ट्रवादी नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे। जयप्रकाश नारायण उन गिने चुने नेताओं में से थे जो गिरफ्तारी से बच निकले थे और जिन्होंने आंदोलन को भूमिगत होकर चलाया था। जयप्रकाश नारायण ने सूरज प्रकाश सिंह और विजया के साथ मिलकर क्रांतिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए नेपाल की तराई में प्रशिक्षण शिविर खोले।
यहीं ‘आजाद दस्ते’ का गठन किया गया जिनका कार्य अंग्रेजी सरकार की नाक में दम करना था। ‘आजाद दस्तों’ ने छापामार युद्ध के तरीकों से विदेशी शासन को अस्त-व्यस्त और पंगु करने की योजनाएं क्रियान्वित कीं। नेपाल की तराई का जंगली इलाका इन ‘आजाद दस्तों’ का प्रशिक्षण केंद्र था जो बिहार की उत्तरी सीमा पर स्थित था। कोसी नदी के किनारे ‘बकरो का टापू’ नामक स्थान से आजाद दस्तों का संचालन किया जाता था। राम मनोहर लोहिया ने प्रचार एवं संचार विभाग संभाला और इन दस्तों को लोकप्रिय बनाया और इनके लिए कार्यकर्ता तैयार किए।
बिहार में सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में आजाद दस्ते की स्वतंत्रा परिषद् स्थापित की गई। इस परिषद् में बिहार के लिए तीन सैनिक शिविर खोलने का निर्णय लिया गया। अनेक नवयुवक इन दस्तों में सम्मिलित हुए। केवल दो महीने बाद ही अंग्रेज सरकार के निर्देश पर नेपाल सरकार ने जयप्रकाश आदि नेताओं को हनुमान नगर जेल में डाल दिया। सरदार नित्यानंद के नेतृत्व में 35 क्रांतिकारियों ने जयप्रकाश एवं अन्य नेताओं को कैद से छुड़वा लिया।
इसके बाद आजाद दस्ते ने सम्पूर्ण बिहार में क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन किया। आजाद दस्ते की पूर्णिया जिले में पहली बैठक सिमैली में हुई जिसमें सैन्य और असैन्य विभाग अलग कर दिए गए। आजाद दस्तों के गुप्तचरों ने अपना काम इतनी कुशलता से किया कि सरकार के प्रयास असफल हो जाते थे। मसायली, महेशपुर, खजूरी और संझाघाट इनकी गतिविधियों के महत्वपूर्ण केंद्र थे। इस प्रकार आजाद दस्तांे ने बिहार में भारत छोड़ो आंदोलन में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया।
प्रश्न 19. स्वदेशी पर जोर देकर गांधीजी कौन-सा संदेश देना चाहते थे?
उत्तर : गांधीजी स्वदेशी के माध्यम से स्वराज्य का संदेश देना चाहते थे। गांधीजी ने स्वदेशी अपनाने पर बल देते हुए कहा है कि स्वदेशी अपनाने से मन में स्वराज्य की भावना जाग्रत होती है। गांधीजी स्वदेशी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि स्वदेशी की भावना हमें सिखाती है कि हम स्वदेश में पैदा हुए हैं यहीं की संस्कृति हमें विरासत में मिली है। हमें अपने देश और संस्कृति की सेवा करनी चाहिए। उन्होंने स्वदेशी की व्याख्या करते हुए यह भी कहा कि स्वदेशी का अर्थ यह नहीं है कि किसी दूसरे देश के नागरिकों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई जाए या फिर किसी अन्य राष्ट्र को कोई हानि पहुंचाई जाए।
गांधीजी के अनुसार स्वदेशी का अर्थ है संकुचित या सीमित विचारधारा से नहीं लगाया जा सकता, इसका वास्तविक अर्थ है - “सच्ची स्वतंत्राता और स्वतंत्रा भारतीय“। गांधीजी ने स्वदेश के जरिए मानवता का संदेश भी दिया। उन्होंने कहा, दया, अहिंसा और परोपकार की भावना हमारी संस्कृति में समाहित हैं इसीलिए हमें अपने पड़ौसी देशों एवं अन्य देशों के साथ मानवता का व्यवहार करना चाहिए। गांधीजी ने स्वदेशी को स्वराज्य प्राप्ति का मूल मंत्रा बताया और कहा कि इसी से देश को समृद्ध एवं स्वावलंबी बनाया जा सकता है।
प्रश्न 20 . मौयकालीन मूर्तिकला के विशिष्ट लक्षण क्या हैं?
उत्तर : मौयकालीन मूर्तिकला का विकास शाही संरक्षण (मुख्यतः अशोक के संरक्षण में) और जनता द्वारा दो अलग-अलग दिशाओं में हुआ। दोनों प्रकार की मूर्तिकलाओं की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं -
शाही मूर्तियों की प्रमुख विशेषताएं
(i) मुख्यतः स्तम्भ लेखों के आधार और शीर्ष पर जानवरों की मूर्तियां उकेरी गई हैं। इनमें सिंह और वृषभ मूर्तियां विशेष हैं।
(ii) मूर्तियों की सजीवता उल्लेखनीय है।
(iii) मूर्तियां बड़े-बड़े प्रस्तरों को काटकर बनाई गई हैं - सारनाथ, रामपुरवा, लौरिया-अरराज, लौरिया-नन्दनगढ़ की मूर्तियां इसका स्पष्ट प्रमाण हैं।
(iv) मूर्तियां चिकनी और चमकदार पाॅलिश युक्त हैं। इनकी चमक आज तक बरकरार है।
लोक मूर्तिकला की प्रमुख विशेषताएं -
(i) मूर्तियों में विचित्रा जड़ता तथा आकृतियों में सरलता है।
(ii) अधिकांश मूर्तियां (यक्ष और यक्षिणी) मानवाकार और बलुए पत्थर की हैं।
(iii) इनमें सम्मुख दर्शन की विशेषता है।
(iv) मूर्तियां नग्न भी है और आभूषणों से सुसज्जित भी।
(v) कलात्मक दृष्टि से मूर्तियों में बेडोलपन है पैर लम्बे और भारी हैं। अंगुलियां असमान और अस्वाभाविक हैं।
(vi) कुछ मूर्तियों में नारी सौंदर्य की स्वाभाविक अभिव्यक्ति पायी गई है।
(vii) विशिष्ट चमक जो मूर्तियों को प्राणमय सजीव बनाती है का प्रादुर्भाव है। आदि
प्रश्न 21. कादिरी सिलसिला क्या है?
उत्तर : कादिरी सिलसिला सूफी मत के चैदह सिलसिलों में से एक है। इसकी स्थापना बगदाद निवासी शेख अब्दुर कादिर जिलानी द्वारा बारहवीं शताब्दी में की गई। भारत में कादिरी सिलसिले का प्रचार संत शाह नियामत उल्लाह और नासिर-उद-द्दीन मोहम्मद जिलानी ने पन्द्रहवीं शताब्दी में किया। मोहम्मद जिलानी ने सिंध को कादिरी सिलसिले की गतिविधियों का केंद्र बनाया।
सत्राहवीं शताब्दी में मुगल शाहजादा दाराशिकोह कादिरी सिलसिले का अनुयायी बना। सत्राहवीं शताब्दी में कादिरी सिलसिले के प्रसिद्ध संत मियां मीर थे। मियां मीर से दाराशिकोह ने लाहौर में मुलाकात की। 1635 ई. में मियां मीर की मृत्यु के बाद दाराशिकोह उनके उत्तराधिकारी एवं शिष्य मुल्ला शाह बख्शी का शिष्य हो गया।
प्रश्न 22. “शेख फरीद-उद्-दीन-गंज-ए शकर“ कौन थे?
उत्तर : सूफी संत कुतुब-उद्-दीन काकी के शिष्य व शेखर फरीद-उद्-दीन-गंज-ए शकर को बाबा फरीद के नाम से भी जाना जाता है उसका जन्म 1175 ई. में मुल्तान के समीप काहिवाल नामक स्थान पर हुआ। जीवन के प्रारम्भिक दिन उन्होंने हांसी में और बाकी जीवन अजोधन में व्यतीत किया। 1265 में फरीद-उद्-दीन-गंज-ए शकर की मृत्यु हो गई। उनका सम्पूर्ण जीवन गरीबी में व्यतीत हुआ। उन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप चिश्ती सिलसिला अखिल भारतीय स्तर तक ख्याति प्राप्त कर सका। शेख निजामुद्दीन आॅलिया उनके प्रमुख शिष्यों में से थे। बाबा फरीद की शिक्षाएं गुरु ग्रंथ साहिब में भी संकलित की गई हैं।
प्रश्न 23. सविनय अवज्ञा आंदोलन की विस्तृत विवेचना करें।
उत्तर : सविनय अवज्ञा आंदोलन का सूत्रापात लार्ड इरविन द्वारा गांधीजी के ग्यारह सूत्राीय मांगपत्रा को ठुकराये जाने के विरोध में हुआ। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेश्न में ही तैयार हो चुकी थी। इस आंदोलन का प्रमुख विषय कर न अदा करना भी था। नमक बनाने के विचार के साथ ही इस आंदोलन का एक तरह से सूत्रापात हो गया क्योंकि उसी समय से गांधी आश्रम में लोगों की भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हो गयी थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन एक प्रकार से जनआंदोलन में तब्दील हो गया। इस आंदोलन को जनआंदोलन में बदलने का श्रेय खान अब्दुल गफ्फार खान को जाता है, जिन्होंने गांधीजी के बाद मुख्य भूमिका निभायी थी। इस आंदोलन का क्षेत्रा गुजरात, बिहार, आंध्र प्रदेश (तटवर्ती इलाका), महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश (केन्द्रीय प्रांत), कर्नाटक, तमिलनाडु इत्यादि था। खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा गठित ‘खुदाई खिदमतगार दल’ के कार्यकत्र्ता द्वारा विशिष्ट पोशाक धारण कर इस आंदोलन में भाग लेने के कारण यह आंदोलन ‘लालकुर्ती आंदोलन’ के नाम से भी जाना जाता है। पश्चिमोत्तर प्रांत में इस आंदोलन को सुदृढ़ करने में खान अब्दुल गफ्फार खान का बहुत बड़ा योगदान रहा।
गांधीजी द्वारा साबरमती से दांडी तक की यात्रा करके नमक कानून तोड़ने की घटना से उत्साहित होकर सी. राजगोपालाचारी ने त्रिचिनापल्ली से तंजौर (वेदारण्यम) तक की नमक यात्रा शुरू कर इस आंदोलन को आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी मजबूत किया। भारतीय पूर्वोत्तर प्रांत असमी और गैर-असमी विवाद के कारण इस आंदोलन से अछूता रहा। इस आंदोलन को व्यापारी वर्ग द्वारा, शहरी प्रबुद्ध वर्ग की अपेक्षा अधिक समर्थन मिला। किसानों ने इस आंदोलन में बहुत बड़ी संख्या में भाग लिया। शोलापुर के कपड़ा मिल मजदूरों ने भी बड़ी संख्या में इसमें भाग लिया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के ज्यादा दिन तक चलने का कारण इसमें किसानों का सम्मिलित होना था। जहां भी यह आंदोलन मंद गति से भी आने लगता था, वहां किसानों का आंदोलन शुरू हो जाता था। इसने ऐसी शक्तियों का जन्म् दिया जिससे कि अब तक के सभी आंदोलन वंचित थे।
गांधीजी ने इस आंदोलन की शुरुआत के पहले ग्रामीण रचनात्मक कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न स्थानों पर आश्रम बना रखे थे। इस प्रकार के सभी आश्रम आंदोलन के प्रमुख स्थानीय केन्द्र बन गये। सविनय अवज्ञा आंदोलन में कांग्रेस का झण्डा उठाये हुए काफी बड़ी संख्या में महिलाओं द्वारा सड़क पर आना एक बहुत बड़ी आश्चर्यजनक घटना थी। इससे पहले भारतीय स्वतंत्राता के किसी भी आंदोलन में महिलाओं ने खुलकर इतनी बड़ी संख्या में भाग नहीं लिया था। शुरू में इस आंदोलन की दिशा शीर्षस्थ नेतृत्व द्वारा ही तय की जाती थी। लेकिन नमक सत्याग्रह से शुरू हुआ यह आंदोलन कर न चुकाने एवं अन्य स्थानीय मुद्दों में परिवर्तित होते हुए विभिन्न जगहों पर हड़ताल, प्रदर्शन और विदेशी सामानों के बहिष्कार के रूप में दृष्टिगत होता गया। कहीं-कहीं वनों और जंगलों के सत्याग्रह जैसे कार्यक्रम के रूप में भी देखा गया। ब्रिटिश सत्ता ने इस आंदोलन के दमन के लिए अत्यधिक कठोरता अपनायी। बड़ी संख्या में लोगों की गिरफ्तारी के साथ अन्य दमनात्मक कार्यवाईयां भी की गईं। करीब एक लाख लोगों ने इस आंदोलन के दौरान गिरफ्तारियां दीं। अन्त में 5 मार्च, 1931 को गांधी और इरविन के बीच एक समझौता संपन्न हुआ। जिसके बाद कांग्रेस ने यह आंदोलन वापस लेने का फैसला किया। इस समझौते के तहत कांग्रेस ने संवैधानिक प्रारूप की योजना बनाने के लिए आयोजित गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने का फैसला किया।
प्रश्न 24. 1757 से 1856 के बीच पूर्वोत्तर भारत में हुए विद्रोह पर प्रकाश डालिए।
उत्तर : 1757 से 1856 के बीच पूर्वोत्तर भाग में विद्रोह के बारे में जानकारी इस प्रकार है -
संन्यासी विद्रोह - संन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने बहुचर्चित उपन्यास आनंद मठ में किया है। अंग्रेजी कुशासन के चलते बंगाल की अर्थव्यवस्था पूर्णरूपेण चैपट हो चुकी थी। 1770 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा तथा कंपनी के पदाधिकारियों द्वारा अन्य कर लगाने के साथ-साथ तीर्थ स्थानों पर जाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। इस कार्यवाई से जनता के साथ-साथ संन्यासी भी पीड़ित हो गये। संन्यासियों ने जनता के साथ मिलकर कंपनी की कोठियों और कोषागारों पर हमला कर दिया। वारेन हेस्टिंग्स द्वारा चलाये गये लम्बे अभियान के बाद ही इस विद्रोह को दबाया जा सका।
कोल विद्रोह - यह विद्रोह बिहार के छोटानागपुर क्षेत्रा में हुआ था। इस विद्रोह का कारण कोलों के मुखिया मुण्डों से उनकी भूमि छीनकर मुस्लिम कृषकों और सिक्खों को देना था। इसके फलस्वरूप कोलों ने अनेक विदेशियों को या तो जिन्दा जला दिया या उनकी हत्या कर डाली। लम्बे सैनिक अभियान के बाद ही इस विद्रोह को दबाया जा सका।
चुआर विद्रोह - अकाल से प्रभावित मिदनापुर जिले के चुआर जाति के लोगों ने भूमि कर लगाने के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में कैलापाल, दलभूम, ढोल्का और बाराभूम के राजाओं ने मुख्य भूमिका निभायी।
संथाल विद्रोह - तत्कालीन राजमहल जिले के संथाल लोगों ने जमींदारों, पुलिस उत्पीड़न इत्यादि के खिलाफ सिधू और कान्हो के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। सिधू और कान्हों ने स्वतंत्रा शासन व्यवस्था की घोषणा कर दी। कंपनी कठिन सैन्य कार्यवाई के बाद 1856 में ही सम्बन्धित क्षेत्रा पर पुनः कब्जा जा पायी। बाद में सरकार ने स्थायी शांति समाधान हेतु संथाल परगना इलाके का निर्माण किया।
अहोम विद्रोह - असम के अहोम वर्ग के लोगों ने गोमधर कुंवर के नेतृत्व में 1828 में विद्रोह कर दिया। इसके पीछे कंपनी पर बर्मा युद्ध के पश्चात् अपनी वचनबद्धता से पीछे हटना था। प्रारम्भ में इस विद्रोह को दबा दिया गया। लेकिन द्वितीय विद्रोह (1830) के पश्चात् कंपनी ने समझौतावादी नीति अपनायी तथा असम के उत्तरी भू-भाग को महाराज पुरन्दर सिंह को दे दिया।
खासी विद्रोह - कंपनी द्वारा पूर्वी भू-भाग जैन्तिया तथा गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार करने के बाद उस क्षेत्र में अपनी सैन्य क्षमता मजबूत करने के लिए घाटी और सिलहट को जोड़ने के लिए एक मार्ग बनाने की योजना के उद्देश्य से वहां अनेक अंगे्रज और बंगाली लोग भेजे गये। वहां नक्कालों के राजा तीरत सिंह ने अंग्रेजों और बंगालियों के आने की घटना को घुसपैठ और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की संज्ञा देते हुए गारो, खाम्परी और सिहंपो लोगों की सहायता से इन लोगों को निकालने का प्रयास किया। इस विद्रोह को 1833 में अंग्रेजों द्वारा दबाया गया।
पागलपंथी विद्रोह - करमशाह द्वारा बंगाल में पागलपंथ नाम से एक अर्ध-धार्मिक संगठन चलाया जा रहा था। करमशाह के पुत्रा टीपू ने जमीदारों की मजारों पर किए गए अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। 1825 में टीपू ने शेरपुर पर अधिकार कर स्वयं को वहां का राजा घोषित कर दिया। इस विद्रोह का क्षेत्रा गारो की पहाड़ी तक था।
प्रश्न 25. असहयोग के बारे में गांधीजी के क्या विचार थे?
उत्तर : असहयोग के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण बहुत ही स्पष्ट था। उनका ऐसा मानना था कि जहां पहले सहयोग से दोनों पक्षों का काम चलता आया हो वहीं असहयोग रूपी सत्याग्रह आजमाया जा सकता है। उनका ऐसा मानना था कि असहयोग की सहायता के बिना जहां विपक्षी का काम चल सकता है, वहां असहयोग का अर्थ दूसरे पक्ष का त्याग अथवा अपने मन की शुद्धि इतना ही होता है। एक दूसरे तर्क में उनका मानना था कि उस परिस्थिति में जहां हमारी मदद के बिना दूसरे पक्ष का काम चल ही न सकता हो वहां किया गया असहयोग बहुत ही उग्र सत्याग्रह है। अतः यह तब ही आरंभ करना चाहिए जब सत्याग्रही को अपना मार्ग स्पष्ट धर्म रूप जान पड़े। इसमें विपक्षी का काम मेरे बिना नहीं चल सकता, यह बात सत्याग्रही भूलता नहीं है और इस वस्तुस्थिति में उसे अपना बल दिखाई देता है। इससे विपक्षी को परेशान करने की भी संभावना होती है। गांधीजी का विचार था कि जब विपक्षी अपने सहयोग का सर्वथा दुरुपयोग करता जान पड़े और उसके द्वरा निर्दोषों को पीड़ा पहुंचती दिखाई पड़े तब इस प्रकार का असहयोग उचित और आवश्यक हो जाता है। असहयोग में विरोधी के जो-जो काम उसकी प्रत्यक्ष सहायता के बिना न चल सकते हों तब उन सबमें से वह अपनी सहायता हटा लेगा। जहां उसकी प्रत्यक्ष सहायता न मिलती हो पर विरोधी को महत्व मिलने के कारण या उसकी प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण भी वहां पर अपनी सहायता हटा लेगा बावजूद इसके कि उसे कुछ लाभ भी मिलता हो, यह भी असहयोग का एक तत्त्व है। असहयोग के लक्ष्य में विरोधी को यह अहसास कराना निर्धारित है कि सत्याग्रही पक्ष के बिना वह अपनी योजना चला नहीं सकता है।
गांधीजी का ऐसा मानना था कि असहयोग का मार्ग ग्रहण करने वाले को यह प्रतीत होना चाहिए कि विरोधी का काम अथवा व्यवस्था इतनी दूषित है कि उसकी जगह दूसरी व्यवस्था तुरन्त न हो सके तो भी वर्तमान व्यवस्था का टूट जाना निश्चित प्राय है। चूंकि प्रत्येक विचारधारा के सदुपयोग और दुरुपयोग होने की संभावना रहती है। अतः इस मुद्दे पर गांधीजी स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि सत्याग्रही असहयोग और अ-सत्याग्रही असहयोग के भेद को सावधानीपूर्वक समझ लेना चाहिए। सत्याग्रह में कष्ट-सहन की बात रहती है। यदि असहयोग करने वाले को कुछ भी कष्ट न उठाना पड़े तो किये गये असहयोग के सत्याग्रह न होने की बहुत अधिक संभावना रहती है।
प्रश्न 26. भारतीय राज्यों के विलय में राज्यों के जन आंदोलनों की क्या भूमिका रही?
उत्तर : देशी रियासतों में जन चेतना का उभार 1920 के दशक में आया तथा 1927 में आॅल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रंेस का गठन किया गया। 1937.38 तक कांग्रेस पार्टी ने पार्टी के रूप में अपने को देशी राज्यों के जन आंदोलनों से अलग रखा, किन्तु नेहरू जैसे नेताओं ने व्यक्तिगत रूप से उसमें हिस्सा लिया। 1938 के बाद कांग्रेस ने देशी रियासतों के आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलनों का अभिन्न हिस्सा मानकर उसे समर्थन देने तथा उसमें भागीदारी करने की नीति अपना ली। इससे रियासतों में जन कांफ्रेंसों के गठन में तेजी आई तथा 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन ब्रिटिश भारत एवं देशी राज्यों की जनता का संयुक्त आंदोलन बन गया। राजाओं के कुशासन एवं अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए राज्यों की जनता रियासतों के विलय की मांग करने लगी। 1947 में भारत स्वतंत्राता अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सर्वोच्चता का अंत हो जाने पर जूनागढ़ ने पहले स्वतंत्रा रहने और बाद में पाकिस्तान में मिलने का विचार बनाया, किन्तु वहां के जनआंदोलन के कारण उसका विलय भारत में हुआ। हैदराबाद के विलय में भी तेलंगाना के जनसंघर्ष की महत्वपूर्ण भूमिका रही। अन्य राज्यों का विलय भी वहां की जनता के दबाव के कारण सम्भव हुआ।
प्रश्न 27. बच्चों में शिक्षा आरम्भ करने की तरीके क्या है?
उत्तर : बच्चों में सबसे पहले भाषा का ज्ञान होना चाहिए। उनकी अपनी मातृभाषा की शिक्षा या ज्ञान थोड़ा घर पर हो जाता है। इसके बाद उसे अक्षर का ज्ञान होना चाहिए। अब उन्हें अंग्रेजी या यूरोपीय भाषा सिखाना चाहिए।
बालक को जो भी अंग्रेजी का शब्द या वाक्य सिखाया जाएगा, पहले वह वाक्य या शब्द बालक को मातृभाषा में बताया जाएगा। फिर मातृभाषा के शब्द या वाक्य अंग्रेजी में अनुवाद करके बताया जाएगा। जिससे बालक उस शब्द या वाक्य का अर्थ अच्छी तरह हृदयगंम कर लें। विभिन्न वस्तुओं, शरीर के अंगों, फलों, सब्जियों, पशु-पक्षियों आदि के अंग्रेजी पर्याय उसे मातृभाषा के माध्यम से सिखाए जायेंगे।
बालक की अंग्रेजी व्याकरण सिखाने के लिए उसकी मातृभाषा के व्याकरण के ज्ञान को काम में लिया जाएगा। उसके मातृभाषा के व्याकरण के ज्ञान की सहायता से उसे अंग्रेजी का व्याकरण सिखाया जाएगा।
अंग्रेजी बोलना सिखाने के लिए उसके मातृभाषा के अक्षरों के ज्ञान को काम में लाया जाएगा।
प्राथमिक स्कूल में बच्चे प्रायः 4 से 8 वर्ष के होते हैं। अतः उन्हें संख्याओं का ज्ञान खेल पद्धति के आधार पर कराना चाहिए ताकि बच्चे खेल खेल में संख्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सकें और उनमें अन्तर भी समझ सकें।
सर्वप्रथम हम बच्चों को संख्याओं का ज्ञान शरीर को आधार मान कर करा सकते हैं। एक के लिए हम नाक का प्रयोग कर सकते हैं। दो के लिए आँख और कान को बतला कर ज्ञान दिया जा सकता है। तीन, चार और पाँच के लिए हाथ की उँगलियों को बतला कर ज्ञान दिया जा सकता है। इसी प्रकार छः से दस तक हम शरीर के अंगों को बतला कर ज्ञान दे सकते हैं।
संख्याओं के ज्ञान के लिए श्यामपट्ट पर गोल, आयत चित्रा बनाकर संख्याओं का ज्ञान दे सकते हैं, जैसे - एक गोला बनाकर बच्चों को एक बोलने का अभ्यास कराया जा सकता है। इसी प्रकार से जिस संख्या का ज्ञान करवाना हो उतनी ही गोल, आयत चित्रा बनाकर बच्चों का ज्ञान कराया जा सकता है। इनके द्वारा विभिन्न संख्याओं में भेद भी बताया जा सकता है।