प्रश्न 10 : निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणियां लिखिए -
(i) अलनीनो एवं भारतीय मानसून
(ii) पारिस्थितिकी मित्रा कृषि
उत्तर : (i) अलनीनो प्रशांत महासागर में बहने वाली गर्मधारा है जो पेरू के तट से सामान्यतः फरवरी और मार्च में बहती है। इसे चाइल्ड क्राइस्ट के नाम से भी जाना जाता है। भौगोलिकवेत्ताओं का मानना है कि इस धारा का व्यापक प्रभाव विश्व की जलवायु पर पड़ता है। हाल के वर्षों में भारत की जलवायु में जो परिवर्तन आया, उसका सीधा कारण अलनीनो था - ऐसा अधिकांश विद्वानों का मानना है। इसी के कारण भारतीय मानसून बुरी तरह प्रभावित हुआ।
अलनीनो की गर्मधारा के कारण समुद्र का तापमान 4.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है। जिसके कारण गर्मियों में वाकर संचालन तीव्र हो जाता है। जिसका प्रतिकूल प्रभाव मानसून पर पड़ता है। अतः कमजोर मानसून के कारण फसल को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
कुछ विद्वान अलनीनो का मानसून पर कोई प्रभाव नहीं मानते, उनका मानना है कि पिछले 43 वर्षों में मात्रा 19 बार ही मानसून अलनीनो से प्रभावित हुआ। ऐसा क्यों ?
(ii) वह कृषि पद्धति जिसमें मानवीय उपयोगिता संसाधनों का सही उपयोग और पर्यावरण का संतुलन इस प्रकार स्थापित किया जाता है कि वह सम्पूर्ण जीव जगत के लिए लाभकारी हो, पारिस्थितिकी मित्रा कृषि कहलाती है।
इस कृषि को प्रारम्भ करने के लिए निम्नलिखित की आवश्यकता होती है -
(i) अच्छी आर्थिक स्थिति।
(ii) विकसित तकनीकि।
(iii) संसाधनों का सही प्रयोग।
(iv) सामाजिक स्वीकृति।
(v) स्थानीय स्वीकृति।
इस पद्धति की मुख्य विशेषताएं हैं -
1.जैव विविधता
2. फसलों का विविधीकरण
3. एकीकृत पोषक तत्वों का प्रबन्धन
4. एकीकृत कीट प्रबन्धन
5. धारणीय जन प्रबन्धन
6. प्रसार कार्यक्रम
7. पोस्ट हार्वेस्ट तकनीकी
पारिस्थितिकी मित्रा कृषि के उपयोग से कृषि और पर्यावरण में सामंजस्य स्थापित होने के साथ-साथ कृषि उत्पादन में वृद्धि होने की पूरी-पूरी सम्भावनाएं हैं। इस विधि को अपनाने से केवल कृषि उत्पादन में ही वृद्धि नहीं होती, बल्कि फसल के संरक्षण को भी महत्व दिया जाता है। उत्पादन को सुरक्षित रखने के लिए विकसित उपायों को काम में लाया जाता है।
प्रश्न 11 : पर्यावरण प्रदूषण कितने प्रकार का होता है? भारत में औद्योगीकरण की वृद्धि के कारण यह किन.किन स्थानों पर हुआ है?
उत्तर : औद्योगिकरण के कारण प्रर्यावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है तथा जल, थल, वायु, मानव, वन, जीव-जंतु सभी पर औद्योगीकरण से उत्पन्न प्रदूषण का खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के लिए चार घटक मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं-वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनी प्रदूषण और रेडियोधर्मिता। पर्यावरण प्रदूषण का प्राकृतिक भौतिक संसाधन एवं जीवन के गुणों से सम्बन्धित मूल्यों (जैसे-सांस्कृतिक व सौन्र्दय विषयक मूल्य आदि) पर गहन प्रभाव पड़ता है। कारखानों की चिमनियों से निकलने वाली गैसं तथा मोटर वाहनों का धुआँ, कोयले व तेल से चलने वाले शक्तिकेंद्र आस-पास के वातावरण को प्रदूषित करते हैं। इनसे निकलने वाले धुएँ में कार्बन-मोनो -आॅक्साइड की विद्यमान मात्रा शरीर पर दुष्प्रभाव डालती है। मोटर वाहनों में मुख्यतः एक्जास्ट निकास पाइप, फ्रेंक केस, कारब्यूरेट एंव ईंधन की टंकी प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं। मथुरा के तेल शोधक कारखाने से निकलने वाले धुएँ व हानिकारक गैसों तथा दिल्ली में मोटरवाहनों द्वारा छोड़े जाने वाले धुएँ से पर्यावरण निरंतर प्रदूषित हो रहा है। समुद्री जहाजों द्वारा प्रतिवर्ष भारी मात्रा में तेल पानी में छोड़ा जाता है, जिससे हजारों समुद्री जीव.जंतु मर जाते हैं। इसके अलावा उद्योगों द्वारा नदियों में फेंका जाने वाला कचरा नदियों के जल को प्रदूषित कर देता है। पौधों पर छिड़का जाने वाला डी.डी.टी पाउडर भी वर्षा के जल के साथ नदियों में पहुँच जाता है तथा अंततः समुद्री जल को प्रदूषित करता है। हरिद्वार से लेकर कलकत्ता तक गंगा नदी का जल औद्योगिक व महानगरीय कचरे के कारण प्रदूषित हो गया है। खेतों में कीटाणुनाशक दवाओं का प्रयोग मृदा प्रदूषण का मुख्य कारण है। मानव मल.मूत्र के खेती में निरन्तर उपयोग के अनेक घातक परिणाम होते हैं। उद्योग-धन्धों की मशीनो, स्थल व वायु परिवहन साधनों तथा मनोरंजन के साधनों (ध्वनी विस्तारक आदि) के कारण ध्वनि प्रदूषण भी तेजी से बढ़ा है, जिससे सिरदर्द, बेहोशी, बहरेपन की घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं। दिल्ली ध्वनि प्रदूषण का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसके अलावा परमाणु ईंधन व परमाणु बमों के परीक्षण रेडियोधर्मिता को बढ़ा रहे हैं। रेडियोधर्मी धूल साँस द्वारा मानव शरीर में पहुँचकर भावी पीढ़ी को विकलांग व रोगी बना सकती है। इसप्रकार, आज पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने, उसे प्रदूषण मुक्त करने के लिए अत्याधुनिक तकनीक की सर्वाधिक आवश्यकता महसूस की जा रही है। यद्यपि औद्योगिक परियोजनाओं के पर्यावरण पर प्रभाव की कुछ विशेष क्षेत्रों में पुरी छानबीन के साथ जाँच की गई है तथा उसको नियंत्रित करने के लिए आवश्यक कदम भी उठाये गए हैं, लेकिन ये सब कदम पर्याप्त नहीं हैं।
प्रश्न 12: 1987-88 के प्रचंड सूखे के कारण भारत के कौन-कौन से इलाके मुख्यतः प्रभावित हुए? इसके मुख्य परिणाम क्या थे?
उत्तर : 1987-88 के भीषण सूखे ने भारत के विभिन्न भागों को गम्भीर रूप से प्रभावित किया था। व्यापक पैमाने पर प्रभावित राज्यों में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा व तमिलनाडु शामिल थे। इस सूखे के परिणाम स्वरूप कृषि उत्पादन को भारी धक्का लगा और उसका प्रभाव वार्षिक विकास दर पर भी पड़ा। औसत वार्षिक विकास दर 4.4 प्रतिशत से गिरकर 1987-88 में 2 प्रतिशत से भी कम हो गई। कृषि उत्पादन का सूचकाँक 1989-87 में 3.7 प्रतिशत और 1987-88 में 1 प्रतिशत गिर गया। खद्यान्न का उत्पादन 1987-88 में गिरकर 138.41 मिलियन पर आ गया। जल के स्तर में गिरावट के फलस्वरूप सिंचाई व जल विद्युत उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। कृषि उत्पादन में कमी का प्रभाव औद्योगिक उत्पादन पर भी पड़ा कयोंकि कृषि आधारित कच्चे माल की आपूर्ति कम हो गई थी। कृषि उत्पादन में 1985-86 से 1987-88 की अवधि में होने वाली गिरावट की स्थिति में 1988-89 में सुधार हुआ। 1987-88 की तुलना में 1988-89 में कृषि की अपेक्षा 1.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सातवीं योजना में कृषि उत्पादन में पर्याप्त सुधार हुआ तथा इसकी वार्षिक विकास दर 4.1 प्रतिशत रही, जबकि लक्ष्य 4 प्रतिशत का था।
प्रश्न 13 : ‘काली मिट्टी’ कया होती है? भारत में इसका वितरण बताइए। उनके कया उपयोग हैं और उनकी समस्याएं क्या है? समझाइए।
उत्तर : काली मृदा, अर्द्ध.शुष्क स्थिति के अंतर्गत लावा के जमावों से बनती है। इसका काला रंग इसमें विद्यमान लौह अंश, टिटेनिफेरस व एल्यूमीनियम के कारण होता है। इस प्रकार की मृदा की गहराई कहीं कम तो कहीं बहुत गहरी होती है। यह मृदा भारत में महराष्ट्र, मध्य प्रदेश के प्रश्चिमी व मध्यवर्ती भाग, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक के उत्तरी जिले व उड़ीसा के दक्षिणी भाग में पाई जाती है। कुछ काली मृदा अत्यधिक उपजाऊ होती है। काली मृदा में महीन कण वाली मृदा, गहरे रंग की तथा इसमें कैल्शियम व मैनीशियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक रहती है। ऐसी मृदा गीली होने पर पर फैलती है तथा सूखने पर सिकुड़ने के कारण इसमें दरारे पड़ जाती हैं। इसमें कैल्शियम, पोटाश, लौह तत्व तथा एल्यूमिनियम की अधिकता और फास्फोरस, नाइट्रोजन एवं जीवांशों की कमी होती है। उदाहरणार्थ- ब्लैक काॅटन मृदा। यह कपास की खेती के लिए उपयुक्त है। इसके अलावा काली मृदा ज्वार, गेहूँ , मूँगफली, चना व तम्बाकू के लिए भी उपयुक्त है। इसे रेगुड़ मृदा भी कहा जाता है। इसकी आद्र्र क्षमता अधिक होती है, अतः इसमें सिंचाई की अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती है।
प्रश्न 14 : भारत के किन्हीं तीन जनजातीय इलाकों के नाम बताइए। सरकार के जनजातीय विकास कार्यक्रम के प्रमुख अवयवों को बताइए।
उत्तर : भारत में लगभग 50 जनजातीय समूह बड़ी संख्या में रहते हैं। तीन बड़े जनजातीय क्षेत्र है, उत्तर-पूर्वी राज्य, मध्य प्रदेश और बिहार। भारत में 1981 में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 5 करोड़ 16 लाख थी, जो पूरी जनसंख्या का 7,5 प्रतिशत है। सरकार की जनजातीय उप योजना की कार्यनीति, जनजातीय समुदायों को जीवन की बेहतर सुविधायें उपलब्ध कराकर क्षेत्र का विकास करना है। जनजातीय उपयोजना कार्यनीति के मुख्य घटक हैं-समन्वित जनजातीय विकास परियोजना (ITDPS), मोडिफाइड एरिया डेवलपमेंट एप्रोच (MADA) और लघु और आदि जनजातीय समूह उपयोजना। जनजातीय उपयोजना का वित्तीय प्रबंध निम्न स्रोतों से होता हैः
(i) राज्य के योजना व्यय से
(ii) जनजातीय क्षेत्रों के लिए केंद्रीय मंत्रालय द्वारा किये जाने वाले व्यय।
(iii) केंद्र द्वारा जनजातीय क्षेत्रों को विशेष वित्तीय सहायता।
(iv) बैंको द्वारा उपलब्ध कराया जाने वाला वित्त।
जनजातीय उपयोजना की कार्यनीति का तात्कालिक उद्देश्य जनजातीय क्षेत्रों के सभी प्रकार के शोषण को समाप्त करना, सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया को तेज करना, लोगों को आत्मनिर्भर बनाना और उनकी संगठनात्मक क्षमता में सुधार करना था।
प्रश्न 15 : भारत सरकार ने हाल ही में खाद्य संसाधन के लिए एक विभाग स्थापित किया है। उसके अधीन क्या.क्या कार्य होते हैं?
उत्तर : भारत में कृषि उत्पाद का एक बड़ा भंडारण व प्रसंस्करण के अभाव में बाजार में भेजे जाने से पहले ही खराब हो जाता है। ऐसे में फल-फूल-सब्जी जैसे कृषि उतपादों का प्रसंसीकरण आवश्यक हो जाता है। उल्लेखनीय है कि भारत में कृषि व सम्बद्ध उत्पादों के कुल वार्षिक उत्पादन का सिर्फ एक प्रतिशत ही प्रसंसीकरण हो पाता है, जबकि अमेरिका और मलेशिया जैसे देशोें में यह प्रतिशत क्रमशः 70 व 83 है। कृषि उत्पादों के बेहतर उपयोग, ग्रामीण उत्पादों के उचित मूल्य, ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध कराने, ग्रामीण उत्पादों के कुल वृद्धि स्तर में वृद्धि व खाद्य प्रसंस्करण मे आधुनिक तकनीकी के उपयोग के उद्देश्य से किसानों व उद्योगों के बीच संबंधों को गतिशील व सहयोगी बनाने के लिए भारत सरकार ने खाद्य प्रसंस्करण विभाग की स्थापना की। खाद्य प्रसंस्करण विभाग फल और सब्जी उत्पादों के संबंध में निर्यात (क्वालिटी कंट्रोल एंड इन्सपेक्सन) अधिनियम, 1963 के अंतर्गत एक नियंत्रण संस्था के रूप में भी कार्य करता है। यह फल और सब्जी प्रसंस्करण इकाई स्थापित करने के लिए सलाहकारी सेवायें भी प्रदान करना है। उद्यान ओर सब्जी फसल क्षेत्र, डिब्बा बंद प्रसंस्कृत खाद्य वस्तुओं के उद्योगा की और विशेष ध्यान आकर्षित कर रहा है तथा उस क्षेत्र में नये उद्योग लगाने को प्रेरित कर रहा है।
प्रश्न 16 : भारतीय राजनीति परिदृश्य में सांप्रदायिकता किस प्रकार प्रकट हुई? महत्वपूर्ण पाकिस्तान प्रस्ताव के पारित होने की पृष्ठभूमि को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मंत्रिमंडल मिशन के प्रस्ताव क्या थे? इन प्रस्तावों पर कांग्रेस तथा लीग की प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर : भारत में सांप्रदायिकता का उद्भव एवं विकास वस्तुतः ब्रिटिश शासन की नीतियों एवं कार्यक्रमों का ही परिणाम था। सांप्रदायिकता का उदय आधुनिक राजनीति के उदय से जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीयतावाद तथा समाजवाद जैसी विचारधारा की तरह ही राजनीतिक विचारधारा के रूप में सांप्रदायिकता का विकास उस समय हुआ, जब जनता की भागीदारी, जनजागरण तथा जनमत के आधार पर चलने वाली राजनीति अपने पांव जमा चुकी थी। निश्चय ही, भारत में सांप्रदायिकता का उदय उपनिवेशवाद के दबाव तथा उसके खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ। दरअसल, इसकी जड़ें सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों में निहित थीं। भातरीय उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था तथा इसके कारण उत्पन्न पिछड़ेपन ने भी सांप्रदायिकता के विकास में मदद पहुंचा। औपनिवेशिक शोषण के फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में जो ठहराव आया तथा भारतीय जनता, खासकर मध्यम वर्ग के जीवन पर इसका जो असर पड़ा, उसके कारण ऐसी परिस्थितियां बनीं, जो भारतीय समाज के विभाजन तथा कलह का कारण बन गयीं। अपने निजी संघर्ष को एक विस्तृत आधार देने के लिए तथा प्रतिद्वन्द्विता के बीच से अपनी सफलता की संभावनाएं बढ़ाने के लिए मध्यम वर्ग जाति, धर्म एवं प्रांत जैसी सामूहिक पहचानों का सहारा लेने लगा था। इस तरह सांप्रदायिकता ने मध्यम वर्ग के कुछ लोगों को तात्कालिक लाभ जरूर पहुंचाया। इससे सांप्रदायिक राजनीति को एक तरह से वैधता भी मिली।
आधुनिक भारत में सांप्रदायिकता के विकास के लिए ब्रिटिश शासन तथा ‘फूट डालो और राज करो’ की उसकी नीति विशेष रूप से जिम्मेदारी मानी जा सकती है। यद्यपि ऐसा देश में मौजूद सामाजिक एवं राजनीति परिस्थितियों के कारण ही संभव हो सका। ब्रिटिश हुकूमत ने ऐसे कई हथकंडे अपनाये, जिनसे वह भारत में सांप्रदायिकता के जुनून को परवान चढ़ाने में सफल रही, मसलनः (i) 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद से उसके प्रति नरम दृष्टि रखना; (ii) 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्रा की व्यवस्था करना; (iii) सांप्रदायिकतावादियों को ब्रिटिश संरक्षण एवं रियायतें प्रदान करना; (iv) 1932 में ‘सांप्रदायिक निर्णय’ की घोषणा करना आदि।1937 में होने वाले प्रांतीय चुनाव, सांप्रदायिकता के लिहाज से एक विभाजनकारी रेखा साबित हुए। इससे पूर्व तक मुस्लिम सांप्रदायिकता इस विचार पर आधारित थी कि मुस्लिम हितों की रक्षा की जाये, खासकर उच्च एवं मध्यमवर्गीय मुसलमानों की। लेकिन 1937 के चुनावों में मिली करारी हार से मुस्लिम सांप्रदायिकता इस रूप में परिणत हो गयी कि उसने इस बात का प्रचार-प्रसार करके कि, ‘मुस्लिम कौम एवं इस्लाम खतरे में है’, अपना सामाजिक-आर्थिक विकास करना शुरू कर दिया, ताकि भविष्य में राजनीतिक लाभ प्राप्त किया जा सके। 1933 में ही कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अध्ययन का रहे छात्रा नेता रहमत अली ने ‘पाकिस्तान’ नामक देश की परिकल्पना की थी। प्रसिद्ध शायर इकबाल ने भी पृथकवाद तथा मुस्लिम सांप्रदायिकतावाद को बढ़ाने में मदद पहुंचाई। मुस्लिम लीग ने 1937 में भारत के लिए स्वाधीनता तथा जनतांत्रिक संघ की मांग रखी थी, परंतु 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया, जो ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ के नाम से जाना गया। 3 जून, 1947 को पाकिस्तान के रूप में एक नये देश का उदय हुआ, जो भारत में सांप्रदायिकतावाद की पराकाष्ठा मानी जा सकती है।
अथवा
उत्तर - द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात् अंग्रेजी सरकार की स्थिति काफी नाजुक बन चुकी थी। वह किसी भी तरह से भारतीयों को संतुष्ट कर अपना साम्राज्य बनाये रखना चाहती थी। लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अब वह भारतीय शासन तंत्रा, सेना, पुलिस तथा जनता पर निर्भर नहीं रह सकती थी। संपूर्ण भारत में मजदूरों के आंदोलन हो रहे थे तथा दिल्ली एवं बिहार में पुलिस ने भी हड़तालंे कर दी थीं। सबसे भयंकर स्थिति बंबई में नौ-सेना के विद्रोह से उत्पन्न हो गयी। ऐसी विषम स्थितियों में ब्रिटिश प्रधानमंत्राी एटली ने 19 फरवरी, 1946 को भारत की समस्या के समाधान हेतु ‘कैबिनेट मिशन’ (मंत्रिमंडल मिशन) को भारत भेजने की घोषणा की। यह एक महत्वपूर्ण घोषणा थी, क्योंकि इसमें पहली बार भारत के लिए ‘स्वाधीन, शब्द का प्रयोग किया गया था। साथ ही, इसमें अल्पसंख्यकों एवं बहुुसंख्यकों दोनों के लिए सुरक्षा की बातें कही गयी थीं। 24 मार्च, 1946 को कैबिनेट मिशन दिल्ली पहुंचा और इसने 16 मई, 1946 को व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात् अपनी योजना प्रस्तुत की, जिसकी प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं।
(i) ब्रिटिश भारत एवं देशी रियासतों का एक संघ बनाना, जिसके हाथों में विदेशी मामले, रक्षा एवं यातायात संबंधी अधिकार हों,
(ii) संघीय विषयों के अतिरिक्त सभी विषय प्रांतों के हाथों में रहने चाहिए,
(iii) देशी रियासतें, संघ को सौंपे गये विषयों के अलावा अन्य सभी विषयों पर अपना अधिकार रखेंगी,
(iv) प्रस्तावित संघ की एक कार्यकारिणी एवं विधायिका होगी, जिसमें ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों के प्रतिनिधि होंगे।
(v) संविधान सभा में कुल 385 सदस्य होंगे, जिनमें से 292 सदस्यों का चुनाव ब्रिटिश-भारत प्रांतों के विधानसभाएं अप्रत्यक्ष तरीके से सांप्रदायिक आधार पर करेंगी। शेष 93 सीटों पर देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को चुनने का तरीका बाद में तय किया जायेगा,
(vi) संविधान के अस्तित्व में आते ही अंग्रेजी सर्वोच्चता समाप्त हो जायेगी। देशी रियासतों को यह अधिकार होगा कि वे संघ से संबंध स्थापित करें तथा प्रांतों से,
(vii) विधानसभाओं को ब्रिटेन के साथ शक्ति हस्तांतरण से उत्पन्न मामलों पर एक संधि करनी पड़ेगीं,
(viii) पाकिस्तान की मांग अव्यावहारिक होने के कारण स्वीकार्य नहीं है,
(ix) संविधान निर्माण के पूर्व एक अंतरिम सरकार का गठन किया जायेगा, जिसे प्रमुख राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त होगा।
प्रांरभ में विभिन्न राजनीतिक दलों का इन प्रस्तावों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रहा, यद्यपि कुछ बिंदुओं पर वे असहमत भी थे। मुस्लिम लीग ने इसे 6 जून, 1946 को तथा कांग्रेस ने 25 जून, 1946 को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस ने प्रारंभिक असंतुष्टता के बाद अंततः संविधान सभा में शामिल होने का फैसला किया। कांग्रेस का मानना था कि इससे एक स्वतंत्रा, एकीकृत एवं प्रजातांत्रिक भारत का निर्माण संभव हो सकेगा। मुस्लिम लीग यद्यपि पाकिस्तान की मांग को अस्वीकार कर दिये जाने से आहत थी, परंतु उसे इन प्रस्तावों में पाकिस्तान के सपने को सच करने का आभास मिल चुका था। लीग एवं कांग्रेस के बीच इस बात को लेकर विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गयी कि कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों के अनुरूप राज्यों का वर्गीकरण ऐच्छिक होना चाहिए अथवा अनिवार्य। जहां कांग्रेस इसे ऐच्छिक मानने पर जोर दे रही थी, वहीं लीग इसे अनिवार्य बनाने पर कायम थी। फिर भी, चूंकि इसने दोनों में आशा की एक नयी किरण बिखेर दी थी, अतः उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया।
प्रश्न 17 : निम्नलिखित में से किन्हीं दो का उत्तर दीजिए।
(क) स्वराज पार्टी के निर्माण की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए। उसकी मांगें क्या थीं?
(ख) “जिसकी शुरुआत धर्म के लिए लड़ाई के रूप में हुई, उसका अंत स्वतंत्राता संग्राम के रूप में हुआ, क्योंकि इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि विद्रोही, विदेशी सरकार से छुटकारा पाने तथा पूर्व व्यवस्था को पुनःस्थापित करने के इच्छुक थे, जिसका सही प्रतिनिधि दिल्ली नरेश था।” क्या आप इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं?
(ग) तिब्बत के प्रति कर्जन की नीति किस सीमा तक रणनीतिक विचार से प्रभावित थी?
उत्तर (क) : गांधी द्वारा अचानक असहयोग आंदोलन स्थगित किये जाने के बाद कांग्रेस के एक वर्ग में घोर निराशा एवं असंतोष फैल गया। इसने कांग्रेस के भावी कार्यक्रमों को गंभीर रूप में प्रभावित कर दिया। देशबंधु चितरंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू कांग्रेस द्वारा सशक्त नीति के अपनाये जाने पर बल देने लगे। दोनों वर्गों का विरोध स्पष्ट रूप से उभर कर गया अधिवेशन (1922), में प्रकट हुआ। इस अधिवेशन में काउंसिल में प्रवेश के मुद्दे पर मतदान भी हुआ, जिसमें परिवर्तन गुट की हार हो गयी। फलतः जनवरी, 1923 में दास एवं नेहरू ने ‘कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ की स्थापना कर डाली। इसके अध्यक्ष देशबंधु चितरंजन दास तथा सचिव मोतीलाल नेहरू बने। इस दल ने कांग्रेस के अंदर रह कर ही अपनी अलग नीतियां कार्यान्वित करने का निश्चय किया। स्वराजियों का मुख्य उद्देश्य भी स्वराज्य की प्राप्ति ही था, किंतु इसे प्राप्त करने के उनके तरीके अलग थे। इनकी प्रमुख मांगें निम्नलिखित थीं -
(i) कांग्रेस को असेम्बली के बहिष्कार की नीति त्याग देनी चाहिए;
(ii) काउंसिलों में प्रवेश कर सरकारी नीतियों का डट कर विरोध करना चाहिए;
(iii) सरकार विरोधी जनमत तैयार करना चाहिए;
(iv) कोई भी सरकारी पद ग्रहण नहीं करना चाहिए;
(v) विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाना चाहिए।
(ख) : इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 1857 की क्रांति की शुरुआत में धार्मिक भावनाओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। एक बार जब यह आंदोलन अपना रुख अख्तियार करने लगा, तो इसने स्वतंत्राता संग्राम के रूप में अपने को प्रतिष्ठित करा लिया। लेकिन यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्राता संग्राम की भी अपनी सीमाएं थीं। निश्चित रूप से विद्रोही, अंग्रेजी सरकार से तंग आ चुके थे और वे किसी भी तरह अपने को उससे बचाना चाह रहे थे। इसके लिए उन्होंने मुगल सम्राट को अपना ‘प्रतिनिधि’ मान कर उसकी सत्ता को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। यह प्रयास निश्चय ही पूर्व व्यवस्था को पुनस्र्थापित करने जैसा ही था और यह किसी भी रूप में प्रगतिवादी कदम नहीं माना जा सकता था। दिल्ली नरेश (मुगल सम्राट) को अपना समर्थन देकर ये विद्रोही; स्वयं की आकांक्षाओं को पल्लवित करना चाह रहे थे। मसलन, झांसी की रानी इस संग्राम में सिर्फ इसलिए कूद सकीं, क्योंकि उनके राज्य को हड़प लिया गया था। इसी तरह नाना साहब इसलिए सक्रिय हुए। क्योंकि उसके साम्राज्य के कानपुर में खतरा पैदा हो गया था। इस तरह यह बात स्वीकारने योग्य है कि कुछ निश्चित सीमाओं के अधीन 1857 के विद्रोही, पूर्व व्यवस्था को कायम करना चाह रहे थे।
(ग) : जिस समय लाॅर्ड कर्जन भारत आया (1899), उस समय तिब्बत में रूसी प्रभाव बढ़ रहा था। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों का आशंकित होना स्वाभाविक हो था। इसी बीच 1902 में कर्जन को चीन तथा रूस के बीच एक गुप्त समझौते की जानकारी मिली, जिसके अनुसार चीन की सरकार ने तिब्बत पर रूस का नियंत्राण स्वीकार कर लिया था। इस बात की जानकारी मिलने पर कर्जन ने एक शिष्टमंडल तिब्बत भेजने का निर्णय लिया। मार्च 1904 में लाॅडकर्जन ने फ्रांसिस यंग हस्बैंड के नेतृत्व में एक सैनिक अभियान दल तिब्बत की राजधनी ल्हासा के लिए भेजा। इसका मुख्य उद्देश्य तिब्बतियों को समझौता करने के लिए बाध्य करना था। अंग्रेजी सेना तिब्बतियों को परास्त करती हुई अगस्त 1904 में ल्हासा पहुंच गयी। 7 सितंबर, 1904 को दलाई लामा ने यंग हस्बैंड के साथ ‘ल्हासा की संधि’ की। इसके अनुसार, तिब्बत पर युद्ध के हर्जाने के रूप में 75 लाख रुपये की राशि थोप दी गयी। यह राशि तिब्बत को प्रतिवर्ष एक लाख रुपये की दर से अदा करना था। हर्जाना चुकाये जाने की अवधि तक चुम्बी घाटी पर अंग्रेजों का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। व्यापारिक सुविधा के लिए यांतुंग, ज्ञानत्से तथा गरटाॅक में ब्रिटिश व्यापारिक केंद्र खोलने की बात तय हुई। यह भी तय हुआ कि तिब्बत, इंग्लैंड के अलावा अन्य किसी भी विदेशी शक्ति को तिब्बत में रेल, सड़क, तार आदि बनाने की सुविधा प्रदान नहीं करेगा। इस तरह तिब्बत की विदेश नीति पर अंग्रेजों का नियंत्राण कायम हो गया। इस नीति से तिब्बत पर पर रूसी प्रभाव तो कम अवश्य हो गया, परंतु चीन की सार्वभौमिकता तिब्बत पर स्पष्ट रूप से स्थापित हो गयी। फिर भी, कर्जन की नीति के फलस्वरूप तिब्बत पर रूस का प्रभाव कायम नहीं होना, उसकी एक सफल रणनीतिक विजय ही मानी जा सकती है।
प्रश्न 18 : निम्नलिखित में से किन्हीं तीन का उत्तर दीजिए -
(क) आधुनिक भारत के निर्माण में ईश्वरचंद्र विद्यासागर के अंशदान का आकलन कीजिए।
(ख) रामकृष्ण ने हिंदुत्व में किस प्रकार नयी ओजस्विता और गत्यात्मकता का संचार किया?
(ग) ‘टैगौर की कविता उनके धार्मिक अनुभव का लिखित रिकाॅर्ड है।’ प्रकाश डालिए।
(घ) नेहरू की आधुनिकीकरण की योजना 1951.61 के दशक के दौरान किस प्रकार तेजी से आगे बढ़ी?
उत्तर (क) : 19वीं शताब्दी में बंगालियों की सामाजिक दशा सुधारने तथा उन्हें शिक्षित करने के लिए ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अथक प्रयास किये। संस्कृत भाषा तथा बंगला साहित्य के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने एक काॅलेज की भी स्थापना की। उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य स्त्रिायों की दशा में सुधार लाना था। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में जोरदार आंदोलन चलाया। उनके प्रयासों के फलस्वरूप ही 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पास हुआ और बंगाल में अनेक विधवा विवाह संपन्न हुए। बाल विवाह तथा बहु विवाह को रोकने का भी उन्होंने सफल प्रयास किया। स्त्रिायों की शिक्षा के लिए उन्होंने अनेक बालिका विद्यालयों की स्थापना करवायी। बंगाल में उच्च नारी शिक्षा के वे अग्रदूत माने जाते हैं।
(ख) : बंगाल में नवजागरण लाने में रामकृष्ण के विचारों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। रामकृष्ण परमहंस, जो कलकत्ता के दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी थे, का बंगाल के प्रबुद्ध समाज पर गहरा प्रभाव था। वे सादा जीवन व्यतीत करने तथा भारतीय धर्म एवं संस्कृति में पूर्ण आस्था रखने पर जोर देते थे। मू£त पूजा तथा हिंदू धर्म में गहरा अनुराग रखते हुए भी वे सभी धर्मों को एक समान मानते थे। ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग, उनके अनुसार एकमात्रा निःस्वार्थ भक्ति ही थी। रामकृष्ण ने अपने विचारों को सरलता प्रदान कर हिंदू समाज को पुनर्जीवित करने तथा उसे गति प्रदान करने की सफल कोशिश की। उनके प्रयासों से ही हिंदू धर्म एवं संस्कृति में एक नवजीवन आया तथा उसकी समृद्धि में बढ़ोत्तरी हो सकी। इसके लिए उन्होंने ज्ञान के साथ-साथ सत्कर्म पर विशेष जोर दिया।
(ग) : टैगोर में कला संबंधी नैस£गक गुण थे। उनकी कविताओं तथा चित्रों में हमें इसी नैस£गकता का पुट देखने को मिलता है। साथ ही, उनमें उनकी धार्मिक मनोभावनाओं के दर्शन भी होते हैं। एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति होने के कारण टैगोर का ईश्वर की सत्ता में अगाध विश्वास था। लेकिन वे आडंवरयुक्त धर्म के सख्त विरोधी थे। वे नैतिकता पर आधारित उचित मार्ग को ही धर्म की कोटि में रखते थे। गीता के उपदेशों के अनुरूप वे कर्म में आस्था रखते थे तथा त्याग को सर्वाधिक महत्व देते थे। उनके धार्मिक चिंतन में मुक्ति (मोक्ष) के लिए कोई स्थान नहीं था। उनकी कविताओं में उनके इन धार्मिक अनुभवों एवं विचारों की झलक मिलती है।
(घ) : स्वतंत्राता के पश्चात् नवजात भारत को आधुनिक स्वरूप प्रदान करने का वास्तविक श्रेय पं. नेहरू को ही जाता है। उन्होंने भारत की बागडोर संभालने के साथ ही इस दिशा में त्वरित प्रयास आंरभ कर दिये। इसके लिए उन्होंने सर्वप्रथम, भारतीय अर्थव्यवस्था तथा आर्थिक नियोजन पर ध्यान दिया। वे एक समाजवादी समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसके लिए यह जरूरी था कि समाजवाद के आर्थिक पहलुओं की ओर ध्यान दिया जाये। उन्होंने अपने लोकतंत्रात्मक समाजवाद की स्थापना के लिए एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। फलतः भारत में कुटीर उद्योगों के साथ ही लघु एवं वृहद् उद्योगों को प्रश्रय दिया जाने लगा। मशीनीकरण द्वारा उत्पादन को बढ़ाने तथा देश की आर्थिक दशा सुधारने के लिए उन्होंने भारी उद्योगों की स्थापना की पुरजार वकालत की। साथ ही नियोजित अर्थव्यवस्था के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का भी विकास किया गया। भारत को आधुनिकता के रंग में रंगने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक उपलब्धियों तथा वैज्ञानिक सोच पर भी पूरा ध्यान दिया।
प्रश्न 19 : शिक्षक में क्या विशेष योग्यता होना चाहिए?
उत्तरः शिक्षक राष्ट्र का निर्माता होता है अतः उन्हें छात्रों को प्रोत्साहित करना चाहिए एवं उन्हें सही शिक्षा प्रदान करना चाहिए। उनका काम एक समाजसेवक का है। पूरे विद्यालय का दायित्व उनके उपर होता है। विद्यालय को सुचारु रूप से चलाने में प्रधानाध्यापक की सहायता करना उनका कत्र्तव्य एवं उत्तदायित्व दोनों हो जाता है। शिक्षकों का दायित्व विद्यालय के अनुशासन को ठीक रखना है। समय का पालन करना एवं शिक्षणकार्य मनयोगपूर्वक करना भी उनका दायित्व है। उनका दायित्व है कि वे जाति सम्प्रदाय के भेद भाव से दूर रहें और विद्यालय का वातावरण शांत एवं सुखद बनाये रखें। स्थानीय लोगों से भी सम्पर्क स्थापित करना चाहिए।
विशेष योग्यता
1. एक सफल शिक्षक में अपने छात्रों को समझने तथा उनके बौद्धिक स्तर के अनुसार उनसे वार्तालाप स्थापित करने की योग्यता होनी चाहिए।
2. उसमें उच्च अदार्शों के प्रचार-प्रसार की योग्यता होनी चाहिए।
3. एक सफल शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। साथ ही उसे अपने विषय में रुचि भी होनी चाहिए, तभी वह छात्रों की रुचि भी अपने विषय के प्रति जाग्रत कर सकता है।
4. एक सफल शिक्षक को अनुशासित तथा अपने विद्यार्थियों के लिए आदर्श होना चाहिए।
5. एक सफल शिक्षक को अपने शिक्षण में नई तथा उत्तम पाठ योजनाओं का समावेश करना चाहिए। अपने छात्रों को विषय का पूर्ण ज्ञान देने के लिए उसे प्रोजेक्टर, टी.वी. तथा शिक्षा के क्षेत्रा में उपयोग होने वाले नवीनतम उपकरण उपयोग करना चाहिए।
6. उत्तम शिक्षक की शैली प्रजातान्त्रिाक मूल्यों के अनुरूप होनी चाहिए जो छात्रों के लिए प्रेरणास्पद व प्रगतिशील हो।
7. जीवन के प्रति एक उत्तम शिक्षक का दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए जिससे वह छात्रों में आत्मविश्वास पैदा कर सके।