प्रश्न 1 : भारतीय ससद की शक्तियो, विशेष अधिकारो तथा उन्मुक्तियो का विवेचन कीजिए
उत्तर : भारत के सविधान के अनुसार भारतीय ससद के कार्य एव अधिकार निम्नलिखित हैः
1. ससद को राष्ट्रीय वित्त पर पूर्ण अधिकार होता है और वही बजट पास करती है।
2. ससद का शासन पर वास्तविक नियत्राण होता है क्योकि मत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है।
3. ससद को सघ सूची, समवर्ती सूची, अवशेष विषयो व कुछ परिस्थितियो मे राज्य सूची के विषयो पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।
4. वह सविधान मे सशोधन कर सकती है तथा वह राष्ट्रपति ओर उपराष्ट्रपति के चुनाव मे भाग लेती है।
5. ससद राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाकर हटा सकती है और उच्चतम व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशो के विरूद्ध अयोग्यता का प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति द्वारा हटा सकती है।
6. ससद को सविधान मे सशोधन-परिवर्तन का अधिकार प्राप्त है (अनुच्छेद 368)।
7. राष्ट्रपति द्वारा सकटकाल की घोषणा को एक माह के अदर ससद से स्वीकार कराना आवश्यक है।
भारतीय ससद द्वारा सासदो को प्रदत्त विशेषाधिकार व उन्मुक्तियाँ निम्न प्रकार हैः
1. ससद सदस्यो को सदन मे भाषण की स्वतत्राता (ससदीय नियमो व आदेशो की सीमा मे)
2. ससद सदस्यो के विरूद्ध ससद अथवा उसकी किसी समिति मे कही गई बात पर किसी भी न्यायालय मे किसी प्रकार की कार्रवाई नही की जा सकती।
3. ससद का सत्रा आरम्भ होने के चालीस दिन पूर्व और चालीस दिन बाद तक कोई ससद सदस्य बदी नही बनाया जा सकता है। (आपराधिक आरोप, न्यायालय अवमानना निवारक निरोध कानूनो के विरूद्ध यह सरक्षण नही है)।
4. ससद परिसर मे अध्यक्ष की आज्ञा के बिना किसी भी ससद सदस्य को गिरफ्तार नही किया जा सकता।
5. ससद सदस्यो को विधिा के आधार पर ससद, कुछ अन्य अधिकार व उन्मुक्तियाँ भी प्रदान कर सकती है।
6. ससद को कार्रवाइयो के प्रकाशन का, किसी कार्रवाई के प्रकाशन को रोकने का, गुप्त बैठक करने का, कार्रवाइयो के विनियमन का, अपनी अवमानना के लिए तथा विशेषाधिकार भग करने के लिए दड देने का अधिकार है।
प्रश्न 2 : ”आधुनिक परिसघो को विभाजन और वियोजन पर बल देकर सहयोगिता और सहभागिता पर बल देना चाहिए।“ भारतीय राज्य व्यवस्था के सदर्भ मे इस कथन का विवेचन कीजिए।
उत्तर : यद्यपि भारतीय सविधान मे फेडरेशन या सघ की चर्चा नही है तथापि भारत एक सघ है। सघ की कुछ विशेषताए होती है, जो निम्नलिखित हैः
इसमे दो स्तरीय सरकार होती है। एक, केन्द्रीय सरकार व दूसरी राज्य सरकार। केन्द्र व राज्य दोनो सरकारो के कार्यो का उल्लेख सविधान मे होता है। दोनो ही सरकारे स्वायत्तशासी होती है। केन्द्र व राज्य की शक्तियो से सबधित विवाद का निपटारा एक स्वतत्रा न्यायपालिका करती है
भारतीय सविधान मे उपरोक्त विशेषताओ को शामिल किया गया है। विश्व मे प्रथम सघ राज्य सयुक्त राज्य अमरीका है। एक प्रकार से यू.एस.ए. की सघ सबधी विशेषताए ही बाद मे विश्व मे जहा भी सघीय राज्य की स्थापना हुई, अपनायी गयी। सघीय सरचना की उत्पत्ति एक विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक स्थितियो मे हुई थी। सामाजिक न्याय की भावना से एकात्मक सविधान की उत्पति हुई। केन्द्र की शक्तियो मे परिवर्तन हुआ तथा राज्य की सीमाए निर्धारित हुई। भारत मे राजनीतिक एकता कभी भी स्थायी नही रही। अतः सघ राज्य का निर्माण करते समय केन्द्र को अधिक शक्तिया प्रदान की गयी। एक ओर जहा केन्द्र सत्ता का केन्द्रीयकरण कर रहा है, वही दूसरी ओर राज्यो मे अलगाववाद की प्रवृत्तिया पनप रही है। बगाल, असम, उड़ीसा, पजाब, तमिलनाडु आदि राज्य स्वायत्तता की माग कर रहे है। केन्द्र राज्यो मे धारा 356 का प्रयोग कर रहा है। केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप मे गवर्नर विवाद के मामलो मे अवशिष्टि शक्तियो का प्रयोग कर रहे है। लेकिन भारत जैसे बहुधर्म, जाति, सस्कृति व भाषा वाले देश मे केन्द्र द्वारा केन्द्रीयकरण की योजना का सफल होना सदिग्ध है। यदि केन्द्र सरकार राज्यो की स्वतत्राता मे हस्तक्षेपकारी नीति का परित्याग करके उनके साथ सहयोग व सहकारिता के सबधो का विकास करे तो राज्यो मे देशभक्ति की भावनाओ का प्रसार होगा और वे केन्द्र को मजबूती प्रदान करेगे।
प्रश्न 3 : भारत की वर्तमान निर्वाचन पद्धति की समीक्षा करते हुए सुझाइए कि बेहतर और अधिक स्वास्थ्यकर राज्य-व्यवस्था को सुनिश्चित करने के लिए इसमे क्या सशोधन किये जा सकते है?
उत्तर : हमारी चुनावी व्यवस्था मे वयस्क मताधिकार, एक निर्वाचन क्षेत्रा मे एक सदस्य, गुप्त मतदान, सीधी चुनाव प्रकिया तथा सामान्य बहुमत प्रक्रिया द्वारा चुनाव होते है। न्यूनतम 18 वर्ष की उम्र वालो को मत का अधिकार प्रदान किया गया है तथा उसे किसी निश्चित आधार के अभाव मे (जैसे अपराधिक आरोप, भ्रष्ट आचरण आदि) मत से वचित नही किया जा सकता है। ऐसे निवार्चन क्षेत्रो मे जहाँ अनुसूचित जाति एव अनुसूचित जनजाति के लोगो की जनसख्या अन्य जातियो की अपेक्षा अधिक है, उनकी सीटे सुरक्षित की गयी है। ससद ने जन प्रतिनिधि अधिनियम 1950ए तथा सीमाकन आयोग अधिनियम, 1962ए 72 पारित किये, जिसमे चुनाव के कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य वर्णित है। चुनाव को स्वतत्रा एव निष्पक्ष बनाने के लिए सविधान मे एक निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की गयी है, जिसमे एक मुख्य चुनाव आयुक्त होता है तथा आवश्यकतानुसार एक से अधिक आयुक्त हो सकते है। आयोग, चुनाव के सचालन, निर्देशन, नियत्राण के लिये उत्तरदायी होता है। उसे चुनावी आचार सहिता का निर्धारण करने का दायित्व भी सौपा गया है। वही विभिन्न पार्टियो के पहचान एव चुनाव हिन्ह को निर्धारित करता है। चुनाव आयोग राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया भी पूरी कराता है। चुनाव आयोग एक स्वायत्तशासी सस्था है तथा यह प्रशासनिक नियत्राण से मुक्त होता है। हमारी चुनावी व्यवस्था निश्चित रूप से हमारी राजनीतिक वयवस्था को स्थिरता प्रदान करती है। चुनाव आयोग को ऐसी कोई पार्टी मान्य नही होती जो अपने खर्चो को नियमित नही करती है। अपराध साबित होने पर व्यक्ति को चुनाव से बहिष्कृत किया जाता है। सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग पर कड़े प्रावधान किए गए है।
भारत मे अभी तक चैदह लोकसभा चुनाव हो चुके है, जिसमे 1984 के चुनावो को छोड़कर किसी भी चुनाव मे सरकारो को स्पष्ट बहुमत का समर्थन प्राप्त नही हो पाया है। मतदान का कम प्रतिशत, फर्जी मतदान, जातिवाद व साम्प्रदायिक आधार पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियो के साथ ही सत्ता का दुरुपयोग भी सभी चुनावो मे देखने मे आता है। ये हमारी चुनाव प्रक्रिया को कमजोर बनाते है। अतः चुनावो को निष्पक्षता व लोकतत्रा को मजबूत करने के लिए निम्न कदम उठाए जाने की आवश्यकता हैः (1) सरकारी साधनो के दुरुपयोग पर रोक। (2) साम्प्रदायिक व जातिवाद के आधार पर लड़े जाने वाले चुनावो पर रोक लगाने के प्रावधान और कड़े किये जाए। (3) बूथ कब्जा की घटनाओ पर रोक व सभी को मतदान सुविधा सुनिश्चित हो। (4) सभी के लिए मतदान अनिवार्य किया जाए। (5) मतदाताओ को मतदान पत्रा जारी किये जाए। (6) मतदान पूर्व विभिन्न सस्थाओ द्वारा किये जाने वाले चुनाव विश्लेषण पर रोक। (7) जमानत राशि मे वृद्धि हो, जिससे प्रत्याशियो की सख्या सीमित हो सके। (8) जनसाधारण को चुनाव प्रक्रिया के लिए प्रशिक्षित किया जाए। चुनावो के लिए निश्चित सीमा से अधिक खर्च करने वाले लोगो पर नियत्राण हेतु किये गए प्रावधान और कड़े किये जाए तथा उन पर सख्ती के साथ अमल कराया जाए। (9) चुनाव खर्चो का अपूर्ण या असत्य विवरण देने वाले दलो की मान्यता समाप्त की जाए। (10) एक ही प्रत्याशी के एक से अधिक स्थानो से चुनाव लड़ने पर रोक लगायी जाए।
प्रश्न 4 : भारत मे राष्ट्रपति तथा प्रधानमत्राी के बीच सवैधानिक सबधो की जाच कीजिये।
उत्तर : भारत मे राष्ट्रपति और प्रधानमत्राी के बीच सबध सदैव बहुत ज्यादा स्नेहपूर्ण नही रहे है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद और भारत के प्रथम प्रधानमत्राी प. जवाहरलाल नेहरू के मध्य विद्यमान मतभेद सर्वविदित है। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिह और भारत के पूर्व प्रधानमत्राी स्व. राजीव गाँधी के बीच सम्बन्धो मे कड़वाहट भी किसी से छुपी नही है। 1987 मे ससद द्वारा पारित पोस्टल बिल को जैल सिह ने ससद के पुनर्विचार के लिए भेज दिया था। राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति सविधान के अनुच्छेद 74(1) मे स्पष्ट कर दी गई है, जिसमे कहा गया है कि राष्ट्रपति अपनी शक्तियो का सचालन मत्रिपरिषद एव उसके प्रमुख प्रधानमत्राी के परामर्श से करेगा। राष्ट्रपति और प्रधानमत्राी के बीच सबधो को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारण सविधान का 42 वाँ सशोधन है, जिसके अनुसार राष्ट्रपति, मत्रिपरिषद् एव उसके प्रमुख प्रधानमत्राी की सलाह के अनुसार काम करेगा। 44वे सशोधन के अतर्गत राष्ट्रपति किसी परामर्श को मत्रिपरिषद के पास पुनर्विचार के लिए एक बार भेज सकता है पर दुबारा वही परामर्श आने पर वह उसे मानने के लिए बाध्य है। लेकिन सविधान ने राष्ट्रपति को कुछ ऐसे अधिकार भी प्रदान किये है, जिससे उसकी शक्तियो का विशेष परिस्थितियो मे महत्व बढ़ जाता है। अनुच्छेद .78 के अन्तर्गत यह प्रधानमत्राी का कत्र्तव्य होगा कि वह देश के प्रशासनिक व विधायी मामलो व मत्रिपरिषद के निर्णय से सबधित कोई सूचना राष्ट्रपति को दे, यदि राष्ट्रपति इसे आवश्यक समझे। उसे ससद के किसी सदन या दोनो सदनो को सबोधित करने तथा सदेश भेजने का अधिकार प्राप्त (अनुच्छेद.86) है। कुछ मामलो मे राष्ट्रपति को स्वविवेक की शक्ति का भी सहारा लेना होता है। 1979 मे केद्र मे शासक दल (जनता पार्टी) मे विभाजन हो जाने व प्रधानमत्राी मोरारजी देसाई द्वारा त्यागपत्रा दे दिए जाने पर तत्कालीन राष्टपति नीलम सजीव रेड्डी ने चैधरी चरण सिह को लोकसभा मे बहुमत प्राप्त करने की क्षमता से युक्त मानते हुए सरकार बनाने का मौका दिया लेकिन उन्होने एक महीने से कम समय मे ही बिना बहुमत सिद्ध किये त्यागपत्रा दे दिया। इसके बाद राष्ट्रपति ने जगजीवन राम द्वारा बहुमत प्राप्त करने के दावे को अस्वीकार करते हुए आम चुनावो के निर्देश दे दिए। इस पर भी यह आशा की जाती है कि भारत के राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने वाला व्यक्ति भारतीय ससदीय प्रणाली की समझ रखता है तथा उसे प्रधानमत्राी व उनकी मत्रिपरिषद् की सलाह के अनुरूप कार्य करने का स्वविवेक है।
प्रश्न 5 : क्या राज्यो को और ज्यादा स्वायत्तता प्रदान करना, विशेषकर हाल की हुई घटनाओ के सदर्भ मे, देश की अखडता को सुदृढ़ बनाने तथा आर्थिक विकास के सवर्धन के हित मे होगा? परीक्षण कीजिये।
उत्तर : नेहरू युग के बाद, विशेषकर हाल-फिलहाल की घटनाओ से ऐसा प्रतीत होता है कि देश के अधिकाश राज्य अधिक स्वायत्तता की माग कर रहे है। इसका एक प्रमुख कारण छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियो का उदय तथा केद्र सरकार के पास अधिक आर्थिक अधिकार होना है। राज्य सरकारे स्वय इतने ससाधन नही जुटा पाती है कि वे सविधान मे दिए गए दायित्त्वो को पूरा कर सके। इसीलिए उन्हे केद्र की आर्थिक अधिकार होना है। राज्य सरकारे स्वय इतने ससाधन नही जुटा पाती है कि वे सविधान मे दिए गए दायित्त्वो को पूरा कर सके। इसीलिए उन्हे केद्र का आर्थिक विकास मे बाधक होते है। वास्तव मे, सघीय व्यवस्था मे व्यवस्था का सचालन इस प्रकार हेाना चाहिए जिसमे राज्य भी देश के आर्थिक विकास मे भागीदार बने। राज्यो की ससाधनो मे निम्न हिस्सेदारी के कारण उनकी आर्थिक स्वायत्तता पर असर पड़ता है। फिर उन्हे केद्र द्वारा लादे गए कार्यक्रमो को भी चलाना पड़ता है। ये कार्यक्रम कभी-कभी उनकी क्षेत्रीय आवश्यकताओ के प्रतिकूल भी होते है। केद्र से राज्यो को अधिक अनुदान मिलना चाहिए। इससे उनके वित्तीय ससाधनो मे बढ़ोत्तरी होगी और उन कार्यक्रमो को विशेष बल मिलेगा, जो राज्यो के लिए आवश्यक है। उपरोक्त बातो को केद्र को नजरअदाज नही करना चाहिए। केद्र सरकार को सरकारिया कमीशन के सुझावो को राज्यो की स्वायत्तता के हित मे देखते हुए मान लेना चाहिए। भारत अखण्ड तभी रह सकता है जब राज्य सभी तरह से आत्मनिर्भर हो जाए। इससे राज्य प्रशासनिक सरचना मे प्रजातत्राीय आधार पर शामिल हो सकेगे और अपना काम भी सुचारू रूप से सम्पन्न करेगे।
प्रश्न 6 : भारत के सविधान की सशोधन प्रक्रिया की सामान्य विशिष्टताए क्या है?
उत्तर : भारतीय सविधान मे सशोधन प्रक्रिया का वर्णन अनुच्छेद.368 मे वर्णित है। भारतीय सविधान मे सशोधन की निम्न तीन रीतियो का समावेश किया गया हैः
(i) सामान्य बहुमत: ससद के सामान्य बहुमत से पास होने व राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने के बाद किसी विधेयक द्वारा सविधान मे सशोधन किया जा सकता है। नए राज्य का निर्माण; राज्य के क्षेत्रा, सीमा व नाम मे परिवर्तन; राज्य की व्यवस्थापिका के दूसरे सदन का उन्मूलन व पुर्नस्थान; नागरिकता; अनुसूचित क्षेत्रो, अनुसूचित जनजातियो के प्रशासन व केन्द्र शासित क्षेत्रो की प्रशासन सबधी व्यवस्थाओ मे सशोधन ससद द्वारा इसी रीति से किया जाता है।
(ii) विशेष बहुमतः राज्य व न्यायपालिका के अधिकारो व शक्तियो जैसे कुछ विशेष प्रावधानो के अलावा सविधान के अन्य सभी प्रावधानो मे विशिष्ट बहुमत प्रक्रिया द्वारा ही सशोधन किया जा सकता है। सदन की कुल सदस्य सख्या के बहुमत और उपस्थित व भाग लेने वाले सदस्यो के 2/3 मतो से सबधित विधेयक पास हो जाए तो वह दूसरे सदन मे जाता है। वहा भी इसी तरह पास होने के पश्चात् राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए जाता है।
(iii) विशेष बहुमत व राज्य विधान मडलो की स्वीकृतिः कुछ मामलो मे ससद मे विशेष बहुमत प्रक्रिया द्वारा पास होने के पश्चात् विधेयक का राज्यो के विधान मडल मे कुल सदस्य सख्या के न्यूनतम आधे सदस्यो द्वारा अनुमोदन आवश्यक है। अनुच्छेद 54, 55, 73, 162, 241, 368 व सविधान के भाग 5 का अध्याय 4, भाग 6 का अध्याय 5, भाग 11 का अध्याय 1 सातवी अनुसूची व ससद मे राज्यो का प्रतिनिधित्व आदि मे सशोधन इसी के अन्र्तगत आता है।
प्रश्न 7 :आचलिक (क्षेत्रीय) परिषद क्या है? अन्तर्राज्यीय सौहार्द प्राप्त करने के सदर्भ मे इनके सविधान, भूमिका तथा महत्त्व का विवेचन कीजिए।
उत्तर : राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा देश को 5 क्षेत्रो मे बाटा गया है तथा प्रत्येक क्षेत्र की अपनी परिषद है। पाच क्षेत्रीय परिषद् निम्नवत् हैः
(i) उत्तरी क्षेत्र: इसमे हरियाणा, पजाब, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली व हिमाचल प्रदेश है।
(ii) पूवी क्षेत्र: इसमे बिहार, पश्चिम बगाल, उड़ीसा, असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम व अरुणाचलन प्रदेश है।
(iii) मध्य क्षेत्र: इसमे उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश है।
(iv) पश्चिम क्षेत्र: इसमे गुजरात, महाराष्ट्र व कर्नाटक है।
(v) दक्षिण क्षेत्र: इसमे आध्रप्रदेश, तमिलनाडु व केरल है।
अन्तर्राज्यीय समझबूझ व राष्ट्रीय एकता को मजबूती प्रदान करना इन क्षेत्रीय परिषदो का मुख्य उद्देश्य है। इसके निमित्त इनके निम्न लक्ष्य है। (I) राष्ट्र मे भावनात्मक एकता की स्थापना, (II) क्षेत्रीय व भाषावाद पर नियत्राण, (III) आर्थिक विकास, (IV) समाजवादी समाज की स्थापनार्थ पहल, व (V) विकास परियोजनाओ की पूर्ति हेतु परस्पर सहयोग। ये क्षेत्रीय परिषदे राज्य की सलाहकार सस्थाओ के रूप मे है तथा सामाजिक व आर्थिक योजनाओ, अन्तर्राज्यीय परिवहन, सीमा विवाद, अल्पसख्यको से सम्बद्ध कोई भी समस्या आदि पर राज्य को अपनी सस्तुति प्रस्तुत कर सकती है। अन्तर्राज्यी सौहार्द बढ़ाने मे इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उदाहरणार्थ, भाखड़ा परियोजना पजाब व हिमाचल के लिए वरदान के समान है तथा राजस्थान नहर पजाब व राजस्थान की सयुक्त परियोजना है।
प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद् मे (a) राष्ट्रपति द्वारा नामाकित एक केद्रीय मत्राी, (b) क्षेत्रा मे शामिल प्रत्येक राज्य का मुख्यमत्राी, (c) प्रत्येक राज्य से दो अन्य मत्राी, व (d) प्रत्येक केन्द्रशासित क्षेत्रा से राष्ट्रपति द्वारा नामाकित एक प्रतिनिधि होते है। परिषद का अध्यक्ष केन्द्रीय मत्राी होता है। प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद् के सलाहकारो मे योजना आयोग का एक प्रतिनिधि व राज्यो व मुख्य सचिव और विकास आयुक्त होते है।
प्रश्न 8 : वास्तविक सघ के मूलभूत तत्व क्या है? भारतीय सघ के स्वरूप का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर : सघात्मक शासन के निम्नलिखित मुख्य तत्व हैः
सघ शासन मे दो स्तरो पर शासन सचालन होता है अर्थात दो स्तर की सरकारे होती है। एक, राष्ट्रीय सरकार व दूसरी, प्रत्येक सघटक राज्य की सरकार। सघ राज्य की यह विशेषता होती है कि इसमे विभिन्न इकाई राज्यो के मिलने से एक राज्य बनता है। सघातमक शासन व्यवस्था मे सघ राज्य की आधिकारिता समान हित के मामलो पर होती है तथा ऐसे मामलो के बारे मे स्वायत्तता रखते है। सघ व इकाई राज्यो के कार्यक्षेत्रा का निर्धारण भी अक्सर देखने मे आता है।
सघात्मक राज्य या शासन का गठन सविधान से होता है। सघ या सघटक राज्येा की कार्यपालिका या न्यायपालिका की शक्तिया सविधान मे ही निहित होती है तथा वे सविधान द्वारा सुनिश्चित शक्तियो का किसी भी स्तर पर अतिक्रमण नही कर सकते। अतः सघ शासन मे लिखित सविधन ही सर्वोच्च होता है। इसी प्रकार, सविधान के दुष्परिवर्तनशील से आशय है कि सविधान मे सशोधन करने के लिए एक विशिष्ट प्रणाली अपनाई जाती है, जो कि नागरिको के मौलिक अधिकारो की रक्षा करता है व राजनीतिक भावुकता से मुक्त रहता है।
सघात्मक शासन व्यवस्था मे सघीय राज्य व सघटक इकाई के बीच शक्तियो का स्पष्ट वितरण होता है। सघ या सघटक राज्य इन शक्तियो का अतिक्रमण नही कर सकते।
सघात्मक शासन मे सघ राज्य व सघटक राज्यो के बीच शक्तियो के विभाजन को सुनिश्चित करने और सविधान की विधिक सर्वोच्चता बनाए रखे जाने की व्यवस्था की जाती है। इसके लिए न्यायालय मे सविधान की व्याख्या की सर्वोच्च शक्ति निहित होती है।
उपरोक्त सभी लक्षण व तत्त्व भारतीय सघ मे भी उपस्थित है। अतः इस दृष्टि से भारतीय राज्य एक सघातक राज्य है, लेकिन अनेक समीक्षको ने भरत की सघात्मकता के सबध मे शका व्यक्त की है। इनके अनुसार, भारतीय शासन अर्द्धसघ या एकात्मक है। इस मान्यता के पीछे निम्न तर्क दिये जाते हैः
(i) भारतीय सविधान मे राज्यो के राज्यपालो की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राज्यपाल राज्य का प्रधान होने के साथ ही केद्र सरकार के एजेन्ट के रूप मे भी कार्य करता है।
(ii) भारत मे सघ और राज्यो के बीच शक्तियो का विभाजन तीन सूचियो के द्वारा किया गया है तथा अवशेष शक्तियाँ राज्य मे निहित न होकर केद्र को दी गयी है।
(iii) भारतीय सध की एक विशेष विचित्राता यह है कि यहा सघ और राज्य दोनो के लिए एक ही सविधान है।
(iv) सघ राज्य मे प्रायः नागरिकता दोहरी होती है, लेकिन भारतीय सघ मे व्यक्ति केवल भारत का नागरिक है, किसी राज्य का नही। भारत मे नागरिकता प्रदान करने की शक्ति केवल सघ सरकार मे निहित है।
(v) कोई भी राज्य स्वेच्छा से भारतीय सघ से अलग नही हो सकता।
(vi) भारत मे सघ सरकार को ही सविधान के सशोधन के मामले मे सर्वोच्चता प्राप्त है तथा राज्यो की भूमिका को सीमित कर दिया गया है।
(vii) राज्यो के पुनर्गठन की स्थिति मे सघ सरकार के लिए राज्यो से उनकी स्वीकृति लेना आवश्यक नही है।
(viii) सघ एव राज्यो के लिए अखिल भारतीय सेवाओ की व्यवस्था है, जिनकी नियुक्ति केद्र सरकार के द्वारा की जाती है तथा उन पर केद्र सरकार का ही नियत्राण रहता है।
(ix) निर्वाचन, योजना, लेखा परीक्षा आदि के लिए एकीकृत व्यवस्था है अर्थात ये शक्तिया केद्र सरकार मे ही निहित है।
(x) सघ सरकार विभिन्न क्षेत्रो मे राज्यो की सरकारो को आवश्यक आदेश व निर्देश दे सकती है, जिन्हे मानने के लिए राज्य सरकार बाध्य होती है।
(xi) सविधान की धारा 249 के अतर्गत यदि राज्यसभा
2/3 बहुमत से यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राज्य सूची का कोई विषय राष्ट्रीय हित का विषय है तो उस विषय के सबध मे ससद कानून बनाने मे पूर्णतया समर्थ होगी।
अतः उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि सविधान निर्माताओ ने सघात्मक व्यवस्था के साथ.साथ एक मजबूत केद्र की भी व्यवस्था की। इसलिए कहा जाता है कि भारतीय शासन का आकार सघातमक है, लेकिन उसमे एकात्मक विशेषाताए भी है।
प्रश्न 9 : माँग-वक्र के खिसकने के क्या कारण है?
उत्तर : माँग वक्र का ऊपर की ओर खिसकना (माँग मे वृद्धि)
1. उपभोक्ताओ की सख्या मे वृद्धि
2. उपभोक्ताओ की आय तथा सम्पत्ति मे वृद्धि
3. उपभोक्ताओ की रुचि, पसन्द, रीतिरिवाज, आदि मे वस्तु के अनुकूल परिवर्तन
4. भविष्य मे कीमत बढ़ने की सभावना
5. स्थानापन्न वस्तु की कीमत मे वृद्धि
6. पूरक वस्तु की कीमत मे कमी
माँग वक्र का नीचे की ओर खिसकना (माँग मे कमी)
1. उपभोक्ताओ की सख्या मे कमी
2. उपभोक्ताओ की आय तथा सम्पत्ति मे कमी
3. उपभोक्ताओ की रुचि, पसन्द, रीतिरिवाज, आदि मे वस्तु के प्रतिकूल परिवर्तन
4. भविष्य मे कीमत कम होने की सभावना
5. स्थानापन्न वस्तु की कीमत मे कमी
6. पूरक वस्तु की कीमत मे वृद्धि
प्रश्न 10 : मार्शल के उपभोत्ता की बचत क्या है? उदाहरण देकर स्पष्टीकरण दे।
उत्तर : उपभोक्ता की बचत की धरणा को वैज्ञानिक ढ़ग से प्रस्तुत करने का श्रेय प्रो. मार्शल को दिया जाता है, जिन्होने सर्वप्रथम इस विचार को ‘उपभोक्ता का लगान’ और बाद मे उपभोक्ता की बचत के रूप मे विकसित किया। प्रो बोल्डिग ने इसको ‘क्रेता की बचत’ कहा है।
प्रो मार्शल का विचार है कि उपभोक्ता को किसी भी वस्तु के उपभोग मे जो कुछ सन्तुष्टि मिलती है, वह उस वस्तु के लिए दिए मूल्य से सदैव अधिक होती है। उपभोक्ता विवेकशील होता है,तथा वह उसी स्थिति मे किसी वस्तु का क्रय करता है, जबकि उसे वस्तु से अधिक उपयोगिता मिले, तथा कीमत के रूप मे कम-से-कम त्याग करना पड़े । उपभोक्ता इसीलिए वस्तु-विशेष का चयन करता है, कि त्यागे गए मूल्य की अपेक्षा किसी वस्तु से सन्तोष अधिक मिलता है, अन्यथा उपभोक्ता किसी अन्य वस्तु को ही खरीदेगा। प्राप्त सन्तुष्टि तथा त्यागी गई सन्तुष्टि के अन्तर को ही उपभोक्ता की बचत कहते है।
नित्य-प्रति के जीवन मे उपभोक्ता को इसी प्रकार की बचत प्राप्त होती है। समाचारपत्र, टेलिफोन, परिवहन सेवाओ, डाक-सेवा आदि पर किए जाने वाले व्यय की तुलना मे इनसे प्राप्त सतोष की मात्रा कही अधिक होती है। अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास के साथ भी उपभोक्ता की बचत की मात्रा भी बढ़ती है। अवसरो की उपलब्धता, उपभोक्ता की बचत का प्रमुख निर्धारक है। अपेक्षाकृत पिछड़े देशो मे जहाँ ज्ञान-विज्ञान का प्रचुर मात्रा मे विकास नही हुआ है, जीवन की सुविधाओ का अभाव है, उपभोक्ता की बचत बहुत कम होगी।
प्रो मार्शल के अनुसार, ”किसी वस्तु के उपभोग से वचित रहने की अपेक्षा जो कीमत उपभोक्ता देने को तत्पर होता है तथा जो कीमत वह वास्तव मे देता है,उसका अन्तर ही अतिरिक्त सन्तुष्टि का आर्थिक माप है। इसको उपभोक्ता की बचत कहा जाता है।“
मान लीजिए, कोई उपभाक्ता सन्तरे का उपभोग करना चाहता है। सन्तरे की प्रति-इाकई कीमत 1 रु. है। उपभोक्ता को सन्तरे की प्रथम इकाई से अधिक तथा उत्तरेात्तर इकाइयो से घटती हुई उपयोगिता मिलती है। लेेकिन, सन्तरो की प्रत्येक इकाई के लिए उपभोक्ता समान मूल्य देता है। अतः प्राप्त उपयोगिता तथा त्यागी गई उपयोगिता (कीमत) का अन्तर ही उपभोक्ता की बचत होगी।
प्रश्न 11 : पूर्ति अनुसूची एव पर्ति वक्र पर टिप्पणी करे।
उत्तर : पूर्ति के नियम को पूर्ति-अनुसूची एव पूर्ति-वक्र की सहायता से स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जा सकता है। प्रो॰ वाट्सन के शब्दो मे, ”पूर्ति अनुसूची एक निश्चित समय पर बाजार मे किस वस्तु की कीमत एव वस्तु की पूर्ति मे सम्बन्ध व्यक्त करती है।“
पूर्ति के नियम के अनुसार स्पष्ट है कि वस्तु की कीमत मे वृद्धिके साथ पूर्ति मे वृद्धि होती है और कमी के साथ पूर्ति मे कमी होती है।
कीमत मे कमी के साथ वस्तु की पूर्ति मे कमी हो जाती है। जब वस्तु की कीमत 5 रुपये से कम होकर 4.50 रु. रह जाती है, तो वस्तु की पूर्ति 100 इकाई से कम होकर 90 इकाई रह जाती है और इसी प्रकार कीमत मे और कमी के साथ-साथ पूर्ति भी क्रमशः कम होती जाती है।
पूर्ति अनुसूची व्यक्तिगत हो सकती है और सम्पूर्ण बाजार की अनुसूची भी। यदि विभिन्न व्यक्तिगत अनुसूचियो को जोड़ दिया जाय तो बाजार पूर्ति अनुसूची प्राप्त हो जाती है। बाजार-पूर्ति अनुसूचि का स्वरूप भी मुख्यतः व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूचि जैसा होता है।
जब वस्तु की कीमत और वस्तु की पूर्ति के सम्बन्ध को चित्रा द्वारा व्यक्त किया जाता है तो उपलब्ध वक्र को पूर्ति वक्र कहते है। पूर्ति वक्र का ढाल बाये से दाये ऊपर की ओर होता है जो कीमत और पूर्ति मे सीधे सम्बन्ध को बतलाता है।
प्रश्न 12 : माँग की लोच कितने प्रकार के होते है। इनके विभिन्न श्रेणियो की व्याख्या करे।
उत्तर : कीमत मे परिवर्तन के कारण माँग मे परिवर्तन के अनुपात को माँग की लोच कहते है। माँग मे होने वाले परिवर्तनो के अनुपात के अनुसार माँग की लोच को निम्न श्रेणियो मे बाँटा जा सकता हैः
1. पूर्णतया बेलोचदार माँग, 2. बेलोच या इकाई से कम लोचदार माँग 3. इकाई के बराबर लोचदार माँग, 4. लोचदार या इकाई से अधिक लोचदार माँग, तथा 5. पूर्णयता लोचदार माँग।
1. पूर्णतया बेलोचदार माँग - माँग उस समय पूर्णतया बेलोचदार होती है जबकि एक वस्तु की कीमत मे होने वाले परिवर्तन का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नही पड़ता। यदि चित्रा के द्वारा पूर्णतया बेलोच माँग वक्र को प्रदर्शित किया जाय तो यह शीर्षकार की एक सरल रेखा होगी, जो कि ल्-अक्ष के समानान्तर होगी।
2. बेलोच या इकाई से कम लोचदार माँग - माँग उस दशा मे बेलोच कहलाती है जबकि कीमत मे होने वाले प्रतिशत परिवर्तनो की तुलना मे माँग मे होने वाले प्रतिशत परिवर्तन कम होते है। यदि बेलोच माँग को चित्रा की सहायता से प्रदर्शित किया जाय तो माँग वक्र का ढ़ाल बहुत तीव्र होगा।
3. इकाई के बराबर लोचदार माँग - एक वस्तु की माँग उस दशा मे इकाई के समान लोचदार होती है जबकि माँग मे होने वाले प्रतिशत परिवर्तन ठीक कीमत मे होने वाले प्रतिशत परिवर्तनो के समान होते है। यदि इकाई के बराबर लोच वाले माँग वक्र को चित्रा की सहायता से दर्शाया जाय तो इसका ढाल सरल होगा अथवा लोच माँग के समान तीव्र ढाल नही होगा।
4. लोचदार अथवा इकाई से अधिक लोचदार माँग - एक वस्तु की माँग उस समय लोचदार कही जाती है, जबकि कीमत मे प्रतिशत की तुलना मे माँग मे प्रतिशत परिवर्तन की मात्रा अधिक होती है। यदि लोचदार माँग को एक माँग वक्र की सहायता से चित्रित किया जाए तो यह एक साधरण ढ़ाल वाला वक्र होगा।
5. पूर्णतया लोचदार माँग - जब वस्तु की कीमत मे परिवर्तन ने होने पर वस्तु की माँग बहुत अधिक बढ़ जाती है यह घटकर शून्य रह जाती है तो इसे पूर्णतया लोचदार माँग कहते है। यदि पूर्णतया लोचदार माँग को एक माँग वक्र की सहायता से प्रदर्शित किया जाय तो यह एक क्षैतिजाकार वक्र होगा अथवा अक्ष ग् के समानान्तर होगा।
प्रश्न 13 : औसत आगम तथा सीमान्त आगम विधि पर टिप्पणी करे।
उत्तर : श्रीमती जाॅन रोबिन्सन ने औसत तथा सीमान्त आगम के रूप मे माँग की लोच को मापने का प्रयत्न किया है।
औसत आगम - वह आगम है, जो कि कुल आगम को विक्रय की गई इकाइयो से भाग देने पर प्राप्त होती है। यदि, वस्तु की सभी इकाइयाँ एक ही कीमत पर बेची जाती है, तो औसत आगम, कीमत के बराबर होगी।
सीमान्त आगम- वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई को बेचने से कुल आगम मे वृद्धि होती है, उसे सीमान्त आगम कहते है।
औसत आगम तथा सीमान्त आगम दोनो की प्रवृत्ति घटने की है। सीमान्त आगम के घटने की दर औसत आगम से अधिक है। सीमान्त आगम ट्टऋणात्मक हो सकती है, लेकिन औसत आगम सदैव ध्नात्मक रहती है। सीमान्त आगम वक्र का ढाल, औसत आगम वक्र के ढाल से दुगना होगा।
प्रश्न 14 : माँग की आय लोच के विभिन्न प्रकार चर्चा करे।
उत्तर : सामान्यतया, आय बढ़ने पर माँग बढ़ती है, तथा आय मे कमी होने पर माँग होने पर माँग भी कम हो जाती है। लेकिन माँग बढ़ेगी या घटेगी यह कई कारको पर निर्भर करता है, जिस प्रकार निकृष्ट वस्तुओ की माँग आय बढ़ने पर कम हो जाती है, तथा आय घटन पर बढ़ जाती है।
(1) माँग की शून्य आय-लोच - उपभोक्ता की आय मे वृद्धि होने पर यदि वस्तु की माँग यथास्थिर रहती है, तो इसे शून्य आय-लोच कहते है।
(2) माँग ऋणात्मक आय-लोच - उपभोक्ता की आय मे वृद्धि होने पर यदि वस्तु की माँग होने पर यदि वस्तु की माँग वास्तव मे कम हो जाती है, तो इसे ऋणात्मक आय-लोच कहते है। यह धरणा निकृष्ट वस्तुओ के सम्बन्ध क्रियाशिल होती है।
(3) माँग की एकीय लोच उपभोक्ता की आय मे वृद्धिहोने पर यदि वस्तु की माँग इस प्रकार परिवर्तित होती है, कि उपभोक्ता के व्यय मे उसी अनुपात मे वृद्धि होती है, तो इसे एकीय आय-लोच कहते है।
(4) इकाई से अधिक आय-लोच - आय मे वृद्धि होने पर, वस्तु पर किये गए व्यय के अनुपात मे यदि पहले ही अपेक्षाकृत वृद्धि हो जाती है तो इसे इकाई से अधिक आय-लोच कहते है। प्रायः विलासिता की वस्तुओ के सम्बन्ध मे इस प्रकार की लोच पाई जाती है।
(5) इाकई से कम आय-लोच - उपभोक्ता की आय मे वृद्धि होने पर यदि वह वस्तु पर दिये गये आनुपातिक व्यय मे कमी कर देता है, तो इसे इकाई से कम आय-लोच कहते है।
प्रश्न 15 : आय की लोच तथा उपभोग की प्रवृत्ति को दर्शाऐ। कीमत, आय और प्रतिस्थापन लोच मे क्या सबध है?
उत्तर : आय की लोच को उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति तथा उपभोग की औसत प्रवृत्ति के रूप मे भी व्यक्त किया जा सकता है। कुल उपभोग का कुल आय के साथ अनुपात ही औसत उपभोग की प्रवृत्ति (APC) कहलाता है, अथवा
उपभोग मे परिवर्तन का आय के परिवर्तन के साथ अनुपात ही सीमान्त उपभोग की प्रवृत्ति (MPC) कहलाता है, अथवा
आय की लोच से आशय आय के आनुपाकि परिवर्तन या उपभोग के आनुपातिक परिवर्तन के अनुपात से है, अथवा
यहाँ उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति है, तथा
उपभोग की औसत प्रवृत्ति है। इसलिए, हम आय की लोच को निम्न प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैः
अर्थात् सीमान्त उपभोग की प्रवृत्ति तथा औसत उपभोग की प्रवृत्ति के अनुपात को ही आय की लोच कहते है।
कीमत, आय तथा प्रतिस्थापन लोच मे परस्पर सम्बन्ध
कीमत प्रभाव की तरह माँग की कीमत लोच (जो वस्तुतः कीमत प्रभाव का ही आनुपातिक विचार है) भी लोच तथा प्रतिस्थापन लोच पर ही निर्भर करती है। वस्तुतः कीमत लोच, आय लोच तथा प्रतिस्थापन लोच के बीच समझौता ही है।
माँग की कीमत लोच त्र स्थिर मूल्य × माँग की आय लोच + (1 + स्थिर मूल्य) × माँग की प्रतिस्थपन लोच
प्रश्न 16 : माँग की लोच के महत्वो का उल्लेख करे।
(1) एकाधिकारो के लिए महत्त्व - एकाधिकारी का उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना होता है। वह कीमत निर्धारण से पूर्व यह देख लेता है कि उनके द्वारा निर्मित वस्तु की माँग लोचदार है, अथवा बेलोच। यदि, एकाधिकारी के द्वारा उत्पादित वस्तु की माँग लोचदार है, तो वह नीची कीमत निर्धारित करेगा तथा बेलोच माँग वाली वस्तु की कीमत ऊँची निर्धरित करेगा।
इसी प्रकार कीमत-विभेद की अवस्था मे वह तो बाजारो को माँग-लोच के आधर पर बाँटा देता है। जिस बाजार मे वस्तु की माँग लोचदार है, उसमे कीमत कम तथा बेलोच माँग वाले बाजार मे ऊँची कीमत निर्धारित करेगा।
(2) सरकार के लिए महत्त्व - सरकार अपने कार्य को पूरा करने के लिए कर लगाती है। करो से अधिकतम आय प्राप्त होती करने के लिए सरकार को वस्तुओ की माँग की लोच देखनी पड़ती है। सरकार बेलोच माँग वाली वस्तुओ पर कर लगा कर, अधिक आय प्राप्त कर सकती है, क्योकि कर लगने पर भी इन वस्तुओ के उपभोग मे कमी नही होगी। इसके विपरीत, लोचादर वस्तुओ पर सरकार अधिक कर नही लगाएगी, क्योकि कर लगाने पर इनकी माँग कम हो सकती है।
सरकार बहुत-सी लोक-उपयोगी सेवाओ का सचालन अपने हाथ मे लेती है, इसका आधर भी माँग की लोच है। जिस प्रकार डाक-तार, परिवहन, बिजली की पूर्ति, जलापूर्ति यदि ऐसी सेवाएँ है, जिनके लिए उपभोक्ताओ की माँग बेलोच होती है। यदि ये सेवाएँ व्यक्तिगत उद्यमियो के हाथ मे दे दी जाएँ, तो वे आसानी से उपभोक्ता वर्ग का शोषण कर सकते है। इसलिए, सरकार बेलोच माँग वाली सेवाओ का सचालन अपने अधिन रखती है।
(3) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मे महत्त्व - अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मे ‘व्यापार की शर्ते का अध्ययन करने के लिए माँग की लोच का विचार बहुत उपयोगी होता है। ‘व्यापार की शर्ते’ उस देश के पक्ष मे कही जाती है, जो अपनी वस्तुओ का निर्यात ऊँची कीमतो पर तथा आयात नीची कीमतो पर करता है। किसी भी देश की सौदा करने की शक्ति आयत और निर्यात की माँग एव पूर्ति की लोच पर निर्भर करती है। यदि विदेशो मे देशीय वस्तु की माँग बेलोच है, तो देश ऊँची कीमत पर निर्यात कर सकता है। इसी प्रकार, यदि देश मे विदेशी वस्तु की माँग बेलोच है, तो देश को अपने आयतो के लिए ऊँची कीमत देनी पड़ेगी।
(4) उत्पत्ति के साधनो के पारितोषिको के निर्धारण मे महत्त्व - उत्पादन मे से किसी भी साधन को कितना हिस्सा मिलेगा, यह उसकी माँग की लोच पर निर्भर करता है। यदि, किसी उद्योग मे श्रम की माँग बेलोच है, अथवा मशीनो का प्रयोग सीमित मात्रा मे ही हो सकता है, तो श्रम-सघ श्रमिको को अधिक मजदूरी दिलवाने मे सफल दिलवाने मे सफल हो सकेगे।
(5) विपुलता के बीच दरिद्रता की स्थिति स्पष्ट कर सकता है - देश मे उत्पादन का स्तर अधिक होने पर भी देश मे गरीबी का निवास होता है। इस विरोधाभास ;च्तकवगद्ध को भी माँग की लोच की धारणा स्पष्ट करती है। खाद्यान्नो की माँग बेलोच होती है। यदि किसी समय-अवधि मे खाद्यानो का उत्पादन काफी बढ़ जाता है, तो भी कृषको की आर्थिक स्थिति मे सुधर नही हो सकेगा। इसका कारण यह है, कि उत्पादन बढ़ने से खाद्यान्न की कीमत गिरेगी, जबकि इनकी माँग मे कोई वृद्धि नही होगी।
प्रश्न 17 : दूरस्थ सवेदन क्या है? भार मे दुरस्थ सवेदन की स्थिति का वर्णा कीजिए।
उत्तर : दूरस्थ सवेदन या सुदूर सवेदन ऐसी नवीनतम वैज्ञानिक प्रणाली है, जिसके द्वारा पृथ्वी द्वारा पृथ्वी की ध्रुवीय कक्षा मे स्थापित उपग्रह पर लगे कैमरो की सहायता से पृथ्वी की सतह व सतह के नीचे के चित्रा प्राप्त किये जाते है। इस प्रकार से प्राप्त चित्रो का विश्लेषण निम्न क्षेत्रो मे उपयोगी होता है- सूखा व बाढ़ की पूर्व चेतावनी व क्षति का मूल्याकन, भू-उपयोग व भू-आवरण के बारे मे विभिन्न जानकारिया, मौसम के अनुसार खेती की योजना बनाने, फसलो के अतर्गत क्षेत्राफल व उत्पादन का आकलन करने, बजर भूमि प्रबध व विकास कार्य, जल ससाधनो का प्रबध व विकास करने, बर्फ के गलने व बहने की भविष्यवाणी करने, भूमिगत जल की खोज करने, खनिजो की खोज करने, मत्स्यपालन का विकास करने व वन ससाधनो के सर्वेक्षण सबधी कार्यो मे।
भारत ने अपने दूर सवेदी उपग्रह आई. आर. एस..1, तथा आई.आर.एस..1बी को क्रमशः मार्च'88 व अगस्त'91 मे अतरिक्ष मे सफलतापूर्वक स्थापित किया। इन उपग्रहो से प्राप्त चित्रो व आकड़ो का विश्लेषण करने व उन्हे विभिन्न उपयोगकत्र्ता सस्थाओे को उपलब्ध कराने के लिए देश मे अनेक केद्र स्थापित किए गये है। देश मे अनेक सस्थाअेा द्वारा दूरस्थ सवेदन के क्षेत्रा मे प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा है। अभी तक देश मे लगभग 5,500 वैज्ञानिको एव इजीनियरो को प्रशिक्षित किया जा चुका है तथा प्रत्येक वर्ष लगभग 800 व्यक्तियो को प्रशिक्षित किया जा रहा है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसधान तथा प्रशिक्षण परिषद द्वारा सीनियर सेकेण्डरी स्तर पर सुदूर सवेदन पाठ्यक्रम को आरभ करने का भी प्रस्ताव है। आठवी योजना के दौरान ही आई.आर.एस..1सी तथा आई.आर.एस..1डी को अतरिक्ष मे स्थापित किये जाने की येाजना है।