संस्कृत में एक श्लोक है:
माता शत्रु पिता वैरी, येन न बालो पाठिता।
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये वको यथा।।
अर्थात वे माता-पिता बच्चे के लिए शत्र के समान होते हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं देते। ये बच्चे शिक्षितों की सभा में उसी तरह होते हैं जैसे हंसों के बीच बगुला। एक बच्चे के लिए परिवार प्रथम पाठशाला होती है और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक। माता-पिता यहाँ अभी अपनी भूमिका का उचित निर्वाह तो करते हैं पर जब बच्चा विद्यालय जाने लायक होता है तब कुछ माता पिता उनके शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान नहीं देते हैं और अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। ऐसे में बालक जीवन भर के लिए निरक्षर की विशेष महत्ता एवं उपयोगिता है।
शिक्षा के बिना जीवन अंधकारमय हो जाता है। कभी वह साहकारों के चंगल में फँसता है तो कभी लोभी दकानदारों के। उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। वह समाचार पत्र. पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि का लाभ नहीं उठा पाता है। उसे कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पडता है ऐसे में माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपने बच्चों के पालन-पोषण के साथ ही उनकी शिक्षा की भली प्रकार व्यवस्था करें। कहा गया है कि विद्याविहीन नर की स्थिति पशुओं जैसी होती है, बस वह घास नहीं खाता है। शिक्षा से ही मानव सभ्य इनसान बनता है। हमें भूलकर भी शिक्षा से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।
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