साहित्य का नाम आते ही रस का नाम स्वतः आ जाता है। इसके बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। भारतीय साहित्य शास्त्रियों ने साहित्य के लिए रस की अनिवार्यता समझा और इसे साहित्य के लिए आवश्यक बताया। वास्तव में रस काव्य की आत्मा है।
किसी साहित्य को पढ़कर जब व्यक्ति कविता के भावों से तादात्म्य स्थापित कर लेता है तब इस प्रक्रिया में उसके मन के स्थायी भाव रस में परिणित हो जाते हैं। इस तरह काव्य से जो आनंद प्राप्त होता है वह जीवन के अनुभवों से प्राप्त अनुभवों जैसा होकर भी उससे ऊँचे स्तर को प्राप्त कर लेता है। यह आनंद व्यक्तिगत संकीर्णता से अलग होता है।
परिभाषा: कविता-कहानी को पढने, सुनने और नाटक को देखने से पाठक, श्रोता और दर्शक को जो आनंद प्राप्त होता है, उसे रस कहते हैं।
रस के चार अंग माने गए हैं:
हृदय के स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग होता है अर्थात् वे एक दूसरे से मिल-जुल जाते हैं, तब रस की निष्पत्ति होती है।
अर्थात्:
स्थायीभाव + विभाव + अनुभाव + संचारीभाव = रस की व्युत्पत्ति।
रस के भेद और उनके उदाहरण निम्नलिखित हैं:
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