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यह पाठ ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से लिया गया है। मूलतः यह सोमदेव की रचना है। इसमें तपोदत्त नामक एक बालक तपस्या के बल पर विद्या प्राप्त करना चाहता है।
तपोदत्त को एक व्यक्ति मिला जो बालू के द्वारा नदी पर पुल बना रहा था। वह यह देखकर उसका उपहास करने लगा। वह व्यक्ति तपोदत्त से कहने लगा कि जो व्यक्ति बिना अक्षर ज्ञान के विद्या प्राप्त करना चाहता है, वह व्यक्ति कहीं ज्यादा मूर्ख है। मैं जिस कार्य में लगा हुआ है, उसमें मुझे एक दिन सफलता अवश्य मिल जाएगी, परन्तु जो परिश्रम विद्या प्राप्त करना चाहता है, वह कभी सफल नहीं हो सकता। यह सुनकर तपोदत्त को बड़ी आत्मग्लानि हुई। वह पश्चाताप करने लगा। उसने उस व्यक्ति से कहा कि आपने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैं आज से ही परिश्रम करूँगा। यह कहकर वह गुरुकुल में चला गया और विद्याभ्यास के द्वारा विद्वान बन गया।
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