“मेरे संग की औरतें” मृदुला गर्गजी का एक संस्मरण हैं। इस संस्मरण में लेखिका ने अपनी चार पीढ़ी की महिलाओं (परदादी, नानी, माँ और खुद लेखिका) के व्यक्तित्व, उनकी आदतों व उनके विचारों के बारे में विस्तार से बात की है।
अपने लेख की शुरुआत लेखिका कुछ इस तरह से करती हैं कि उनकी एक नानी थी जिन्हें उन्होंने कभी नहीं देखा क्योंकि नानी की मृत्यु मां की शादी से पहले हो गई थी। लेखिका कहती हैं कि इसीलिए उन्होंने कभी अपनी “नानी से कहानियां” तो नहीं सुनी मगर “नानी की कहानियां” पढ़ी जरूर और उन कहानियों का अर्थ उनकी समझ में तब आया, जब वो बड़ी हुई।
लेखिका अपनी नानी के बारे में बताते हुए कहती हैं कि उनकी नानी पारंपरिक, अनपढ़ और पर्दा करने वाली महिला थी। और उनके पति यानि नानाजी शादी के तुरंत बाद उन्हें (नानीजी) छोड़कर बैरिस्ट्री की पढाई करने कैंब्रिज विश्वविद्यालय चले गए थे और जब वो अपनी पढ़ाई पूरी कर घर वापस आए तो , उनका रहन-सहन , खानपान , बोलचाल बिल्कुल विलायती हो गया था।
हालांकि नानी अब भी सीधे-साधे तौर तरीके से ही रहती थी। उन पर नानाजी के विलायती रंग-ढंग का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और ना ही उन्होंने कभी अपनी इच्छा या पसंद-नापसंद अपने पति को बतायी।
लेखिका आगे कहती हैं कि बेहद कम उम्र में जब नानी को लगा की उनकी मृत्यु निकट हैं तो उन्हें अपनी पन्द्रह वर्षीय इकलौती बेटी यानी लेखिका की मां की शादी की चिंता सताने लगी। इसीलिए उन्होंने पर्दे का लिहाज छोड़ कर नानाजी से उनके दोस्त व स्वतंत्रता सेनानी प्यारेलाल शर्मा से मिलने की ख्वाहिश जताई। यह बात सुनकर घर में सब हैरान रह गए कि आखिर पर्दा करने वाली एक महिला , भला उनसे क्या बात करना चाहती हैं।
खैर नानाजी ने मौके की नजाकत को समझते हुए अपने दोस्त को फौरन बुलवा लिया। नानी ने प्यारे लाल जी से बचन ले लिया कि वो उनकी लड़की (लेखिका कि माँ ) के लिए वर के रूप में किसी आजादी के सिपाही (स्वतंत्रता सेनानी) को ढूंढ कर उससे उसकी शादी करवा देंगें। उस दिन सब घर वालों को पहली बार पता चला कि नानीजी के मन में भी देश की आजादी का सपना पलता हैं।
बाद में लेखिका को समझ में आया कि असल में नानीजी अपनी जिंदगी में भी खूब आजाद ख्याल रही होंगी।हालाँकि उन्होंने कभी नानाजी की जिंदगी में कोई दखल तो नहीं दिया पर अपनी जिंदगी को भी वो अपने ढंग से , पूरी आजादी के साथ जीती थी। लेखिका कहती हैं कि यही तो असली आजादी हैं।
खैर लेखिका की मां की शादी एक ऐसे पढ़े-लिखे लड़के से हुई जिसे आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेने के अपराध में आईसीएस की परीक्षा में बैठने से रोक दिया और जिसके पास कोई पुश्तैनी जमीन जायजाद भी नहीं थी। और लेखिका की मां, अपनी मां और गांधी जी के सिद्धांतों के चक्कर में सादा जीवन उच्च विचार रखने को मजबूर हो गई।
लेखिका आगे कहती हैं कि उनके नाना पक्के साहब माने जाते थे। वो सिर्फ नाम के हिंदुस्तानी थे। बाकी चेहरे मोहरे, रंग-ढंग, पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन से वो पक्के अंग्रेज ही थे। लेखिका कहती हैं कि मजे की बात तो यह थी कि हमारे देश में आजादी की जंग लड़ने वाले ही अंग्रजों के सबसे बड़े प्रशंसक थे। फिर वो चाहे मेरे पिताजी के घरवाले हो या गांधी नेहरू।
लेखिका की मां खादी की साड़ी पहनती थी जो उन्हें ढंग से पहननी नहीं आती थी। लेखिका कहती हैं कि उन्होंने अपनी मां को आम भारतीय मांओं के जैसा कभी नहीं देखा क्योंकि वह घर परिवार और बच्चों पर कोई खास ध्यान नहीं देती थी। घर में पिताजी, मां की जगह काम कर लिया करते थे।
लेखिका की मां को पुस्तकें पढ़ने और संगीत सुनने का शौक था जो वो बिस्तर में लेटे-लेटे करती थी। हां उनमें दो गुण अवश्य थे। पहला वह कभी झूठ नहीं बोलती थी और दूसरा वह लोगों की गोपनीय बातों को अपने तक ही सीमित रखती थी। इसी कारण उन्हें घर और बाहर दोनों जगह आदर व सम्मान मिलता था।
लेखिका आगे कहती हैं कि उन्हें सब कुछ करने की आजादी थी। उसी आजादी का फायदा उठाकर छह भाई-बहनों में से तीन बहनों और इकलौते भाई ने लेखन कार्य शुरू कर दिया।
लेखिका कहती हैं कि उनकी परदादी को भी लीक से हटकर चलने का बहुत शौक था। जब लेखिका की मां पहली बार गर्भवती हुई तो परदादी ने मंदिर जाकर पहला बच्चा लड़की होने की मन्नत मांगी थी जिसे सुनकर परिवार के सभी लोग हक्के बक्के रह गए थे। दादी का यह मन्नत मांगने का मुख्य कारण परिवार में सभी बहूओं के पहला बच्चा बेटा ही होता आ रहा था। ईश्वर ने परदादी की मुराद पूरी की और घर में एक के बाद एक पाँच कन्याएं भेज दी।
इसके बाद लेखिका अपनी दादी से संबंधित एक किस्सा सुनाती हैं। लेखिका कहती हैं कि एक बार घर के सभी पुरुष सदस्य एक बारात में गए हुए थे और घर में सभी महिलाएं सजधज कर रतजगा कर रही थी। घर में काफी शोर-शराबा होने के कारण दादी दूसरे कमरे में जाकर सो गई।
तभी एक बदकिस्मत चोर दादी के कमरे में घुस गया। उसके चलने की आहट से दादी की नींद खुल गई। दादी ने चोर को कुँए से एक लोटा पानी लाने को कहा। चोर कुएं से पानी लेकर आया और दादी को दे दिया। दादी ने आधा लोटा पानी खुद पानी पिया और आधा लोटा पानी चोर को पिला दिया और फिर उससे बोली कि आज से हम मां-बेटे हो गए हैं। अब तुम चाहो तो चोरी करो या खेती करो। दादी की बात का चोर पर ऐसा असर हुआ कि चोर ने चोरी करना छोड़ कर , खेती करनी शुरू कर दी।
15 अगस्त 1947 को जब पूरा भारत आजादी के जश्न में डूबा था। तब लेखिका बीमारी थी। लेखिका उस समय सिर्फ 9 साल की बच्ची थी। बहुत रोने धोने के बाद भी उसे जश्न में शामिल होने नहीं ले जाया गया। लेखिका और उसके पिताजी के अलावा घर के सभी लोग बाहर जा चुके थे।
बाद में पिताजी ने उसे “ब्रदर्स कारामजोव” नामक उपन्यास लाकर दी । उसके बाद लेखिका उस उपन्यास को पढ़ने में व्यस्त हो गयी थी और उनके पिताजी अपने कमरे में जाकर पढ़ने लगे।
लेखिका कहती हैं कि यह उसकी परदादी की मन्नत का प्रभाव ही रहा होगा, तभी लड़कियों होने के बाबजूद भी उनके व उनकी बहनें के मन में कभी कोई हीन भावना नहीं आई। दादी ने जिस पहली लड़की के लिए मन्नत मांगी थी। वह लेखिका की बड़ी बहन मंजुला भगत थी जिसे घर में “रानी” नाम से बुलाते थे। दूसरे नंबर में खुद लेखिका यानि मृदुला गर्ग थी जिनका घर का नाम उमा था। और तीसरे नंबर की बहन का नाम चित्रा था , जो लेखिका नहीं हैं ।
चौथे नंबर की बहन का नाम रेनू और पांचवें नंबर की बहन का नाम अचला था। पांच बहनों के बाद एक भाई हुआ जिसका नाम राजीव हैं। लेखिका कहती हैं कि उनके भाई राजीव हिंदी में लिखते हैं जबकि समय की मांग के हिसाब से अचला अंग्रेजी में लिखने लगी।
लेखिका आगे कहती हैं कि सभी बहनों ने अपनी शादी अच्छे से निभाई। लेखिका शादी के बाद अपने पति के साथ बिहार के एक छोटे से कस्बे डालमिया नगर में रहने गई। लेखिका ने वहाँ एक अजीब सी बात देखी। परुष और महिलाएं, चाहे वो पति-पत्नी क्यों न हो, अगर वो पिक्चर देखने भी जाते थे तो पिक्चर हाल में अलग-अलग जगह में बैठकर पिक्चर देखते थे।
लेखिका दिल्ली से कॉलेज की नौकरी छोड़कर वहां पहुंची थी और नाटकों में काम करने की शौकीन थी। लेखिका कहती हैं कि उन्होंने वहां के चलन से हार नहीं मानी और साल भर के अंदर ही कुछ शादीशुदा महिलाओं को गैर मर्दों के साथ अपने नाटक में काम करने के लिए मना लिया। अगले 4 साल तक हम महिलाओं ने मिलकर कई सारे नाटकों में काम किया और अकाल राहत कोष के लिए भी काफी पैसा इकट्ठा किया।
इसके बाद लेखिका कर्नाटक चली गई। उस समय तक उनके दो बच्चे हो चुके थे जो स्कूल जाने लायक की उम्र में पहुंच चुके थे। लेखिका कहती है कि वहां कोई बढ़िया स्कूल नहीं था जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दे सके। इसीलिए लेखिका ने स्वयं एक प्राइमरी स्कूल खोला।
वो कहती हैं कि मेरे बच्चे, दूसरे ऑफिसर और अधिकारियों के बच्चे उस स्कूल में पढ़ने लगे। जिन्हें बाद में दूसरे अच्छे स्कूलों में प्रवेश मिल गया। लेखिका ने स्कूल खोल कर व उसे सफलता पूर्वक चला कर यह साबित कर दिया कि वह किसी से कम नहीं है।
लेखिका के जीवन में ऐसे अनेक अवसर आए जब लेखिका ने अपने आप को साबित किया। उन्होंने अनेक कार्य किये लेकिन उन्हें प्रसिद्धि तो अपने लेखन कला से ही हासिल हुई।
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