भारत के अतीत की पहली तस्वीर सिंधु घाटी की सभ्यता में मिलती है। इस सभ्यता के अवशेष मोहनजोदड़ो और पश्चिमी पंजाब में हड़प्पा में मिले हैं। इन खुदाइयों से प्राचीन इतिहास को जानना आसान हो सका है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा दोनों के बीच काफी दूरी है। इन स्थानों पर खंडहरों की खोज संयोगमात्र है। इनके बीच अन्य बहुत-से नगर होंगे जिनकी खोज नहीं की जा सकी है। यह सभ्यता विशेषत: उत्तर भारत में दूर-दूर तक फैली थी। संभव है कि भविष्य में और भी महत्वपूर्ण खोज की जाएँ। इस सभ्यता के अवशेष पश्चिम में काठियावाड़ और पंजाब के अंबाला जिले में भी मिले हैं। यह सभ्यता गंगा घाटी तक फैली थी, इसलिए यह सिंधु घाटी की सभ्यता भर नहीं है।
सिंधु घाटी सभ्यता का जो रूप हमें मिलता है उससे पता चलता है कि सभ्यता पूरी तरह से विकसित थी। उसे इस तरह विकसित होने में हज़ारों वर्ष लगे होंगे। धार्मिक तक्रव होने के बाद भी यह सभ्यता धर्मनिरपेक्ष बनी रही। यही सभ्यता बाद के सांस्कृतिक युगों की अग्रदूत बनी थी। इस सभ्यता ने फारस, मेसोपोटामिया और मिस्र से संबंध स्थापित करके व्यापार किया। इस बेहतर सभ्यता में व्यापारी वर्ग और दुकानें हुआ करती थीं।
सिंधु घाटी सभ्यता और वर्तमान के बीच असंख्य परिवर्तन हुए हैं। इसमें भीतर-ही-भीतर निरंतरता की ऐसी शृंखला चली आ रही है जो भारत को छद्द-सात हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता से जोड़े रखता है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति हमें तत्कालीन रहन-सहन, रीति-रिवाज़, दस्तकारी तथा पोशाकों के फैशन की जानकारी प्रदान करती है।
वर्तमान के भारत को इस सभ्यता से जोड़ा जाए तो पता चलता है कि भारत अपना शैशव रूप छोडक़र सयाने रूप में विकसित है।इसे जीवन के तौर-तरीकों का ज्ञान है।इसे कला तथा जीवन की सुख-सुविधाओं में प्रगति कर ली है। इसने आधुनिक सभ्यता के उपयोग चिन्ह, स्नानागार और नालियों का विकास कर लिया है, जिसकी जड़ें सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ी दिखाई पड़ती हैं।
आर्यों का आना
आर्य कौन थे, कहाँ से आए? यह प्रश्न आज भी अनुरीत है। संभव है कि इनकी संस्कृति इसी देश की संस्कृति रही हो। कुछ विदमान मानते हैं कि इनकी जड़ें दक्षिण भारत में भी मिल सकती हैं। इसका कारण यह है कि आर्यों और दक्षिण भारत की द्रविड़ जातियों के बीच कुछ समानता दिखाई पड़ती है। आर्य मोहनजोदड़ो के समय से कई हज़ार वर्ष पूर्व भारत आए होंगे। व्यावहारिक दृष्टि से हम उन्हें भारत का निवासी मान सकते हैं।
सिंधु घाटी की सभ्यता के अंत होने के बारे में कुछ लोगों का मानना है कि इसका अंत अचानक किसी दुर्घटना के कारण हो गया होगा, किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। सिंधु नदी में आनेवाली बाढ़ भयंकर होती थी, यद्द अपने साथ गाँवों और शहरों को बहाकर ले जाती थी। दूसरा कारण यह भी हो सकता हैड्ड कि मौसम में परिवर्तन हुआ हो और ज़मीन सूखकर रेत बन गई हो। मोहनजोदड़ो के खंडहर भी अपने-आप में इस बात का प्रमाण है कि बालू की तह पर तह जमने से शहर की ज़मीन उठती गई और नगरवासियों को पुरानी नींवों पर ऊँचे मकान बनाने पड़े हों। ,ऐसा खुदाई में निकले दो-तीन मंजि़ले मकानों से ज्ञात होता है। ऐसा लगता है कि समय के साथ उनकी दीवारें ऊँची की जाती रहीं। हमें यह पता है कि पुराने समय का समृद्ध और उपजाऊ सिंध मध्य युग के बाद रेगिस्तान बनकर रह गया था। संभव है कि मौसम में आए इन परिवर्तनों ने वहाँ के रहनेवालों के जनजीवन को भी प्रभावित किया हो, परंतु इसका प्रभाव इस नगरीय सभ्यता के छोटे भाग पर ही पड़ा होगा। वह रेत जिसने इनमें से कुछ शहरों को ढँक लिया था, उसी रेत ने उन्हें सुरक्षित भी रखा। दूसरे शहर और प्राचीन सभ्यता के प्रमाण धीरे-धीरे नष्ट होते गए।सिंधु घाटी की सभ्यता के बाद आनेवाली सभ्यता में शुरू-शुरू में खेती पर ध्यान दिया। खेती के कार्य पर ज़ोर देने का काम करनेवाले आर्य ही थे।
ऐसा माना जाता है कि सिंधु घाटी युग के एक हज़ार वर्ष बाद आर्यों का आगमन हुआ। पचिमोत्तर दिशा से कबीले और जातियाँ आती रहीं और भारत में जज़्ब होती रहीं। द्रविड़ जाति के लोगों से आर्यों का सांस्कृतिक समन्वय हुआ जो सिंधु घाटी सभ्यता के प्रतिनिधि थे। यहीं से भारतीय जातियों और बुनियादी भारतीय संस्कृति का विकास हुआ। बाद के युगों में आने वाली जातियों ने अपना प्रभाव डाला और यहीं घुल-मिल गईं।
प्राचीनतम अभिलेख, धर्म-ग्रंथ और पुराण
सिंधु घाटी की खोज से पहले ‘वेद’ भारतीय संस्कृति के सबसे पुराने ,ऐतहासिक ग्रंथ कहे जाते थे। वैदिक युग के काल-निर्धारण पर विद्वान एकमत नहीं हैं। भारतीय विद्वान इसका काल पहले मानते हैं तो यूरोपीय विद्वान इसे का.फी बाद का मानते हैं। ऋग्वेद की ऋचाओं का काल ईसा पूर्व 1500 माना जाता है। मोहनजोदड़ो की खुदाई के उपरांत इसे और भी प्राचीन बताया जाने लगा है। यह मनुष्य के दिमाग की प्राचीनतम उपलब्ध रचना है। इसे ‘आर्य मानव दवारा कहा गया पहला शब्द’ भी कहा जाता है।
भारतीय वेदों पर ईरान की अवेस्ता' की छाप अधिक दिखाई देती है। आर्य अपने साथ इसी कुल के विचार लेकर आए थे जो भारत में फूला-फला। वेदों और अवेस्ता की भाषा में समानता है। यह समानता महाकाव्यों की संस्कृत की अपेक्षा अधिक है।
वेद
हिंदुओं दवारावेदों को प्रकाशित धर्म-ग्रंथ माना जाता है। ‘वेद’ शब्द की उत्त्पति ‘विद्’ शब्द से हुई, जिसका अर्थ है जानना। इसका सीधा-सा अर्थ है अपने समय के ज्ञान का संग्रह। इनमें मूर्ति-पूजा और देव-मंदिरों के लिए कोई स्थान नहीं है। आर्यों ने अपने उमंगपूर्ण जीवन में ‘आत्मा’ पर बहुत कम ध्यान दिया। मृत्यु के अस्तित्व में उनका विश्वास अस्पष्ट था।
‘ऋग्वेद’ को पहला वेद माना जाता है। इसमें मानव के सबसे आरंभिक उद्गार काव्य-प्रवाह रूप में मिलत है। इसमें प्रकृति के सौंदर्य एवं रहस्य के प्रति हर्षोन्माद तथा मनुष्य के साहसिक कारनामों का उल्लेख मिलता है। यहीं से भारत की अनवरत तलाश शुरू हुई। मानव ने अपनी सहज आस्था के कारण प्रकृति के तक्रव और शक्ति में देवत्व का आरोप किया, पर इस सबमें साहस और आनंद का भाव था।
पश्चिमी लेखकों ने भारतीयों को 'परलोक-परायण' कहा है। इस बारे में नेहरू जी का मानना है कि हर देश के निर्धन और अभागे लोग एक सीमा तक परलोक में विश्वास करने लगते हैं। गुलाम देशों पर भी यही बात लागू होती है। भारत मेें भी विचार और कर्म की दो समांतर धाराएँ विकसित होती गईं। समय के अनुसार कभी पहली पर बल होता है तो कभी दूसरी पर। इस आधार पर कहा जा सकता है कि वैदिक संस्कृति की मूल पृष्ठभूमि परलोकवादी या इस विश्व को निरर्थक माननेवाली नहीं हैं।
भारत में जब भी सभ्यता की बहार आई, लोगों ने प्रकृति में गहरा रस लिया। ऐसे समय में ही कला, संगीत और साहित्य, नृत्यकला, चित्रकला और रंगमंच आदि सभी का विकास हुआ। यह सब देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति या जीवन-दृष्टि जीवंत, सशक्त और विविधतापूर्ण है, वह पारलौकिकतावादी नहीं है। जो संस्कृति पारलौकिकतावादी होने के साथ-साथ विश्व को व्यर्थ मानती हो, वह दीर्घकाल तक टिकाऊ नहीं हो सकती।
भारतीय संस्कृति की निरंतरता
भारतीय संस्कृति की विशेषताओं में प्रमुख है—उसकी निरंतरता। हमें आरंभ से ही जो सभ्यता-संस्कृति दिखाई देती है, वह समय-समय पर हुए परिवर्तनों के बाद भी बनी हुई है। यहाँ साहित्य और दर्शन, कला और नाटक तथा जीवन के अनेक क्रियाकलाप विश्व दृष्टि के अनुसार चलते रहे। यदपि इसी समय से छुआछूत की पर्वितीत दिखने लगती है जो बाद में असहाये जाती है और आगे चलकर जाति-प्रथा का रूप ले लेती है। समाज की व्यवस्था को मज्जबूत बनाने तथा उसे शक्ति एवं संतुलन देने के लिए बनाई गई यह व्यवस्था बाद में मानव-मन के लिए कारागार बन गई। इससे समाज ऊँच-नीच वर्गों में बँट गया।
यदपि इस प्रथा ने समाज को प्रभावित किया, पर इस ढाँचे में रहकर भी भारत हर क्षेत्र में विकास के पथ पर बढ़ता रहा। ऐसे समय में भारत का संबंध ईरानियों से, यनानियों से, चीनी तथा मध्य एशियाई लोगों से बराबर बना रहा। तीन-चार हज़ार वर्षों से भारतीय संस्कृति का यह अद्भुत सिलसिला निरंतर प्रवाहमान रहा है।
उपनिषद्
उपनिषदों का समय ईसापूर्व 800 के लगभग माना जाता है। ये हमें भारतीय आर्यों के चिंतन की जानकारी देते हैं। इनमें जाँच-पड़ताल और चीज़ो के बारे में सत्य की खोज को प्रोत्साहन मिलता है। इनके दृष्टिकोण में वैज्ञानिक पद्धति का तत्व मौजूद है। इनका ज़ोर आत्म-ज्ञान, आत्मा और परमात्मा पर है। इनमें बहाये वस्तु जगत को मिथ्या नहीं कहा गया है।
उपनिषदों का झुकाव अदेवतवाद की ओर है।इनके दृष्टिकोण से पता चलता है कि वो तत्कालीन मतभेदों तथा वाद-विवाद को कम करने क पक्ष मैं थे। इससे जादू-टोने में दिलचस्पी कम हुई तथा कर्मकांड और पूजा-पाठ का महत्व कम हुआ। उपनिषदों में सच्चाई पर बल दिया गया है।इसमें प्रार्थना के माध्यम से प्रकाश और ज्ञान की कामना की गई है ‘असत से सत की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर चलने की बात की गयी है। यहाँ बेचैन मन बार-बार किसी प्रश्न का उत्तर खोजता दिखाई देता है। मनुष्य को प्रेरित करते हुए 'ऐतरेय ब्राह्मण' में कहा गया है—‘चरैवेति, चरैवेति’—हे यात्री! इसलिए चलते रहो, चलते रहो।’
व्यक्तिवादी दर्शन के लाभ और हानियाँ
उपनिषदों में इस बात पर बल दिया गया है कि प्रगति करनेे के लिए शरीर का स्वस्थ तथा मन का स्वच्छ होना जरुरी है। इसके अलावा दोनों का अनुशासित रहना आवश्यक है। किसी प्रकार की उपलब्धि तथा ज्ञान प्राप्त करने के लिए संयम, आत्म-पीडऩ और त्याग आवश्यक है। यह विचार भारतीय चिंतन में निहित है। गाँधी जी ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए जो आंदोलन चलाए थे उनके पीछे भी यही मनोवृति थी कि देश में ऊँच-नीच की भावना न हो। लोगों में आत्म-संयम, त्याग तथा सहयोग की भावना हो।
भारतीय आर्यों का विश्वास व्यक्तिवाद में था। वे ऐसी जीवन-शैली अपनाते थे, जो समाज को विखंडित करनेवाली पर्वितीत से उन्हें बचाए रखती थी। वे अपनी पसंद की जिंदगी जीते थे। आर्यों का यह व्यक्तिवाद भविष्य में समाज के लिए बहुत अच्छा न रहा। लोगों की रुचि सामाजिक कार्यों में कम होती गई। वे अपने व्यक्तिगत कार्यों पर अधिक ध्यान देने लगे। इससे सामाजिक उत्तरदायित्वों में उदासीनता आती गई। वे समाज के साथ एकात्मक न रह सके। इस व्यक्तिवादी अलगाववाद के कारण ऊँच-नीच पर आधारित जातिवाद का उदय हुआ। इस कारण जनता की बोधकिक क्षमता कम हुई और रचनात्मक शक्ति का ह्रास हुआ। इतिहास में यह एक बहुत बड़ी कमज़ोरी थी।
भौतिकवाद
भौतिकवाद पर लिखे गए साहित्य की रचना उपनिषदों के ठीक बाद हुई। पर दुर्भाग्य कि यूनान, भारत और दूसरे भागों में विश्व के प्राचीन साहित्य का बड़ा हिस्सा खो गया है। आरंभ में इनको ताड़-पत्रों पर लिखा गया। कागज़ पर लिखने का प्रचलन काफी बाद में हुआ। बहुत-सी ऐसी प्राचीन पुस्तकें हैं जिनका चीनी और तिब्बती भाषा में अनुवाद मिल गया, पर वे भारत में नहीं मिली। इन खोई पुस्तकों में भौतिकवाद पर लिखा गया साहित्य है। भारत में भौतिकवादी दर्शन का प्रचलन रहा और जनता उससे प्रभावित रही। ई.पू. चौथी शताब्दी में कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र' में इसका उल्लेख भारत के प्रमुख दार्शनिक सिंद्धात के रूप में किया गया है।
भारत में भौतिकवाद के बहुत-से साहित्य को पुरोहितों और धर्म के पुराणपंथी स्वरूप में विश्वासी लोगों ने नष्ट कर दिया। भौतिकवादियों ने विचार, धर्म, ब्राह्मणवादिता, जादू-टोने तथा अंधविश्वासों का घोर विरोध किया। उन्होंने विश्वास की स्वतंत्रता पर बल दिया और पहले से मान ली गयी बातों या अतीत के प्रमाणों पर निर्भर न रहने को कहा। उनका दृष्टिकोण आधुनिक भौतिकवादी दृष्टिकोण जैसा ही था। वे स्वयं को अतीत की बेडिय़ों और बोझ से मुक्त करना चाहते थे, जो उन्हें प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देती द्दस्ड्ड। वे काल्पनिक देवताओं के अस्तित्व को भी नकारते थे।
भौतिकवाद ऐसी विचारधारा थी जो कर्म में विश्वास करती थी। वे वास्तविक अस्तित्व केवल वर्तमान पदार्थ का और इस संसार का ही मानते थे। वे संसार के अलावा स्वर्ग-नरक स्रद्मह्य और शरीर से अलग आत्मा को नहीं मानते। वे नैतिक नियमों को मनुष्य के ठ्ठ9शारा बनाई रूढिय़ाँ मात्र मानते हैं।
महाकाव्य, इतिहास, परंपरा और मिथक
रामायण' और महाभारत' प्राचीन भारत के दो महाकाव्य हैं। इनमें समय-समय पर कुछ-न-कुछ जोड़ा जाता रहा है। इनमें भारतीय आर्यों के आरंभिक समय का वर्णन है। इन दोनों ग्रंथों का भारतीय जीवन पर अत्यंत घनिष्ठ प्रभाव दिखाई पड़ता है। ये दोनों ग्रंथ भारतीय जीवन का अंग बन गए हैं। इन ग्रंथों में उच्चतम बोधिजीवी से लेकर शिक्षित देहाती और साधारण अनपढ़ तथा अशिक्षित देहाती तक के लिए एक साथ सामग्री उपलब्ध है। इनमें छिपा वह रहस्य कुछ-कुछ समझ में आ जाता है जिनके कारण समाज के ऊँच-नीच वर्ग के लोग एक साथ रहते थे तथा अपने मतभेदों को सुलझाते थे।
भारतीय पुराकथाओं का इतिहास वैदिक काल से शुरू होता है जो विभिन्न रूपों और आकारों में साहित्य से प्रकट होता है। इसे कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं में देखा जा सकता है। अधिकांश पुराकथाएँ वीरगाथात्मक हैं जिसमें सत्य और वचन का पालन करने की शिक्षा दी गई है। इनमें से कई कहानियाँ काल्पनिक होते हुए भी जिंदगी को एकरसता और कुरूपता से दूर सरसता की ओर ले जाती हैं।
यूनानियों तथा अन्य देशवासियों की तरह प्राचीन काल में भारतीय इतिहासकार नहीं थे, इसलिए तिथियों का निर्धारण करना कठिन हो गया है। इससे घटनाएँ इतिहास की भूलभुलैया में खोकर रह गई हैं। कल्हण लिखित ‘राजतरंगिणी’ नामक प्राचीन ग्रंथ में कश्मीर का इतिहास है। इसकी रचना ईसा की बारहवीं शताब्दी में की गई। बाकी इतिहास जानने के लिए हमें अन्य ग्रंथों के कल्पित इतिहास, समकालीन अभिलेख, शिलालेख, कलाकृति, इमारतों के अवशेषों, सिक्कों और संस्कृत साहित्य के विशाल संग्रह की मदद लेनी पड़ती है। इसके अलावा विदेशी यात्रियों के विवरणों से भी जानकारी मिलती है।
ऐतिहासिक बोध के अभाव में जनता ने अतीत के विषय में अपनी दृष्टि का निर्माण पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिली विरासत से कर लिया। इससे जनता को एक मज़बूत और टिकाऊ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मिल गई
महाभारत
'रामायण' को महाकाव्य के रूप में एक महान रचना माना जाता है, परंतु 'महाभारत' को विश्व की श्रेष्ठतम रचनाओं में गिना जाता है। इसे परंपरा, दंतकथाओं तथा प्राचीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं का विश्वकोष कहा जाता है।
इस समय तक शायद भारत में विदेशियों का आगमन शुरू हो चुका था। उनकी परंपराएँ तथा अनेक रिवाज़ यहाँ बसे आर्यांे की परंपराओं से मेल नहीं खा रहे थे। इस नयी स्थिति में वैदिक धर्म में संशोधन किया जा रहा था। इनके बीच से एक उदार धर्म का उदय हुआ। इसे हिंदू धर्म' के नाम से जाना जाता है। इसका प्रमुख आधार सत्य था, जहाँ तक पहुँचने के अनेक रास्ते हैं।
'महाभारत' से हिंदुस्तान की बुनियादी एकता पर बल देने की कोशिश की गई है। इसका पहले का नाम आर्यावर्त' है। यह नाम मध्य भारत में विंध्य पर्वत तक फैले उत्तर भारत के इलाके तक सीमित था। महाभारत में एक विराट गृहयुद्ध का वर्णन है जिसमें अखंड भारत की अवधारणा की शुरुआत हुई। उस समय अफगानिस्तान (गांधार) का बड़ा हिस्सा भारत में शामिल था। इसी कारण यहाँ के शासक की पत्नी गांधारी कहलाई। गांधार के निकट हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ शहर थे, जो उस समय भारत की राजधानी थे तथा अब दिल्ली नाम से भारत की राजधानी हैं।
महाभारत में कृष्ण संबंधी पूरा वर्णन है। इसी में भगवद्गीता भी है। इसमें धर्म को महत्वपूर्ण माना गया है। इस महाकाव्य में तत्कालीन भारत के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवन संबंधी पूरी जानकारी मिलती है। इसमें वर्णित धर्म का उद्देश्य पूरे विश्व का लोकमंगल था। यह धर्म कर्तव्य और जि़म्मेदारियों का सम्मिश्रण है जो समय के साथ बदलता रहता है। इसमें अहिंसा की एक नयी अवधारणा हमारे सामने आती है, जिसमें हिंसा को बुरा तो माना गया है पर किसी लोकमंगल या नेक उद्देश्य हेतु युद्ध किया जाए तो हिंसा को बुरा नहीं माना जाता।
इस महाकाव्य में कौरव-पांडवों के विराट युद्ध का वर्णन है। इसके अलावा महाभारत अनेक अनमोल चीज़ों का समृद्ध भंडार है। पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं का वर्णन करता यह ग्रंथ अपने में अनमोल शिक्षा एवं ज्ञान का पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं का वर्णन करता यह ग्रंथ अपने में अनमोल शिक्षा एवं ज्ञान का भंडार सँजोए हुए है।
भगवद्गीता
'भगवद्गीता' महाभारत का ही अंश है, जो अपने-आप में पूर्ण है। इसमें 700 श्लोक हैं।इसकी रचना बोधकाल से पहले हुई। इसकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है। संकट के समय दुविधाग्रस्त मनुष्य को इससे प्रकाश और मार्गदर्शन प्राप्त होता है। गीता की असंख्य व्याख्याएँ की गईं और अब भी लगातार की जा रही हैं। आधुनिक युग के विचारक तिलक, अरविंद घोष, गाँधी सभी ने अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की। गाँधी जी ने इसे अहिंसा में अपने दृढ़ विश्वास का आधार बनाया, जबकि औरों ने धर्मकार्य हेतु युद्ध का औचित्य इसी गीता के आधार पर सिद्ध किया।
भगवद्गीता की कथा का आरंभ महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने से पहले अर्जुन और श्री कृष्ण के मध्य होनेवाले संवाद से होता है। अपने परिजनों, मित्रों को अपने विरुद्ध युद्ध में खड़ा देखकर अर्जुन परेशान हो गए हैं। वे इस युद्ध से होनेवाले लाभ-हानि, पाप-पुण्य का आकलन सोचकर दुविधाग्रस्त हो जाते हैं। अर्जुन कर्तव्यों और नैतिकता के बीच फँसे दुविधाग्रस्त आत्मा के प्रतीक बन गए हैं। ऐसे में श्री कृष्ण ने उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरित किया और कर्तव्य तथा नैतिकता के आधार पर कार्य करने की सलाह दी। इससे अर्जुन की दुविधा दूर हुई और वे कर्म करने को तत्पर हो गए।
भगवद्गीता में मनुष्य के विकास के तीन मार्गों—ज्ञान, कर्म और भक्ति का उल्लेख है। इसमें भक्ति के मार्ग पर बल दिया गया है। गीता में मनुष्य को कर्म करने के लिए प्रेरित किया गया है। अकर्मण्यता की निंदा करते हुए कहा गया है कि कर्म और जीवन को समय के उच्चतम आदर्शों के अनुरूप होना चाहिए।
गीता का संदेश किसी संप्रदाय या व्यक्ति विशेष को बढ़ावा नहीं देता। इसकी दृष्टि सार्वभौमिक है। इसकी रचना के ढाई हज़ार वर्षों के बाद भारतवासी अनेक परिवर्तन, विकास और ह्रास की प्रक्रिया से गुज़रे हैं। पर गीता में उन्हें हर बार ऐसी जीवंत चीज़ मिली है जो विकसित होते विचारों से मेल खाती रही है।
प्राचीन भारत में जीवन और कर्म
जातक कथाओं में हमें बोद्ध के समय से पूर्व का वृक्रतांत मिलता है। उस समय भारत की दो प्रधान जातियोंद्रविड़ों और आर्यों में मिलन हो रहा था। ऐसा कहा जाता है कि जातक, पुरोहित या ब्राह्मण परंपरा स्रद्म तथा क्षत्रिय परंपरा के विरोध में लोक परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस समय तक भारत उन्नति की ओर कदम बढ़ा चुका था। ग्राम सभाएँ स्वतंत्र थीं। उपज के छठे भाग तक लिया जानेवाला कर इनकी आमदनी का मुख्य साधन था तथा सभ्यता कृषि पर केंद्रित थी। गाँव दस-दस और सौ-सौ के समूहों में बँटे थे। दस्तकारों का गाँव अलग हुआ करता था। कहीं लोहारों का तथा कहीं कुम्हारों या अन्य पेशा करनेवालों का गाँव हुआ करता था। इनके गाँव शहरों के आस-पास हुआ करते थे, क्योंकि वहाँ इनके सामान की खपत हो जाती थी, तथा उनकी अपनी आवश्यकताएँ भी पूरी हो जाती थीं।
जातकों में व्यापारियों की समुद्री यात्रा का वर्णन मिलता है। नदियों के रास्ते भी यातायात होता था। व्यापारियों के बेड़े बनारस, पटना, चंपा तथा दूसरे स्थानों से समुद्र की ओर जाते थे और वहाँ से श्रीलंका तथा मलय टापू तक।
भारत में लेखन-कला काफी पुरानी है। पाषाण युग के मिट्टी के बर्तनों पर ब्राह्मणी लिपि के अक्षर मिले हैं। मोहनजोदड़ो में बने शिलालेखों को नहीं पढ़ा जा सका है। भारत में मिले ब्राह्मणी लेख से ही देवनागरी तथा अन्य लिपियों का विकास हुआ। छठीं या सातवीं शताब्दी में पाणिनि ने संस्कृत भाषा में प्रसिद्ध व्याकरण की रचना की। इसे आज भी संस्कृत व्याकरण का आधिकारिक ग्रंथ माना जाता है। पाणिनि दवारा किए गए यूनानी लिपि के उल्लेख से संकेत मिलता है कि भारत और यूनान के बीच संपर्क हो चुका था।
भारत चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में विकास कर रहा था। धनवंतरि को भारत में औषध विज्ञान का जनक माना जाता है। ईसवी सन के आरंभ में औषधि पर चरक ठ्ठ9शारा तथा शल्य-चिकित्सा पर सुश्रुत दवारा पुस्तकें लिखी गईं। चरक सम्राट कनिष्क के दरबार में राजवेद्ये; थे। उनकी पुस्तक में अनेक रोगों के इलाज का वर्णन है। शल्य-प्रशिक्षण के दौरान मुर्दों की चीर-फाड़ कराई जाती थी। सुश्रुत ने अंगों को काटना, पेट काटना, ऑपरेशन से बच्चे को जन्म दिलाना आदि का वर्णन किया है।महाकाव्यों के युग में वनों में स्थित महाविद्यालयों का वर्णन किया गया है। इनमें लोग शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए एकत्र होते थे। शिक्षा में तरह-तरह के विषय शामिल थे। यहाँ सैन्य प्रशिक्षण भी दिया जाता था। यहाँ शहरी जीवन के आकर्षणों से बचाकर विद्धर्तियों के लिए नियमित और ब्रह्मचर्य का जीवन बिताना संभव होता था।
बनारस प्राचीन काल से ही शिक्षा का केंद्र रहा है। इसके अलावा तक्षशिला विश्वविद्यालय विशेष रूप से विज्ञान, चिकित्साशास्त्र और कलाओं के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ का स्नातक होना सम्मान की बात समझी जाती थी। बोद्ध का इलाज करनेवाले चिकित्सक तथा पाणिनि ने भी यहीं शिक्षा प्रापत थी। बोद्धकाल में यह ज्ञान का केंद्र बन गया था। तक्षशिला मौर्य साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी सूबे का मुख्यालय भी था।
उस सुदूर अतीत के भारतीयों के बारे में कोई धारणा बनाना कठिन है, परंतु जानकारियों के आधार पर हम कह सकते हैं कि वे खुले दिल के, आत्मविश्वासी और अपनी परंपराओं पर गर्व करनेवाले, रहस्य के प्रति जिज्ञासु तथा जीवन में सहज भाव से आनंद लेने वाले लोग थे।
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1. सिंधु घाटी की सभ्यता क्या होती है? |
2. सिंधु घाटी की सभ्यता किस समयावधि में विकसित हुई? |
3. सिंधु घाटी की सभ्यता में धातु और आभूषणों का क्या महत्व था? |
4. सिंधु घाटी की सभ्यता में घरों का आकार और संरचना कैसी थी? |
5. सिंधु घाटी की सभ्यता में जल संरचनाएं क्या थीं? |
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