Class 8 Exam  >  Class 8 Notes  >  Hindi Class 8  >  पाठ का सारांश (भाग - 2) - सिंधु घाटी की सभ्यता, हिंदी, कक्षा 8

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महावीर और बुद्ध - वर्ण व्यवस्था
जैन धर्म और बोद्ध धर्म दोनों ही वैदिक धर्म से अलग हुए हैं। ये वैदिक धर्म की शाखाएँ हैं। ये न तो वेदों को प्रमाण मानते हैं और न ही आदिकाल के बारे में कुछ कहते हैं। दोनों ही अहिंसा पर बल देते हैं। इनके दृष्टिकोण एक सीमा तक यथार्थवादी  तथा बोध्येवादी हैं। इन धर्मों में जीवन और विचार में सत्य तथा तपस्या पर बल दिया गया है। जैन धर्म के संस्थापक महावीर और बोद्ध धर्म के संस्थापक बोद्धसमकालीन थे। दोनों ही क्षत्रिय थे। बोद्ध की मृत्यु ईसा पूर्शं 544 में हुई। तभी से बोद्ध संवत शुरू हुआ। बोद्ध साहित्य में लिखा है कि बोद्ध का जन्म बैसाख की पूर्णिमा को तथा निर्वाण भी इसी दिन हुआ था और इन पंक्तियों (बोद्ध के बारे में) को नेहरू जी ने भी इसी तिथि (वैशाखी पूर्णिमा) को लिखा था।

महात्मा बोद्ध/ ने प्रचलित धर्म, अंधविश्वास, कर्मकांड, पुरोहित-प्रपंच, निहित स्वार्थ, आध्यात्मिकता आदि की निंदा की। उनका आग्रह तर्क, विवेक, अनुभव और नैतिकता पर था। उन्होंनेवर्ण व्यवस्था पर वार नहीं किया, पर संघ व्यवस्था में इसे जगह भी नहीं दी। विचित्र बात यह है कि वर्ण व्यवस्था की कठोरता के विरुद्ध चेतावनी के बाद भी इस व्यवस्था ने भारतीय जीवन के हर पहलू को अपने में जकड़ लिया।
जैन धर्म जाति व्यवस्था के प्रति सहिष्णु था। उसने स्वयं को जाति व्यवस्था के रूप में ढाल लिया और हिंदू धर्म की शाखा के रूप में जिन्दा है। दूसरी ओर बोद्ध धर्म अपने विचारों तथा दृष्टिकोण में स्वतंत्र रहा और भारत के बाहर खूब फला-फूला।

बुद्ध की शिक्षा
जो भारतीय बुद्धज्ञान की गुत्थियों में उलझे रहते थे उनके लिए बुद्ध का संदेश नया और मौलिक था।बुद्ध का संदेश किसी जाति या संप्रदाय विशेष के लिए न होकर सभी लोगों के लिए था। उन्होंने किसी धर्म-विशेष को महत्व नहीं दिया था। उनका मानना था कि बोद्ध धर्म में सभी जातियाँ आकर उसी प्रकार मिल जाती हैं जैसे समुद्र में नदियाँ। उन्होंने विश्वभर में इस धर्म का प्रचार करने के लिए अपने शिष्यों से कहा। उन्होंने सभी के  लिए प्रेम तथा करुणा का संदेश दिया क्योंकि इस संसार में घृणा का अंत प्रेम से ही हो सकता है। अत: मनुष्य को क्रोध पर दया से और बुराई पर भलाई से काबू पाना चाहिए। युद्ध में विजय पानेवाला सच्चा विजेता नहीं होता। सच्चा विजेता रुश;ड्ड पर विजय पानेवाला होता है। मनुष्य की जाति उसके जन्म से नहीं, कर्म से तय होती है।

बुद्ध ने लोगों से कहा कि वे अपने मन के भीतर सत्य की खोज करें। सत्य की जानकारी ही सभी दुखों का कारण है। हमें अपने आपको उन चीज़ों तक सीमित रखना चाहिए जिन्हें हम देख रहे हों तथा जीन के विषय निश्चित जानकारी रखते हों।बुद्ध ने जीवन में वेदना और दुख पर बहुत बल दिया है। उनके दवारा निरूपित ‘चार आर्य सत्यों’ का संबंध दुख के कारण और निवारण से है। उन्होंने बताया कि दुख के अंत से निर्वाण की प्राप्ति होती है। उन्होंने जीवन में मध्यम मार्ग का अनुसरण करने की शिक्षा दी।

बुद्ध-कथा
आज बुद्ध के स्वरूप को पत्थर, संगमरमर या काँसे में ढालकर नया आकार दे दिया जाता है जो उनके तेजस्वी पक्ष का प्रतीक है। कमल पुष्प पर बैठे शांत और धीर, वासनाओं से परे, तूफानों और संघर्षों से दूर वे इतना परे मालूम होते हैं कि उन्हें पाना मुश्किल लगता है। दुबारा देखने पर उनकी आकृति जीवन-शक्ति से भरी दिखती है और हमें संदेश देती है कि हमें संघर्ष से भागना नहीं चाहिए। शांत दृष्टि से उनका मुकाबला करना चाहिए तथा जीवन में विकास और प्रगति के और बड़े अवसरों को देखना चाहिए।

चंद्रगुप्त और चाणक्य - मौर्य साम्राज्य की स्थापना
भारत में जिस समय बुद्ध धर्म का प्रचार धीरे-धीरे हो रहा था, उसी समय पचिमोत्तर प्रदेश पर सिकंदर के आक्रमण से इस धर्म को फैलने में मदद मिली। चंद्रगुप्त मौर्य और उनके सलाहकार मित्र ,एवं मंत्री चाणक्य ने इन बदली परिस्थितियों का लाभ उठाया। दोनों ही शक्तिशाली नंद साम्राज्य से निकाल दिए गए थे। दोनों तक्षशिला पहुँचे जहाँ उनकी मुलाकात यूनानियों से हुई। वहीं चंद्रगुप्त और सिकंदर में भेंट हुई थी।

चाणक्य और चंद्रगुप्त ने राष्ट्रीयता का नारा देकर विदेशी आक्रमण तथा आक्रमणकारियों के खिला-फ जनता को उत्तेजित किया। इससे तक्षशिला पर उसका अधिकार हो गया। सिकंदर की मृत्यु के दो साल बाद उसने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। इस महान साम्राज्य की राजधानी पाटलीपुत्र थी। इस नए राज्य का विवरण मेगस्थनीज के विवरण तथा कौटिल्य के दवारा लिखित अर्थशास्त्र* से जाना जा सकता है। कौटिल्य 'चाणक्य' का ही दूसरा नाम है, वह बीुद्धिमान और कर्मठ था। ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक से उसे साहसी, षड्यंत्री, अभिमानी, प्रतिशोधी, अपमान को न भूलनेवाला तथा लक्ष्य पर दृष्टि रखनेवाला बताया गया है।

चाणक्य के 'अर्थशास्त्र' में चंद्रगुप्त की विराट सेना का विस्तार से वर्णन है। इसके अलावा इसमें व्यापार और वाणिज्य, कानून और न्यायालय, नगर-व्यवस्था, सामाजिक रीति-रिवाज़, विवाह और तलाक, स्त्रियों के अधिकार, कर और लगान जैसे अनेक विषयों पर विस्तार से लिखा गया है।
राज्याभिषेक के समय राजा को इस बात की शपथ लेनी पड़ती थी कि वह प्रजा की सेवा करेगा तथा प्रजा के हित एवं इच्छा को सर्वोपरि रखेगा। अनीति करनेवाले राजा के लिए प्रजा को अधिकार है कि उसे हटाकर किसी और को उसकी जगह राजा बना दे।

अशोक
चंद्रगुप्त मौर्य दवारा स्थापित मौर्य साम्राज्य का उत्तरधिकारी 273 ई. पू. में अशोक बना। इस समय तक इस साम्राज्य का विस्तार मध्य एशिया तक हो चुका था। अशोक संपूर्ण भारत को एक शासन-व्यवस्था में लाना चाहता था। उसने पूर्वी तट पर स्थित कालिंग प्रदेश जीतने का निश्चय किया। कालिंग के लोगों के बहादुरी से मुकाबला करने के बावजूद अशोक की सेना जीत गई। इस युद्ध में लाखों लोग मारे गए तथा घायल हुए। जब इस बात की खबर अशोक को मिली तो उसे बहुत पछतावा हुआ और उसे युद्ध से विरक्ति हो गई तथा वह बोद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। अशोक के कार्यों और विचारों की जानकारी हमें शिलालेखों से मिलती है, जो पूरे भारतवर्ष में फैले हैं।

कालिंग को अपने राज्य में मिलाने के बाद इस महान सम्राट ने बोद्ध धर्म का पालन शुरू कर दिया। उसने आगे से किसी प्रकार की हत्या या बंदी बनाए जाने पर रोक लगा दी। उसे लगा कि सच्ची विजय कर्तव्य और धर्म का पालन करके लोगों के हृदय जीतने में है। इस महान सम्राट की आकांक्षा थी कि जीव-मात्र की रक्षा हो, उनमें आत्म-संयम हो, उन्हें मन की शांति और आनंद प्राप्त हो।

इस अद्भुत शासक को भारत तथा एशिया के और भी बहुत से भागों में प्यार से याद किया जाता है। ड्ढसने बोद्ध की शिक्षा के प्रचार तथा जनता की भलाईवाले कार्य के लिए अपने आपको अर्पित कर दिया। स्वयं कट्टर बोद्ध होने पर भी अशोक ने सभी धर्मों का आदर किया। अशोक बहुत बड़ा निर्माता भी था। उसने बड़ी इमारतें बनाने के लिए विदेशी कारीगरों को नियुक्त कर रखा था। ऐसा एक जगह इकट्ठे बने स्तंभों के डिज़ाइन से पता लगता है, जो पर्सिपोलिस की याद दिलाते हैं।

अशोक ने इकतालीस वर्षों तक अनवरत शासन किया। उसकी मृत्यु 232 ई. पू. में हुई। उसने अनेक महान कार्य किए जिनके कारण उसका नाम शोल्गा से जापान तक आज भी आदर के साथ लिया जाता है।
 

शब्दार्थ—

पृष्ठ; अवशेष—किसी वस्तु का बचा-खुचा भाग। क्रांति—बदलाव की लहर। उदघाटित करना—सबके सामने रखना। प्रधान—मुख्य। धर्मनिरपेक्ष—सभी धर्मों के प्रति समान आदर-भाव रखना। हावी होना—बलपूर्वक प्रभाव जमाना। 

पृष्ठ ; अग्रदूत—सबसे आगे चलकर प्रेरणा देनेवाला। धनाढ्य—अत्यंत धनी। नागर—नगर संबंधी। निरंतरता—बिना रुके चलने का गुण। श्रृंखला—कड़ी। 

पृष्ठ ; दस्तकारी—हाथ से वस्तुए बनाना। दिलचस्प—मनोरंजक। भोर-बेला—प्रात:काल। सयाने—बड़े। उल्लेखनीय—बताने योग्य। सृजन—निर्माण्र ठेठ—पक्के। हमाम—स्नानागार। अनिवार्य—ज़रूरी। अकस्मात—अचानक। प्रमाण—सबूत। 

पृष्ठ ;  समृद्ध—धनी। मुमकिन—संभव। बहुतायत—अधिकता। नवागंतुक—नया आनेवाला। जजब—समाहित होना। 

पृष्ठ;  निर्धारण—तय करना। मतभेद—एक राय न होना। कुल—परिवार। पल्लवन—बढ़ावा देना। पैदाइश—संग्रह ; इकट्ठा करना।

पृष्ठ ; उद्गार—मन के भाव। हर्षोन्माद—हर्ष का उन्माद। उषाकाल—सूर्योदय का समय। अनंत—जिसकी समाप्ति न हो अंतहीन। आस्था—विश्वास। परलोक परायण—परलोक में विश्वास रखनेवाले। निरर्थक—अर्थहीन। मुमकिन—संभव।  पारलौकिकतावादी—ईश्वरीय लोक में विश्वास रखनेवाला। बुनियादी—आधारभूत। 

पृष्ठ ;  विशिष्टतावाद—विशेष मानने की पर्विति। असहाये;—जो सहा न जा सके। कारागृह—जेल। प्राणवान—सजीव, जीवन से युक्त। प्रसार—फैलाव। चिंतन—गहराई से सोचना। हठवाद—अपने मत पर अड़े रहने की पर्विति। आत्म-बोध—स्वयं का ज्ञान। मिथ्या—झूठ। असमंजस— निश्चय न कर पाने की सिथिति। निरुत्साहित—उत्साह को कम करना। कामना—इच्छा। बेचैन—परेशान। ऐतरेय ब्राह्मण—उपनिषद का एक भाग।  

पृष्ठ ; कारगर—सही। ज्ञानार्जन—ज्ञान प्राप्त करना। आत्मपीडऩ—स्वयं को दुख पहुँचाना। आत्मत्याग—अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपनी जान की परवाह न करना। 

पृष्ठ ; निहित—समाया हुआ। जनांदोलन—लोगों दवारा किया गया आंदोलन। मनोविरति—इच्छा। औरों—दूसरों। खंड-खंड करना—विभाजित कर देना। व्यापक—विस्तृत। समग्र—समूचा, सारा। दायित्वबोध—कर्तव्य का ज्ञान। गैर- मुनासिब—अनुचित। बोध्तिक जड़ता—बौद्धिक से सोचने-समझने की असमर्थता। रचनात्मक शक्ति—कुछ नया करने की क्षमता। ताड़-पत्रों—एक विशेष प्रकार का पेड़ जिसके पक्रह्में पर लेखन&कार्य किया जाता था। चलन—रिवाज़।

पृष्ठ ; विशद—गंभीर, अत्यधिक। नष्ट—बर्बाद। स्वार्थ—केवल अपनी भलाई के बारे में सोचना। पुरोहित—पूजा तथा अन्य कर्मकांड करानेवाला। प्रत्यक्ष—आँखों के सामने। रूढिय़ाँ—पुरानद्ध एवं अनुपयोगी विचारधाराएँ। 

पृष्ठ ; सदियाँ—सैकड़ों साल। जीवंत—सजीव रूप में। वीरगाथात्मक—वीरों की गाथाओं से युक्त। मरणोपरांत—मरने के बाद भी। लोक-हित—लोगों की भलाई। 

पृष्ठ ; गड्ड-मड्ड होना—आपस में घुल-मिल जाना। सफरनामा—यात्रा विवरण। उपेक्षा करना—महत्त्व न देना। सहज—आसान।

पृष्ठ ; दर्ज़ा —श्रेणी, स्थान। विश्वकोष—विस्तृत क्षेत्र में फैले विचारों का संग्रह। प्रामाणिक—जिसका सबूत उपलब्ध हो। घालमेल—मिलावट। संशोधन—बदलाव। उदार—दयालु। एकाधिकार—किसी एक का अधिकार। 

पृष्ठ ; विस्तार—फैलाव। अंदाज—अनुमान। अखंड—समूचा, सारा। अवधारणा—सोच। आख्यान—विवरण। एका—एकता। लोकमंगल—समाज का कल्याण। टिकाऊ—लंबे समय तक चलनेवाला। अपरिवर्तनशील—जिनमें बदलाव न हो। दिलचस्प—मनोरंजक। मकसद—उद्देश्य। विराट—बड़ा, विशाल।

पृष्ठ ; समृद्ध—भरा-पूरा। अनमोल—जिसका कोई मोल न हो। सराबोर—भरा हुआ, तरबतर। विकासशील—विकास की ओर बढ़ता हुआ। प्रेरक—उत्साह बढ़ानेवाला। अंश—हिस्सा। मुकम्मल—पूरा। काव्य—कविता के :प में लिखा हुआ। दुविधाग्रस्त—किसी बात का निर्णय न कर पाने की स्थिति में होना। संकट-काल—मुसीबत का समय। 

पृष्ठ ; असंख्य—अनगिनत। औचित्य—सही होने का भाव। संवाद—बातचीत। नरसंहार—मनुष्यों की हत्या। संहार—हत्या। परिहार—रोक लगाना। नाकाम—असफल। ढह जाना—गिर जाना, समाप्त हो जाना। तकाजा—सही और गलत का अनुमान। आध्यात्मिक—ईश्वर से संबंधित। निर्वाह—गुजरा पालन। आह्वान—पुकारना, बुलाना। अकर्मण्यता—निकम्मापन, काम न करने की पीवर्ती । 

पृष्ठ ; सांप्रदायिक—किसी धर्म-विशेष से संबंधित। सार्वभौमिक—सभी के लिए। मान्य—स्वीकार्य। ह्रास—गिरावट। जीवंत—सजीव। वृतांत—वर्णन। जातक-कथाएँ—बोध संबंधी प्राचीन कथाएँ। प्रतिनिधित्व—अगुवाई। जरिया—साधन। गल्ला—अनाज। पैदावार—उपज। स्वशासित—अपना शासन चलानेवाले। दस्तकारी—हाथ से किए जानेवाले उद्योग-धंधे। बढ़ई—लकड़ी के सामान बनाने तथा बेचनेवाले। पेशेवर—रोज़गार को अपनानेवाले।

पृष्ठ ;  खपत—उपयोग। सहकारिता—मिल-जुलकर काम करना। उसूल—सिद्धांत। अलहदा—अलग। संगठित—एक होकर। कारवाँ—काफिला। पाषाण—पत्थर। प्रमाण—सबूत। वैयाकरण—व्याकरण के ज्ञाता।

पृष्ठ ; अनुभति—अनुभव संवदेना । जनक—पिता। शल्य—चीद्भ-फाड़। पथ्य—मरीज़ के लिए उपयुक्त भोजन। रुझान— झुकाव। जि़क्र—वर्णन। अपेक्षा—आशा। गृहस्थ—घर-गृहस्थी संबंधी।

पृष्ठ ; सूबा—प्रांत, राज्य। मुख्यालय—प्रमुख केंद्र। आत्मविश्वासी—अपने-आप पर विश्वास करनेवाला।

पृष्ठ ; तमाम—अनेक। यथास्नद्र्मंवादी—सत्यता या वास्तविकता को स्वीकारनेवाला। पहलू—पक्ष। संस्थापक—स्थापना करनेवाला। समकालीन—एक ही समय में। बोध—ज्ञान। निर्वाण—जीवन के दुखों से मुक्ति, मोक्ष। प्रपंच—छल-कपट। अलौकिक—इस संसार से अलग, ईश्वरीय। विवेक—बौद्धिक।

पृष्ठ ; वार—हमला। वर्ण-व्यवस्था—लोगों दवारा किए जानेवाले कामों के आधार पर बँटवारा। 

पृष्ठ ; शिकंजा—पकड़। अनुयायी—माननेवाला। सहिष्णु—नम्रता दिखानवाला। बौद्धिकज्ञान—ईश्वरीय ज्ञान। गुत्थियाँ—समस्याएँ, मुश्किलें। बौद्धिक—लोगों के बीच फैलाना। अनुशासनात्मक—स्वयं को अनुशासन में रखना। विजेता—जीतने वाला। तय—निश्चित। 

पृष्ठ ; हासिल करना—प्राप्त करना। अधुनातन—नया—ज्ञान। वेदना—पीड़ा। अतिशय—बहुत अधिक। जीवनयापन—जीवन बिताना।

पृष्ठ ; संकल्पना—संकलप धरना। अनगिनत—जिसकी गिनती न हो सके । समग्र—सारा। धीर—धैर्यवान। वाणी—आवाज़। संचित—इकटठी की हुई। निधि—खज़ाना। विलक्षण— अद्भुत। मुताबिक—के अनुसार। कारगर—उपयुक्त। 

पृष्ठ ; चिर नवीन—सदा नया-सा रहनेवाला। उत्तरजित—उत्साहित। कर्मठता—काम करने की उत्कट भावना। षड्यंत्री—छल-कपट करनेवाला। प्रतिशोधी—बदला लेनेवाला। बागडोर—नियंत्रण। सेवानिनिवृत—कार्य-मुक्ति।

पृष्ठ ;  व्यापक—विस्तृत। मत्स्य—मछली। कसाईखाना—जहाँ जानवरों को माड्डस के लिए काटा जाता है। राज्याभिषेक—राजा के रूप में कार्यभार सँभालना। मोहताज़—निर्भर। अनीति—गलत कार्य। 

पृष्ठ संपूर्ण—पूरा। मातहत—अधीन। तत्काल—उसी समय। कत्लेआम—नरसंहार। विरक्ति—लगाव न रह जाना। .फरमान—शाही आदेश। अंगीकार करना—अपना लेना। आकांक्षा—इच्छा। सम्राट—राजा। जीव-मात्र—प्रत्येक प्राणी। 

पृष्ठ ; अद्भुत—बेजोड़। नेकी—भलाई। ऐलान—घोषणा। लोक-हित—लोगों की भलाई। कट्टर—पक्का। निर्माता—बनानेवाला। पर्सिपोलिस—एक विदेशी तरीका। अवशेषों—बचे-खुचे अंश। अनवरत—लगातार। नामीगिरामी—जाने-माने।

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FAQs on पाठ का सारांश (भाग - 2) - सिंधु घाटी की सभ्यता, हिंदी, कक्षा 8 - Hindi Class 8

1. सिंधु घाटी की सभ्यता क्या है?
उत्तर: सिंधु घाटी की सभ्यता उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में हुई एक प्राचीन सभ्यता थी जो लगभग 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व के बीच विकसित हुई। यह सभ्यता सिंधु और यमुना नदी के तट पर स्थित थी और मुख्य रूप से मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और लोथल जैसे महत्वपूर्ण स्थानों पर आधारित थी।
2. सिंधु घाटी की सभ्यता के लोग किस प्रकार के थे?
उत्तर: सिंधु घाटी की सभ्यता के लोग शांत और समृद्धि शील थे। वे गेहूं, जौ, बाजरा, बटाटा, तिलहनिया और ताल के फलों की खेती करते थे। इसके अलावा, वे चावल, मसूर, मूंग, गेहूं के आटे से बनी रोटी और दाल भी खाते थे। वे गोमांस, मछली और मक्खन भी खाते थे।
3. सिंधु घाटी सभ्यता में धातु कला का क्या महत्व था?
उत्तर: सिंधु घाटी सभ्यता में धातु कला बहुत महत्वपूर्ण थी। इस सभ्यता में लोग सोने, चांदी, तांबा और तांबे की वस्तुएं बनाते थे। धातु कला का उदाहरण तांबे के बर्तन, सोने के आभूषण और चांदी के आभूषण शामिल थे। इन धातु कलाओं की मान्यता इस बात को दर्शाती है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग व्यापार और विदेशी व्यापार में भी निपुण थे।
4. सिंधु घाटी सभ्यता के लोग कैसे निवास करते थे?
उत्तर: सिंधु घाटी सभ्यता के लोग बड़े-बड़े शहरों में निवास करते थे। इन शहरों में आबादी की संख्या बहुत अधिक थी। इन लोगों के पास मकानों की आवश्यकता थी, इसलिए वे मकानों को बनाने के लिए इंट और पत्थर का उपयोग करते थे। इन मकानों के अंदर आरामदायक कक्ष और स्नानघर भी होते थे।
5. सिंधु घाटी सभ्यता में वाणिज्य का क्या महत्व था?
उत्तर: सिंधु घाटी सभ्यता में वाणिज्य बहुत महत्वपूर्ण था। इस सभ्यता में व्यापार बहुत व्यापक रूप से होता था और वे अन्य देशों के साथ विदेशी व्यापार भी किया करते थे। इन व्यापारिक संबंधों के द्वारा गहनों, मूर्तियों, चीनी और मसालों की वस्तुएं आदि को विदेश में भेजा जाता था।
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