♦ गुप्त शासन में राष्ट्रीयता और साम्राज्यवाद
गुप्त शासन में राष्ट्रीयता और साम्राज्यवाद का उदय मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद हुआ। शुंग वंश ने छोटे क्षेत्रों पर शासन किया, जबकि विदेशी आक्रमणों से भारतीय संस्कृति पर प्रभाव पड़ा। मेनांडर जैसे भारतीय-यूनानी शासकों ने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया, लेकिन उनकी हार हुई, और उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया। मध्य एशिया के शक और कुषाण शासकों ने भारत में अपने साम्राज्य का विस्तार किया, जिसमें कनिष्क सबसे प्रसिद्ध शासक थे। उनके काल में बौद्ध धर्म दो संप्रदायों, हीनयान और महायान, में विभाजित हुआ।
चौथी शताब्दी में चंद्रगुप्त प्रथम ने 320 ई. में गुप्त साम्राज्य की स्थापना की। गुप्त शासन को भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है, क्योंकि इस काल में साहित्य, कला, और संस्कृति का अभूतपूर्व विकास हुआ। समुद्रगुप्त को भारत का 'नेपोलियन' कहा गया। गुप्त शासकों ने हूणों के आक्रमणों का प्रतिरोध किया, लेकिन बाद में कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने हूणों को पराजित कर उत्तर और मध्य भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। हर्षवर्धन ने हिंदू और बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया, और उनके शासनकाल में चीनी यात्री हुआन-त्सांग भारत आया। गुप्त शासन ने भारतीय समाज को संगठित किया और इसे राष्ट्रीय पुनर्जागरण का प्रतीक माना जाता है।
♦ दक्षिण भारत
दक्षिण भारत में मौर्य साम्राज्य का अंत होने पर भी बड़े राज्य हज़ारों साल तक फलते-फूलते रहे। दक्षिण भारत दस्तकारी और समुद्री व्यापार का केंद्र बना रहा। यहाँ यूनानियों की बस्तियाँ थीं और यहाँ रोमन के सिक्के भी पाए गए हैं। उत्तर भारत पर बार-बार होनेवाले हमलों से दक्षिण भारत पर अधिक असर नहीं हुआ। उत्तर भारत के बहुत-से लोग दक्षिण में बस गए। इनमें राजगीर, शिल्पी और कारीगर भी थे। इस तरह दक्षिण भारत पुरानी कलात्मक परंपरा का केंद्र बन गया।
♦ शांतिपूर्ण विकास और युद्ध के तरीके
भारत पर बार-बार विदेशी हमले तथा एक के बाद एक नए साम्राज्य की स्थापना होती रही, परंतु इसके बाद यहाँ शांतिपूर्ण और व्यवस्थित शासन का दौर रहा है।
मौर्य, कुषाण, गुप्त, दक्षिण में चालुक्य, राष्ट्रकूट आदि ने दो-दो सौ, तीन-तीन सौ वर्षों तक राह्ल किया। कुषाण जैसे लोगों ने भी अपने आपको इस देश की परंपरा के अनु:प ढाल लिया। यहाँ यूरोपीय देशों की तुलना में अधिक शांतिपूर्ण और व्यवस्थित जीवन के दौर चले हैं। अंग्रेज़ी राज्य में यहाँ शांति व्यवस्था कायम हुई, यह भ्रामक है। अंग्रेज़ी शासन के समय देश अवनति की पराकाष्ठा तथा सबसे कमज़ोर अर्थव्यवस्था के दौर से गुज़र रहा था। इसी कारण यहाँ अंग्रेज़ी शासन कायम हो सका।
♦ प्रगति बनाम सुरक्षा
प्रगति बनाम सुरक्षा - भारत में जिस सभ्यता का निर्माण किया गया, उसका मूल आधार स्थिरता और सुरक्षा की भावना थी। भारतीय दर्शन व्यक्तिवादी है, जबकि भारत का सामाजिक ढाँचा सामुदायिक है। पाबंदी के बावजूद पूरे समुदाय में लचीलापन था। रीति-रिवाज बदले जा सकते थे। यहाँ समन्वय की भावना थी। राजा आते-जाते रहे, पर व्यवस्था नींव की तरह कायम रही। ऐसे हर तत्व ने जो बाहर से आया और जिसे भारत ने अपने आप में समा लिया। भारत को कुछ दिया और उससे बहुत कुछ लिया।
♦ भारत का प्राचीन रंगमंच
भारतीय रंगमंच अपने मूल में, सम्बंध विचारों में और अपने विकास में पूर्णतया स्वतंत्र था। इसका मूल उद्गम ऋग्वेद की ऋचाओं में खोजा जा सकता है। रामायण और महाभारत में नाटकों का उल्लेख मिलता है। ई. पू. छठी या सातवीं शताब्दी के महान वैयाकरण पाणिनि दवारा कुछ नाट्य रूपों का उल्लेख किया गया है।
नियमित रूप से लिखे 3, नाटकों में जो मिले हैं, उनमें ऐसे रचनाकारों और नाटकों का हवाला मिला है] जो अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं। उन्हीं में से एक नाटककार ‘भास’ था। इस शताब्दी के आरंभ में उसके तेरह नाटकों का संग्रह मिला है। ‘अश्वघोष’ के प्राचीनतम संस्कृत नाटक ताड़-पत्रों पर लिखे गोबी रेगिस्तान की सीमा पर तूफान में मिले हैं। ‘अश्वघोष’ दवारा लिखित बुध की जीवनी ‘बुध चरित’ भारत, चीन और तिब्बत में बहुत लोकप्रिय हुई। ‘मेघदूत’ उनकी लंबी कविता है, जिसमें एक बंदी प्रेमी अपनी प्रिया को मेघ को दूत बनाकर संदेश भिजवाता है।
400 ई. के लगभग चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ नामक नाटक लिखा, जो विरुद्ध राजनीतिक था। सातवीं शताब्दी में हर्षदवारा लिखे गए तीन नाटक मिलते हैं। इसी समय के नाटककार ‘भवभूति’ हैं जो भारत में बहुत लोकप्रिय रहे हैं।प्राचीन नाटकों की (कालिदास तथा अन्य लोग) भाषा मिली-जुली है—संस्कृत और उसके साथ एक या एकाधिक प्राकृत, यानी संस्कृत कद्ध बोलचाल में प्रचलित रूप। उसी नाटक में शिक्षित पात्र संस्कृत बोलते हैं तो स्त्रियाँ तथा सामान्य वर्ग प्राकृत। यह साहित्यिक भाषा और लोकप्रिय कला के बीच समझौता था। नाटक समाज के अभिजात वर्ग तक सीमित रहा।
इसके साथ-साथ लोकमंच का भी विकास होता रहा। इनकी कथाओं का आधार भारतीय पुराकथाएँ तथा महाकाव्यों से ली गई कथाएँ होती थीं। ये अलग-अलग क्षेत्रीय बोलियों में रचे जाते थे, इसलिए ये क्षेत्र-विशेष तक द्दद्ध सीमित रहते थे।
♦ संस्कृत भाषा की जीवंतता और स्थायित्व
संस्कृत भाषा अत्यंत विकसित, अलंकृत और अद्भुत रूप से समृद्ध भाषा है। यह उस व्याकरण से युक्त है जिसका निर्माण करीब ढाई हज़ार वर्ष पूर्व पाणिनि ने किया था। इसका मूल रूप आज भी वही है। संस्कृत साहित्य के पतन के काल में इस भाषा ने अपनी कुछ शक्ति और शैली की सादगी खो दी। सर विलियम जोंस ने इसके बारे में कहा था संस्कृत भाषा पुरानी होने के साथ अद्भुत बनावटवाली तथा यूनानी और लातीनी के मुकाबले अधिक उत्कृष्ट है। इसके साथ ही यह भाषा इन दोनों के साथ खूब मिलती-जुलती है, जिसे देखकर कहा जा सकता है इन सभी भाषाओं का स्रोत एक ही है।
संस्कृत आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी है। उनका अधिकांश शब्दकोश और अभिव्यक्ति का ढंग संस्कृत की देन है।
♦ दक्षिण- पूर्वी एशिया में भारतीय उपनिवेश और संस्कृति
भारत ने अपने व्यापार और संस्कृति का प्रचार-प्रसार अपनी सीमाओं से बाहर दक्षिण-पूर्वी एशिया तक किया, जिसे वृहत्तर भारत कहा जाता है। इसका उल्लेख भारतीय पुस्तकों, अरब यात्रियों के वृत्तांतों, और चीन के ऐतिहासिक विवरणों में मिलता है। जावा और बाली जैसे क्षेत्रों में भारतीय महाकाव्यों और पुराकथाओं का अनुवाद हुआ और भव्य इमारतों के खंडहर इसका प्रमाण हैं।
पहली शताब्दी ईसा के आसपास, उपनिवेशीकरण की चार लहरें आईं। उपनिवेश महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों और स्थानों पर बनाए गए। इनका नाम भारतीय नामों पर रखा गया, जैसे- कंबोडिया (कंबोज) और जावा (जौ के टापू)। इन क्षेत्रों में व्यापार बढ़ने के साथ धर्म का भी प्रचार हुआ।
संस्कृत और यूनानी साहित्य से भारत और सुदूर देशों के बीच नियमित समुद्री व्यापार का पता चलता है। जहाज निर्माण में भारत बहुत उन्नत था। दक्षिण भारतीय सिक्कों पर जहाजों के चित्र भी मिलते हैं। चीन का प्रभाव महाद्वीपीय क्षेत्रों पर और भारत की छाप मलय प्रायद्वीप व टापुओं पर अधिक दिखती है।
भारतीय उपनिवेशों का इतिहास पहली शताब्दी से पंद्रहवीं शताब्दी तक लगभग 1300 वर्षों का है। इस दौरान भारत ने व्यापार, धर्म और संस्कृति का दूर-दूर तक प्रसार किया।
♦ विदेशों पर भारतीय कला का प्रभाव
भारतीय कला और संस्कृति का गहरा प्रभाव दक्षिण-पूर्वी एशिया पर पड़ा। चंपा, अंगकोर, श्रीविजय, भज्जापहित जैसे संस्कृत अध्ययन केंद्र भारतीय कला से प्रभावित थे। यहाँ के शासकों के नाम, राजकीय समारोह और कर्मचारियों की पदवियाँ संस्कृत पर आधारित थीं। थाईलैंड, मलाया, जावा और बाली में भारतीय नृत्य, साहित्य और हिंदू धर्म का प्रभाव आज भी देखा जा सकता है।
कंबोडिया की वर्णमाला, कानून, और वास्तुकला में भारतीय छाप स्पष्ट है। भव्य मंदिरों में पत्थरों पर उत्कीर्ण बुद्ध, विष्णु, राम और कृष्ण की कथाएँ अंकित हैं।
भारतीय कला में हमेशा धार्मिक प्रेरणा और गहरा अर्थ होता है। भारतीय मूर्तिकला और स्थापत्य विश्व प्रसिद्ध हैं, जबकि चीन और जापान अपनी चित्रकला के लिए जाने जाते हैं। गुप्तकाल में बनी अजंता की गुफाएँ, एलोरा के कैलाश मंदिर, और एलीफेंटा की त्रिमूर्ति भारतीय कला के अद्भुत उदाहरण हैं।
भारतीय संगीत ने भी चीन और एशियाई संगीत को प्रभावित किया। बोरोबुदुर के बोधिसत्व की मूर्ति और नटराज शिव की मूर्ति भारतीय कला की गहराई और सौंदर्य का प्रमाण हैं। भारतीय कला ने धार्मिकता और सौंदर्य को आत्मा से जोड़कर पूरी दुनिया को प्रेरित किया।
♦ भारत का विदेशी व्यापार
ईसवी सन के पहले एक हज़ार वर्षों में भारतीय व्यापार की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। भारत का व्यापार पूर्वी समुद्र देशों और भूमध्य सागर तक फैल गया था। भारत का कपड़ा उद्योग बहुत विकसित था, और यहाँ का कपड़ा तथा रेशमी वस्त्र दूर देशों में निर्यात होता था। हालांकि, अच्छी गुणवत्ता वाला रेशम चीन से आयात किया जाता था। कपड़ों की रंगाई में नील (इंडिगो) जैसे पक्के रंग विकसित किए गए थे।
भारत का रसायनशास्त्र भी उन्नत था। भारतीय फौलाद और लोहे की विदेशों में माँग थी, विशेष रूप से युद्ध सामग्री बनाने के लिए। औषध विज्ञान विकसित था, और रक्त संचार का ज्ञान भारतीयों को पश्चिमी वैज्ञानिक हार्वे से पहले था।
प्राचीन खगोलशास्त्र भारतीय शिक्षा का हिस्सा था। ज्योतिष की मदद से पंचांग तैयार किए जाते थे, और समुद्री यात्रा में खगोलशास्त्र का उपयोग होता था। भारत में जहाज निर्माण का उद्योग भी अत्यधिक उन्नत था। युद्ध में उपयोग होने वाली मशीनों का उल्लेख भी मिलता है। भारत ने अपने ज्ञान और व्यापार के बल पर विश्व की कई मंडियों पर प्रभाव कायम किया।
♦ प्राचीन भारत में गणितशास्त्र
आधुनिक अंकगणित और बीजगणित की शुरुआत भारत में हुई। भारतीय संख्याओं के अंक और दशमलव प्रणाली अद्वितीय थे। शून्य का आविष्कार भारत की सबसे बड़ी देन है, जो पहले एक बिंदी के रूप में था और बाद में इसका उपयोग स्थान-मूल्य प्रणाली में हुआ।
भारत में ज्यामिति, अंकगणित और बीजगणित का विकास वैदिक काल में ही हो गया था। ज्यामिति का उपयोग वैदिक वेदियों की आकृति बनाने में होता था। यूनान और सिकंदरिया ज्यामिति में आगे बढ़े, लेकिन अंकगणित और बीजगणित में भारत अग्रणी रहा।
भारतीय गणितज्ञों जैसे आर्यभट्ट (427 ई.), भास्कर प्रथम (522 ई.), ब्रह्मगुप्त (628 ई.) और भास्कर द्वितीय (1114 ई.) ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। भास्कर द्वितीय की पुस्तक 'लीलावती' सरल भाषा में लिखी गई और बहुत प्रसिद्ध हुई।
आठवीं शताब्दी में भारतीय विद्वान गणित और खगोलशास्त्र की पुस्तकें लेकर बगदाद गए, जहाँ भारतीय अंक और दशमलव प्रणाली लोकप्रिय हुई। अरबी अनुवादों के माध्यम से यह ज्ञान यूरोप पहुँचा। भारतीय गणित का उपयोग 1134 में सिसली के एक सिक्के पर और 1490 में ब्रिटेन में हुआ। भारतीय गणित ने वैश्विक गणितीय प्रगति में बड़ा योगदान दिया।
♦ विकास और ह्रास
ईसवी सन के पहले हज़ार वर्षों में, आक्रमणों और झगड़ों के बावजूद, भारत ने ईरान, चीन, यूनान और मध्य एशिया से संबंध बनाए रखा। इसे भारत का स्वर्ण युग माना गया। लेकिन उत्तर-पश्चिम से आए हूणों ने आधी शताब्दी तक उत्तर भारत पर शासन किया। गुप्त वंश के अंतिम शासकों ने हूणों को बाहर निकाला, लेकिन इस संघर्ष में भारत राजनीतिक और सैनिक रूप से कमजोर हो गया।
सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन ने उज्जयिनी को कला और संस्कृति का केंद्र बनाया। नवीं शताब्दी में मिहिरभोज ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया, और ग्यारहवीं शताब्दी में भोज ने उज्जयिनी को पुनः प्रमुख बनाया। हालांकि, इस काल के बाद भारत रचनात्मक और राजनीतिक रूप से कमजोर हो गया। दक्षिण भारत आक्रमणों से बचा रहा, और कई लेखक, कलाकार, और शिल्पकार वहाँ बस गए।
उत्तर भारत में बनारस धार्मिक और दार्शनिक विचारों का केंद्र था। नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी और अमरावती विश्वविद्यालयों ने शिक्षा और ज्ञान को बढ़ावा दिया। लेकिन आठवीं शताब्दी के बाद कोई बड़ा दार्शनिक नहीं हुआ, और साहित्य तथा कला में गिरावट शुरू हो गई।
जाति-प्रथा और सामाजिक कट्टरता ने भारतीय समाज को बाँध दिया, जिससे रचनात्मकता और विकास रुक गया। ऊँची जातियाँ नीची जातियों को शिक्षा और विकास से वंचित रखती थीं। इस सामाजिक ढाँचे ने भारत को स्थिरता तो दी, लेकिन समाज के बड़े वर्ग को निचले स्तर पर बनाए रखा।
इसके बावजूद, भारत की दृढ़ता, लचीलापन, और आत्मसुधार की क्षमता ने इसे बार-बार संभालने का मौका दिया। भारत का पतन धीरे-धीरे हुआ, लेकिन इसकी जीवनी शक्ति और खुद को ढालने की क्षमता ने इसे हर संकट से उबरने में मदद की।
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