1. यह दंतुरित मुसकान
(i) तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात...
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेपफालिका के पूफल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
शब्दार्थ: दंतुरित = बच्चों के छोटे-छोटे नए-नए दाँतों से युक्त, धूलि-धूसर = धूल-मिट्टी से सना, गात = शरीर, तन, जलजात = कमल का फूल, परस = स्पर्श, पाषाण = पत्थर, शेपफालिका = एक विशेष फूल, अनिमेष = अपलक, बिना पलक झपकाए लगातार देखना।
व्याख्या: अपने शिशु पुत्र को संबोधित करते हुए कवि कहते हैं कि छोटे-छोटे दाँतों से सुशोभित तुम्हारा यह मुखड़ा और तुम्हारी निश्छल मुसकान इतनी मनमोहक और सुंदर है कि वह निर्जीव व्यक्ति में भी प्राण फूँक देगी। कवि कहना चाहते हैं कि इस दंतुरित मुसकान को देखकर मानो मृतक भी जी उठेगा। कवि इतने भावुक हो उठते हैं कि धूल-मिट्टी से सने उसके कोमल शरीर को देखकर उन्हें कमल की प्रतीति हो रही है। वे अचानक कह उठते हैं कि तालाब को छोड़कर कमल मानो मेरी झोंपड़ी में पुत्र के रूप में खिल रहा है और तुम्हारे कोमल स्पर्श को पाकर पत्थर भी पिघलकर मानो जल बन गया है। कवि कहना चाहते हैं कि तुम्हारे सुदंर मुख को देख कर और कोमल स्पर्श को पाकर भला किस पत्थर-हृदय मनुष्य का दिल न पिघलेगा! कवि का मन बाँस और बबूल की भाँति नीरस, शुष्क, ठूँठ जैसा हो गया था। वे घर छोड़कर संन्यासी बन गए थे और इधर-उधर घूम रहे थे, किंतु घर पर सुखद आश्चर्य के रूप में उनका शिशु पुत्र अपनी मोहक दंतुरित मुसकान के साथ उन्हें लगातार देखे जा रहा था। उसका कोमल स्पर्श पाकर कवि का ठूँठ जैसा पाषाण हृदय भी शेफालिका के फूलों की भाँति झरने लगा। उनके हृदय में वात्सल्य रस की धार बह निकली। अनायास ही वे अपने पुत्र से कहते हैं कि तुमने आज से पूर्व मुझे कभी देखा ही नहीं, इसलिए शायद तुम मुझे पहचान नहीं पा रहे हो। लेकिन इस प्रकार एकटक देखते रहने से तुम थक गए होगे। कवि भी लगातार उसे देख रहे थे, किंतु अपने शिशुपुत्र को थकान से उबारने के लिए वे अपनी आँखें फेर लेने का प्रस्ताव रखते हैं। वे कहते हैं कि अगर मैं अपनी दृष्टि घुमा लूँगा तो तुम भी आसानी से अपनी नशर घुमा लोगे और एकटक देखते रहने के श्रम से बच जाओगे।
विशेष
1. प्रस्तुत काव्यांश के प्रत्येक शब्द में कवि का ममत्व झलक रहा है।
2. भाषा सरल खड़ी बोली है, किंतु पाषाण, जलजात, शेफालिका जैसे तत्सम शब्दों का भी कवि ने सुंदर प्रयोग किया है। ‘धूल-धूसरित’ में अनुप्रास अलंकार है।
3. शिशु के धूल-धूसरित गात में ‘जलजात’ का आरोप किया गया है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है।
4. ‘तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान, मृतक में भी डाल देगी जान’ में अतिशयोक्ति अलंकार है।
5. ‘परस पाकर तुम्हारा ही प्राण, पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण’ इसमें उत्प्रेक्षा अलंकार है।
6. बाँस या बबूल के समान नीरस शुष्क ठूँठ रूपी कवि- हृदय में शेफालिका के झरने की कल्पना कवि के अंतर की सुखानुभूति को स्पष्ट करती है।
7. आँख पेफर लेना - मुहावरेदार भाषा का सुंदर प्रयोग।
2. क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्वफ
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्वफ
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!
शब्दार्थ: परिचित = जिससे जान-पहचान हो, माध्यम = मध्य का, साधन, जिसके द्वारा कोई कार्य या उद्देश्य संपन्न हो। चिर प्रवासी = बहुत दिनों तक कहीं और रहने वाला, इतर = अन्य, दूसरा, संपर्वफ = संबंध, मधुपर्वफ = दही, घी, शहद, जल और दूध के मिश्रण से बना भगवान को भोग के रूप में चढ़ाया जाने वाला प्रसाद, जिसे अतिथियों में भी बाँटा जाता है। लोग इसे पंचामृत भी कहते हैं, कविता में इसका प्रयोग बच्चे को जीवन देने वाला आत्मीयता की मिठास से युक्त माँ के प्यार के रूप में हुआ है, कनखी = तिरछी निगाह से देखना, छविमान= सुंदर, आँखें चार होना = परस्पर देखना।
व्याख्या: शिशु अपनी दंतुरित मुसकान के साथ एकटक अपने पिता की ओर देख रहा है, किंतु अबोध बालक अपने पिता को नहीं पहचानता। आज प्रथम बार वह उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो रहा है। कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उसकी आँखों में जिज्ञासा है, पहचानने की चेष्टा व व्याकुलता है। कवि उसे संबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे बेटे! यदि पहली बार देखकर मुझे पहचान न सके तो कोई बात नहीं। मैं ही कभी तुम्हारे सामने न आया तो भला तुम मुझे केसे पहचानोगे? अगर तुम्हारी माँ न होतीं तो आज तुम्हें मैं देख भी नहीं पाता। मैं घर पर नहीं रहा। आज अतिथि जैसे मुझे देखकर शायद तुम मेरा परिचय पाना चाहते हो। तुमसे मेरा क्या संबंध है, यह तुम नहीं जानते किंतु तुम धन्य हो और तुम्हारी माँ भी धन्य हैं, जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया और अब तक तुम्हारी देखभाल की। मैं ही गैर जैसा घर से बाहर इधर-उधर भटकता रहा। तुम्हारे साथ तुम्हारी माँ का स्नेह-संपर्वफ सदा बना रहा क्योंकि उन्होंने अपने हाथों से तुम्हें सदा खिलाया-पिलाया, कवि इसमें अपनी पत्नी का आभार मानते हैं।
कवि अपने पुत्र से कहते हैं कि मेरी तरपफ देखते हुए जब-जब हम दोनों की निगाहें मिल जाती हैं तब-तब तुम मुसकरा देते हो और तुम्हारे छोटे-छोटे नए दाँत मुझे बरबस आकर्षित कर लेते हैं। तुम्हारी वह मुसकान मुझे इतनी सुंदर लगती है कि मैं उस दिव्य शोभा का वर्णन नहीं कर सकता।
कवि भावावेग में अपना हृदय खोलकर रख देते हैं। शिशु के प्रति पिता के कर्तव्य और दायित्व का यथोचित पालन न कर पाने का दुख उन्हें विह्वल कर देता है। अतः अपने आपको केवल अतिथि जैसा उल्लेख करते हैं। और इतर, अन्य कहकर अपने मन का क्षोभ व्यक्त करते हैं।
विशेष
1. सहज-सरल खड़ीबोली में कवि ने अपने मनोभावों का सजीव चित्राण किया है।
2. ‘उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क’ पंक्ति ने माँ के वात्सल्य, कर्तव्यबोध और गरिमा की अभिव्यक्ति की।
3. ‘कनखी मार देखना’ और ‘आँखें चार होना’ आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
4. ‘मैं इतर, मैं अन्य’ कहकर कवि ने अपने मन की हीन भावना और क्षोभ को व्यक्त किया है। शायद इस समय उन्हें चिर-प्रवासी होने का दुख साल रहा है।
5. पत्नी और पुत्र के प्रति उनके मन में अपार कृतज्ञता का भाव है।
6. शिशु की दंतुरित मुसकान का सहज, स्वाभाविक वर्णन कविता को अतुलनीय बना देता है।
1. एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हशार-हशार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म :
शब्दार्थ: कोटि-कोटि = करोड़ों, स्पर्श = छूना, संपर्क, गरिमा = गौरव।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि फसल उगाने के लिए बीज, मिट्टी, पानी, हवा, सूरज की किरणों आदि की आवश्यकता होती है। ये सब तो प्राकृतिक तत्व हैं। इनके अतिरिक्त किसानों का अथक परिश्रम भी आवश्यक है। इसलिए कवि कहते हैं एक या दो व्यक्ति के हाथों के नहीं अपितु लाखों-करोड़ों यानी असंख्य लोगों के हाथों के स्पर्श से फसल उगती है, बढ़ती है और लहलहाती है। कवि कहते हैं कि किसान लाख यत्न से बीज मिट्टी में बो दें, किंतु यदि उसमें पानी का छिड़काव न हो तो बीज पनप ही नहीं सकता। इसलिए बीज कु उगने में आरै फसल तैयार होने में पानी एक अत्यावश्यक तत्व है। कवि ने यहाँ कहा है कि किसी एक या दो नदियों का पानी नहीं बल्कि ढेर सारी नदियों के पानी का जादू इसमें होता है। इसका तात्पर्य यह है कि अनगिनत नदियों का पानी भाप बनकर उड़ जाता है जो फिर बादल बनकर धरती पर बरसता है। भीषण गर्मी से तपती धरती को, झुलसते पेड़-पौधों को, समग्र प्राणिजगत को यही पानी नया जीवन दान देता है। इसलिए पानी जब बरसता है तो फसल लहलहाने लगती है। अब कवि मिट्टी के गुण-धर्म की बात करते हैं। अलग-अलग मिट्टी की अलग-अलग विशेषता होती है। सभी मिट्टियाँ एक समान नहीं होतीं। उनके रूप, गुण, वैशिष्ट्य सब अलग-अलग होते हैं और इस प्रकार अलग-अलग गुण-धर्म वाली मिट्टी में अलग-अलग प्रकार की पैदावार होती है। संक्षेप में, लाल, काली, भूरी, पीली, चिकनी या रेतीली मिट्टी में अलग-अलग प्रकार की फसल उगती है।
विशेष
1. प्रस्तुत काव्यांश की भाषा सरल खड़ी बोली है और इसमें स्पर्श, गरिमा और कोटि-कोटि जैसे तत्सम शब्दों का पुट है।
2. लाख-लाख, कोटि-कोटि, हशार-हशार में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
3. ‘एक के नहीं, दो के नहीं’- इन पदों की बार-बार आवृत्ति से कविता में एक विशेष प्रभाव उत्पन्न हो गया है।
प्राकृतिक तत्वों और मनुष्य के परिश्रम के सहयोग से ही फसल रूपी सृजन संभव है कवि यह बताना चाहते हैं।
2. फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!
शब्दार्थ: महिमा = महत्ता, रूपांतर = परिवर्तित रूप, बदला हुआ रूप, सिमटा हुआ संकोच = सिमटकर मंद हो गया, थिरकन = नाच, गति।
व्याख्या: खेतों में लहलहाती फसल को देखकर कवि पूछते हैं कि आखिर यह फसल है क्या? अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं देते हुए वे कहते हैं कि फसल बहुत सारी चीज़ों का सम्मिलित रूप है, जैसे कि नदियों के पानी का जादू, किसानों के मेहनती हाथों की महिमा, विभिन्न प्रकार की मिट्टी का गुण-धर्म, सूर्य की किरणों और वायु की मंद गति का प्रभाव, कहने का तात्पर्य यह है उपर्युक्त इन सब चीजों का समुचित योगदान न होने से फसल कभी पककर तैयार नहीं हो सकती। विभिन्न प्रकार की फसलों के लिए विभिन्न रूप और गुण वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है। जैसे-धन की फसल के लिए चिकनी मिट्टी, गेहूँ के लिए दोमट उपजाउ मिट्टी, कपास के लिए काली मिट्टी और चाय के लिए पहाड़ी ढलान की आवश्यकता होती है। लाख यत्न से उपयुक्त मिट्टी में बीेज बोने पर भी यदि उसकी समुचित सिंचाई न हो तो बीज पनप हीं सकते। अतः मिट्टी के साथ-साथ नदियों के पानी और किसानों की अथक मेहनत की भी आवश्यकता है। ‘नदियों के पानी का जादू’ का तात्पर्य यह है कि किसी एक या दो नदियों का पानी नहीं, बल्कि छोटी-बड़ी ढेर सारी नदियों का पानी भाप बनकर उड़ जाता है जो आगे बादल बनकर प्यासी ध्रती पर बरसता है और समस्त प्राणिजगत तथा वनस्पतिजगत को नया जीवनदान देता है। इसीलिए कवि फसल के साथ पानी के जादू की बात कहते हैं। आगे कवि कहते हैं कि सूरज की धूप और प्रकाश में पौधे अपना भोजन तैयार करते हैं और व्रफमशः फलते-फूलते हैं। पर्याप्त धूप से फसल पककर तैयार होती है। साथ ही मंद-मंद बहती हवा फसल को तैयार होने में सहायता पहुँचाती है, वरना तेश हवा के झोंकों से फसल को नुकसान पहुँच सकता है। इस प्रकार इन सबके सम्मिलित योगदान से फसल तैयार होती है।
विशेष
1. प्रस्तुत काव्यांश की भाषा सरल खड़ी बोली है, जिसमें स्पर्श, महिमा, रूपांतर, संकोच आदि तत्सम शब्दों का समुचित प्रयोग हुआ है।
2. प्राकृतिक उपादानों के साथ-साथ फसल तैयार होने में मानव-श्रम की भी आवश्यकता है-इस बात को कवि कहना चाहते हैं।
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1. "यह दंतुरित मुस्कान" का मुख्य विषय क्या है ? |
2. पाठ "फसल" में किस प्रकार की फसल का वर्णन किया गया है ? |
3. "क्षितिज II" का अर्थ क्या है और यह पाठ में कैसे जुड़ा है ? |
4. कक्षा 10 के इस पाठ का भावार्थ क्या है ? |
5. "यह दंतुरित मुस्कान" और "फसल" पाठ के बीच क्या संबंध है ? |
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