1.
कंपनी बाग के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले
कंपनी बाग की तरह
साल में चमकाई जाती है दो बार।
सुबह-शाम कंपनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिए थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के धज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके उपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
खास कर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद।
शब्दार्थ: मुहाने पर = प्रवेश द्वार पर, धर = रख-रखी गई, सम्हाल = देखभाल, विरासत = पूर्वजों से प्राप्त संपत्ति या वस्तुएँ, सैलानी = यात्री, जबर = शक्तिशाली, सूरमाओं = वीरों, ज़माने = समय, युग, फ़ारिग = मुक्त, अकसर = हमेशा, धज्जे = नष्ट-भ्रष्ट करना, कंपनी बाग = गुलाम भारत में ईस्ट इंडिया कुपनी द्वारा जगह-जगह पर बनवाए गए बाग-बगीचों में से कानपुर में बनवाया गया एक बाग।
व्याख्या: कवि कहते हैं कि कुपनी बाग के प्रवेश द्वार पर 1857 के स्वतंत्राता संग्राम में प्रयोग में लाई गई तोप रखी हुई है। कुपनी बाग हमें अंग्रेजों से विरासत के रूप में प्राप्त हुआ था। उसी प्रकार यह तोप भी हमें विरासत के रूप में प्राप्त हुई है। इस तोप को अत्यधिक देखभाल के साथ रखा गया है। जिस प्रकार कुपनी बाग को चमकाया जाता है अर्थात उसकी सफाई का ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार साल में दो बार इस तोप को भी चमकाया जाता है। सुबह-शाम सैलानी कुपनी बाग में भ्रमण करने आते हैं। यह तोप उन सैलानियों को अपना परिचय देते हुए कहती है कि मैं बड़ी शक्तिशाली हूँ। मैंने अच्छे-अच्छे शूरवीरों की धज्जियाँ उड़ा दीं। उस समय मैंने युद्धक्षेत्र में अनेक वीरों को मौत के घाट उतार दिया था। अब तो मैं दुखी हालत में खड़ी हूँ। अब मुझ पर छोटे-छोटे बच्चे घुड़सवारी का खेल खेलते हैं। जब वे मुझ पर खेलकर उतर जाते हैं, तब चिड़ियाँ मुझ पर आकर बैठ जाती हैं और आपस में गपशप करती हैं। जब कभी उनके मन में शैतानी करने का ख्याल आ जाता है, तब वे तोप के अंदर घुस जाती हैं, खासकर गौरैये। तोप आगे कहती है कि कोई कितना ही बड़ा तथा शक्तिशाली क्यों न हो, परंतु एक दिन तो उसका मुँह अवश्य बंद हो जाता है जैसे आज वह चुपचाप खड़ी है।
भाव यह है कि अत्याचार की भी एक सीमा होती है। एक न एक दिन तो अत्याचारी को अपना अत्याचार बंद करना ही पड़ता है।
काव्य-सौंदर्य:
भाव पक्ष:
1. कवि के अनुसार अत्याचारी को कभी न कभी तो शांत होना ही पड़ता है।
2. शक्तिशाली का अंत भी एक न एक दिन शरूर होता है।
कला पक्ष:
1. भाषा सहज सरल है।
2. भाषा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
3. अच्छे-अच्छे, कभी-कभी में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4. छंद मुक्त कविता है।
5. चित्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
कवि परिचय
वीरेन डंगवाल
इनका जन्म 5 अगस्त 1947 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले के कृतिनगर में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल में और उच्च शिक्षा इलाहाबाद में हुई। इन्होने ऐसी बहुत सी चीज़ों और जीव-जंतुओं को अपनी कविता को आधार बनाया।
प्रमुख कार्य
कविता संग्रह – इसी दुनिया में और दुष्चक्र में स्रष्टा।
पुरस्कार – श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार।
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