निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न. 1. पर्वत प्रदेश में वर्षा ऋतु में प्राकृतिक सौन्दर्य कई गुना बढ़ जाता है, परन्तु पहाड़ों पर रहने वाले लोगों के दैनिक जीवन में क्या कठिनाइयाँ उत्पन्न होती होंगी? उनके विषय में लिखिए।
उत्तर:
व्याख्यात्मक हल:
पर्वतीय प्रदेशों में वर्षा ऋतु में प्राकृतिक सौन्दर्य तो कई गुना बढ़ जाता है, परन्तु इस ऋतु में पहाड़ों पर जीवन व्यतीत करने वाले लोगों के लिए कई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं जैसे वर्षा के कारण पहाड़ों की भूमि फिसलन भरी हो जाती है जिसके कारण पहाड़ों से फिसलकर गिरने का खतरा बढ़ जाता है। साथ ही चट्टानों का अपक्षय होने लगता है वह टूटकर गिरने लगती है। कभी-कभी बड़े-बड़े चट्टानी टुकड़े गिरते हैं जिनसे जान-माल का बहुत नुकसान होता है। वर्षा के कारण पहाड़ों की मिट्टी फैलने लगती है। कभी-कभी बादल फटने से भयंकर बाढ़ तक आ जाती है। जंगलों में कीचड़ व दलदल बन जाती है जिसका अंदाजा लगाना मुश्किल होता है।
प्रश्न. 2. ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ कविता का प्रतिपाद्य लिखिए।
उत्तर: प्रस्तुत कविता ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित है। इस कविता में कवि ने पर्वतीय प्रदेश में वर्षाकाल में क्षण-क्षण होने वाले परिवर्तनों व अलौकिक दृश्यों का बड़ा सजीव चित्रण किया है। कवि कहता है कि महाकार पर्वत मानो अपने ही विशाल रूप को अपने चरणों में स्थित बड़े-बड़े तालाबों में अपने हजारों सुमनरूपी नेत्रों से निहार रहे हैं। बहते हुए झरने दर्शकों की नस-नस में उमंग व उल्लास भर रहे हैं। पर्वतों के सीनों को फाड़कर उच्चाकांक्षाओं से युक्त ऊँचे-ऊँचे वृक्ष मानो बाहर आए हैं और अपलक व शान्त आकाश को निहार रहे हैं। फिर अचानक ही पर्वत मानो बादल रूपी यान के परों को फड़फड़ाते हुए उड़ गए हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी मालूम होता है कि मानो धरती पर आकाश टूट पड़ा हो और उसके भय से विशाल साल के पेड़ जमीन में धँस गए हों। तालों से उठती भाप ऐसी जान पड़ती है, मानो उनमें आग-सी लग गई हो और धुआँ उठ रहा हो और साल के पेड़ इससे भी भयभीत हों। कवि कहता है कि यह सब देखकर लगता है कि जैसे इन्द्र ही अपने इन्द्रजाल से खेल रहा है।
प्रश्न. 3. ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ कविता में झरने पर्वत का गौरव-गान कैसे करते हैं ?
उत्तर: ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ कविता में बताया गया है कि जब पहाड़ों पर वर्षा ऋतु में बादल बरसते हैं तब पर्वतों से प्रवाहित होने वाले झरने पर्वतों का गौरवगान करते हुए पृथ्वी पर झर-झर गिरते हैं और नस-नस में उत्तेजना भर देते हैं। झरते हुए झरने झाग भरे हुए होते हैं। वे मोती की माला जैसे लड़ियों की तरह सुन्दर दिखाई देते हैं और ऐसा लगता है कि पहाड़ों से चाँदी का भण्डार सफेद धातु के रूप में गिर रहा है। पहाड़ों के हृदय से उठकर ऊँची आकांक्षाओं वाले वृक्ष आकाश की ओर शान्त भाव से टकटकी लगाकर देख रहे हैं। इस प्रकार झरने पहाड़ों की शोभा को बढ़ाते हैं।
प्रश्न. 4. सिद्ध कीजिए:पंतजी कल्पना के सुकुमार कवि हैं ?
उत्तर: पंतजी कल्पना-लोक के कवि थे। उनकी कल्पनाएँ अत्यंत मनोरम हैं। उन्होंने इस कविता में भी प्रकृति को मानव की तरह क्रिया करते दिखाया है। उन्होंने पहाड़ को अपनी शक्ल निहारता, पेड़ को उच्चाकांक्षा-सा चिंतन-मुद्रा में खड़ा, झरने को गौरव गाथा गाता हुआ, शाल के वृक्षों को भय से धँसा हुआ, बादलों को पारे के समान चमकीले पंख, फड़-फड़ाकर उड़ता हुआ और आक्रमण करता हुआ दिखाया है। ये सब कल्पनाएँ गतिशील, मौलिक एवं नवीन हैं।
प्रश्न. 5. ‘पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश’ की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
उत्तर: सचमुच वर्षा-ऋतु में पहाड़ों पर पल-पल दृश्य बदल रहे हैं। कभी तालाब के जल में पहाड़ों का प्रतिबिंब दिखाई देता है, तो कभी तालाब में धुँआ उठने लगता है। कभी पहाड़ों पर खड़े लम्बे वृक्ष शांत आकाश की ओर अपलक देखते प्रतीत होते हैं तो कभी वे भयभीत से धरती में धँसे नजर आते हैं। झरने कभी झर-झर का संगीत करते हुए मोती की लड़ी से सुन्दर लगते हैं, तो कभी वे अद्रश्य हो जाते हैं। इस प्रकार प्रकृति सचमुच पल-पल अपना रूप बदलती है।
प्रश्न. 6. पंतजी द्वारा रचित ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ नामक कविता का सारांश लिखिए।
उत्तर: इस कविता में पंतजी ने पर्वतीय प्रदेश में वर्षा ऋतु का वर्णन किया है। इस कविता का सार इस प्रकार है- पर्वतीय प्रदेश था। वर्षा ऋतु में प्रकृति पल-पल अपना रूप बदल रही थी। पर्वत के नीचे दर्पण जैसा तालाब था। पर्वत पर हजारों फूल खिले थे। लगता था कि वे फूल पर्वत की आँखें हों जिनसे वह बार-बार दर्पण में अपना विराट रूप देख रहा था। पर्वत से गिरने वाले झरने झर-झर स्वर में मानो पर्वत की गौरव गाथा गा रहे थे। चोटियों पर खड़े पेड़ हमारी महत्त्वाकांक्षाओं के समान ऊँचे थे। वह मानो चुपचाप अपलक और चिन्तामग्न होकर नीले आकाश को निहारे जा रहे थे। अचानक बादल ऐसे ऊपर उठे मानो पूरा पहाड़ अपने पंख फड़-फड़ाकर उड़ चला हो। झरने दिखना बंद हो गए। उनका शोर-शोर रह गया। बादलों के कारण शाल के पेड़ धरती में धँसे हुए से जान पड़ते थे। तालाब से उठता धुआँ देखकर लगता था मानो तालाब जल गया हो। इस प्रकार इंद्र देवता घूम-घूमकर अपना इंद्रजाल दिखा रहे थे।
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