चेन्नई नगर के समुद्रतट पर महाकवि तिरुवल्लुवर की प्रतिमा है। इन्होंने तिरुक्कुरल् नामक एक पावन ग्रन्थ की रचना की है। इसमें सूक्तियों का संग्रह है। प्रस्तुत पाठ में इसी ग्रन्थ से सूक्तियों का संकलन किया गया है। पाठ का सार इस प्रकार है-
पिता पुत्र को विद्या रूपी महान् धन देता है। इसके लिए पिता अत्यधिक तपस्या करता है। यह पुत्र पर पिता का ऋण है। जैसी सरलता मन में है, वैसी सरलता यदि वाणी में भी हो तो महापुरुष इस स्थिति को समत्व कहते हैं।जो धर्मनिष्ठ वाणी को छोड़कर कठोर वाणी बोलता है, वह मूर्ख पके फल को छोड़कर कच्चे फल का सेवन करता है।
इस संसार में विद्वान् व्यक्ति ही वास्तविक नेत्रों वाले कहे जाते हैं। भौतिक आँखें तो नाममात्र के नेत्र हैं।
जो मन्त्री बोलने में चतुर, धीर तथा सभा में निडर होकर मन्त्रणा देने वाला है, वह शत्रुओं के द्वारा किसी प्रकार से पराजित नहीं होता है। जो व्यक्ति अपना कल्याण तथा अनेक सुखों की कामना करता है, वह अन्य व्यक्तियों के लिए कदापि अहितकर कार्य न करे। सदाचार प्रथम धर्म कहा गया है। अतः प्राण देकर भी सदाचार की रक्षा विशेष रूप से करनी चाहिए। जिस किसी के द्वारा जो कुछ भी कहा गया है, उसके वास्तविक अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा किया जा सकता है, वह ही ‘विवेक’ कहलाता है।
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