प्रश्न 1: लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है?
लेखक के अनुसार जिस प्रकार प्रजापति दुनिया की रचना अपनी इच्छा के अनुसार करता है, वैसे ही कवि भी दुनिया को अपने अनुसार बदल देता है। उसके अनुसार दुनिया को बदलने की शक्ति प्रजापति और कवि दोनों में होती है। यही कारण है कि लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से की है। जैसे प्रजापति कभी भी दुनिया को बदल देता है, वैसे ही कवि अपनी रचनाओं के दम पर समाज की सड़ी-गली परंपराओं को बदलने व उखाड़ने की शक्ति रखता है। उसमें रचनात्मक शक्ति होती है, जो कलम के माध्यम से शब्दों में और शब्दों के माध्यम से लोगों की सोच में आकार पाती है और सबकुछ बदल देती है।
प्रश्न 2: 'साहित्य समाज का दर्पण है' इस प्रचलित धारणा के विरोध में लेखक ने क्या तर्क दिए हैं?
'साहित्य समाज का दर्पण है' इस प्रचलति धारणा के विरोध में ये तर्क दिए हैं-
(क) साहित्य में यदि ताकत होती तो संसार को बदलने की सोच तक न उठती।
(ख) ट्रेजडी को दिखाते समय मनुष्य को असल ट्रेजडी से कुछ अधिक दिखाया जाता है। यही बात इसका खण्ड करती है।
(ग) कवि अपनी रुचि के अनुसार संसार को बदलता रहता है। अतः ऐसा साहित्य समाज का दर्पण नहीं हो सकता है। जहाँ पर कवि की रुचिता चले। संसार किसी की रुचिता नहीं है।
(घ) जब कोई समाज के व्यवहार से असंतुष्ट होता है, तब वह संसार को बदलता या नए संसार की कल्पना करता है। अतः इस भावना से बना साहित्य समाज का दर्पण कैसे हो सकता है।
प्रश्न 3: दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में दिखाने के पीछे कवि का क्या उद्देश्य है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
प्रायः दुर्लभ गुणों का समावेश एक ही व्यक्ति में होना असंभव होता है। ऐसा व्यक्ति ढूँढकर भी नहीं मिलता। कवि के अंदर ऐसी क्षमता होती है कि वह ऐसे दुर्लभ गुणों से युक्त पात्र का निर्माण कर सकता है। यह मात्र मनोरंजन के लिए नहीं होता है। इसके पीछे खास उद्देश्य होता है। वह उद्देश्य है, दिशाहीन मनुष्य को दिशा दिखाना। प्रायः कुछ गुण मनुष्य में जन्मजात होते हैं और कुछ गुणों का समावेश करवाया जाता है। अतः जब हम ऐसे पात्रों की रचना करते हैं, जिसमें दुर्लभ गुणों का समावेश होता है तो हमारा उद्देश्य समाज के आगे आदर्श पात्र रखना है। यह समाज में लोगों का आदर्श बन जाता है। यही आदर्श लोगों में दुर्लभ गुणों का विकास कर सकता है। कवि ने राम की कल्पना की तो उसका उद्देश्य था हर घर में राम जैसे गुणों वाली संतान, पति, मित्र तथा मनुष्य हो। इस तरह समाज में दुर्गुणों को समाप्त करके आदर्श स्थापित करने का प्रयास किया जाता है और समाज में व्याप्त रावण को समाप्त कर दिया जाता है।
प्रश्न 4: ''साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है। वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।'' स्पष्ट कीजिए।
साहित्य की रचना के पीछे एक नहीं अनेक कारण हैं। वह थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति के साथ-साथ आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है। समाज को नई दिशा देना, थके हारे मनुष्य को नई राह देना, मन को शांति प्रदान करना, उदासी को प्रसन्नता में बदल देना, सड़ी-गली परंपराओं के स्थान पर नई परंपराओं को मार्ग देना तथा मनुष्य में पुनः उत्साह का संचार करना है। इसका कार्य ही है मनुष्य को जीने की अनेक राहें उपलब्ध करवाना। वह ऐसा मार्गदर्शक बन जाता है, जो जीवन की सभी विसंगति को भुलाकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। यही कारण है कि साहित्य में उसे अपने जीवन की झलक ही नहीं मिलती बल्कि जीवन में आने वाली मुसीबतों से निकलने की प्रेरणा भी मिलती है। यही कारण है कि साहित्य मनुष्य को प्रेरणा, उद्देश्य, मार्ग, शांति, विश्राम और नया उत्साह भी देता है। साहित्य के महत्व को हम इसी से जान सकते हैं कि एक लेखक या कवि के लिखी रचना को लोगों द्वारा बड़े चाव से पढ़ा जाता है और आने वाले समय में भी पढ़ा जाता रहेगा।
प्रश्न 5: ''मानव संबंधों से परे साहित्य नहीं है।'' इस कथन की समीक्षा कीजिए।
एक कवि या लेखक मानव है। अतः मानव संबंधों से वह स्वयं घुला-मिला होता है। ऐसा कोई साहित्यकार नहीं है, जो मानव संबंधों से युक्त न हो। मनुष्य के जीवन का आधार ही ये मानव संबंध हैं। कोई किसी का मित्र है, तो कोई माता-पिता, कोई भाई-बहन, पुत्र-पुत्री इत्यादि ही मानव संबंधों की एक श्रृंखला है। अतः इस कारण साहित्य की रचना करने वाला जब साहित्य का निर्माण करता है, तो साहित्य से इन्हें अलग करना संभव नहीं है। एक कवि या लेखक रचना में इन मानव संबंधों के बारे में तभी उल्लेख करता है, जब वह आहत होता है या प्रसन्न होता है। उसके इन संबंधों की छाया उसके साहित्य में स्वतः ही पड़ जाती है। इस तरह से वह साहित्य के माध्यम से इनका सुंदर मूल्यांकन करता है। अतः कवि या लेखक के संतोष तथा असंतोष का आधार ही हम मानव संबंध को मानते हैं। अतः साहित्य का सुर्जन करते वक्त मानव संबंधों का होना आवश्यक हो जाता है। अतः साहित्य मानव संबंधों से परे नहीं है बल्कि उससे जुड़ा हुआ है।
प्रश्न 6: 'पंद्रहवीं-सोलहवीं' सदी में हिंदी-साहित्य ने कौन-सी सामाजिक भूमिका निभाई?
पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी हिंदी-साहित्य काल में साहित्य का स्वर्णिम युग माना जाता है। इस काल में जितना उच्चकोटि का साहित्य मिलता है, उतना शायद ही और किसी युग में मिले। इस समय में सबसे अधिक संत कवि हुए। ये कवि मात्र भक्ति के कारण उदय नहीं हुए थे। समाज में बाहरी शासकों के शासन से जो अशांति, असंतोष, दुख, कष्ट, धार्मिक तथा जाति भेदभाव, आडंबरों इत्यादि के कारण उत्पन्न हुए थे। तब ऐसे संत कवियों का उदय हुआ जिन्होंने न केवल जनता को सुख दिया अपितु समाज में व्याप्त इन कुसंगतियों को हटाने का भी प्रयास किया। इसमें कबीर, तुलसी, सूरदास, मीरा, रसखान, नानक, घनानंद, नंददास, रहीम, नरोत्तमदास इत्यादि बहुत से कवि हुए हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं से ऐसा ज़ोरदार प्रहार किया कि समाज में व्याप्त आडंबर तथा भेदभावों की नींव हिल पड़ी। इन्होंने समाज में सच्ची भक्ति, मनुष्यता के भाव को स्थान दिया तथा लोगों को इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित किया। उनकी रचनाओं ने जनता में आशा, प्रेम, प्रसन्नता, सुख इत्यादि का संचार किया। इस प्रकार समाज मुक्ति की ओर अग्रसर हुआ और लोगों में नई चेतना जागृत हुई। अपनी संस्कृति के प्रति आदर भाव बढ़ा। स्वयं के अस्तित्व को लेकर बढ़ रही भ्रांति समाप्त हुई। ईश्वर के प्रति आस्था बलवान हुई। जीवन की नयी राह प्रदान हुई।
प्रश्न 7: साहित्य के 'पांचजन्य' से लेखक का क्या तात्पर्य है? 'साहित्य का पांचजन्य' मनुष्य को क्या प्रेरणा देता है?
'पांचजन्य' कृष्ण के शंक का नाम था। इसकी विशेषता थी कि इसे फूंका एक स्थान से जाता था और ध्वनियाँ पाँच स्थानों से बाहर आती थी। अतः लेखक ने साहित्य के पांचजन्य कहकर साहित्य की विशेषता का वर्णन किया है। यह पांचजन्य शंख के समान है, जो जीवन से हार चुके व्यक्ति को अपने नाद से जागृत करता है। इसके अतिरिक्त यह मनुष्य को जीवन रूपी युद्धभूमि में लड़ने के लिए प्रेरित करता है। साहित्य के पांचजन्य ने मनुष्य के मन में व्याप्त दुख, निराशा, हार इत्यादि भावों को उखाड़ फेंका है। यह आज से ही नहीं प्राचीनकाल से मनुष्य की रक्षा कर रहा है। यह मनुष्य को कर्म करने के लिए उत्साहित करता है। जो लोग भाग्य के भरोसे रहते हैं साहित्य का पांचजन्य उनका उपहास उड़ता है।
प्रश्न 8: साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा होना अत्यंत अनिवार्य है, क्यों और कैसे?
साहित्यकार के लिए आवश्यक गुण है कि उसमें स्रष्टा तथा द्रष्टा दोनों गुणों का होना आवश्यक है। स्रष्टा में वह नई रचनाओं की सृष्टि करता है। द्रष्टा से वह समाज में व्याप्त सुक्ष्म से सुक्ष्म समस्या को देखने की क्षमता रखता है। इस तरह वह समाज में व्याप्त प्रत्येक समस्या पर पैनी दृष्टि रखता है और उसे समाप्त करने के लिए नई रचनाओं का निर्माण करता है। यह रचना उन समस्याओं की जड़ पर प्रहार करती है और समाज में व्याप्त असंगति को समाप्त करती है। इस तरह वह सुनहरे भविष्य का निर्माण करता है और आने वाली पीढ़ी को एक सुंदर भविष्य देता है। इसलिए कहा गया है कि साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा होना अत्यंत अनिवार्य है।
प्रश्न 9: कवि-पुरोहित के रूप में साहित्यकार की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
पुरोहित आम जनता के आगे चलकर उनका मार्ग दर्शन करता है। वह जनता को जैसा-जैसा निर्देश देता है, वैसे ही आम जनता करती है। इस तरह वह जनता को पूजा निर्देश देकर उनके जीवन में आए कष्टों का निवारण करता है तथा उनके जीवन में शांति स्थापित करता है। कवि-पुरोहित भी ऐसा ही करता है। वह आम जनता के जीवन में परिवर्तन की चाह को पूरा करने के लिए उनका दिशा निर्देश करता है और उन्हें नए मार्ग दिखाता है। एक समाज में मानवीय-संबंधों के मध्य व्याप्त परेशानियों को समाप्त करता है। कवि पुरोहित यदि जनता का दिशा निर्देश करने में सक्षम नहीं है, तो उसका साहित्यकार कहलाना व्यर्थ है। इस तरह वह साहित्य के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। उसका साहित्य ही है, जो लोगों में चेतना जागृत करता है और उन्हें नव तथा सुखी जीवन की राह दिखाता है। उन्हें उद्देश्य तथा प्रेरणा देकर उनके जीवन को ही बदल देता है। कवि-पुरोहित के रूप में वह जनता का कल्याण करता है।
प्रश्न 10: सप्रसंग सहित व्याख्या कीजिएः
(क) 'कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें, पर ऐसी आकृति ज़रूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं।'
(ख) 'प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।'
(ग) 'इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृति काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के 'सिद्धांत' वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अंधकार।'
(क) प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा लिखित निबंध 'यशास्मै रोचते विश्वम्' से अवतरित है। प्रस्तुत पंक्ति में कवि द्वारा रचित सृष्टि के विषय में लेखक अपने विचार व्यक्त करता है।
व्याख्या- लेखक कहता है कि एक कवि द्वारा रचना के समय जो कल्पना की जाती है, वे बिना आधार के नहीं होती है। अर्थात वह जो देखता है, समझता है, सोचता है, उसे आधार बनाकर एक नई सृष्टि की रचना करता है। अब प्रश्न उठता है कि उसे ऐसी सृष्टि की रचना करने की आवश्यकता क्यों पड़ी होगा? तो इसका उत्तर है कवि जहाँ कल्पनालोक का वासी है, वहीं हकीकत के धरातल में भी उसके पैर भली प्रकार से टिके होते हैं। समाज में व्याप्त विसंगति, कुरीतियों, सड़ी-गड़ी परंपराओं से आहत कवि अपनी कल्पना से ऐसे समाज या ऐसी सृष्टि की रचना करता है, जो इनसे मुक्त होती है। साधारण मनुष्य भी इस प्रकार की विसंगति, कुरीति, सड़ी-गली परंपराओं, धारणाओं इत्यादि से प्रताड़ित होता है। अतः जब वह एक कवि की रचना पड़ता है, तो जिस समाज या सृष्टि की कल्पना उसने अपने मन में की हो वह साकार हो जाती है। वह बिलकुल कवि की कल्पना से न मिले लेकिन कहीं-न-कहीं कवि की रचना के समान वह हमें प्रिय होती है। हम भी वही चाहते हैं, जो एक कवि चाहता है। भाव यह है कि कवि जो रचना बनाता है, उसके पात्र यथार्थ जीवन के पात्र अवश्य होते हैं लेकिन उसमें कल्पना का भी समावेश होता है। वह ऐसी रचना होती है, जिसे पढ़कर पाठक को लगता है, जैसे मानो वह रचना उसके जीवन को उद्देश्य बनाकर लिखी गई है। उसकी समस्याओं की वह नकल है और उसमें व्याप्त हल उसके जीवन में व्याप्त समस्याओं का हल दे रहे हैं।
(ख) प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा लिखित निबंध 'यशास्मै रोचते विश्वम्' से अवतरित है। प्रस्तुत पंक्ति में कवि के गुणों पर प्रकाश डाला गया है।
व्याख्या- लेखक के अनुसार सृष्टि की रचना करने वाला कवि गंभीर यथार्थवादी होता है। अर्थात वह यथार्थ को कल्पना से नहीं जोड़ता है। वह उसे गंभीरता से लेता है और अपनी रचनाओं में पूरी गंभीरता से उस यथार्थ को दर्शाता है। इस प्रकार के साहित्यकार की विशेषता होती है कि वह अपना कर्तव्य पूरी गंभीरता से निभाता है। उसके पाँव यथार्थ पर पूर्णरूप से टिके होते हैं। अर्थात वह सच्चाई से पूरी तरह से जुड़ा होता है। वह जानता है कि वर्तमान में क्या चल रहा है? वह जानता है कि वर्तमान का यह सत्य कैसे भविष्य की क्षितिज पर दिखाई देखा? अर्थात वह ऐसे साहित्य की रचना करता है, जो वर्तमान की सत्य घटनाओं पर आधारित होता है और आने वाले भविष्य की संरचना को दर्शाता है। उसकी रचना में सत्य का उद्घाटन और उससे भविष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का सही वर्णन होता है।
(ग) प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा द्वारा लिखित निबंध 'यशास्मै रोचते विश्वम्' से अवतरित है। प्रस्तुत पंक्ति में लेखक साहित्य के विषय में अपने विचार व्यक्त करता है।
व्याख्या- लेखक साहित्य की विशेषता बताते हुए स्पष्ट करता है कि हमारे साहित्य का उद्देश्य मात्र मनोरंजन करना नहीं है। वह मनुष्य को सदैव बढ़ने की और चलते रहने की शिक्षा देता है। हमारे साहित्य का गौरवशाली इतिहास इस बात का प्रमाण है। हमारी इस परंपरा के समक्ष ऐसी कला जिसमें कोई उद्देश्य न हो, जो काम-वासनाओं की पोषक हो, जिसमें अहंकार तथा व्यक्ति को अधिक महत्व दिया जाए या निराशा और पराजय के भावों का पोषण करे, उसे कोई मान्यता नहीं दी गई है। यह ऐसे ही गायब हो जाती है, जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार गायब हो जाता है। भाव यह है कि वह कला जो मनुष्य को दिशाहीन बना दे, उसका समाज में कोई स्थान नहीं है। उसे हमारे लोगों द्वारा नकारा गया है। हीरे के समान साहित्य की भी सदियों से आवश्यकता बनी रही है।
प्रश्न 1: पाठ में प्रतिबिंब-प्रतिबिंबित जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। इस तरह के दस शब्दों की सूची बनाइए।
- संगठन-संगठित
- असल-असलियत
- पठ-पठित
- चित्र-चित्रित
- लंब-लंबित
- चल-चलित
- लिख-लिखित
- आमंत्रण-आमंत्रित
- दंड-दंडति
- प्रतिबंब-प्रतिबिंबित
प्रश्न 2: पाठ में 'साहित्य के स्वरूप' पर आए वाक्यों को छाँटकर लिखिए।
पाठ में 'साहित्य के स्वरूप' पर आए वाक्य इस प्रकार हैं-
(क) साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती।
(ख) साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।
(ग) साहित्य का पाँचजन्य समरभूमि में उदासीनता का राग नहीं सुना।
(घ) साहित्य मानव संबंधों से परे नहीं है।
प्रश्न 3: इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिएः
(क) कवि की सृष्टि निराधार नहीं होती ।
(ख) कवि गंभीर यथार्थवादी होता है।
(ग) धिक्कार है उन्हें जो तीलियाँ तोड़ने के बदले उन्हें मजबूत कर रहे हैं।
(क) कवि अपनी रचनाओं में जिस सृष्टि की रचना करता है, वह कल्पनालोक की देन नहीं है। उसका आधार है यथार्थ। उस यथार्थ को आधार बनाकर वह रचनाओं का निर्माण करता है।
(ख) लेखक के अनुसार सृष्टि की रचना करने वाला कवि गंभीर यथार्थवादी होता है। अर्थात वह यथार्थ को कल्पना से नहीं जोड़ता है। वह उसे गंभीरता से लेता है और अपनी रचनाओं में पूरी गंभीरता से उस यथार्थ को दर्शाता है। इस प्रकार के साहित्यकार की विशेषता होती है कि वह अपना कर्तव्य पूरी गंभीरता से निभाता है। उसके पाँव यथार्थ पर पूर्णरूप से टिके होते हैं। अर्थात वह सच्चाई से पूरी तरह से जुड़ा होता है। वह जानता है कि वर्तमान में क्या चल रहा है। वह जानता है कि वर्तमान का यह सत्य कैसे भविष्य के क्षितिज पर दिखाई देखा।
(ग) लेखक के अनुसार ऐसे साहित्यकार जिनका साहित्य लोगों को दासता से मुक्ति दिलाने के स्थान पर उन्हें गुलाम बना देता है, उन पर धिक्कार है। ऐसे लोगों को शर्म से डूब मरना चाहिए। उनकी रचनाओं को साहित्य नहीं कहा जा सकता है। साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह लोगों को दासता से मुक्ति दिलाए और विकास का मार्ग प्रशस्त करे।
प्रश्न 1: 'साहित्य और समाज' पर चर्चा कीजिए।
- साहित्य और समाज का बहुत गहरा नाता है। एक कवि इस समाज का ही अंग होता है। समाज का निर्माण लोगों से हुआ है। अतः एक कवि इसी समाज का अंग माना जाएगा। कवि समाज से थोड़ा-सा अलग होता है। वह समाज में व्याप्त असंगतियों से आहत और क्रोधित होता है। अतः वह रचनाओं का निर्माण करता है। इन्हीं रचनाओं के भंडार को साहित्य कहते हैं। एक कवि या लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य का सृजन करता है और समाज को नई दिशा देता है। कवि या लेखक का दायित्व होता है कि वह अपनी रचनाओं से समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर करे और समाज में पुरानी सोच के स्थान पर नई सोच का विकास करे। समाज में कई प्रकार की कुरीतियाँ, परंपराएँ, विद्यमान हैं। ये परपंराएँ और कुरीतियाँ समय के साथ पुरानी पड़ती जा रही हैं और इसमें विसंगतियाँ विद्यमान हो जाती हैं। साहित्य के माध्यम से उन्हें हटाने तथा क्रांति लाने का प्रयास किया जाता है। हमारे कवियों, लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है, वे साहित्य कहलाता है। साहित्य में हर तरह की रचनाएँ सम्मिलित होती हैं। वे चाहे फिर प्रेम, भक्ति, वीरता, सामाजिक-राजनीतिक बदलाव, उनमें हुई उथल-पुथल या व्याप्त विसंगतियाँ इत्यादि विषय हों।
- इस तरह से ये रचनाएँ ऐतिहासिक प्रमाण भी बन जाती हैं। आज ढ़ेरों ऐसी रचनाएँ हैं जिनके माध्यम से हम अपने इतिहास के गौरवपूर्ण समय के दर्शन हो पाते हैं। भारतीय साहित्य इतना विशाल है कि उसे बहुत कालों में विभक्त किया गया है। इस तरह हम रचनाओं को उस काल की विशेषताओं के आधार पर व्यवस्थित कर विभक्त कर देते हैं। उनका विस्तृत अध्ययन करते हैं। तब हमें पता चलता है कि उस समय समाज में किस तरह की परिस्थितियाँ विद्यमान थी और क्या चल रहा था। ये रचनाएँ हमें उस समय के भारत के दर्शन कराती हैं। इनके अंदर हमें हर वो जानकारी प्राप्त होती है, जो हमें अपनी संस्कृति व इतिहास से जोड़ती है। हमारे देश का इतिहास इसी साहित्य में सिमटा पड़ा है। यदि हमें अपने देश, समाज, संस्कृति और उसकी परंपराओं को समझना है, तो अपने साहित्य में झाँकना पड़ेगा। साहित्य में समाज की छवि साफ़ लक्षित होती है। एक लेखक या कवि अपनी रचना को लिखते समय उस समय के समाज को हमारे सामने रख देता है। साहित्य में मात्र सामाजिक जीवन का ही चित्रण नहीं मिलता अपितु समाज में हर प्रकार के व्यक्तित्व का भी परिचय मिलता है। इस तरह हम स्वयं को साहित्य से जुड़ा मानते हैं। साहित्य हमारे सामने ऐसा दर्पण बनकर विद्यमान हो जाता है, जिसमें हम अपने समाज के प्राचीन और नवीन स्वरूप को देख पाते हैं। इसलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
प्रश्न 2: 'साहित्य समाज का दर्पण नहीं है।' विषय पर कक्षा में बाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कीजिए।
- भारतीय साहित्य इतना विशाल है कि उसे बहुत कालों में विभक्त किया गया है। इस तरह हम रचनाओं को उस काल की विशेषताओं के आधार पर व्यवस्थित कर विभक्त कर देते हैं। उनका विस्तृत अध्ययन करते हैं। तब हमें पता चलता है कि उस समय समाज में किस तरह की परिस्थितियाँ विद्यमान थी और क्या चल रहा था। ये रचनाएँ हमें उस समय के भारत के दर्शन कराती हैं। इनके अंदर हमें हर वो जानकारी प्राप्त होती है, जो हमें अपनी संस्कृति व इतिहास से जोड़ती है। हमारे देश का इतिहास इसी साहित्य में सिमटा पड़ा है। यदि हमें अपने देश, समाज, संस्कृति और उसकी परंपराओं को समझना है, तो अपने साहित्य में झाँकना पड़ेगा। साहित्य में समाज की छवि साफ़ लक्षित होती है। एक लेखक या कवि अपनी रचना को लिखते समय उस समय के समाज को हमारे सामने रख देता है। साहित्य में मात्र सामाजिक जीवन का ही चित्रण नहीं मिलता अपितु समाज में हर प्रकार के व्यक्तित्व का भी परिचय मिलता है। इस तरह हम स्वयं को साहित्य से जुड़ा मानते हैं। साहित्य हमारे सामने ऐसा दर्पण बनकर विद्यमान हो जाता है, जिसमें हम अपने समाज के प्राचीन और नवीन स्वरूप को देख पाते हैं। इसलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है।
- लेकिन लेखक ने इस पाठ में इस बात को निराधार कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। वह मानता है कि लेखक, कवि तथा साहित्यकार पूर्ण रूप से सत्य नहीं लिखते हैं। कई बार कल्पना में सत्य का रूप मिलता है, तो कई बार सत्य में कल्पना का। इस तरह से सत्य पूर्ण नहीं होता है। उसमें कुछ-न-कुछ ऐसा मिला होता है, जो सत्य को पूर्णतः बाहर नहीं आने देता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। इस कारण यदि हम साहित्य पर प्रकाश डालें, तो उसमें कई प्रकार के संदेह विद्यमान हो जाते हैं। उदाहरण के लिए पृथ्वीराज रासो को आज पूर्णतः सत्य नहीं माना जाता है। इसमें तिथियाँ तथा घटनाओं का उल्लेख हुआ है, वह इतिहास से मेल नहीं खाता है। साहित्य को दर्पण की संज्ञा देने का अर्थ यह मान लेना कि साहित्य समाज की बिलकुल असल छवि देता है, यह गलत होगा। एक साहित्यकार अपनी रचना में समाज में व्याप्त विसंगतियों, असमानताओं, समस्याओं, सच्चाइयों का मान एक अंश दिखा पाता है। उसका विस्तार से वर्णन कर पाना उसके लिए संभव नहीं हो पाएगा। प्रायः उसकी रचनाएँ, कविता, काव्य संग्रह, उपन्यास, निबंध, कहानी, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत इत्यादि रूप में हो सकते हैं। अतः इन रुपों में कैसे वह समाज की असल छवि के साथ न्याय कर पाएगा। यही कारण है कि दर्पण बोल देने का अर्थ है, साहित्य को समाज की छवि मान लेना। यह सही नहीं है। अतः साहित्य समाज का दर्पण नहीं हो सकता।
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