पांडवों ने कृपाचार्य और द्रोणाचार्य से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा लेकर निपुणता प्राप्त कर ली। उनके कौशल के प्रदर्शन के लिए सामरोह का आयोजन किया गया। सभी नगरवासी वहाँ मौजूद थे। सभी राजकुमार अपनी दक्षता का प्रदर्शन कर रहे थे। तीर चलाने में अर्जुन से ज्यादा श्रेष्ठ कोई नहीं था। सभी उसकी कला से दंग थे तो वहीं दुर्योधन का मन ईर्ष्या से जल रहा था।
खेल चल रहा था तभी एक युवक ने अर्जुन को द्वंद के लिए ललकारा। वह युवक कर्ण था परन्तु यह बात किसी को पता नहीं थी। इस चुनौती को देखकर दर्शकों को खलबली मच गयी परन्तु दुर्योधन को बहुत प्रसन्नता हुई और उसने कर्ण से पूछा कि वह उसके लिए क्या कर सकता है। कर्ण ने कहा कि वह अर्जुन से द्वंद और दुर्योधन से मित्रता करना चाहता है।
कुंती ने कर्ण को देखते ही पहचान लिया। वह भय और लज्जा से मूर्च्छित हो गयीं। विदुर ने दासियों को बुलाकर उसे जगाया। कृपाचार्य ने कर्ण को उनका परिचय देने को कहा क्योंकि मुकाबला केवल बराबर वालों में होता है। यह बात सुनकर कर्ण का सिर झुक गया। दुर्योधन इसे देखकर कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित किया। रंगभूमि में ही कर्ण का राज्याभिषेक कर दिया गया। सूरज डूब चुका था इसलिए सभा खत्म हो गयी।
इस घटना के बहुत बाद एक बार इंद्र बूढ़े ब्राह्मण के वेश में कर्ण के पास पहुँचे और भिक्षा में उनसे उनके जन्मजात कुंडल और कवच की माँग की चूँकि उन्हें डर था युद्ध में कर्ण अर्जुन पर भारी न पड़ जाए। कर्ण इस बात जानते हुए भी कि ब्राह्मण के रूप में इंद्र हैं, अपने कुंडल और कवच को दान में दे दिया। इस दानवीरता के देख इंद्र ने कर्ण से वरदान माँगने को कहा। कर्ण ने उनसे उनके 'शक्ति' नामक शस्त्र की माँग की जिसे इन्द्र ने कर्ण को एक बार इस्तेमाल करने को दे दिया।
एक बार कर्ण परशुराम से ब्रह्मास्त्र सीखने उनके आश्रम गए। परशुराम ने कर्ण को ब्राह्मण समझ शिष्य बना लिया। कर्ण ने ब्रहमास्त्र चलाना सीख लिया। एक दिन परशुराम कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर सो रहे थे। एक काला भौंरा कर्ण की जाँघ के नीचे घुसकर काटने लगा परन्तु कर्ण ने जाँघ को हिलाया नहीं क्योंकि इससे गुरु परशुराम की नींद टूट जाती। जब कर्ण के खून से परशुराम का शरीर भींगने लगा तो उनकी नींद टूटी। उन्होंने जब देखा खून कर्ण के जाँघ से बह रहा है तो उन्होंने कर्ण से उसकी असलियत पूछी। कर्ण ने बताया कि वह सूत का बेटा है। यह सुनकर परशुराम को क्रोध आया और उन्होंने कर्ण को शाप दिया कि जब उसे परशुराम द्वारा सिखाए विद्या की जरूरत होगी तो वह उसे याद नहीं आएगी। हुआ भी यही, कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से युद्ध करते कर्ण को विद्या याद नहीं रही और वह मृत्यु को प्राप्त हुए।
अंत तक कौरवों का साथ कर्ण ने नहीं छोड़ा। भीष्म और द्रोण के बाद कर्ण ने सेनापति बन कौरव-सेना का नेतृत्व किया।
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