धृतराष्ट्र के कहने पर विदुर पांडवों को हस्तिनापुर आकर चौसर खेलने का निमंत्रण देने जाते हैं| युधिष्ठिर ने चौसर के खेल को बुरा बताते हुए इस बारे में विदुर की राय पूछी| विदुर ने युधिष्ठिर से कहा कि चौसर का खेल सारे अनर्थ की जड़ होता है। वे यह खेल नहीं होने देना चाहते थे परंतु धृतराष्ट्र की आज्ञा से उन्हें यहाँ न्योता देने आना पड़ा।
राज परंपरा के अनुसार यदि किसी को खेल के लिए बुलाया जाए तो वह उस निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता। युधिष्ठिर को यह भी डर था कि मना करने पर धृतराष्ट्र इसे अपना अपमान न समझ बैठे। इसलिए युधिष्ठिर सपरिवार हस्तिनापुर पहुँच गए। उन्हें नगर के पास के सुंदर विश्रामगृह में ठहराया गया। अगले दिन वे सभा मंडप में पहुंचे तो शकुनि ने उन्हें चौसर खेलने के लिए कहा| युधिष्ठिर ने उन्हें समझाया कि यह खेल खेलना ठीक नहीं है। शकुनि ने उससे कहा कि वह हारने से डरता है इसलिए वह नहीं खेल रहा| इस बात पर युधिष्ठिर चौसर खेलने के लिए तैयार हो गए| दुर्योधन ने कहा कि उसकी जगह उसके मामा शकुनि खेलेंगें| युधिष्ठिर को यह खेल के नियम के विरुद्ध लगा। शकुनि ने फिर कहा कि वह बहानेबाज़ी कर रहा है| ऐसा कहने पर युधिष्ठिर फिर खेलने को तैयार हो गए|
खेल शुरू हुआ| मंडप दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। सभा मंडप में भीष्म, कृपाचार्य, विदुर, धृतराष्ट्र जैसे वयोवृद्ध सभी उपस्थित थे। पहले रत्नों, फिर सोने-चाँदी और तीसरी रथों-घोड़ों की बाजी लगी। युधिष्ठिर तीनों दाँव हार गए। युधिष्ठिर एक-एक करके अपने पशु, दास-दासियाँ, सेना, देश, प्रजा, भाइयों के वस्त्राभूषण सब कुछ हारते चले गए। इसके बाद उन्होंने नकुल, सहदेव, अर्जुन और भीम को दाँव पर लगाया और उन्हें भी खो दिया।अंत में स्वयं को भी दाँव पर लगा दिया और हार गए|
युधिष्ठिर ने द्रौपदी की भी बाजी लगा दी और शकुनि ने यह बाज़ी भी जीत ली। सभा में हाहाकार मच गया| धिक्कार की आवाजें आने लगी। दुर्योधन ने विदुर को आदेश दिया कि वे रनिवास में जाकर द्रौपदी को यहाँ ले आएँ। उन्होंने इसे ठीक नहीं माना तथा सभासदों को संबोधित करके कहा कि अपने को हारने के बाद युधिष्ठिर को द्रौपदी को दाँव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं था।
विदुर के इस व्यवहार के बाद दुर्योधन ने अपने सारथी प्रतिकामी को रनवास में भेजा। उसने द्रौपदी को बताया कि चौसर के खेल में दुर्योधन ने आपको युधिष्ठिर से जीत लिया है इसीलिए मैं आपको लेने आया हूँ। राजा की आज्ञा है कि आपको धृतराष्ट्र के महल में दासी का काम करना है। सारथी ने वहाँ का सारा हाल बताया| द्रौपदी ने कहा कि हारने वाले खिलाड़ी से जाकर पूछो कि पहले उसने स्वयं को हारा था या उसे। जो उत्तर मिले वह मुझे बताना फिर मुझे ले जाना।
सारथी ने भरी सभा में जाकर यह प्रश्न युधिष्ठिर से किया तो दुर्योधन ने सारथी से कहा कि द्रौपदी से कहो कि वह स्वयं ही यहाँ आकर अपने पति से यह प्रश्न पूछे। द्रौपदी ने जाने से मना करते हुए कहा कि यदि युधिष्ठिर उत्तर नहीं देते हैं तो सभा में जो सज्जन बैठे हैं, उनसे जाकर पूछकर मुझे बताओ। सारथी के फिर से खाली हाथ वापस आने पर दुर्योधन गुस्सा हो गया और उसने दुःशासन को द्रौपदी को लाने के लिए भेज दिया। दुःशासन द्रौपदी के बाल पकड़कर घसीटते हुए सभा की ओर ले जाने लगा तो द्रौपदी व्याकुल हो गई। धृतराष्ट्र के पुत्र विकर्ण को इससे बहुत दुःख हुआ। उसने इस चौसर के खेल को धोखे से जीता हुआ बताया| उसने कहा कि युधिष्ठिर ने स्वयं हारने के बाद द्रौपदी को दाँव पर लगाया था तथा अन्य भाइयों से राय भी नहीं की थी, जबकि द्रौपदी पाँचों भाइयों की पत्नी थी। शकुनि के उकसाने पर ही युधिष्ठिर ने द्रौपदी को दाँव पर लगाया जोकि खेल के नियमों के बिलकुल विरुद्ध है। इसलिए द्रौपदी को नियमपूर्वक जीता हुआ नहीं मानता।
कर्ण ने उसे बच्चा कहकर तर्क-वितर्क करने के लिए अयोग्य बताया| इसी बीच दुःशासन द्रौपदी की साड़ी खींचने लगा। जैसे-जैसे वस्त्र खींचता गया वैसे-वैसे वस्त्र भी बढ़ता गया। अन्त में खींचते-खींचते दुःशासन की दोनों भुजाएँ थक गईं। वह हाँफता हुआ बैठ गया। दुःशासन की इस हरकत को देखकर भीम ने भरी सभा में प्रतिज्ञा की कि मैं इस दुरात्मा दुःशासन की छाती को चीरकर ही दम लूँगा। इन सब बातों को सुनकर धृतराष्ट्र को लगा कि जो कुछ हुआ है ठीक नहीं हुआ। उन्होंने द्रौपदी को सांत्वना दी और युधिष्ठिर को उसका राज्य लौटा दिया।
धृतराष्ट्र की बात मानकर पांडव द्रौपदी सहित इंद्रप्रस्थ के लिए विदा हो गए। पांडवों के इस प्रकार निकल जाने पर दुर्योधन तथा अन्य कौरव परेशान हो गए। दुःशासन और शकुनि के उकसाने पर दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को एक बार फिर पाण्डवों को जुआ खेलने के लिए बुलाया| पिछली घटना की याद होते हुए भी युधिष्ठिर ने यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया। इस बार खेल में यह शर्त थी कि जो पक्ष हारे वह बारह वर्ष के लिए सपरिवार वन चला जाए तथा तेरहवाँ वर्ष अज्ञातवास में बिताए। यदि अज्ञातवास में उनका पता चल गया तो फिर से बारह वर्ष वनवास भोगें। इस बार भी युधिष्ठिर हार गए और सपरिवार वनवास चले गए।
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