जब दुर्योधन ने अर्जुन का पीछा करना शुरू किया तो पांडव-सेना ने उसकी सेना पर और भी अधिक ज़ोर से आक्रमण कर दिया। द्रोण को रोकने के लिए धृष्टद्युम्न ने आचार्य द्रोण पर आक्रमण जारी रखा। इस तरह कौरव-सेना तीन हिस्सों में बँट कर कमज़ोर पड़ गई। धृष्टद्युम्न द्रोण के रथ पर चढ़कर उन पर ताबड़-तोड़ वार करने लगा। द्रोण ने उस पर बाण चलाया तो सात्यकि ने धृष्टद्युम्न को बचा लिया। तब द्रोण और सात्यकि में युद्ध होने लगा।
युधिष्ठिर को जब पता चला कि सात्यकि संकट में है तो उन्होंने धृष्टद्युम्न के साथ द्रोण पर आक्रमण कर दिया और सात्यकि को द्रोण के फंदे से छुड़ा लिया। इसी समय युधिष्ठिर को श्रीकृष्ण के पांचजन्य की आवाज़ सुनाई दी तो उन्हें लगा कि अर्जुन की सहायता के लिए किसी को भेजना चाहिए। उन्होंने सात्यकि को वहाँ जाने के लिए कहा। वह जाना तो नहीं चाहता पर युधिष्ठिर के कहने पर उसे जाना पड़ा। उसके जाते ही द्रोणाचार्य ने पांडव-सेना पर हमला कर दिया। युधिष्ठिर ने भीम को भी अर्जुन का हाल-चाल जानने के लिए भेज दिया।
भीम अर्जुन के पास पहुँचा और उसे सुरक्षित देखकर सिंहनाद करके युधिष्ठिर को अर्जुन की कुशलता का संदेश दे दिया। अर्जुन और श्रीकृष्ण भी उसके आने से प्रसन्न हो उठे। युधिष्ठिर कामना कर रहे थे कि अर्जुन जयद्रथ का वध कर देगा। यह भी हो सकता है कि जयद्रथ के वध के बाद दुर्योधन सन्धि कर ले। दुर्योधन भी यहीं आ गया था किन्तु बुरी तरह हारकर वह भाग गया।
युद्ध-स्थल से भागकर आए दुर्योधन को समझा कर द्रोण ने फिर वहीं भेज दिया, जहाँ अर्जुन और जयद्रथ में युद्ध हो रहा था। वहाँ भीम और कर्ण में भी भयंकर युद्ध हो रहा था। भीम के रथ के घोड़े और सारथी मारे गए। रथ टूट गया, धनुष कट गया। भीम की ढाल के भी कर्ण ने टुकड़े कर दिए। भीम रथ से उतर कर ढाल-तलवार लेकर लड़ने लगा। कर्ण केवल अपना बचाव कर रहा था। वह चाहता तो भीम को मार देता किन्तु वह कुंती को दी हुई प्रतिज्ञा से बँधा हुआ था।
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