सिन्धु सभ्यता के पतन के बाद आर्य सभ्यता का उदय हुआ। आर्यों की सभ्यता वैदिक सभ्यता (Vedic civilization) भी कहलाती है। वैदिक सभ्यता दो काल खंडो में विभक्त है – ऋगवैदिक सभ्यता और उत्तर वैदिक सभ्यता। ऋगवैदिक सभ्यता के ज्ञान का मूल स्रोत ऋगवेद है, इसलिए यह सभ्यता उसी नाम से अभिहित है। ऋग्वैदिक काल से अभिप्राय उस काल से है जिसका विवेचन ऋग्वेद में मिलता है। इस काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं।
ऋग्वेद-इसमें ‘दस मंडल” एवं 1028 सूक्त हैं। पहला एवं दसवाँ मण्डल | जोड़ा गया है जबकि दूसरे से सातवाँ मण्डल पुराना है।
आर्यों के आगमन का काल विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने ढंग से निर्धारित करने की चेष्टा की है।
आर्यों के निवास के बारे में भी अनेक विद्वानों के अनेक मत है।
आर्यों का संघर्ष, गैरिक मृदभांड एवं लाल और काले मृदभांड वाले लोगों से हुआ। आर्यों के विजय होने का कारण था-घोड़े चालित रथ, काँसे के अच्छे उपकरण तथा कवच (वर्मन)। विशिष्ट प्रकार के दुर्ग का प्रयोग आर्य संभवत: करते थे। इसे ‘पुर जाता था। वे धनुष बाण का प्रयोग करते थे। प्राय: दो प्रकार के बाणों का होता था। पहला विषाक्त एवं सींग के सिरा (मुख) वाला तथा दूसरा तांबे के मुख वाला। इसके अतिरिक्त बरछी, भाला, फरसा और तलवार आदि का प्रयोग भी करते थे।
‘राजा’ वैदिक युग के राष्ट्र या जनपद का मुखिया होता था। सामान्यतया, राजा का पुत्र ही पिता की मृत्यु के बाद राजा के पद को प्राप्त करता था।
चूकि इस काल की अर्थव्यवस्था एक निर्वाह अर्थव्यवस्था थी, जिसमें अधिशेष के लिए बहुत कम गुजाइश थी। अत: करारोण प्रणाली भी स्थापित नहीं हो पायी तथा राजकीय अधिकारियों की संख्या भी सीमित थी। किन्तु राजा की अपने दायित्व निर्वाह के बदले प्रजा से बलि (कर) पाने का अधिकारी माना जाता था। यह राजा को स्वेच्छापूर्वक दिया गया उपहार होता था। राजा को प्रारम्भ में प्रजा से नियमित कर नहीं मिलते थे। अत: इन्द्र से प्रार्थना की गई कि वह राजकर देने के लिए प्रजा की विवश करे। कालान्तर में नियमित करों की प्रथा उत्तरवैदिक काल में प्रतिष्ठित हुई।
विचारकों के अनुसार इस काल में विधि या धर्म की सर्वोच्चता की घोषणा ही नहीं की थी, वरन् राजसत्ता द्वारा इसके पालन पर भी जोर दिया था। ऋगवेद में विधि व्यवहार के लिए ‘धर्मन्’ बाद में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
वन्य प्रदेशों की साफ कर आर्यों ने देश में अपने ग्रामों की स्थापना की थी। इस प्रक्रिया में सम्पूर्ण पंजाब, सैन्धव प्रदेश एवं उत्तरी भारत के बहुसंख्य ग्रामों की स्थापना हुई। ऋग्वैदिक कालीन समाज में ग्राम सबसे छोटी राजनैतिक एवं सामाजिक इकाई थी। इस युग के प्रारम्भिक चरण में आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक अस्थिरता बनी रही। आर्यजनों में संयुक्त परिवार प्रथा थी।
आर्य मुख्यतः तीन धातुओं का प्रयोग करते थे – सोना, तांबा और कांसा। महिलाये कपड़े बुनने का कार्य करती थीं। लकड़ी की कटाई, धातु उद्योग, बुनाई, कुम्भ्कारी और बढ़ईगिरी आदि शिल्प प्रचलित थे।
संभवत: वस्तु विनिमय प्रणाली उस युग में भी प्रचलित रही होगी। यद्यपि विनिमय के रूप में गाय, घोड़े एवं निष्क का उपयोग होता था। निष्क संभवत: स्वर्ण आभूषण होता था या फिर सोने का एक ढेला। जाहिर है कि अभी नियमित सिक्के विकसित नहीं हुए थे। अष्टकणों (अष्टकर्मी) नाम से यह विदित होता है कि ऋग्वैदिक आयाँ की संभवत: अंकों की जानकारी थी। ऋण देकर ब्याज ने वाले को वेकनाट कहा जाता था।
वर्णव्यवस्था ऋग्वेदकालीन समाज की व्यवस्था का प्रमुख आधार थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वाभाविक गुणों के अनुरूप कार्य के चयन की स्वतंत्रता थी। अत: व्यक्ति के कर्म का विशिष्ट महत्व था, क्योंकि व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण उसके कर्म से होता था। अपने गुण एवं कर्म के अनुरूप किये गये कर्तव्य, समाज में वर्ण-धर्म के नाम से अभिहित किये जाने लगे। ‘वर्ण’ शब्द की व्युत्पति संस्कृत के ‘वृज वरणे’ धातु से हुई है जिसका अभिप्राय है वरण करना। इस प्रकार ‘वर्ण’ से तात्पर्य किसी विशेष व्यवसाय (या वृति) के चयन से लिया जाता है। ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग ‘रंग’ अथवा ‘प्रकाश’ के अर्थ में हुआ है। कहीं-कहीं वर्ण का सम्बन्ध ऐसे जन वर्गों से दिखाया गया है जिनका चर्म काला या गोरा है। आर्य प्रारम्भ में एक ही वर्ण के थे और आर्यों का समूह विश कहलाता था।
वेद – वेद आर्यों का प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। वेद चार है – ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। इन सभी में ऋगवेद सबसे प्राचीन है।
उपनिषद् – उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है – ‘समीप उपवेशन’ या ‘समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है। उपनिषदों की कुल संख्या 108 है, इनको निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
वेदांग: वेदांग हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त – ये छ: वेदांग है।
पुराण: पुराण, हिंदुओं के धर्मसंबंधी आख्यान-ग्रंथ हैं जिनमें सृष्टि, लय, प्राचीन ऋषियों, मुनियों और राजाओं के वृत्तात आदि हैं। ये वैदिक काल के काफ़ी बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं।
अट्ठारह पुराण
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