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चोल साम्राज्य


चोल साम्राज्य के उदय के सम्बन्ध में जानकारी संगम युग (तीसरी शताब्दी) से मिलनी प्रारम्भ होती है। संगम साहित्य में दो चोल नरेशों करिकाल एवं कोच्चेनगनान का वर्णन मिलता है। चोल साम्राज्य को चोल मण्डलम् के नाम से भी जाना जाता था और यह पेन्नार और कावेरी नदियों के मध्य पूर्वी तट पर स्थित था।

  • चोल साम्राज्य की राजधानी त्रिचनापल्ली के पास उरैयूर में थी।

विजयालय (848-871 ई०)

  • विजयालय को चोल साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है, इसने नौंवी शताब्दी में इस साम्राज्य की स्थापना की।
  • विजयालय पल्लव शासकों का सामंत था।
  • इसने तंजौर (तंजावुर) पर अधिकार कर अपनी नई राजधानी बनायी, पहले उरैयूर इनकी राजधानी थी।
  • तंजौर को जीतने के उपलक्ष्य में विजयालय ने ‘नरकेसरी’ की उपाधि धारण की थी।
  • चोलेश्वर नामक एक भव्य मंदिर का निर्माण भी विजयालय ने ही कराया था।

आदित्य प्रथम (871-907 ई०)

  • विजयालय का पुत्र आदित्य प्रथम अपने पिता की मृत्यु उपरान्त 875 ई० में शासक बना।
  • आदित्य प्रथम ने अंतिम अयोग्य पल्लव शासक अपराजित वर्मन को हरा कर स्वतंत्र चोल साम्राज्य की स्थापना की।
  • पल्लवों पर विजय और स्वतंत्र चोल साम्राज्य स्थापित करने के बाद आदित्य प्रथम ने “कोदण्डराम” की उपाधि धारण की।

परान्तक प्रथम (907-950 ई०)

  • परान्तक प्रथम 907 ई० में शासक बना।
  • परान्तक प्रथम ने पांड्य शासक राजसिंह द्वितीय को पराजित कर “मदुरैकोण्ड” की उपाधि धारण की।
  • परान्तक प्रथम ने अपने शासन काल में 915 ई० में वेल्लूर के युद्ध में पांड्य राजाओं तथा श्रीलंका की संयुक्त सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया।
  • इसने चोल साम्राज्य का विस्तार कर, अपनी राज्य की सीमाओं का विस्तार कन्याकुमारी तक किया।
  • तंजौर(तंजावुर) के चिदम्बरम् मंदिर का निर्माण परान्तक प्रथम के द्वारा किया गया।
  • 949 ई० में राष्ट्रकूट वंश के कृष्ण तृतीय ने गंगों के साथ संधि कर चोल नरेश परान्तक प्रथम पर आक्रमण कर दिया और तक्कोलम के युद्ध में चोल बुरी तरह पराजित हुए। इसके साथ ही चोलों के साम्राज्य का उत्तरी भाग राष्ट्रकूटों के आधीन चला गया।

राजराज प्रथम (985-1014 ई०)

  • राजराज प्रथम का राज्यारोहण वर्ष 985 ई० में हुआ।
  • राजराज प्रथम चोलों में सबसे प्रतापी शासक था।
  • राजराज प्रथम ने चेर शासकों की नौ सेना को कंडलूर में परास्त किया और “काण्डलूर शालैकलमरूत” की उपाधि धारण की।
  • इसने श्रीलंका के शासक महेन्द्र पंचम को युद्ध में परास्त कर श्रीलंका के उत्तरी हिस्से को अपने राज्य में मिला लिया।
  • इसने श्रीलंका की राजधानी को अनुराधापुर से पोलन्नरूआ स्थानांतरित कर उसका नाम जयनाथमंगलम् कर दिया।
  • राजराज प्रथम ने जयनाथमंगलम् में एक शिव मंदिर का भी निर्माण करवाया और “शिवपादशेखर” की उपाधि धारण की।
  • अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार राजराज चोल दक्षिण एशिया के देशों में होने वाले व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना चाहता था।
  • अपने इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने कलिंग राजाओं सहित 12000 द्वीपों को जीतकर उन पर अपना राज्य स्थापित किया था।
  • राजराज प्रथम ने अपने एक दूत मण्डल को चीन भी भेजा था।
  • इतिहास लेखन की विशिष्ट कला “ऐतिहासिक प्राक्कथन” को प्रारम्भ करने का श्रेय भी राजराज प्रथम को जाता है।
  • इसने “मुम्माडि चोलदेव”,“जयगोण्ड”, एवं “चोलमार्तण्ड” की आपाधियां धारण की थी।
  • भू राजस्व निर्धारण हेतु इसने 1000 ई० में भूमि सर्वेक्षण करवाया।
  • अपने राज्य में स्थानीय स्वशासन की स्थापना की।
  • अपने शासन काल में इसने तंजौर(तंजावुर) के पास “राजराजेश्वर” नामक एक शैव मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसे बाद में इसके भव्य आकार के कारण “वृहदेश्वर मंदिर” कहा जाने लगा।

राजेन्द्र प्रथम (1014-1044 ई०)

  • राजराज प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजेन्द्र प्रथम सम्राट बना।
  • अपने शासक काल के पांचवे वर्ष ही इसने श्रीलंका के शासक महेन्द्र पंचम पर आक्रमण कर उसे बंदी बना लिया तथा पूर्ण श्रीलंका को अपने राज्य में मिला लिया।
  • इसने चेर और पांड्य राजाओं को भी युद्ध में हराया। अपने पुत्र “राजाधिराज” को पांड्य प्रदेश का शासक घोषित कर उसे “चोल-पांड्य” की उपाधि दी।
  • इसने उत्तरापथ की तरफ भी अभियान चलाए तथा बंगाल के पाल शासक महिपाल को पराजित किया। इस अभियान की सफलता पर “गंगैकोण्ड चोल” की उपाधि धारण की।
  • सिंचाई के लिए “चोलगंगम्” नामक एक विशाल झील का निर्माण करवाया।
  • राजेन्द्र प्रथम ने 1035 ई० में श्रीविजय साम्राज्य के शासक कुलोतुंगवर्मन को युद्ध में पराजित कर मलाया प्रायद्वीप, सुमात्रा एवं जावा को अपने राज्य में मिलाया।
  • इसके शासनकाल में वैदिक शिक्षा एवं दर्शन का विकास हुआ। वैदिक साहित्य के अध्ययन हेतु एक विशाल विद्यालय का निर्माण करवाया था।

राजाधिराज प्रथम (1044-1054 ई०)

  • राजेन्द्र प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजाधिराज प्रथम उत्तराधिकारी बना।
  • श्रीलंका, चेर एवं पांण्डय राज्यों के विद्रोही शासकों ने एक संयुक्त सेना बनाकर इसे हराने का प्रयास किया परन्तु अंततः राजाधिराज प्रथम की विजय हुई।
  • इसने कल्याणी पर विजय कर अपना राज्याभिषेक करवाया, तथा “विजय राजेन्द्र” की उपाधि धारण की। यहीं पर इसने अश्वमेध यज्ञ भी संपन्न किया।
  • कल्याणी के चालुक्यों से संघर्ष के दौरान ही कोप्पम के युद्ध में इसकी मृत्यु हुई थी।

राजेन्द्र द्वितीय (1054-1063 ई०)

  • राजेन्द्र द्वितीय अपने भाई राजाधिराज की मृत्यु के उपरान्त शासक बना।
  • राजेन्द्र द्वितीय ने 1062 ई० में कूडल संगमम् के युद्ध में चालुक्य वंश के सोमेश्वर प्रथम को पराजित किया था।
  • राजेन्द्र द्वितीय ने कोल्हापुर में जयस्तम्भ की स्थापना की, तथा “प्रकेसरी” की उपाधि धारण की।

वीर राजेन्द्र (1063-1067 ई०)

  • वीर राजेन्द्र अपने भाई राजेन्द्र द्वितीय के बाद शासक बना तथा “राजकेसरी” की उपाधि धारण की।
  • इसने अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह कल्याणी के चालुक्य वंश में किया था।
  • इसी के काल में कल्याणी के चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने चोलों से पराजित होने के अपमान के कारण तुंगभद्रा नदी में आत्महत्या कर ली थी।

अधिराजेन्द्र (1067-1070 ई०)

  • अधिराजेन्द्र, विजयालय द्वारा स्थापित चोल साम्राज्य का अंतिम शासक था।
  • इसके शासनकाल में हुए एक जन विद्रोह में इसकी हत्या कर दी गई थी।

चोल-चालुक्य वंश


पूर्वी चालुक्यों की रानी मधुरान्तिका एवं चोलों के शासक राजेन्द्र द्वितीय के विवाह के उपरान्त चोल-चालुक्य वंश की स्थापना हुई।

कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई०)

  • कुलोत्तुंग प्रथम ने कलचुरी के शासक यशः कर्णदेव एवं कलिंग नरेश अनंतवर्मन को पराजित किया।
  • इसी के शासन काल में श्रीलंका के राजा विजयबाहु ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।
  • कुलोत्तुंग प्रथम ने भूराजस्व के निर्धारण हेतु पुनः भूमि सर्वेक्षण करवाया।
  • व्यापार की सुगमता हेतु चुंगियों एवं तटकरों को समाप्त किया। “शुंगमतविर्त” उपाधि धारण की (करों को हटाने वाला)।

विक्रम चोल (1120-1133 ई०)

  • विक्रम चोल, कुलोत्तुंग प्रथम का उत्तराधिकारी बना।
  • चिदम्बरम में स्थित नटराज मंदिर का पुनरुद्धार कराया।
  • इसके द्वारा प्रजा से जबरन कर वसूले गए और मंदिर में स्थापित प्राचीन वैष्णव मूर्ति को समुद्र में फेंकवा दिया। जिस कारण इसे “त्याग समुद्र” की उपाधि मिली।

कुलोत्तुंग द्वितीय (1133-1150)

  • कुलोत्तुंग द्वितीय विक्रम चोल का पुत्र था।
  • कुलोत्तुंग द्वितीय ने गोविन्दराज की मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया जिससे उसका धर्म के प्रति असहिष्णु होने का ज्ञान होता है।
  • कुलोत्तुंग द्वितीय और इसके सामंतों ने ओट्टाक्कुट्टन, सेक्किलर और कम्बन को संरक्षण दिया।

राजराजा द्वितीय (1150-1173 ई०)

  • राजराजा द्वितीय एक कमजोर एवं अयोग्य शासक था। इसके समय में शक्तिशाली सामंतों का उदय प्रारम्भ हो गया।

राजाधिराज द्वितीय (1173-1182 ई०)

  • इसके शासन काल में पांण्डय वंश में उत्तराधिकार को लेकर विवाद हुआ, जिसमें राजाधिराज द्वितीय ने वीर पांड्य का सहयोग किया।

कुलोत्तुंग तृतीय (1182-1216 ई०)

  • 1182 ई० में शासक बना तथा ये चोल वंश का अंतिम महान शासक था।
  • 1186 ई० में कुलोत्तुंग तृतीय ने पांड्य नरेश वीर पांड्य जोकि चोल शासक राजाधिराज द्वितीय की सहायता से शासक बना था, को पराजित किया।
  • 1205 ई० में जटावर्मन कुलशेखर के नेतृत्व में पांड्यों ने इसे युद्ध में बुरी तरह पराजित किया।

राजाधिराज तृतीय (1216-1250 ई०)

  • राजाधिराज तृतीय एक कमजोर एवं अयोग्य शासक था। पांड्य नरेश सुंदर ने आक्रमण कर राजाधिराज तृतीय को बंदी बना लिया।

राजेन्द्र तृतीय (1250-1279 ई०)

  • राजेन्द्र तृतीय चोल वंश का अंतिम शासक था।
  • इसके शासन काल में एक बार फिर पाड्य राजाओं ने आक्रमण किया और चोल साम्राज्य पूरी तरह से पांड्यों के अधीनता में चला गया।
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