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चालुक्य वंश (बादामी/वातापी के चालुक्य – मुख्य शाखा)


चालुक्य वंश 


चालुक्य वंश की मुख्यतः तीन शाखाएँ थी, पहली बादामी/वातापी के चालुक्य जिसे मूल शाखा भी कहा जाता है, दूसरी थी वेंगी के चालुक्य जिसे पूर्वी शाखा भी कहा जाता है और तीसरी थी कल्याणी के चालुक्य जिसे पश्चिमी शाखा भी कहा जाता है।

चालुक्यों की मुख्यतः तीन शाखाएँ थी-

  • बादामी/वातापी के चालुक्य (मूल शाखा)।
  • वेंगी के चालुक्य (पूर्वी शाखा)।
  • कल्याणी के चालुक्य (पश्चिमी शाखा)।

बादामी/वातापी के चालुक्य (543-757 ई०)

  • इस वंश की स्थापना पुलकेशिन प्रथम ने की थी ।
  • महाकूट अभिलेख के अनुसार इससे पूर्व दो और शासकों के नाम भी आते है। जयसिंह एवं रणराग लेकिन ये स्वतंत्र शासक नहीं थे बल्कि कदम्ब शासकों के अधीन सामंत थे।
  • चालुक्यों की मूल शाखा का उदय स्थल वातापी/बादामी(बीजापुर, कर्नाटक) में हुआ था।
  • चालुक्य वंश के उत्तर में हर्षवर्धन तथा दक्षिण में पल्लव वंश का राज था। और दोनों ही राज्य से चालुक्य वंश ने लोहा लिया और अपनी सत्ता स्थापित की।

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बादामी/वातापी का चालुक्य राजवंश


पुलकेशिन प्रथम (543-566 ई०)

  • बादामी के चालुक्य वंश का संस्थापक।
  • इसने “स्तायश्रय”, “रणविक्रम”, “श्रीपृथ्वीबल्लभ” जैसी कई उपाधियां धारण की थी।
  • इसके द्वारा अश्वमेंघ एवं वाजपेय यज्ञ करवाये गये।
  • इसके दो पुत्र थे कीर्तिवर्मन प्रथम और मंगलेश। बड़े पुत्र होने के नाते कीर्तिवर्मन प्रथम अपने पिता की मृत्यु उपरान्त अगला शासक बना।

कीर्तिवर्मन प्रथम (566-597 ई०)

  • कीर्तिवर्मन प्रथम अपने पिता की मृत्यु उपरान्त वर्ष 566 ई० में राजगद्दी पर बैठा।
  • इसने “पुरू-रणपराक्रम” व “सत्याश्रय” की उपाधी धारण की।
  • शासन हाथ में आते ही उसने आस-पास के राज्यों को जीत कर अपनी आधीनता स्वीकार करवाना शुरू किया। बनावासी के कदम्बों, कोंकण के मौर्य, बेल्लारी-कर्नूल क्षेत्र के नलवंशी आदि इसमें प्रमुख थे। राज्यों को हराकर अपनी अधीनता स्वीकार करा के छोड देता था परन्तु पूरी तरह से अपने राज्य में नहीं मिलाता था।
  • महाकूट स्तम्भलेख में इसके द्वारा किए गए बहुसुवर्ण-अग्निष्टोम यज्ञ का उल्लेख मिलता है।
  • इसकी मृत्यु के समय इसके तीनों पुत्र अवयस्क होने के कारण अगला शासक इसका भाई मंगलेश बना।
  • बादामी में गुहा मंदिरों का निर्माण शुरू करवाया।

मंगलेश (597-610 ई०)

  • अपने भाई कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु उपरान्त वर्ष 597 ई० को राजगद्दी पर बैठा।
  • अपने भाई की ही भांति शासक बनते ही इसने कलचुरि शासक बुद्धराज एवं कोंकण क्षेत्र की राजधानी रेवती द्वीप पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। इसके साथ ही कदम्बों का पूर्णत्या उन्मूलन कर अपने राज्य में समाहित कर लिया।
  • अपने भाई की नीति से विपरीत मंगलेश द्वारा युद्ध उपरान्त हारे हुए राज्य को पूर्णत्या अपने राज्य में समाहित कर लिया जाता था।
  • मंगलेश वैष्णय धर्म का अनुयायी था। इसने “परमभागवत” की उपाधी धारण की थी।
  • बादामी के गुहा मंदिरों का निर्माण पूरा करवाया।

पुलकेशिन द्वितीय (610-642ई०)

  • पुलकेशिन द्वितीय अपने चाचा मंगलेश की हत्या कर चालुक्य वंश का अगला शासक बना।
  • इसने “सत्यश्रय श्री पृथ्वीबल्लभ महाराज”, “दक्षिनापथेस्वर”, “परमभाट्टारक” और “महाराजाधिराज” की उपाधियां धारण की।
  • इसके राजकवि रविकीर्ति द्वारा रचित ऐहोल शिला लेख से इसके बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
  • जिस समय पुलकेशिन द्वितीय शासक बना उस समय विंध्यांचल पर्वत के दक्षिण में चालुक्य वंश का विशाल राज्य स्थापित हो चुका था।
  • अतः शासन की सुगमता हेतु उसने अपने राज्य को दो भागों में विभाजित किया। एक भाग पर स्वयं राज्य किया जिसकी राजधानी वातापी थी तथा दूसरा भाग अपने भाई विष्णुवर्धन को सौंपा जिसकी राजधानी वेंगी में स्थापित हुई।
  • इस नए राज्य जिसकी राजधानी वेंगी को बनाया गया। ये पूर्वी चालुक्य या वेंगी के चालुक्य के नाम से भी जाना जाता है।
  • ऐहोल शिलालेख के अनुसार पुलकेशिन द्वितीय ने नर्मदा नदी के तट पर हर्षवर्धन को पराजित किया था।
  • इसी के काल में चालुक्यों तथा पल्लव वंश के बीच संघर्ष भी प्रारम्भ हुआ था। इसने पल्लव वंश की राजधानी कांची पर आक्रमण किया तथा पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन को हराकर उसके राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। परन्तु पल्लव शासक अपनी राजधानी को बचाने में सफल रहा।
  • कुछ वर्ष उपरान्त पुलकेशिन द्वितीय ने पुनः पल्लवों की राजधानी कांची पर आक्रमण किया। इस समय पल्लव वंश का शासक महेन्द्रवर्मन का पुत्र नरसिंहवर्मन था, जिसने पुलिकेशिन द्वितीय को बुरी तरह पराजित किया।
  • चीनी यात्री ह्वेनसांग 641 ई0 में पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में आया था।

विक्रमादित्य प्रथम (655-680 ई०)

  • अपने पिता पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के 13 वर्ष उपरान्त राजगद्दी पर बैठा। इन 13 वर्षों में चालुक्य राज्य में सत्ता को लेकर विवाद (पूर्व
  • शासक मंगलेश के परिवार की तरफ से) चलते रहे।
  • अपने छोटे भाई जयसिंह को लाट का गवर्नर बना दिया। जो आगे चलकर दक्षिण के चालुक्य कहलाए।

विनयादित्य (680-696 ई०)

  • अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त 680 ई० में शासक बना।
  • विनयादित्य ने पल्लवों से संघर्ष को जारी रखा। अभिलेखों से पता चलता है कि इसने पाण्डय एवं चोलों से भी युद्ध किए।
  • उत्तरापथ (विध्यांचल पर्वत के उत्तर में) पर विजय अभियान के दौरान एक युद्ध में ये मारा गया।

विजयादित्य (696-733 ई०)

  • पल्लवों की राजधानी कांची पर पुनः आक्रमण किया तथा उस समय के पल्लव शासक परमेश्ववर्मन द्वितीय को हराकर उससे कर वसूला।
  • वहीं पर पत्तदकल में एक शिवमंदिर का भी निर्माण करवाया।

विक्रमादित्य द्वितीय (733-746 ई०)

  • इसने अपने सामंत गंग वंश के श्रीपुरूष की सहायता से पल्लव वंश के शासक नंदिवर्मन को पराजित किया और “कांचिकोंड” की उपाधि धारण की।
  • इसी के समय पर लाट पर राष्ट्रकूटों ने अधिकार कर लिया तथा वहां से लाट के चालुक्य वंश को समाप्त कर दिया। इन्ही राष्ट्रकूटों ने आगे चलकर चालुक्य वंश को पूरी तरह समाप्त कर अपना वंश स्थापित किया।

कीर्तिवर्मन द्वितीय (746-757 ई०)

  • कीर्तिवर्मन द्वितीय विशाल चालुक्य साम्राज्य का शासक बना पर वह एक अयोग्य शासक था।
  • दन्तिदुर्ग नामक एक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर एक नए राष्ट्रकूट वंश की नींव रखी।
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