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सड.कल्पः सिद्धिदायक Chapter Notes | Chapter Notes For Class 7 PDF Download

पाठ परिचय

प्रस्तुत पाठ में वर्णन किया गया है कि किस प्रकार कठिन तपस्या करके पार्वती ने शिव को पति के रूप में प्राप्त किया। कथा के द्वारा शिक्षा दी गई है कि दृढनिश्चय और कठोर परिश्रम से कठिन-से-कठिन कार्य को पूर्ण किया जा सकता है। इस पाठ से धातुरूपों का अधिक ज्ञान प्राप्त होगा।

सड.कल्पः सिद्धिदायकः

इस पाठ में बताया गया है कि दृढ़ इच्छा शक्ति सिद्धि को प्रदान करने वाली होती है। कथा का सार इस प्रकार हैनारद के वचन से प्रभावित होकर पार्वती ने शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तप करने की इच्छा प्रकट की। पार्वती की माता मेना उसे तप करने के लिए निरुत्साहित करती हुई कहने लगी कि मनचाहे देवता औरसुख के सभी साधन तुम्हारे घर में हैं। तुम्हारा शरीर कोमल है जो कठोर तप के अनुकूल नहीं है। इसलिए तुम्हें तपस्या में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।

पार्वती ने माता को आश्वस्त करते हुए कहा कि वह किसी भी प्रकार की बाधा से भयभीत नहीं होगी तथा अभिलाषा के पूर्ण हो जाने पर पुनः घर लौट आएगी। इस प्रकार पार्वती अपनी माता को वचन देकर वन में जाकर तपस्या करने लगी। उनकी कठोर तपस्या से हिंसक पशु भी उनके मित्र बन गए। उन्होंने वेदों का अध्ययन किया तथा कठोर तपस्या का आचरण किया।

कुछ समय पश्चात् एक ब्रह्मचारी उनके आश्रम में आया। कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् ब्रह्मचारी ने उनसे तपस्या का उद्देश्य जानना चाहा। पार्वती की सहेली के मुख से तपस्या का प्रयोजन जानकर वह जोर से हँसने लगा।

तब वह ब्रह्मचारी शिव की निंदा करने लगा। वह कहने लगा-शिव अवगुणों की खान है। वह श्मशान में रहता है। भूतप्रेत ही उसके अनुचर हैं। तुम उससे अपना मन हटा लो। शिव से सच्चा प्रेम करने वाली पार्वती शिव की निंदा सुनकर क्रोधित हो गईं। वह उस ब्रह्मचारी को बुरा भला कहने लगी और उसे वहाँ से चले जाने के लिए कहने लगी। ब्रह्मचारी के अडियल रवैये को देखकर पार्वती आश्रम से बाहर जाने को तत्पर हो गई। तब शिव ने अपना वास्तविक रूप प्रकट करके पार्वती से कहा कि मैं ब्रह्मचारी के रूप में शिव ही हूँ। आज तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई हो। यह सुनकर पार्वती अत्यधिक प्रसन्न हो गईं।

Word Meanings 

(क) पार्वती शिवं पतिरूपेण अवाञ्छत्। एतदर्थं सा तपस्यां कर्तुम् ऐच्छत्। सा स्वकीयं
मनोरथं मात्रे न्यवेदयत्। तच्छ्रुत्वा माता मेना चिन्ताकुला अभवत्।

सरलार्थ :
पार्वती शिव को पति के रूप में चाहती थी। इसके लिए वह तपस्या करना चाहती थी। उसने अपनी इच्छा माँ को बताई। यह सुनकर माँ मेना चिन्ता से व्याकुल हो गईं।

शब्दार्थाः (Word Meanings): 

  • अवाञ्छत् – चाहती थी 
  • एतदर्थम् (एतत्+अर्थम् )-इसके लिए 
  • कर्तुम्-करने के लिए 
  • ऐच्छत्-चाहती थी 
  • मात्रे-माता को, 
  • न्यवेदयत्-निवेदन किया/बताया 
  • तच्छुत्वा (तत्+श्रुत्वा)-यह सुनकर
  • चिन्ताकुला-चिन्ता से व्याकुल 

(ख) मेना- वत्से! मनीषिता देवता: गृहे एव सन्ति। तपः कठिनं भवति। तव शरीरं सुकोमलं वर्तते। गृहे एव वस।
अत्रैव तवाभिलाषः सफलः भविष्यति।

पार्वती- अम्ब! तादृशः अभिलाषः तु तपसा एव पूर्णः भविष्यति। अन्यथा तादृशं च पतिं कथं प्राप्स्यामि। अहं तपः एव चरिष्यामि इति मम सङ्कल्पः।
मेना- पुत्रि! त्वमेव मे जीवनाभिलाषः।।
पार्वती- सत्यम्। परं मम मनः लक्ष्यं प्राप्तुम् आकुलितं वर्तते। सिद्धिं प्राप्य पुनः तवैव शरणम् आगमिष्यामि। अद्यैव विजयया साकं गौरीशिखरं गच्छामि। (ततः पार्वती निष्क्रामति)

सरलार्थः
मेना- बेटी! इष्ट देवता तो घर में ही होते हैं। तप कठिन होता है। तुम्हारा शरीर कोमल है। घर पर ही रहो। यहीं तुम्हारी अभिलाषा पूरी हो जाएगी। पार्वती- माँ! वैसी अभिलाषा तो तप द्वारा ही पूरी होगी। अन्यथा मैं वैसा पति कैसे पाऊँगी। मैं तप ही करूँगी-यह मेरा संकल्प है। मेना- पुत्री, तुम ही मेरी जीवन अभिलाषा हो। पार्वती- ठीक है। पर मेरा मन लक्ष्य पाने के लिए व्याकुल है। सफलता पाकर पुन: तुम्हारी ही शरण में आऊँगी। आज ही विजया के साथ गौरी शिखर पर जा रही हूँ। (उसके बाद पार्वती बाहर चली जाती है)

शब्दार्थाः (Word Meanings) :

  • वर्तते-है 
  • तवाभिलाषः (तव+अभिलाषः)-तुम्हारी अभिलाषा 
  • तपसा-तप द्वारा 
  • अन्यथा-नहीं तो 
  • प्राप्स्यामि-पाऊँगी 
  • चरिष्यामि-करूँगी
  • प्राप्तुम्-पाने के लिए
  • प्राप्य-पाकर
  • अद्यैव (अद्य + एव)-आज ही, 
  • साकम्-साथ
  • निष्क्रामति-निकल जाती है
  • सङ्कल्पः-संकल्प

(ग) (पार्वती मनसा वचसा कर्मणा च तपः एव तपति स्म। कदाचिद् रात्रौ स्थण्डिले,
कदाचिच्च शिलायां स्वपिति स्म। एकदा विजया अवदत्।)
विजया- सखि! तपःप्रभावात् हिंस्रपशवोऽपि तव सखायः जाताः।
पञ्चाग्नि-व्रतमपि त्वम् अतपः। पुनरपि तव अभिलाष: न पूर्णः अभवत्।
पार्वती- अयि विजये! किं न जानासि? मनस्वी कदापि धैर्यं न परित्यजति। अपि च मनोरथानाम् अगतिः नास्ति।
विजया- त्वं वेदम् अधीतवती। यज्ञं सम्पादितवती। तपःकारणात् जगति तव प्रसिद्धिः।
‘अपर्णा’ इति नाम्ना अपि त्वं प्रथिता पुनरपि तपसः फलं नैव दृश्यते।

सरलार्थः
(पार्वती ने मन, वचन व कर्म से तप ही किया। कभी रात को भूमि पर और कभी शिला पर सोती थी। एक बार विजया ने कहा)
विजया- सखी! तप के प्रभाव से हिंसक पशु भी तुम्हारे मित्र बन गए हैं। पञ्चाग्नि व्रत भी तुमने किया। फिर भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण नहीं हुई।
पार्वती- अरी विजया! क्या तुम नहीं जानती हो? मनस्वी कभी धैर्य नहीं छोड़ता है। एक बात और इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती।
विजया- तुमने वेद का अध्ययन किया। यज्ञ किया। तप के कारण तुम्हारी संसार में ख्याति है। ‘अपर्णा’ इस नाम से भी तुम विख्यात हो। फिर भी तप का फल नहीं दिखाई दे रहा।

शब्दार्थाः (Word Meanings) :

  • मनसा-मन से
  • वचसा-वाणी द्वारा
  • कर्मणा-कर्म द्वारा
  • कदाचित्-कभी
  • रात्रौ-रात को
  • स्थण्डिले-भूमि पर
  • स्वपिति स्म-सोती थी
  • हिंम्रपश्वः-हिंसक पशु
  • सखायः-मित्र (friends), 
  • पुनरपि (पुनः + अपि)-फिर भी
  • अतपः-तप किया 
  • किं न जानासि-क्या नहीं जानती हो
  • मनस्वी-ज्ञानी
  • अधीतवती-अध्ययन किया
  • जगति-जगत में 
  • नाम्ना-नाम से 
  • प्रथिता-विख्यात 
  • तपसः-तप का 
  • दृश्यते-दिखाई देता है 

(घ) पार्वती- अयि आतुरहृदये! कथं त्वं चिन्तिता ………. ।
( नेपथ्ये-अयि भो! अहम् आश्रमवटुः। जलं वाञ्छामि।)
(ससम्भ्रमम् ) विजये! पश्य कोऽपि वटुः आगतोऽस्ति।
(विजया झटिति अगच्छत्, सहसैव वटुरूपधारी शिवः तत्र प्राविशत्)
विजया-वटो! स्वागतं ते! उपविशतु भवान्। इयं मे सखी पार्वती। शिवं प्राप्तुम् अत्र तपः करोति।

सरलार्थः
पार्वती- अरे, व्याकुल हृदय वाली, तुम चिन्तित क्यों हो? (परदे के पीछे- अरे कोई है! मैं आश्रम में रहने वाला ब्रह्मचारी हूँ। मैं पानी पीना चाहता हूँ। (मुझे पानी चाहिए)। (हड़बड़ाहट से)। विजया! देखो कोई ब्रह्मचारी आया है। (विजया झट से गई और सहसा ही वटुरूपधारी शिव ने प्रवेश किया) विजया- हे ब्रह्मचारी आपका स्वागत है। कृपया बैठिए। यह मेरी सखी पार्वती है जो शिव को पति रूप में पाने के लिए तप कर रही है।

शब्दार्थाः (Word Meanings) :

  • नेपथ्ये-परदे के पीछे
  • ससम्भ्रमम्-हड़बड़ाहट से
  • वटुः-ब्रह्मचारी
  • झटिति-झट से (जल्दी)
  • उपविशतु-बैठिए
  • भवान्-आप
  • इयं-यह

(ङ) वटुः- हे तपस्विनि! किं क्रियार्थं पूजोपकरणं वर्तते, स्नानार्थं जलं सुलभम् भोजनार्थं फलं वर्तते? त्वं तु जानासि एव शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
( पार्वती तूष्णीं तिष्ठति) वटुः- हे तपस्विनि! किमर्थं तपः तपसि? शिवाय?
(पार्वती पुनः तूष्णीं तिष्ठति)
विजया-(आकुलीभूय) आम्, तस्मै एव तपः तपति।
(वटुरूपधारी शिवः सहसैव उच्चैः उपहसति)
वटुः- अयि पार्वति! सत्यमेव त्वं शिवं पतिम् इच्छसि? (उपहसन्) नाम्ना शिवः
अन्यथा अशिवः। श्मशाने वसति। यस्य त्रीणि नेत्राणि, वसनं व्याघ्रचर्म, अङ्गरागः चिताभस्म, परिजनाश्च भूतगणाः। किं तमेव शिवं पतिम् इच्छसि?

सरलार्थः
वटुः- हे तपस्विनी! क्या तपादि करने के लिए पूजा-सामग्री है, स्नान के लिए जल उपलब्ध है? भोजन के लिए फल हैं। तुम तो जानती ही हो शरीर ही धर्म का आचरण के लिए
मुख्य साधन है। (पार्वती चुपचाप बैठी है)
वटुः- हे तपस्विनी किसलिए तप कर रही हो? शिव के लिए?
(पार्वती फिर भी चुप बैठी है)
विजया- (व्याकुल होकर) हाँ, उसी के लिए तप कर रही है।
(वटुरूपधारी शिव अचानक ही ज़ोर से उपहास करता है)
वटुः- अरी पार्वती! सच में तुम शिव को पति (रूप में) चाहती हो? (उपहास/मज़ाक करते हुए) वह नाम से शिव अर्थात् शुभ है अन्यथा अशिव अर्थात् अशुभ है। श्मशान में रहता है। जिसके तीन नेत्र हैं, वस्त्र व्याघ्र की खाल है, अंगलेप चिता की भस्म और सेवकगण
भूतगण हैं। क्या तुम उसी शिव को पति के रूप में पाना चाहती हो?

शब्दार्थाः (Word Meanings) :

  • क्रियार्थम्-तप की क्रिया के लिए 
  • शरीरमाद्यम् (शरीरम् आद्यम् )-शरीर सर्वप्रथम 
  • तूष्णीम्-चुपचाप 
  • आकुलीमूय-व्याकुल होकर 
  • उपहसति-उपहास करता है 
  • अशिवः-अशुभ
  • श्मशाने-श्मशान में
  • वसनम् - वस्त्र 
  • परिजनाश्च-(परिजनाः + च) और परिजन 
  • उपहसन् - उपहास करते हुए 

(च) पार्वती- (क्रुद्धा सती) अरे वाचाल! अपसर। जगति न कोऽपि शिवस्य यथार्थं स्वरूपं जानाति। यथा त्वमसि तथैव वदसि।
(विजयां प्रति) सखि! चल। यः निन्दां करोति सः तु पापभाग् भवति एव, यः शृणोति सोऽपि पापभाग् भवति।
(पार्वती द्रुतगत्या निष्क्रामति। तदैव पृष्ठतः वटो: रूपं परित्यज्य शिवः तस्याः
हस्तं गृह्णाति। पार्वती लज्जया कम्पते)
शिव- पार्वति! प्रीतोऽस्मि तव सङ्कल्पेन अद्यप्रभृति अहं तव तपोभिः क्रीतदासोऽस्मि।
(विनतानना पार्वती विहसति)

सरलार्थः
पार्वती- (क्रुद्ध होकर) अरे वाचाल! चल हट। संसार में कोई भी शिव के यथार्थ (असली) रूप को नहीं जानता। जैसे तुम हो वैसे ही बोल रहे हो। (विजया की ओर) सखी! चलो। जो निन्दा करता है वह पाप का भागी होता है, जो सुनता है वह भी पापी होता है। (पार्वती तेज़ी से (बाहर) निकल जाती है। तभी पीछे से ब्रह्मचारी का रूप त्याग कर शिव उसका हाथ पकड़ लेते हैं। पार्वती लज्जा से काँपती है।)

शिव- पार्वती! मैं तुम्हारे (दृढ़) संकल्प से खुश हूँ। आज से मैं तुम्हारा तप से खरीदा दास हूँ। (झुके मुख वाली पार्वती मुस्कुराती है)

शब्दार्थाः (Word Meanings) :

  • वाचाल-बातूनी
  • अपसर-दूर हट
  • न कोऽपि (कः + अपि)-कोई भी नहीं
  • पापभाग - पापी
  • द्रुतगत्या-तीव्र गति से
  • पृष्ठतः-पीछे से
  • गृह्णति - पकड़ लेता है
  • लज्जया-लज्जा से  
  • अद्यप्रभृति-आज से
  • क्रीतदासः-खरीदा हुआ दास
  • विनतानना-झुके हुए मुख वाली
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FAQs on सड.कल्पः सिद्धिदायक Chapter Notes - Chapter Notes For Class 7

1. पाठ परिचय क्या है?
उत्तर: पाठ परिचय एक विषय के बारे में संक्षिप्त जानकारी होती है जो उस विषय के महत्वपूर्ण बिंदुओं को समझाती है। यह पाठ के मुख्य संग्रहालय और विषय के साथ जुड़े सवालों का एक संक्षेप होता है।
2. पाठ परिचय क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: पाठ परिचय छात्रों को विषय के महत्वपूर्ण बिंदुओं की समझ में मदद करता है और उन्हें विषय के बारे में अधिक जानने के लिए उत्साहित करता है। यह एक संक्षेप होता है जो छात्रों को पठन, लेखन और बोलने के दौरान सहायता करता है।
3. पाठ परिचय कैसे लिखें?
उत्तर: पाठ परिचय लिखते समय यह सुनिश्चित करें कि आप विषय के मुख्य संग्रहालय को संक्षेप में व्यक्त कर रहे हैं। इसमें केवल महत्वपूर्ण बिंदुओं को शामिल करें और उन्हें स्पष्ट और सरल भाषा में लिखें। इसे आकर्षक और आसानी से पठने योग्य बनाएं।
4. पाठ परिचय कितने शब्दों में होना चाहिए?
उत्तर: पाठ परिचय को संक्षेप में लिखना चाहिए। यह आमतौर पर 100-200 शब्दों में होता है। यह छात्रों को विषय के मुख्य पहलुओं के बारे में जानकारी प्रदान करना होता है और उन्हें विषय की अधिक जानकारी के लिए प्रेरित करता है।
5. पाठ परिचय किसी परीक्षा के लिए क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: पाठ परिचय परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह छात्रों को परीक्षा के मुख्य विषय के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्रदान करता है। यह उन्हें परीक्षा के लिए तैयारी करने में मदद करता है और उन्हें महत्वपूर्ण बिंदुओं को समझने में सहायता करता है।
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