प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त बुद्धचरित पुस्तक से लिया गया है. इस अध्याय में सिद्धार्थ के ज्ञान प्राप्ति अथवा दर्शन परिचर्चा का वर्णन किया गया है. प्रस्तुत अध्याय के अनुसार जब शांतिप्रिय अराड मुनि के आश्रम में राजकुमार सिद्धार्थ ने प्रवेश किया तो ऐसा लगा, जैसे उनके शरीर की आभा से सारा आश्रम प्रकाशित हो गया हो. अराड मुनि राजकुमार को निहारते हुए स्नेहपूर्वक कहा – हे सौम्य ! मुझे पता चला है कि आप सभी स्नेह-बंधनों को तोड़कर घर से निकल आए हैं. आपका मन सब प्रकार से धैर्यवान है. आप ज्ञानी हैं, तभी तो राजलक्ष्मी को त्यागकर यहाँ आ गए हैं. यद्यपि शिष्य को अच्छी तरह जानकार ही उचित समय पर शास्त्र-ज्ञान दिया जाता है, परन्तु आपकी गंभीरता और संकल्प को देखकर मैं आपकी परीक्षा नहीं लूँगा. तत्पश्चात, अराड मुनि की बातों से प्रभावित होकर राजकुमार परिव्राजक बोले – आप जैसे विरक्त की यह अनुकूलता मैं कृतार्थ हो गया हूँ. यदि आप उचित समझें तो मुझे जरा और मृत्यु के रोग से मुक्त होने का उपाय बताइए.
अराड मुनि ने कुमार को संबोधित करते हुए कहा – हे श्रोताओं में श्रेष्ठ ! पहले आप हमारा सिद्धांत सुनिए और समझिए कि यह संसार जीवन और मृत्यु के चक्र के रूप में चलता रहता है. हे मोहमुक्त ! आलस्य अन्धकार है, जन्म-मृत्यु मोह हैं, काम महामोह है और क्रोध तथा विषाद भी अन्धकार है. इन्हीं पाँचों को अविधा कहते हैं और इन्हीं में फंसकर व्यक्ति पुनः-पुनः जन्म और मृत्यु के चक्र में पड़ता है. इस प्रकार आत्मा तत्वज्ञान प्राप्त कर आवागमन से मुक्त होती है और अक्षय पद अमरत्व को प्राप्त करता है.
अराड मुनि की बातें सुनने के पश्चात कुमार ने कहा – हे मुनि ! मैंने आपसे उत्तरोत्तर कल्याणकारी मार्ग सुना. किन्तु मैं इसे मोक्ष नहीं मान सकता. आत्मा के अस्तित्व को मानने पर अहंकार के अस्तित्व को मानना पड़ता है. मुझे आपकी ये बातें स्वीकार नहीं हैं. अतः अराड मुनि के सिद्धांतों को सुनने के बाद भी कुमार को संतोष नहीं हुआ. यह धर्म अधुरा है, ऐसा मानकर वे उस आश्रम से निकल गए और अपने लक्ष्य की खोज में आगे बढ़ गए. ऐसे ही कुमार ने और भी ऋषियों के आश्रम गए, परन्तु उन्हें कहीं पर भी संतुष्टि नहीं मिला.
तत्पश्चात कुछ समय के बाद बोधिसत्व कुमार को एकांत विहार की इच्छा हुई. इसलिए उनहोंने नैरंजना नदी के तट पर निवास किया. वहां पर उनहोंने पांच भिक्षुओं को देखा, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को में कर लिया था और वहीं रहकर तपस्या कर रहे थे. उन भिक्षुओं ने जब इस नवागत साधु को देखा तो वे उनके निकट आए और उनकी सेवा करने लगे. कुछ समय बाद जन्म और मृत्यु का अंत करने के उपाय के रूप में बोधिसत्व कुमार ने निराहार रहकर कठोर ताप प्रारंभ किया. वहां उनहोंने छः वर्षों तक कठोर ताप किया और अनेक उपवास व्रत किए. कुछ समय के बाद उन्हें ऐसा लगने लगा कि इस प्रकार की कठोर तपस्या से व्यर्थ ही शरीर को कष्ट होता है. उन्हें ऐसी अनुभूति हुई कि दुर्बल व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता. अतः वे शरीर-बल-वृद्धि के विषय में विचार करने लगे. उन्हें लगा कि आहार तृप्ति से ही मानसिक शक्ति मिलती है.
इस प्रकार बोधिसत्व राजकुमार सिद्धार्थ ने बोधि प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प लिया और पास ही एक अवश्त्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे भूमि पर आसन लगाकर बैठ गए. तभी काल नामक एक सर्प प्रकट हुआ, क्यूंकि उसे ज्ञात हो चूका था कि यह मुनि अवश्य ही बोधि प्राप्त करेगा. सर्प ने पहले उनकी स्तुति की फिर कहा – हे मुनि, आपके चरणों से आक्रान्त होकर यह पृथ्वी बार-बार डोल रही है, सूर्य के समान आपकी आभा सर्वत्र प्रकाशित है. आप अवश्य ही अपना लक्ष्य प्राप्त करेंगे. हे कमललोचन ! जिस प्रकार आकाश में नीलकंठ पक्षियों के झुंड आपकी प्रदक्षिणा कर रहे हैं और मंद-मंद पवन प्रवाहित हो रही है, उससे लगता है कि आप अवश्य ही बुद्ध बनेंगे. तत्पश्चात राजकुमार सिद्धार्थ ने बोधि प्राप्त करने के लिए प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि – जब तक मैं कृतार्थ नहीं हो जाता, इस आसन से नहीं उठूँगा. जब महामुनि सिद्धार्थ ने मोक्ष प्राप्ति के प्रतिज्ञा कर आसन लगाया तो सारा लोक अत्यंत प्रसन्न हुआ, परन्तु सद्धर्म का शत्रु मार (कामदेव) भयभीत हो गया. वह अपने पुत्र-पुत्रियों को संबोधित करते हुए कहने लगा कि – देखो, इस मुनि ने प्रतिज्ञा का कवच पहनकर सत्व के धनुष पर अपनी बुद्धि के बाण चढ़ा लिए हैं. यदि यह मुझे जीत लेता है और सारे संसार को मोक्ष का मार्ग बता देता है तो राज्य सूना हो जाएगा. इसलिए यह ज्ञान दृष्टि प्राप्त करे उससे पहले ही मुझे इसका व्रत भंग कर देना चाहिए. अतः मैं भी अभी अपना धनुष-बाण लेकर तुम सबके साथ इस पर आक्रमण करने जा रहा हूँ. जहाँ महामुनि सिद्धार्थ समाधी लगाकर विराजमान थे, वह मार अपने पुत्र-पुत्रियों के साथ पहुंचकर उन्हें ललकारा, परन्तु जब इसका महामुनि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उसने अपने पुत्रों और कन्याओं को आगे भेजा और अपना बाण छोड़ दिया. लेकिन इसका कोई भी प्रभाव मुनि पर नहीं हुआ. ततपश्चात मार ने अपनी सेना को याद किया और उसकी विकराल सेना उपस्थित हो गई. मार ने अपनी सेना को आक्रमण करने का आदेश दिया और कहा कि महर्षि को भयभीत करो, जिसका इसका ध्यान भंग हो जाए. इसी दौरान किसी अदृश्य जीव ने आकाश से प्रकट होकर मार से कहा – तुम व्यर्थ कि क्यों परिश्रम कर रहे हो, जैसे सुमेरु पर्वत को हवा हिला नहीं सकती, वैसे ही तुम और तुम्हारे भूतगण इस महामुनि को विचलित नहीं कर सकते. अंततः मार अपने सारे प्रयत्नों में विफलता पाकर वहां से भाग गया. मार पर महर्षि की विजय होते ही सारा आकाश चन्द्रमा से सुशोभित हो गया, सुगंधित जल सहित पुष्पों की वर्षा होने लगी, दिशाएँ निमल हो गई.
अंततः इक्ष्वाकु वंश के मुनि राजकुमार सिद्धार्थ ने सिद्धि प्राप्त कर ली और वे बुद्ध हो गए. यह जानकार देवता और ऋषिगण उनके सम्मान के लिए विमानों पर सवार होकर उनके पास आए और अदृश्य रूप में उनकी स्तुति करने लगे. वे देवता बुद्ध से निवेदन करते हुए कहे – हे भवसागर को पार करनेवाले मुनि, आप इस दुखी जगत का उद्धार कीजिए. जैसे धनी धन बांटता है, वैसे ही आप अपने गुण और ज्ञान को बांटिए. महात्मा बुद्ध ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार की. तभी देवताओं के माध्यम से बुद्ध को भिक्षा पात्र दिया गया. अतः इस प्रकार संसार के अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाने के लिए महात्मा बुद्ध ने काशी जाने की इच्छा की. वे अपने आसन से उठे, उनहोंने अपने शरीर को इधर-उधर घुमाया और बोधिवृक्ष की ओर प्रेम से देखा...||
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