Class 10 Exam  >  Class 10 Notes  >  संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)  >  कारक और विभक्‍ति

कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10) PDF Download

कारकस्य परिभाषा – क्रियाजनक कारकम् अथवा क्रियां करोति इति कारकम् । (क्रिया का जनक कारक होता है। अथवा क्रिया को करता है वह कारक है।) ।
अर्थात् यः क्रिया सम्पादयति अथवा यस्य क्रियया सह साक्षात् परम्परया वा सम्बन्धो भवति सः ‘कारकम्’ इति कथ्यते। (अर्थात् जो क्रिया को सम्पादित करता है अथवा जिसका क्रिया के साथ साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध होता है। वह ‘कारक’ कहा जाता है।)
क्रियया सह कारकाणां साक्षात् परम्परया व सम्बन्धः कथं भवति इति बोधयितुम् अत्र वाक्यमेकं प्रस्तूयते । यथा(क्रिया के साथ कारकों को साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध कैसे होता है यह जानने के लिए यहाँ एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है।)
“हे मनुष्या:! नरदेवस्य पुत्र: जयदेवः स्वहस्तेन कोषात् निर्धनेभ्य: ग्रामे धनं ददाति।” अत्र क्रियया सह कारकाणां सम्बन्धं ज्ञातुम् एवं प्रकारेण प्रश्नोत्तरमार्गः आश्रयणीयः
(यहाँ क्रिया के साथ कारकों का सम्बन्ध जानने के लिए इस प्रकार से प्रश्नोत्तर मार्ग का आश्रय लेना चाहिए-)
कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)

एवमेव जयदेवः इति कर्तृकारकस्य तु क्रियया सह साक्षात् सम्बन्धः अस्ति अन्येषां कारकाणां च परम्परया सम्बन्धः अस्ति। अतः इमानि सर्वाणि कारकाणि कथ्यन्ते। परन्तु अस्य एव वाक्यस्य हे मनुष्याः, नरदेवस्य च इति पदद्वयस्य ददाति’ इति क्रियया सह साक्षात् परम्परया वा सम्बन्धो नास्ति । अतः इदं पदद्वयं कारकम् नास्ति । सम्बन्धः कोरकं तु नास्ति परन्तु तस्मिन् षष्ठी विभक्तिः भवति। (इसी प्रकार जयदेव’ इस कर्ता कारक का तो क्रिया के साथ साक्षात् सम्बन्ध है और दूसरे कारकों का परम्परा से सम्बन्ध है। अतः ये सब कारक कहे जाते हैं। परन्तु इस वाक्य का “हे मनुष्याः , नरदेवस्य” इन दो पदों का ‘ददाति’ क्रिया के साथ साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध नहीं है। अत: ये दो पद कारक नहीं हैं। सम्बन्ध कारक तो नहीं हैं परन्तु उसमें षष्ठी विभक्ति होती है।)
कारकाणां संख्या – इत्थं कारकाणां संख्या षड् भवति । यथोक्तम्- (इस प्रकार कारकों की संख्या छः होती है। जैसा कहा है-)
कर्ता कर्म च करणं च सम्प्रदानं तथैव च।
अपादानाधिकरणमित्याहुः कारकाणि षट्।।
अत्र कारकाणां विभक्तीनां च सामान्यपरिचयः प्रस्तूयते- (यहाँ कारकों और विभक्तियों का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है-)

ध्यातव्यः – संस्कृत में प्रथमा से सप्तमी तक सात विभक्तियाँ होती हैं। ये सात विभक्तियाँ ही कारक को रूप धारण करती हैं। सम्बोधन विभक्ति को प्रथमा विभक्ति के ही अन्तर्गत गिना जाता है। क्रिया से सीधा सम्बन्ध रखने वाले शब्दों को ही कारक माना गया है। षष्ठी विभक्ति का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है, अतः ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक नहीं माना गया है। इस प्रकार संस्कृत में कारक छः ही होते हैं तथा विभक्तियाँ सात होती हैं। कारकों में प्रयुक्त विभक्तियों तथा उनके चिह्नों का विवरण इस प्रकार है
कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)

प्रथमा-विभक्तिः
(1) यः क्रियायाः करणे स्वतन्त्रः भवति सः कर्ता इति कथ्यते (स्वतन्त्रः कर्ता)। उक्तकर्तरि च प्रथमा विभक्तिः भवति । यथा-रामः पठति । (जो क्रिया के करने में स्वतन्त्र होता है, वह कर्ता कहा जाता है। (स्वतन्त्र कर्ता) और कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे- रामः पठति ।)
अत्र पठनक्रियायाः स्वतन्त्ररूपेण सम्पादकः रामः अस्ति । अत: अयम् एव कर्ता अस्ति । कर्तरि च प्रथमा विभक्तिः भवति । (यहाँ पठन क्रिया का स्वतन्त्र रूप से सम्पादन करने वाला ‘राम’ है। अत: यही कर्ता है और कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है।)
(2) कर्मवाच्ये कर्मणि प्रथमा विभक्तिः भवति। (कर्मवाच्य में कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।) यथा- मया ग्रन्थः
पठ्यते।
(3) सम्बोधने प्रथमा विभक्तिः भवति (सम्बोधने च) ((सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। ) यथा- हे बालकाः! यूयं कुत्र गच्छथ? ।
(4) कस्यचित् संज्ञादिशब्दस्य (प्रातिपदिकस्य) अर्थं, लिङ्ग, परिमाणं, वचनं च प्रकटीकर्तुं प्रथमायाः विभक्तेः प्रयोगः क्रियते । यतोहि विभक्ते: प्रयोग विना कोऽपि शब्द: स्वकीयमर्थं दातुं समर्थो नास्ति अत एव अस्मिन् विषये प्रसिद्ध कथनमस्ति- ‘अपदं न प्रयुञ्जीत ।’ उदाहरणार्थम्- बलदेवः, पुरुषः, लघुः, लता। (किसी संज्ञा आदि शब्द के (प्रातिपदकस्य) अर्थ, लिङ्ग, परिमाण और वचन प्रकट करने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि विभक्ति के प्रयोग के बिना कोई भी शब्द अपना अर्थ देने में समर्थ नहीं है, इसलिए इस विषय में प्रसिद्ध कथन है- ‘अपदं ने प्रयुञ्जीत” उदाहरण के लिए- बलदेवः, पुरुषः, लघुः, लता।)
(5) ‘इति’ शब्दस्य योगे प्रथमा विभक्तिः भवति । यथा- वयम् ईम् जयन्तः इति नाम्ना जानीमः। (‘इति’ शब्द के प्रयोग में प्रथमा होती है। जैसे- “हमें इसे ‘जयन्त’ इस नाम से जानते हैं।”)

ध्यातव्यः
संस्कृत में कर्ता के तीन पुरुष, तीन वचन और तीन लिङ्ग होते हैं। यथा (जैसे)|
कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)प्रथम पुरुष के सर्वनाम रूपों की भाँति ही राम, लता, फल, नदी आदि के रूप तीनों वचनों में प्रयोग में लाये जाते हैं। कर्ता के तीन लिङ्ग-पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग होते हैं। वाक्य में सामान्य रूप से कर्ता कारक को प्रथमा विभक्ति द्वारा व्यक्त करते हैं।

वाक्य में कर्ता की स्थिति के अनुसार संस्कृत में वाक्ये तीन प्रकार के होते हैं
(i) कर्तृवाच्य)
(ii) कर्मवाच्य
(iii) भाववाच्य ।

(i) कर्तृवाच्यः – जब वाक्य में कर्ता की प्रधानता होती है, तो कर्ता में सदैव प्रथमा विभक्ति ही होती है। जैसे-मोहनः पठति ।
(ii) कर्मवाच्यः – वाक्य में कर्म की प्रधानता होने पर कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है और कर्ता में तृतीया। जैसे–रामेण ग्रन्थः पठ्यते ।
(iii) भाववाच्यः – वाक्य में भाव (क्रियातत्त्व) की प्रधानता होती है और कर्म नहीं होता है। कर्ता में सदैव तृतीया विभक्ति और क्रिया (आत्मनेपदी) प्रथम पुरुष एकवचन की प्रयुक्त होती है। जैसे-कमलेन गम्यते।
वाक्य में कर्ता के अनुसार ही क्रिया का प्रयोग किया जाता है अर्थात् कर्ता जिस पुरुष और वचन का होता है, क्रिया भी उसी पुरुष व वचन की होती है।
कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)

द्वितीया विभक्तिः
(1) कर्तुरीप्सिततमं कर्म – (i) कर्ता क्रियया यं सर्वाधिकम् इच्छति तस्य कर्मसंज्ञा भवति। कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः भवति (कर्मणि द्वितीया) कर्ता क्रिया से (क्रिया के द्वारा) जिसे सबसे अधिक चाहता है उसकी कर्म संज्ञा होती है। ‘कर्मणि द्वितीया” और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।) यथा

  1. रा: ग्रामं गच्छति । (राम गाँव को जाता है।)
  2. बालकाः वेदं पठन्ति। (बालक वेद पढ़ते हैं।)
  3. वयं नाटकं द्रक्ष्यामः। (हम नाटक देखेंगे।)
  4. साधुः तपस्याम् अकरोत् । (साधु ने तपस्या की।)
  5. सन्दीपः सत्यं वदेत् । (सन्दीप सत्य बोले ।)

(ii) तथायुक्त अनीप्सितम् – कर्ता जिसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, उसे ईप्सितम् कहते हैं और जिसकी इच्छा नहीं रखता उसे अनीप्सित कहते हैं। अनीप्सित पदार्थ पर क्रिया को फल पड़ने पर उसकी कर्म संज्ञा होती है। जैसे-‘दिनेश: विद्यालयं गच्छन्, बालकं पश्यति’ (‘दिनेश विद्यालय को जाता हुआ, बालक को देखता है’) इस वाक्य में ‘बालक’ अनीप्सित पदार्थ है, फिर भी ‘विद्यालयं’ की तरह प्रयुक्त होने से उसमें कर्म कारक का प्रयोग हुआ है।

(2) अधोलिखितशब्दानां योगे द्वितीयाविभक्तिः भवति। यथा- (निम्नलिखित शब्दों के योग में द्वितीय विभक्ति होती है। जैसे-)
कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)

(3) अधि – उपसर्गपूर्वक-शीङ-स्था-आस् धातूनां प्रयोगे एषाम् आधारस्य कर्मसंज्ञा भवति, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः भवति (अधिशीस्थासां कर्म)। उदाहरणार्थम् – (अधिशीस्थासां कर्म” ‘अधि’ ‘उपसर्गपूर्वक शीङ (सोना), ‘स्था’ (ठहरना) एवं ‘अस्’ (बैठना) धातुओं के प्रयोग में इनके आधार की कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। उदाहरण-)

  1. अधिशेते (सोता है) - सुरेशः शय्याम् अधिशेते। (सुरेश शैय्या पर सोता है।)
  2. अधितिष्ठति (बैठता है) - अध्यापकः आसन्दिकाम् अधितिष्ठति । (अध्यापक कुर्सी पर बैठता है।)
  3. अध्यास्ते (बैठता है) - नृपः सिंहासनम् अध्यास्ते । (राजा सिंहासन पर बैठता है।

(4) उप-अधि-आङ (आ) – उपसर्गपूर्वक वस् धातोः प्रयोगे अस्य आधारस्य कर्मसंज्ञा भवति, कर्मणि च द्वितीया । विभक्तिः भवति (उपान्वध्यावास:)। (उपान्वध्यावास” उप, अधि, आङ् (अ) उपसर्गपूर्वक ‘वस्’ धातु के प्रयोग में इसके आधार की कर्म संज्ञा होती है। अर्थात् वस धातु से पहले उप, अनु, अधि और आङ (आ) उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग लगता हो, तो वस् धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है अर्थात् सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ही लगती है। और कर्म में द्वितीया विभक्ति लगती है।)

  1. उपवसति (पास में रहता है) – श्यामः नगरम् उपवसति । (श्याम नगर के पास में रहता है।)
  2. अनुवसति (पीछे रहता है) – कुलदीप: गृहम् अनुवसति । (कुलदीप घर के पीछे रहता है।)
  3. अधिवसति (में रहता है) – सुरेश: जयपुरम् अधिवसति। (सुरेश जयपुर में रहता है।)
  4. आवसति (रहता है) – हरि: वैकुण्ठम् आवसति। (हरि वैकुण्ठ में रहता है।)

(5) “अभि-नि’ उपसर्गद्वयपूर्वक-विश्-धातो: प्रयोगे सति अस्य आधारस्य कर्म-संज्ञा भवति, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः भवति (अभिनिविशश्च) । (‘अभिनिविशश्च” विश् धातु के प्रयोग के अधि और नि” ये दो उपसर्ग लगने पर इसके आधार की कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।)

  1. अभिनिविशते (प्रवेश करता है) – दिनेश: ग्रामम् अभिनिविशत। (दिनेश ग्राम में प्रवेश करता है।)

(6) अपादानादिकारकाणां यत्र अविवक्षा अस्ति तत्र तेषां कर्मसंज्ञा भवति, कर्मणि च द्वितीयाविभक्तिः भवति (अकथितं च) । संस्कृतभाषायां एतादृशः षोडशधातवः सन्ति येषां प्रयोग एकं तु मुख्यं द्वितीया विभक्तिः भवति । इमे धातवः एक द्विकर्मकधातवः कथ्यन्ते । एतेषां प्रयोगः अत्र क्रियते- (‘‘अकथितं च” अपादान आदि कारकों की जहाँ अविवक्षा हो वहाँ उनकी कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। संस्कृत भाषा में इस तरह की सोलह धातुएँ हैं उनके प्रयोग में एक तो मुख्य कर्म होता है और दूसरा अपादान आदि कारक से अविवक्षित गौण कर्म होता है। इस गौण कर्म में भी द्वितीया विभक्ति होती है। ये धातुएँ ही द्विकर्मक धातुएँ कही जाती हैं। इनका प्रयोग यहाँ किया जा रहा है-)

  1. दुह् (दुहना) - गोपाल: गां दोग्धि। (गोपाल गाय से दूध दुहता है)
  2. याच् (माँगना) - सुरेशः महेशं पुस्तकं याचते। (सुरेश महेश से पुस्तक माँगता है)
  3. पच् (पकाना) - याचकः तण्डुलान् ओदनं पचति । (पाचक चावलों से भात पकाता है)
  4. दण्ड् (दण्ड देना) - राजा गर्गान् शतं दण्डयति। (राजा गर्गों को सौ रुपये का दण्ड देता है)
  5. प्रच्छ् (पूछना) - स: माणवकं पन्थानं पृच्छति। (वह बालक से मार्ग पूछता है)
  6. रुध् (रोकना) - ग्वाल: व्रजं ग्राम अवरुणद्धि। (ग्वाला गाय को व्रज में रोकता है)
  7. चि (चुनना) - मालाकार: लतां पुष्पं चिनोति। (माली लता से पुष्प चुनता है।)
  8. जि (जीतना) - नृपः शत्रु राज्यं जयति। (राजा शत्रु से राज्य को जीतता है)
  9. ब्रु (बोलना) - गुरु शिष्यं धर्मं ब्रूते/शास्ति। (गुरु शिष्य से धर्म कहता है।)
  10. शास् (कहना) - गुरु शिष्यं धर्मं ब्रूते/शास्ति। (गुरु शिष्य से धर्म कहता है।)
  11. मथ् (मथना) - सः क्षीरनिधिं सुधां मनाति । (वह क्षीरसागर से अमृत मंथता है)
  12. मुष (चुराना) - चौर: देवदत्तं धनं मुष्णाति। (चोर देवदत्त से धन चुराता है।)
  13. नी (ले जाना) - सः अजां ग्रामं नयति। (वह बकरी को गाँव ले जाता है)
  14. ह (हरण करना) - सः कृपणं धनं हरित। (वह कंजूस के धन को हरता है)।
  15. वह (ले जाना) - कृषक: ग्राम भार वहति। (किसान गाँव में बोझा ले जाता है)
  16. कृष् (खींचना) - कृषक: क्षेत्रं महिर्षी कर्षति। (किसान खेत में भैंस को खींचता है)

(7) कालवाचिनि शब्दे मार्गवाचिनि शब्द च अत्यन्तसंयोगे गम्यमाने द्वितीया विभक्तिः भवति-(कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे)। (कालाध्वनोरत्यन्तसंयोग कालवाची शब्द में और मार्गवाची शब्द में अत्यन्त संयोग हो तो कालवाची और मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति आती है। जैसे-)

  1. सुरेशः अत्र पञ्चदिनानि पठति।      (सुरेश यहाँ लगातार पाँच दिन से पढ़ रहा है)
  2. मोहन: मासम् अधीते।                 (मोहन लगातार महीने भर पढ़ता है)
  3. नदी क्रोशं कुटिला अस्ति।            (नदी कोस भर तक लगातार टेढ़ी है)
  4. प्रदीपः योजनं पठति ।                 (प्रदीप लगातार एक योजन तक पढ़ता है।)

ध्यातव्य –
(1) “गत्यर्थककर्मणि द्वितीयचतुर्थी चेष्टायामध्वनि” यदा गत्यर्थक धातुनां कर्म: मार्ग न भवति तदा चतुर्थी द्वितीया च भवति । यथा (अर्थात् जब गति अर्थ वाली धातुओं का कर्म मार्ग नहीं रहता, तब चतुर्थी और द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे- ‘गृहं गृहाय वा गच्छति’ यहाँ जाने में हाथ-पैर आदि अंगों का हिलना-डुलना रहा और गृह मार्ग नहीं है। मार्ग में द्वितीया होती है- ‘पन्थानं गच्छति’ शरीर के व्यापार न करने पर – ‘चेतसां हरिं ब्रजति’ (मन से ईश्वर (हरि) को भजता है)।

उदाहरण – (i) रामः ग्रामं गच्छति।           (राम गाँव को जाता है।)
(ii) सिंह वनं विचरति ।                          (सिंह वन में विचरण करता है।)
(iii) स स्मृतिं गच्छति।                           (वह स्मृति को प्राप्त करता है।)
(iv) स परं विषादम् अगच्छत् ।               (वह परम विषाद को प्राप्त हुआ ।)

(2) “एनपा द्वितीया” अर्थात् एनप् प्रत्ययान्तस्य शब्दस्य येन समीपता प्रतीतं भवति, तस्मिन् द्वितीया षष्ठी वा भवति । यथा- (अर्थात् एनप् प्रत्ययान्त शब्द की जिससे समीपता प्रतीत होती है, उसमें द्वितीया अथवा षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-)

  1. नगरं नगरस्य व दक्षिणेन           (नगर के दक्षिण की ओर)
  2. उत्तरेण यमुनाम्                       (यमुना के उत्तर में)

तृतीयाविभक्तिः

(1) (क) क्रियासिद्धौ यत् सर्वाधिकं सहायकं भवति तस्य कारकस्य करणसंज्ञा भवति (साधकतमं करणम्) । कर्तरि करणे च (कर्तृकरणयोस्तृतीया इति पाणिनीय सूत्रेण) तृतीया विभक्तिः भवति । यथा- (कार्य की सिद्धि में जो सबसे अधिक सहायक होता है उस कारक की ‘करण’ संज्ञा होती है। (साधकतमं करणम्।) ।
“कर्तृकरणयोस्तृतीया” इस पाणिनीय सूत्र से (भाववाच्य अथवा कर्मवाच्य के) कर्ताकारक में तथा करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-)

  1. जागृति: कलमेन लिखति।               (जागृति कलम से लिखती है।)
  2. वैशाली जलेन मुखं प्रक्षालयति ।      (वैशाली जल से मुँह धोती है।)
  3. रामः दुग्धेन रोटिकां खादति।          (राम दूध से रोटी खाता है।)
  4. सुरेन्द्रः पादाभ्यां चलति ।               (सुरेन्द्र पैरों से चलता है।)

(ख) कर्मवाच्यस्य भाववाच्यस्य वा अनुक्तकर्तरि अपि तृतीया विभक्ति भवति यथा (कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य के अनुक्त कर्ता में भी तृतीया विभक्ति होती है जैसे-)

  1. रामेण लेख: लिख्यते। (कर्मवाच्ये)    (राम के द्वारा लेख लिखा जाता है।)
  2. मया जलं पीयते। (कर्मवाच्ये)          (मेरे द्वारा जल पीया जाता है।)
  3. तेन हस्यते। (भाववाच्ये)                (उसके द्वारा हँसा जाता है।)

(2) सह-साकम्-समम्-साधर्म-शब्दानां योगे तृतीया विभक्तिः भवति (सहयुक्तेऽप्रधाने)। यथा
“सहयुक्तोऽप्रधाने” अर्थात् सह-साकम्, समम्, सार्धम् शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-)

  1. जनकः पुत्रेण सह गच्छति ।                    (पिता पुत्र के साथ जाता है।)
  2. सीता गीतया साकं पठति।                     (सीता गीता के साथ पढ़ती है।)
  3. ते स्वमित्रैः सार्धं क्रीडन्ति ।                    (वे अपने मित्रों के साथ खेलते हैं।)
  4. त्वं गुरुणा सह वेदपाठं करोषि ।             (तुम गुरु के साथ वेदपाठ करते हो।)

(3) येन विकृतेन अङ्गेन अङ्गिन: विकारो लक्ष्यते तस्मिन् विकृताङ्गे तृतीया भवति ( येनाङ्गविकार:)। यथा
(”येनाङ्गविकार:’ अर्थात जिस विकृत अङ्ग से अङ्ग विकार लक्षित होता है उस विकृत अङ्ग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-) ।

  1. सः नेत्रेण काणः अस्ति।                             (वह आँख से काना है।)
  2. बालकः कर्णेन बधिरः वर्तते ।                     (बालक कान से बहरा है।)
  3. साधुः पादेन खजः अस्ति।                          (साधु पैर से लगड़ा है।)
  4. श्रेष्ठी शिरसा खल्वाट: विद्यते ।                     (सेठ शिर से गंजा है।)
  5. सूरदास: नेत्राभ्याम् अन्धः आसीत्।               (सूरदास आँखों से अन्धा था ।)

(4) येन चिह्न कस्यचिद् अभिज्ञानं भवति तस्मिन् चिह्नवाचिनि शब्दे तृतीया विभक्तिः भवति (इत्थंभूतलक्षणे) । यथा
(” इत्थंभूतलक्षणे” अर्थात् जिस चिह्न से किसी का ज्ञान होता है उस चिह्नवाची शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-)

  1. सः जटाभि: तापस: प्रतीयते ।                        (वह जटाओं से तपस्वी प्रतीत होता है।)
  2. स: बालकः पुस्तकैः छात्रः प्रतीयते ।               (वह बालक पुस्तकों से छात्र प्रतीत होता है।)

(5) हेतुवाचिशब्दे तृतीया विभक्तिः भवति (हेतौ) यथा (हेतुवाची शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-)

  1. पुण्येन हरिः दृष्टः।                    (पुण्य से हरि को देखा।)
  2. सः अध्ययनेन वसति।               (वह पढ़ने हेतु रहता है।)
  3. विद्यया यश: वर्धते ।                 (विद्या से यश बढ़ता है।)
  4. विद्या विनयेन शोभते ।             (विद्या विनय से शोभा पाती है।)

(6) प्रकृति-आदिक्रियाविशेषणशब्देषु तृतीया विभक्तिः भवति (प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानम्)।
(“प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानाम्’ प्रकृति आदि क्रियाविशेषण शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-)

  1. सः प्रकृत्य साधुः अस्ति।                (वह प्रकृति से साधु (सज्जन) है।)
  2. गणेशः सुखेन जीवति।                  (गणेश सुख से जीता है।)
  3. प्रियंका सरलतया लिखति।            (प्रियंका सरलता से लिखती है।)
  4. मूर्खः दुःखेन जीवति।                    (मूर्ख दु:ख से जीता है।)

(7) निषेधार्थकस्य अलम् इति शब्दस्य योगे तृतीया विभक्तिः भवति । यथा
(निषेधार्थक ‘अलम्’ शब्द के योग में तृतीया विभक्ति होती है । जैसे-)

  1. अलं हसितेन। (हँसो मत)।              अलं विवादेन। (विवाद मत करो)

चतुर्थी विभक्तिः
(1) दानस्य कर्मणा कर्ता यं सन्तुष्टं कर्तुम् इच्छति सः सम्प्रदानम् इति कथ्यते (कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्), सम्प्रदाने
च (चतुर्थी सम्प्रदाने इति पाणिनीयसूत्रेण) चतुर्थी विभक्तिः भवति । यथा
(”कर्मण यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्’ अर्थात् दान के कर्म के द्वारा कर्ता जिसे सन्तुष्ट करना चाहता है, वह पदार्थ सम्प्रदान कहलाता है। “चतुर्थी सम्प्रदाने” इस पाणिनीय सूत्र से सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. नृपः निर्धनाय धनं यच्छति।                         (राजा निर्धन को धन देता है।)
2. बालकः स्वमित्राय पुस्तकं ददाति ।              (बालक अपने मित्र को पुस्तक देता है।)

(2) रुच्यर्थानां धातूनां प्रयोगे य: प्रीयमाण: भवति तस्य सम्प्रदानसंज्ञा भवति, सम्प्रदाने च चतुर्थी विभक्तिः भवति (रुच्यर्थानां प्रीयमाण:)। यथा- (‘‘रुच्यर्थानां प्रीयमाण:” रुच् तथा रुच् के अर्थवाली धातुओं के योग में जो प्रसन्न होता है उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है, सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-)
1. भक्ताय रामायणं रोचते।                           (भक्त को रामायण अच्छी लगती है।)
2. बालकाय मोदकाः रोचन्ते।।                       (बालक को लड्डू अच्छे लगते हैं।)।
3. गणेशाय दुग्धं स्वदते।                               (गणेश को दूध अच्छा लगता है।)

(3) क्रुधादि-अर्थानां धातूनां प्रयोगे ये प्रति कोपादिकं क्रियते तस्य सम्प्रदानसंज्ञा भवति, सम्प्रदाने च चतुर्थी विभक्तिः भवति ।
(क्रुधदुहेर्थ्यासूयार्थानां यं प्रति कोपः) । (‘क्रुधदुहेर्थ्यासूयार्थानां ये प्रति कोप:’ क्रुध आदि अर्थों की धातुओं के (क्रुध्, दुह, ईर्ष्या, असूय) प्रयोग में जिस पर कोप (क्रोध) आदि किया जाता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है और सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-)
1. क्रुध् (क्रोध करना) - पिता पुत्राय क्रुध्यति। (पिता पुत्र पर क्रोध करता है।)
2. द्रुह (द्रोह करना) - किंकरः नृपाय द्रुह्यति। (नौकर राजा से द्रोह करता है।)
3. ई (ईष्र्या करना) - दुर्जनः सज्जनाय ईष्र्ण्यति। (दुर्जन सज्जन से ईष्र्या करता है।)
4. असूय् (निन्दा करना) - सुरेशः महेशाय असूयति । (सुरेश महेश की निन्दा करता है।

(4) स्पृह (ईप्सायां) धातो: प्रयोगे य: ईप्सितः भवति तस्य सम्प्रदानसंज्ञा भवति, सम्प्रदाने च चतुर्थी विभक्तिः भवति
(स्पृहेरीप्सितः) । यथा- (स्पृह (चाहना) धातु के प्रयोग में (जिसे चाहा गया है) जो ईप्सित (प्रिय) होता है उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है, सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. स्पृह (इच्छा करना) - बालकः पुष्पाय स्पृह्यति। (बालक पुष्प की इच्छा करता है।)

(5) नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम्, वषट्, इति शब्दानां योगे चतुर्थी विभक्तिः भवति (नमः स्वस्तिस्वाहास्व धालंवषड्योगाच्च) । यथा- (‘‘नमः स्वस्तिस्वहोस्वधालंवषड्योगाच्च” नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम्, वषट् इन शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. नमः (नमस्कार) - रामाय नमः। (राम को नमस्कार)
2. स्वस्ति (कल्याण) - गणेशाय स्वस्ति । (गणेश का कल्याण हो ।)
3. स्वाहा (आहुति) - प्रजापतये स्वाहा । (प्रजापति के लिए आहुति)
4. स्वधी (हवि का दान) - पितृभ्यः स्वधा। (पितरों के लिए हवि का दान)
5. वषट् (हवि का दान) - सूर्याय वषट् ।। (सूर्य के लिए हवि का दान)
6. अलम् (समर्थ) - दैत्येभ्यः हरिः अलम्। (दैत्यों के लिए हरि पर्याप्त हैं।)

(6) धृञ् (धारणे) धातोः प्रयोगे यः उत्तमर्णः (ऋणदाता) भवति तस्य सम्प्रदान संज्ञा स्यात्, सम्प्रदाने च चतुर्थी विभक्तिः भवति (धारेरुत्तमर्ण:)। यथा- (” धारेरुत्तमर्ण:” धृञ् धारण करना धातु के योग में जो उत्तमर्ण (ऋणदाता) होता है। उसकी सम्प्रदान संज्ञा होवे, सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-)
देवदत्त: यज्ञदत्ताय शतं धारयति ।         (देवदत्त यज्ञदत्त का सौ रुपये का ऋणी है।)

(7) यस्मै प्रयोजनाय या क्रिया क्रियते तस्मिन् प्रयोजनवाचिनि शब्दे चतुर्थी विभक्तिः भवति (ताद चतुर्थी वाच्या)। यथा- (”ताद चतुर्थी वाच्या” जिस प्रयोजन के लिए जो क्रिया की जाती है उसके प्रयोजन वाची शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है जैसे-)

1. सः मोक्षाय हरि भजति।               (वह मोक्ष के लिए हरि को भजता है।)
2. बालकः दुग्धाय क्रन्दति ।             (बालक दूध के लिए रोता है।)

(8) निम्नलिखितधातूनां योगे प्राय: चतुर्थी विभक्तिः भवति । यथा- (निम्नलिखित धातुओं के योग में प्राय: चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. कथय् (कहना) - रामः स्वमित्राय कथयति। ( राम अपने मित्र के लिए कहता है।)
2. निवेदय् (निवदेन करना) - शिष्यः गुरुवे निवेदयति । (शिष्य गुरु से निवेदन करता है।)
3. उपदिश् (उपदेश देना) - साधुः सज्जनाय उपदिशति । (साधु सज्जन के लिए उपदेश देता है।)

पञ्चमी विभक्तिः

(1) अपाये सति यद् ध्रुवं तस्य अपादानसंज्ञा भवति (ध्रुवमपायेऽपादानम्), अपादाने च (अपादाने पञ्चमी इति सूत्रेण) पञ्चमी विभक्तिः भवति । यथा- (“ ध्रुवमपायेऽपादानम्” जिससे कोई वस्तु पृथक् (अलग) हो, उसकी अपादान संज्ञा होती है और ‘‘अपादाने पञ्चमी” इस सूत्र से अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. वृक्षात् पत्रं पतति ।                  (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
2. नृपः ग्रामात् आगच्छति।           (नृप गाँव में आता है।)

(2) भयार्थानां रक्षणार्थानां च धातूनां प्रयोगे भयस्य यद् हेतुः अस्ति तस्य आपादान संज्ञा भवति, अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति (भीत्रार्थानां भयहेतुः) यथा- (” भीत्रार्थानां भयहेतु:” भय और रक्षा अर्थवाली धातुओं के साथ भय का जो हेतु है उसकी अपादान संज्ञा होती है, अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. बालकः सिंहात् विभेति।            (बालक सिंह (शेर) से डरता है।)
2. नृपः दुष्टात् रक्षति/त्रायते।       (नृप (राजा) दुष्ट से रक्षा करता है।

(3) यस्मात् नियमपूर्वकं विद्या गृह्यते तस्य शिक्षकादिजनस्य अपादानसंज्ञा भवति, अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति (आख्यातोपयोगे)। यथा- (”आख्यातोपयोगे” अर्थात् जिससे नियमपूर्वक विद्या ग्रहण की जाती है उस शिक्षक आदि की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. शिष्यः उपाध्यायात् अधीते ।             (शिष्य उपाध्याय से पढ़ता है।)
2. छात्रः शिक्षकात् पठति ।                  (छात्र शिक्षक से पढ़ता है।)

(4) जुगुप्सा-विराम-प्रमादार्थकधातूनां प्रयोगे यस्मात् घृणादि क्रियते तस्य अपादानसंज्ञा भवति, अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति (जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम्) । यथा- (‘‘जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानाम्” अर्थात् जुगुप्सा, घृणा करना, विराम (रुकना), प्रमाद (असावधानी करना) अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में जिससे घृणा आदि की जाती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे-)

1. महेशः पापात् जुगुप्सते ।                   (महेश पाप से घृणा करता है।)
2. कुलदीपः अधर्मात् विरमति ।            (कुलदीप अधर्म से रुकता है।)
3. मोहनः अध्ययनात् प्रमाद्यति ।            (मोहन अध्ययन में असावधानी (प्रमाद) करता है।)

(5) भूधातोः यः कर्ता, तस्य यद् उत्पत्तिस्थानम्, तस्य अपादानसंज्ञा भवति, अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति (भुव: प्रभाव:) । यथा- (‘‘भुव: प्रभाव:’ अर्थात् भू (होना) धातु के कर्ता का जो उद्गम स्थान होता है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. गंगा हिमालयात् प्रभवति ।                 (गंगा हिमालय से निकलती है।)
2. काश्मीरात् वितस्ता नदी प्रभवति ।      (कश्मीर से वितस्ता नदी निकलती है।)

(6) जन् धातोः यः कर्ता, तस्य या प्रकृतिः (कारणम् = हेतुः) तस्य अपादानसंज्ञा भवति, अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति (जनिकर्तृः प्रकृतिः) । यथा- (“जनिकः प्रकृतिः” अर्थात् ‘जन’ (उत्पन्न होना) धातु का जो कर्ता है उसके हेतु (करण) की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-).

1. गोमयात् वृश्चिकः जायते ।                 (गाय के गोबर से बिच्छू उत्पन्न होते हैं।)
2. कामात् क्रोध: जायते ।                     (काम से क्रोध उत्पन्न होता है।)

(7) कर्ता, यस्मात् अदर्शनम् इच्छति, तस्य कारकस्य अपादानसंज्ञा भवति, अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति (अन्तर्धी येनादर्शनमिच्छति) । यथा- (‘अन्तर्षी येना दर्शनमिच्छति” अर्थात् जब कर्ता जिससे अदर्शनं (छिपना) चाहता है, तब उसे कारक की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे

1. बालक: मातुः निलीयते ।                  (बालक माता से छिपता है।)
2. महेशः जनकात् निलीयते।               (महेश पिता से छिपता है।)

(8) वारणार्थानां धातूनां प्रयोगे यः ईप्सितः अर्थः भवति तस्य कारकस्य अपादानसंज्ञा भवति, अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति (वारणार्थानामीप्सितः) । यथा- (‘‘वारणार्थानामीप्सितः” अर्थात् वरण (हटाना) अर्थ की धातु के योग में अत्यन्त इष्ट (प्रिय) वस्तु की अपादान संज्ञा होती है और उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे –
कृषक: यवेभ्य: गां वारयति ।                         (किसान जौ से गाय को हटाता है।)

(9) यदा द्वयोः पदार्थयोः कस्यचित् एकस्य पदार्थस्य विशेषता प्रदश्यते तदा विशेषणशब्दैः सह ईयसुन् अथवा तर
प्रत्ययस्य योगः क्रियते, यस्मात् च विशेषता प्रदर्यते तस्मिन् पञ्चमी विभक्तेः प्रयोगः भवति (पञ्चमी विभक्ते) । यथा- (‘‘पञ्चमी विभक्तेः” अर्थात् जब दो पदार्थों में से किसी एक पदार्थ की विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘‘ईयसुन” अथवा ‘तरप्” प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिसमें विशेषता प्रकट की जाती है उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे- )
1. राम: श्यामात् पटुतरः अस्ति।                     (राम श्याम से अधिक चतुर है।)
2. माता भूमेः गुरुतरा अस्ति।                          (माता भूमि से अधिक बढ़कर है।)
3. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात् अपि गरीयसी।      (जननी, जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ी है।)

(10) अधोलिखितशब्दानां योगे पञ्चमी विभक्तिः भवति । यथा
(निम्नलिखित के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे-)

1. ऋत (बिना) - ज्ञानात् ऋते मुक्तिः न भवति । (ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती है।)
2. प्रकृति (से लेकर) - स: बाल्यकालात् प्रभृति अद्यावधि अत्रैव पठति। (वह बाल्यकाल से लेकर आज तक यहाँ ही पढ़ता है।)
3. बहिः (बाहर) - छात्रा: विद्यालयात् बहिः गच्छति। (छात्र विद्यालय से बाहर जाता है।)
4. पूर्वम् (पहले) - विद्यालयगमनात् पूर्व गृहकार्यं कुरु। (विद्यालय जाने से पहले गृहकार्य करो।)
5. प्राक् (पूर्व) - ग्रामात् प्राक् आश्रमः अस्ति। (ग्राम से पहले आश्रम है।)
6. अन्य (दूसरा) - रामात् अन्यः अयं कः अस्ति ? (राम से दूसरा यह कौन है?)
7. अनन्तरम् (बाद) -  यशवन्त: पठनात् अनन्तरं क्रीडाक्षेत्रं गच्छति। (यशवन्त पढ़ने के बाद खेल के मैदान में जाता है।)
8. पृथक् (अलग) - नगरात् पृथक् आश्रमः अस्ति। (नगर से पृथक् आश्रम है।)
9. परम् (बाद) - रामात् परम् श्यामः अस्ति। (राम के बाद श्याम है।)

षष्ठी विभक्तिः

(1) सम्बन्धे षष्ठी विभक्तिः भवति (षष्ठि शेषे)। यथा- (“षष्ठी शेषे’ सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-) रमेश: संस्कृतस्य पुस्तकं पठति। (रमेश संस्कृत की पुस्तक पढ़ता है।)

(2) यदा बहुषु कस्यचित् एकस्य जातिगुणक्रियाभिः विशेषता प्रदश्यते तदा विशेषणशब्दैः सह इष्ठन् अथवा तमप् प्रत्ययस्य योगः क्रियते यस्मात् च विशेषता प्रदर्श्यते तस्मिन् षष्ठी विभक्ते: अथवा सप्तमीविभक्तेः प्रयोगः भवति (यतश्च निर्धारणम्) । यथा- (”यतश्च निर्धारणम्” अर्थात् जब बहुत में से किसी एक की जाति, गुण, क्रिया के द्वारा विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘इष्ठन्’ अथवा ‘तमप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है, उसमें षष्ठी विभक्ति अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे-)

1. कवीनां (कविषु वा) कालिदासः श्रेष्ठ अस्ति।                  (सभी कवियों में कालिदास सबसे श्रेष्ठ हैं।)
2. छात्राणां (छात्रेषु वा) सुरेशः पटुतमः अस्ति ।                 (सभी छात्रों में सुरेश सबसे अधिक चतुर है।)

(3) अधोलिखितशब्दानां योगे षष्ठीविभक्तिः भवति । यथा- (निम्नलिखित शब्दों के योग में पछी विभक्ति होती है।)
1. अध: (नीचे) – वृक्षस्य अधः बालक: शेते ।                           (वृक्ष के नीचे बालक सोता है।)
2. उपरि (ऊपर) – भवनस्य उपरि खगाः सन्ति।                      (भवन के ऊपर पक्षी हैं।)
3. पुरः (सामने) – विद्यालयस्य पुर: मन्दिरम् अस्ति।                 (विद्यालय के सामने मंदिर है।)
4. समक्षम् (सामने) अध्यापकस्य समक्षं शिष्यः अस्ति।              (अध्यापक के समक्ष शिष्य है?)
5. समीपम् (समीप) नगरस्य समीपं ग्राम: अस्ति।                      (नगर के समीप ग्राम है।)
6. मध्ये (बीच में)। पशूनां मध्ये ग्वालः अस्ति।                           (पशुओं के बीच में ग्वाला है।)
7. कृते (के लिए) – बालकस्य कृते दुग्धम् आनय।                     (बालक के लिए दूध लाओ ।)
8. अन्तः (अन्दर) – गृहस्य अन्त: माता विद्यते ।                         (घर के अन्दर माता है।)

(4) तुल्यवाचिशब्दानां योगे षष्ठि अथवा तृतीया विभक्तिः भवति (तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्) । यथा – (”तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम्’ अर्थात् तुलनावाची शब्दों के योग में षष्ठी अथवा तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-)
1. सुरेशः महेशस्य (महेशे वा) तुल्यः अस्ति।                (सुरेश महेश के समान है।)
2. सीता गीतायाः (गीतया वां) तुल्या विद्यते ।                (सीता गीता के समान है।)

अन्य महत्त्वपूर्ण नियम

(1) ‘षष्ठी हेतु प्रयोगे’-अर्थात् हेतु शब्द का प्रयोग करने पर प्रयोजनवाचक शब्द एवं हेतु शब्द, दोनों में ही षष्ठी विभक्ति आती है। जैसे
(i) अन्नस्य हेतोः वसति ।                                (अन्न के कारण रहता है।)
(ii) अल्पस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छन् ।               (थोड़े के लिए बहुत छोड़ने की इच्छा करता हुआ।)

(2) ‘षष्ठ्यतसर्थप्रत्ययेन’- अर्थात् दिशावाची अतस् प्रत्यय तथा उसके अर्थ वाले प्रत्यय लगाकर बने शब्दों तथा इसी प्रकार के अर्थ के, पुरस्तात् (सामने), पश्चात् (पीछे), उपरिष्टात् (ऊपर की ओर) और अधस्तात् (नीचे की ओर) आदि शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे
(i) ग्रामस्य दक्षिणत: देवालयोऽस्ति।                             (गाँव के दक्षिण की ओर मन्दिर है।)
(ii) वृक्षस्य अधः (अधस्ताद् वा) जलम् अस्ति।                (वृक्ष के नीचे की ओर जल है।)

(3) ‘अधीगर्थदयेषां कर्मणि’- अर्थात् स्मरण अर्थ की धातु के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे- बालकः ।
मातुः स्मरति ।                       (बालक माता को स्मरण करता है।)
(यहाँ खेदपूर्वक स्मरण होने के कारण कर्म के स्थान पर षष्ठी हुई है।)

(4) कर्तृकर्मणोः कृतिः-कृदन्त शब्द अर्थात् जिनके अन्त में कृत् प्रत्यय तृच् (तृ), अच् (अ), घञ् (अ), ल्युट् (अन्), क्तिन् (ति), ण्वुल् ( अक्) आदि रहते हैं। ऐसे शब्दों के कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है।
यथा- (i) शिशो: रोदनम्                     (बच्चे का रोना ।)
(ii) कालस्य गतिः।                           (समय की चाल ।)

(5) क्तस्य च वर्तमाने- भूतकाल का वाचक ‘क्त’ प्रत्ययान्त शब्द जब वर्तमान के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब षष्ठी होती है। यथा-अहमेव मतो महीपतेः। (राजा मुझे ही मानते हैं।)

(6) जासिनि प्रहणनाट क्राथपिषां हिंसायाम्-हिंसार्थक जस्, नि, तथा उपसर्गपूर्वक हन्, क्रथ, नट्, तथा पिस् धातुओं के कर्म में षष्ठी होती है। यथा
(i) बधिकस्य नाटयितुं क्राथयितुं वा ।                         (बधिक के वध करने के लिए।)
(ii) अपराधिन: निहन्तुं, प्रहन्तुं, प्राणिहन्तुं वा                ( अपराधी के मारने के लिए)

(7) दिवस्तदर्थस्य-दिव्’ धातु का प्रयोग जुआ खेलने के अर्थ में होता है, तब उसके योग में भी कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। यथा-शतस्य दीव्यति। (सौ का जुआ खेलता है।)

(8) अवयवावयविभाव होने पर अंशी तथा अवयवी में षष्ठी विभक्ति होती है। यथा –
(i) जलस्य बिन्दुः।                        (जल की बूंद।),
(ii) रात्रे: पूर्वम् ।                          (रात्रि के पूर्व ।)

सप्तमी विभक्तिः

(1) क्रियायाः सिद्धौ यः आधार: भवति तस्य अधिकरणसंज्ञा भवति (अधारोऽधिकरणम्), अधिकरणे च (सप्तम्यधिकरणे च इति सूत्रेण) सप्तमी विभक्तिः भवति । यथा- (‘‘आधारोऽधिकरणम्” क्रिया की सिद्धि में जो आधार होता है। उसकी अधिकरण संज्ञा होती है और अधिकरण में ‘सप्तमभ्यधिकरणे च’ इस सूत्र से सप्तमी विभक्ति होती है। यथा
1. नृपः सिंहासने तिष्ठति।                 (राजा सिंहासन पर बैठता है।)
2. वयं ग्रामे निवसामः।                    (हम गाँव में रहते हैं।)
3. तिलेषु तैलं विद्यते।                      (तिलों में तेल है।)

(2) यस्मिन् स्नेहः क्रियते तस्मिन् सप्तमी विभक्तिः भवति । यथा- (जिस पर स्नेह किया जाता है उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-) । पिता पुत्रे स्नियति।। (पिता पुत्र को प्रेम करता है।)

(3) संलग्नार्थकशब्दानां चतुरार्थकशब्दानां च योगे सप्तमी विभक्तिः भवति । यथा- (संलग्नार्थक शब्दों तथा (युक्तः, व्यापृतः, तत्परः आदि) चतुरार्थक शब्दों (कुशलः, निपुणः, पटुः आदि) के साथ सप्तमी विभक्ति होती है। यथा-)
बलदेवः स्वकार्ये संलग्नः अस्ति।                        (बलदेव अपने कार्य में लगा है।)
जयदेवः संस्कृते चतुरः अस्ति।                          (जयदेव संस्कृत में चतुर है।)

(4) यदा एकक्रियायाः अनन्तरं अपरा क्रिया भवति तदा पूर्वक्रियायाः तस्याश्च कर्तरि सप्तमी विभक्तिः भवति यस्य च भावेन भावलक्षणम्) । यथा- (“यस्य च भावेन भावलक्षणम्” जब एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होती है तब पूर्व क्रिया और उसके कर्ता में सप्तमी विभिक्ति होती है। जैसे-)

1. रामे वनं गते दशरथ: प्राणान् अत्यजत् ।              (राम के वन जाने पर दशरथ ने प्राण त्याग दिए।)
2. सूर्ये अस्तं गते सर्वे बालकाः गृहम् अगच्छन्।        (सूर्य अस्त होने पर सभी बालक घर गए।)

अन्य महत्त्वपूर्ण नियम

(1) ‘साध्वसाधु प्रयोगे च’ – अर्थात् साधु और असाधु शब्दों के प्रयोग करने पर सप्तमी विभक्ति होती है।
जैसेकृष्णः मातरि साधुः।                          (कृष्ण माता के प्रति अच्छा है।)

(2) विषय में, बारे में तथा समयबोधक शब्दों में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे –
(i) मम मोक्षे इच्छाऽस्ति ।                       (मेरी मोक्ष के विषय में इच्छा है।)
(ii) सः सायंकाले पठति ।                       (वह शाम को पढ़ता है।)

(3) युज् धातु तथा उससे बनने वाले योग्य अथवा उपयुक्त आदि शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे
(i) त्रैलोकस्य अपि प्रभुत्वं तस्मिन् युज्यते ।                (त्रैलोक्य का भी राज्य उसके लिए उचित है।)
(ii) स धर्माधिकारे नियुक्तोऽस्ति ।                           (वह धर्माधिकार में लगाया गया है।)

(4) ‘अप’ उपसर्गपूर्वक राध् धातु और उससे बने हुए शब्दों के योग में, जिसके प्रति अपराध होता है, उसमें सप्तमी या षष्ठी होती है। जैसे
(i) सा पूजायोग्ये अपराद्धा।                              (उसने पूज्य व्यक्ति के प्रति अपराध किया है।)
(ii) सा पूजायोग्यस्य अपराद्धा ।                        (उसने पूज्य के प्रति अपराध किया है।)
(iii) अपराद्धोऽस्मि तत्र भवत: कण्वस्य ।            (पूज्य कण्व के प्रति मैंने अपराध किया है।)

(5) फेंकना या झपटना अर्थ की क्षिप्, मुच् या अस् धातुओं के साथ सप्तमी विभक्ति आती है। जैसे
(i) नृपः मृगे बाणं क्षिपति ।                        (राजा हिरन पर बाण फेंकता है।)
(ii) मृगेषु बाणान् मुञ्चति ।                         (मृगों पर बाण छोड़ता है।)

(6) व्यापृत (संलग्न), तत्पर, व्यग्र, कुशल, निपुण, दक्ष, प्रवीण आदि शब्दों के योग में सप्तमी होती है। जैसे
(i) जना: गृहकर्मणि व्यापृताः सन्ति।                                         (लोग गृहकार्य में संलग्न हैं।)
(ii) ते समाजसेवायां तत्पराः सन्ति ।                                          (वे समाज सेवा में लगे हुए हैं।)
(iii) मम पिता अध्यापने कुशलः, निपुण: दक्ष: वा अस्ति।      (मेरे पिता अध्यापन के कार्य में कुशल निपुण हैं।)

विशेष ध्यातव्य-पृथग्विनानानाभिस्तृतीयान्यतरस्याम्-पृथक्, बिना तथा नाना (बिना) के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी में से किसी भी एके विभक्ति का प्रयोग हो सकता है।

The document कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10) is a part of the Class 10 Course संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10).
All you need of Class 10 at this link: Class 10
24 videos|77 docs|20 tests

Top Courses for Class 10

Explore Courses for Class 10 exam

Top Courses for Class 10

Signup for Free!
Signup to see your scores go up within 7 days! Learn & Practice with 1000+ FREE Notes, Videos & Tests.
10M+ students study on EduRev
Related Searches

Previous Year Questions with Solutions

,

Semester Notes

,

practice quizzes

,

pdf

,

कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)

,

MCQs

,

कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)

,

past year papers

,

Exam

,

ppt

,

कारक और विभक्‍ति | संस्कृत कक्षा 10 (Sanskrit Class 10)

,

Viva Questions

,

Extra Questions

,

Summary

,

study material

,

mock tests for examination

,

Sample Paper

,

Important questions

,

shortcuts and tricks

,

Free

,

Objective type Questions

,

video lectures

;