1. 'जहाँ सुमति तहँ संपति नाना ........ '
शीर्षक पढ़ते ही आपके विचारों का क्रम कुछ इस प्रकार होना चाहिए:
विचार बिंदु
भाव-पल्लवन
संसार के समस्त जीवों में मनुष्य को श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि वह अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान और विवेकशील होता है। वह केवल अपने तक ही सीमित नहीं रहता अपितु दूसरों का भी ध्यान रखता है। उसमें गुण-दोष और उचित-अनुचित का ज्ञान कराने वाली बुद्धि होती है। इसी आधार पर बुद्धि के दो पक्ष माने गए हैं - एक सुबुद्धि और दूसरी, दुर्बुद्धि। सुबुद्धि की बड़ी महिमा है। इसी को सुमति या अच्छी मति भी कहा जाता है। जब तक मनुष्य में सुमति रहती है, तब तक वह अच्छे कार्य में लगा रहता है और उसमें अच्छे-बुरे का विवेक भी होता है। जब वह सुमति से हटकर कुमति या दुर्बुद्धि वाला हो जाता है, तब वह अनुचित और गलत कामों में पड़ जाता है। सुमति से संपत्ति की भी प्राप्ति होती है। इससे मनुष्य को धन, सम्मान, स्त्री, पुत्र आदि का सुख मिलता है। सुमति वाले लोग मिलजुल कर और ईमानदारी से काम करते हैं। इसी कारण उन पर लक्ष्मी की कृपा रहती है। ऐसे लोगों को सभी व्यक्तियों से सम्मान और आदर मिलता है। इससे उनमें शक्ति पैदा होती है और वे देश, जाति और समाज के लिए तन, मन, धन से कार्य करते हैं। ऐसे लोगों से देश, समाज और परिवार को गौरव प्राप्त होता है। सुमति ही सफलता की जननी है। जीवन में वही व्यक्ति सफल होता है, जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में अपनी बुद्धि से काम लेता है और परिश्रम, ईमानदारी तथा विवेक से काम करता है। वह सभी का सम्मान करता है और बड़ों के प्रति अप्रिय शब्द नहीं बोलता। सभी से नम्रता और उदारता का व्यवहार करता है। यही सुमति के गुण हैं। जहाँ सुमति नहीं रहती वहाँ दंभ, अहंकार, क्रोध और अधीरता के दुर्गुणों का साम्राज्य रहता है। सुमति के न रहने से ही तो कुमति आती हैं। सुमतिहीन लोगों से संपत्ति भी सदैव दूर रहती है और उनका कोई आदर और सम्मान भी नहीं करता। इसी कारण ऐसे लोग विपत्तियों तथा कष्टों से घिरे रहते हैं।
इसलिए गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के सुंदरकांड में कहा है:
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना।।
2. 'हिंसा बुरी चीज़ है, पर दासता उससे भी बुरी चीज़ है।'
शीर्षक पढ़ते ही आपके विचारों का क्रम कुछ इस प्रकार होना चाहिए:
विचारबिंदु
भाव-पल्लवन
यह सच है कि किसी प्राणी को जीव की हत्या नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक पशु-पक्षी और मनुष्य में जीवन होता है और किसी को दूसरे के प्राण लेने का अधिकार नहीं है। भारत प्राचीनकाल से अहिंसा का प्रचार करता आ रहा है 'अहिंसा परमो धर्मः' आधुनिक युग में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी हिंसा के विरोध में आवाज़ उठाई थी और अहिंसा का प्रचार किया था। वास्तव में हिंसा मनुष्य को पशु के समान बना देती है और व्यक्ति में प्रेम तथा स्नेह की भावना समाप्त हो जाती है। निस्संदेह हिंसा बुरी चीज़ है, लेकिन दासता उससे भी अधिक बुरी चीज़ है। कोई भी व्यक्ति स्वतंत्रता खोकर सुख और चैन की नींद नहीं सो सकता। यदि किसी पक्षी को पिंजरे में डाल दिया जाए, तो बाहर निकलने के लिए तड़फड़ाता है। उदास और दुखी रहता है।
मनुष्य तो विवेकशील प्राणी है। उसके पास दिमाग और दिल है, तो वह भला दासता की कड़ियों में कैसे रह सकता है? यदि किसी को विवशता के कारण दास बनकर रहना पड़ता है, तो वह जीवन मृत्यु के समान है। जीवित होते हुए मुर्दे की भाँति जीना भी हिंसा से कम नहीं है। वास्तव में दासता से मनुष्य का मानसिक विकास नहीं हो पाता। वह गुलामों की ज़िंदगी बिताता है और मालिकों के इशारों पर नाचता है। इसलिए कहा गया है - 'पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं' अतः विचारकों ने यह भी कहा कि गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए यदि अहिंसा का मार्ग भी छोड़ना पड़े, तो वह बुरी बात नहीं होगी। यदि हिंसा भी करनी पड़े, तो वह क्षमा योग्य मानी जाएगी। कुछ लोगों का कहना है कि शक्तिहीन व्यक्ति ही अहिंसा की बात करते हैं। वह उनका भ्रम है।
भारत सदैव अहिंसा का पुजारी रहा है, लेकिन इसका यह अभिप्राय नहीं कि वह शक्तिशाली नहीं है। इसी कारण विदेशी शक्तियों ने भारत पर अधिकार जमाने का कई बार प्रयास किया, किंतु भारत के वीर सिपाहियों ने उनके नाकों चने चबा दिए और उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया। इसमें संदेह नहीं कि अहिंसा अच्छी चीज है और हिंसा बुरी चीज़ है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि अहिंसा-प्रेमी व्यक्ति को गुलाम बनाया जाए और वह कुछ बोले भी नहीं। अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यदि कोई व्यक्ति अहिंसा का मार्ग त्याग देता है, तो वह बुरा काम होगा।
3. 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई'
विचारबिंदु
भाव-पल्लवन
परहित का अर्थ है- दूसरों का भला। इसी को परोपकार भी कहते हैं। दोनों का भाव एक है। यदि एक में दूसरे के हित की भावना है, तो दूसरे में भला करने की भावना छिपी हुई है। अपने हित की चिंता न कर दूसरों का उपकार करना ही सच्चे अर्थ में परहित या परोपकार है। धर्म का अर्थ है- पुण्य, कर्त्तव्य, सत्कर्म और सदाचार। यहाँ धर्म का अर्थ मजहब या मत नहीं हैं यदि मज़हब अर्थ है, तो यह मज़हब दूसरे मज़हब के प्रति द्वेष या बुरा करने के भाव लिए हुए नहीं है, बल्कि भलाई करने का भाव लिए हुए है। वास्तव में जिस आचरण या कार्य से समाज का कल्याण होता है, यही धर्म है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका धर्म है कि वह स्वयं जीए और दूसरों को भी जीने दे। वह अपने सुख-दुख के साथ दूसरों के सुख-दुख की ओर भी ध्यान दे। अपने स्वार्थ को छोड़कर दूसरे के हित की सोचे। अपनी स्वार्थ सिद्धि करना मानवता नहीं है। परहित ही सच्ची मानवता है। यही सच्चा धर्म है। मनुष्य अपनी क्षमता या सामर्थ्य के अनुसार परहित कर सकता है। वह मन से, धन से या तन से या तीनों से दूसरों की भलाई कर सकता है। दूसरों के प्रति सच्ची सहानुभूति करना भी परहित है। किसी को संकट से बचाना, किसी को कुमार्ग से हटाना, किसी दुखी और निराश व्यक्ति को सांत्वना देना भी परहित के अंतर्गत आता है। भगवान राम ने ऋषि-मुनियों की तपस्या में भंग डालने वाले राक्षसों का संहार किया। ईसामसीह ने लोगों का उत्थान किया। सम्राट अशोक ने स्थान-स्थान पर कुएँ, तालाब आदि खुदवाकर तथा वृक्ष लगवाकर जनता का उपकार किया। यही मानवता का प्रमुख धर्म है।
परहित की प्रवृत्ति तो वृक्षों और नदियों में भी पाई जाती है। वृक्ष सभी प्राणियों को फल या छाँव प्रदान करते हैं। मनुष्य तो सभी प्राणियों से उत्कृष्ट प्राणी है। इसलिए उसका परम कर्त्तव्य है कि वह निःस्वार्थ भाव से सभी प्राणियों की सेवा करे। वह मन, वाणी और कर्म से दूसरों का उपकार करे, किसी को पीड़ा न पहुँचाए। संसार के सभी धर्मों में परहित ही सबसे महान् धर्म है।
इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने कहा कि परोपकार के समान कोई भी धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा या दुख पहुँचाने के समान कोई नीचता नहीं है:
परहित सरिस धर्म नहीं भाई,
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।
4. 'अविवेक आपत्तियों का घर है'
भाव-पल्लवन
अविवेक का अर्थ है- विवेक से काम न लेना या ज्ञान की कमी होना। अविवेक अज्ञान का ही एक रूप है। अविवेक और अज्ञान में अंतर भी है। अज्ञान में स्थिति आदि का ज्ञान नहीं होता, जबकि अविवेक में स्थिति आदि का ज्ञान तो होता है, किंतु अहंकार या किसी अन्य कारण से ऐसा कार्य किया जाता है, जो अपने-आप में उचित नहीं होता। यह भी अज्ञानता का ही एक रूप है। इसीलिए अविवेक को दोषी माना गया है क्योंकि इसके कारण व्यक्ति के सभी गुण दब जाते हैं। विवेकी होने से व्यक्ति को कई बार कष्ट भी भोगना पड़ता है और दुख उस व्यक्ति के यहाँ अपना निवास बना लेते हैं।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य में विवेक आवश्यक है। विवेक व्यक्ति को विचारशील, सहनशील, धीर और साहसी बनाता है। विवेक से सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। संपत्ति की प्राप्ति होती है। विवेक के बिना दुख और विपत्ति की प्राप्ति होती है। कल्याण के स्थान पर दुर्गति होती है। अविवेक से मानव जीवन के विकास में बाधा पड़ती है। इतिहास में विवेकहीन व्यक्तियों के कई उदाहरण मिल जाते हैं। इसी अविवेक के कारण कई साम्राज्य नष्ट हो गए। इसी के कारण रावण के पूरे वंश का नाश हो गया। इसी विवेकहीनता के कारण भारतीय नरेश परस्पर लड़ते थे। इसी के कारण विदेशी आक्रमणकारियों को भारत पर आक्रमण करने का अवसर मिला। भारत परतंत्रता की जंजीरों में बँध गया। अविवेक मनुष्य का शत्रु है। वह मनुष्य को मनुष्य बने रहने नहीं देता। इससे अहंकार, कपट, दंभ आदि का जन्म होता है। यहीं से मनुष्य का विनाश होता है। इसीलिए कहा गया है कि विवेक न होने के कारण आपत्तियाँ आ घेरती हैं। मनुष्य सुखी नहीं रहता। उसमें दुख और कष्ट अपना घर बना लेते हैं।
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