रवींद्र केलेकर (1925-2010) एक प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक और लेखक थे, जिनका जन्म 7 मार्च 1925 को कोंकण क्षेत्र में हुआ था। वह छात्र जीवन से ही गोवा मुक्ति आंदोलन से जुड़े और अपने लेखन के माध्यम से जन-जीवन, समाज और व्यक्तिगत विचारों को प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं में मौलिक चिंतन और मानवीय सत्य की गहरी तलाश दिखाई देती है। केलेकर कोंकणी और मराठी के शीर्ष लेखक माने जाते हैं, और उनकी कई पुस्तकें इन भाषाओं के अलावा हिंदी और गुजराती में भी प्रकाशित हुई हैं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - उजवाढाचे सूर, समिधा, सांगली (कोंकणी), कोंकणीचें राजकरण, जापान जसा दिसला (मराठी), और पतझर में टूटी पत्तियाँ (हिंदी)। उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था, जिनमें गोवा कला अकादमी का साहित्य पुरस्कार प्रमुख है।
कविता का प्रमुख गुण यह माना जाता है कि वह थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। जब गद्य रचना में भी यह गुण दिखाई देता है, तो यह अपनी सहजता और सार्थकता के कारण अलग पहचान बनाती है। सरल और संक्षिप्त लेखन आसान नहीं होता, लेकिन फिर भी इसे लेखन की उच्च कला माना जाता है। इस प्रकार की गद्य रचनाएँ सूक्ति, जातक कथाएँ और पंचतंत्र की कहानियों में मिलती हैं। कोंकणी में रवींद्र केलेकर ने भी इसी प्रकार के लेखन का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
प्रस्तुत पाठ के प्रसंग थोड़े में अधिक समझने की प्रेरणा देते हैं। पहला प्रसंग ‘गिन्नी का सोना’ उन लोगों को प्रस्तुत करता है जो अपने जीवन में सुख-साधन जुटाने की बजाय इस दुनिया को जीने और रहने योग्य बनाते हैं। दूसरा प्रसंग ‘झेन की देन’ बौद्ध ध्यान की उस पद्धति की याद दिलाता है, जो जापानियों को व्यस्त जीवन के बीच में भी शांति और सुकून के कुछ पल प्रदान करती है।
इस पाठ में दो प्रसंग सम्मिलित हैं।
गिन्नी का सोना और शुद्ध सोना दोनों में फर्क होता है। गिन्नी का सोना, जिसमें थोड़ा ताँबा मिलाया जाता है, मज़बूती और चमक दोनों में शुद्ध सोने से बेहतर होता है। इसी प्रकार, आदर्श भी होते हैं। शुद्ध आदर्शों में कुछ व्यावहारिकता मिलाकर लोग उन्हें ‘प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट’ कहते हैं। लेकिन, जब आदर्शों को व्यावहारिकता के स्तर पर लाया जाता है, तो आदर्श पीछे हटने लगते हैं और व्यावहारिकता आगे आती है।
गांधीजी को 'प्रैक्टिकल आइडियालिस्ट' कहा जाता है क्योंकि उन्होंने आदर्शों को व्यावहारिकता के स्तर पर ऊँचा उठाया और व्यावहारिकता को आदर्शों की ऊँचाई पर ले गए। वे ताँबे में सोना मिलाकर उसकी कीमत बढ़ाते थे, न कि सोने में ताँबा मिलाकर उसकी चमक।
व्यवहारवादी लोग जीवन में लाभ-हानि का हिसाब लगाते हैं और इसलिए वे सफलता प्राप्त करते हैं। हालांकि, आदर्शवादी लोग ही समाज को ऊँचाइयों पर ले जाते हैं और शाश्वत मूल्यों को समाज के लिए प्रदान करते हैं, जबकि व्यवहारवादी लोग समाज को गिराने का काम करते हैं।
जापान में मानसिक बीमारियाँ बढ़ने का कारण है जीवन की तेजी और प्रतिस्पर्धा। लोग तेजी से दौड़ते हैं और काम को समय से पहले पूरा करने की कोशिश करते हैं, जिससे दिमाग का तनाव बढ़ता है और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं।
एक दिन, लेखक को एक 'टी-सेरेमनी' में ले जाया गया, जो जापानी चाय-पीने की विधि है। यहाँ वातावरण अत्यंत शांत और गरिमापूर्ण था। चाय पीने की यह विधि तीन लोगों के बीच शांति बनाए रखने पर आधारित थी, और चाय के प्याले में केवल दो घूँट होते थे।
लेखक ने महसूस किया कि चाय पीते समय दिमाग की रफ़्तार धीरे-धीरे धीमी पड़ती है और वह पूर्ण शांति का अनुभव करता है। भूतकाल और भविष्य के विचार उसकी मन से मिट गए और केवल वर्तमान क्षण का अनुभव हुआ, जो अनंतकाल जितना विस्तृत था। इस अनुभव ने लेखक को सिखाया कि जीने का सही तरीका क्या है, और यह झेन परंपरा की बड़ी देन है।
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