नीचे दो अपठित गद्यांश दिए गए हैं। किसी एक गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के सही विकल्प चुनकर लिखिए
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, बाल श्रम को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-"वह काम जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी क्षमता और उनकी गरिमा से वंचित करता है, और जो शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हानिकारक है।" एक सामाजिक बुराई के रूप में सन्दर्भित, भारत में बाल श्रम एक अनिवार्य मुद्दा है जिससे देश वर्षों से निपट रहा है। लोगों का मानना है कि बाल-श्रम जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने का दायित्व सिर्फ सरकार का है। यदि सरकार चाहे तो कानून का पालन न करने वालों एवं कानून भंग करने वालों को सजा देकर बाल-श्रम को समाप्त कर सकती है, किन्तु वास्तव में ये केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि इसे सभी सामाजिक संगठनों, मालिकों, और अभिभावकों द्वारा भी समाधित करना चाहिए। हमारे घरों में, ढाबों में, होटलों में, खानों, कारखानों में अनेक बाल-श्रमिक मिल जाएँगे, जो कड़ाके की ठंड और तपती धूप की परवाह किए बिना काम करते हैं। विकासशील देशों में गरीबी और उच्च स्तर की बेरोजगारी बाल श्रम का मुख्य कारण है। बाल मजदूरी इंसानियत के लिये अपराध है जो समाज के लिये श्राप बनती जा रही है तथा जो देश की वृद्धि और विकास में बाधक के रूप में बड़ा मुद्दा है। हमें सोचना होगा कि सभ्य समाज में यह अभिशाप क्यों मौजूद है? जिस उम्र में बच्चों को सही शिक्षा मिलनी चाहिए, खेल-कूद के माध्यम से अपने मस्तिष्क का विकास करना चाहिए उस उम्र में बच्चों से काम करवाने से बच्चों का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास रुक जाता है। शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार होता है। शिक्षा से किसी भी बच्चे को वंचित रखना अपराध माना जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत् स्तर तक सभी लोग इसके प्रति सजग रहें और बाल-श्रम के कारण बच्चों का बचपन न छिन जाए, इसके लिए कुछ सार्थक पहल करें। आम आदमी को भी बाल मजदूरी के विषय में जागरूक होना चाहिए और अपने समाज में इसे होने से रोकना चाहिए। बालश्रम को खत्म करना केवल सरकार का ही कर्तव्य नहीं है हमारा भी कर्त्तव्य है कि हम इस अभियान में सरकार का पूरा साथ दें।
प्रश्न. गद्यांश के आधार पर बताइए कि बाल-श्रम जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने के लिए लोगों की सोच कैसी
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अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, बाल श्रम को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-"वह काम जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी क्षमता और उनकी गरिमा से वंचित करता है, और जो शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हानिकारक है।" एक सामाजिक बुराई के रूप में सन्दर्भित, भारत में बाल श्रम एक अनिवार्य मुद्दा है जिससे देश वर्षों से निपट रहा है। लोगों का मानना है कि बाल-श्रम जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने का दायित्व सिर्फ सरकार का है। यदि सरकार चाहे तो कानून का पालन न करने वालों एवं कानून भंग करने वालों को सजा देकर बाल-श्रम को समाप्त कर सकती है, किन्तु वास्तव में ये केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि इसे सभी सामाजिक संगठनों, मालिकों, और अभिभावकों द्वारा भी समाधित करना चाहिए। हमारे घरों में, ढाबों में, होटलों में, खानों, कारखानों में अनेक बाल-श्रमिक मिल जाएँगे, जो कड़ाके की ठंड और तपती धूप की परवाह किए बिना काम करते हैं। विकासशील देशों में गरीबी और उच्च स्तर की बेरोजगारी बाल श्रम का मुख्य कारण है। बाल मजदूरी इंसानियत के लिये अपराध है जो समाज के लिये श्राप बनती जा रही है तथा जो देश की वृद्धि और विकास में बाधक के रूप में बड़ा मुद्दा है। हमें सोचना होगा कि सभ्य समाज में यह अभिशाप क्यों मौजूद है? जिस उम्र में बच्चों को सही शिक्षा मिलनी चाहिए, खेल-कूद के माध्यम से अपने मस्तिष्क का विकास करना चाहिए उस उम्र में बच्चों से काम करवाने से बच्चों का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास रुक जाता है। शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार होता है। शिक्षा से किसी भी बच्चे को वंचित रखना अपराध माना जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत् स्तर तक सभी लोग इसके प्रति सजग रहें और बाल-श्रम के कारण बच्चों का बचपन न छिन जाए, इसके लिए कुछ सार्थक पहल करें। आम आदमी को भी बाल मजदूरी के विषय में जागरूक होना चाहिए और अपने समाज में इसे होने से रोकना चाहिए। बालश्रम को खत्म करना केवल सरकार का ही कर्तव्य नहीं है हमारा भी कर्त्तव्य है कि हम इस अभियान में सरकार का पूरा साथ दें।
प्रश्न. घरों में, ढाबों में, होटलों में, खानों, कारखानों में अनेक बाल-श्रमिकों को काम करता देखकर भी हम उदासीन क्यों बने रहते हैं?
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नीचे दो अपठित गद्यांश दिए गए हैं। किसी एक गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के सही विकल्प चुनकर लिखिए
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, बाल श्रम को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-"वह काम जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी क्षमता और उनकी गरिमा से वंचित करता है, और जो शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हानिकारक है।" एक सामाजिक बुराई के रूप में सन्दर्भित, भारत में बाल श्रम एक अनिवार्य मुद्दा है जिससे देश वर्षों से निपट रहा है। लोगों का मानना है कि बाल-श्रम जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने का दायित्व सिर्फ सरकार का है। यदि सरकार चाहे तो कानून का पालन न करने वालों एवं कानून भंग करने वालों को सजा देकर बाल-श्रम को समाप्त कर सकती है, किन्तु वास्तव में ये केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि इसे सभी सामाजिक संगठनों, मालिकों, और अभिभावकों द्वारा भी समाधित करना चाहिए। हमारे घरों में, ढाबों में, होटलों में, खानों, कारखानों में अनेक बाल-श्रमिक मिल जाएँगे, जो कड़ाके की ठंड और तपती धूप की परवाह किए बिना काम करते हैं। विकासशील देशों में गरीबी और उच्च स्तर की बेरोजगारी बाल श्रम का मुख्य कारण है। बाल मजदूरी इंसानियत के लिये अपराध है जो समाज के लिये श्राप बनती जा रही है तथा जो देश की वृद्धि और विकास में बाधक के रूप में बड़ा मुद्दा है। हमें सोचना होगा कि सभ्य समाज में यह अभिशाप क्यों मौजूद है? जिस उम्र में बच्चों को सही शिक्षा मिलनी चाहिए, खेल-कूद के माध्यम से अपने मस्तिष्क का विकास करना चाहिए उस उम्र में बच्चों से काम करवाने से बच्चों का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास रुक जाता है। शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार होता है। शिक्षा से किसी भी बच्चे को वंचित रखना अपराध माना जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत् स्तर तक सभी लोग इसके प्रति सजग रहें और बाल-श्रम के कारण बच्चों का बचपन न छिन जाए, इसके लिए कुछ सार्थक पहल करें। आम आदमी को भी बाल मजदूरी के विषय में जागरूक होना चाहिए और अपने समाज में इसे होने से रोकना चाहिए। बालश्रम को खत्म करना केवल सरकार का ही कर्तव्य नहीं है हमारा भी कर्त्तव्य है कि हम इस अभियान में सरकार का पूरा साथ दें।
प्रश्न. गद्यांश के आधार पर बताइए कि बाल-श्रम को रोकने के लिए सार्थक प्रयास क्यों किए जाने चाहिए ?
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अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, बाल श्रम को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-"वह काम जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी क्षमता और उनकी गरिमा से वंचित करता है, और जो शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हानिकारक है।" एक सामाजिक बुराई के रूप में सन्दर्भित, भारत में बाल श्रम एक अनिवार्य मुद्दा है जिससे देश वर्षों से निपट रहा है। लोगों का मानना है कि बाल-श्रम जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने का दायित्व सिर्फ सरकार का है। यदि सरकार चाहे तो कानून का पालन न करने वालों एवं कानून भंग करने वालों को सजा देकर बाल-श्रम को समाप्त कर सकती है, किन्तु वास्तव में ये केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि इसे सभी सामाजिक संगठनों, मालिकों, और अभिभावकों द्वारा भी समाधित करना चाहिए। हमारे घरों में, ढाबों में, होटलों में, खानों, कारखानों में अनेक बाल-श्रमिक मिल जाएँगे, जो कड़ाके की ठंड और तपती धूप की परवाह किए बिना काम करते हैं। विकासशील देशों में गरीबी और उच्च स्तर की बेरोजगारी बाल श्रम का मुख्य कारण है। बाल मजदूरी इंसानियत के लिये अपराध है जो समाज के लिये श्राप बनती जा रही है तथा जो देश की वृद्धि और विकास में बाधक के रूप में बड़ा मुद्दा है। हमें सोचना होगा कि सभ्य समाज में यह अभिशाप क्यों मौजूद है? जिस उम्र में बच्चों को सही शिक्षा मिलनी चाहिए, खेल-कूद के माध्यम से अपने मस्तिष्क का विकास करना चाहिए उस उम्र में बच्चों से काम करवाने से बच्चों का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास रुक जाता है। शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार होता है। शिक्षा से किसी भी बच्चे को वंचित रखना अपराध माना जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत् स्तर तक सभी लोग इसके प्रति सजग रहें और बाल-श्रम के कारण बच्चों का बचपन न छिन जाए, इसके लिए कुछ सार्थक पहल करें। आम आदमी को भी बाल मजदूरी के विषय में जागरूक होना चाहिए और अपने समाज में इसे होने से रोकना चाहिए। बालश्रम को खत्म करना केवल सरकार का ही कर्तव्य नहीं है हमारा भी कर्त्तव्य है कि हम इस अभियान में सरकार का पूरा साथ दें।
प्रश्न. बच्चों को बाल-श्रम के लिए क्यों विवश किया जाता है?
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अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, बाल श्रम को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-"वह काम जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी क्षमता और उनकी गरिमा से वंचित करता है, और जो शारीरिक और मानसिक विकास के लिए हानिकारक है।" एक सामाजिक बुराई के रूप में सन्दर्भित, भारत में बाल श्रम एक अनिवार्य मुद्दा है जिससे देश वर्षों से निपट रहा है। लोगों का मानना है कि बाल-श्रम जैसी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने का दायित्व सिर्फ सरकार का है। यदि सरकार चाहे तो कानून का पालन न करने वालों एवं कानून भंग करने वालों को सजा देकर बाल-श्रम को समाप्त कर सकती है, किन्तु वास्तव में ये केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि इसे सभी सामाजिक संगठनों, मालिकों, और अभिभावकों द्वारा भी समाधित करना चाहिए। हमारे घरों में, ढाबों में, होटलों में, खानों, कारखानों में अनेक बाल-श्रमिक मिल जाएँगे, जो कड़ाके की ठंड और तपती धूप की परवाह किए बिना काम करते हैं। विकासशील देशों में गरीबी और उच्च स्तर की बेरोजगारी बाल श्रम का मुख्य कारण है। बाल मजदूरी इंसानियत के लिये अपराध है जो समाज के लिये श्राप बनती जा रही है तथा जो देश की वृद्धि और विकास में बाधक के रूप में बड़ा मुद्दा है। हमें सोचना होगा कि सभ्य समाज में यह अभिशाप क्यों मौजूद है? जिस उम्र में बच्चों को सही शिक्षा मिलनी चाहिए, खेल-कूद के माध्यम से अपने मस्तिष्क का विकास करना चाहिए उस उम्र में बच्चों से काम करवाने से बच्चों का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास रुक जाता है। शिक्षा का अधिकार मूल अधिकार होता है। शिक्षा से किसी भी बच्चे को वंचित रखना अपराध माना जाता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत् स्तर तक सभी लोग इसके प्रति सजग रहें और बाल-श्रम के कारण बच्चों का बचपन न छिन जाए, इसके लिए कुछ सार्थक पहल करें। आम आदमी को भी बाल मजदूरी के विषय में जागरूक होना चाहिए और अपने समाज में इसे होने से रोकना चाहिए। बालश्रम को खत्म करना केवल सरकार का ही कर्तव्य नहीं है हमारा भी कर्त्तव्य है कि हम इस अभियान में सरकार का पूरा साथ दें।
प्रश्न. बाल-श्रम जैसे सामाजिक अभिशाप से देश को क्या नुकसान होता है?
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निसंदेह सहजता से हर एक दिन भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ जीते हुए, महिलाएँ किसी भी समाज का स्तम्भ हैं। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में समाज उनकी भूमिका को नजर अंदाज़ करता है। इसके चलते महिलाओं को बड़े पैमाने पर असमानता, उत्पीड़न, वित्तीय निर्भरता और अन्य सामाजिक बुराइयों का खामियाजा सहन करना पड़ता है। भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता के बहुत से कारण सामने आते हैं। प्राचीन काल की अपेक्षा मध्य काल में भारतीय महिलाओं के सम्मान स्तर में काफी कमी आयी। जितना सम्मान उन्हें प्राचीन काल में दिया जाता था, मध्य काल में वह सम्मान घटने लगा था। आधुनिक युग में कई भारतीय महिलाएँ कई सारे महत्त्वपूर्ण राजनैतिक तथा प्रशासनिक पदों पर पदस्थ हैं, फिर भी सामान्य ग्रामीण महिलाएँ आज भी अपने घरों में रहने के लिए बाध्य हैं और उन्हें सामान्य स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण महिलाएँ सदियों से घर तथा खेतों में पुरुषों के बराबर ही काम करती आई हैं, लेकिन वहाँ उन्हें सामंती सोच के कारण दूसरे दर्जे का नागरिक ही माना जाता रहा है। अब ग्रामीण समाज की सोच बदलने का वक्त आ गया है। सामाजिक असमानता, पारिवारिक हिंसा, अत्याचार और आर्थिक अनिर्भरता इन सभी से महिलाओं को छुटकारा पाना है तो जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनती हैं। जिससे वे अपने जीवन से जुड़े हर फैसले स्वयं ले सकती हैं और परिवार और समाज में अपना स्थान बनाती हैं। समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना महिला सशक्तिकरण है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में बराबर का भागीदार बनाया जाए। भारतीय महिलाओं का सशक्तिकरण बहुत हद तक भौगोलिक (शहरी और ग्रामीण), शैक्षणिक योग्यता, और सामाजिक एकता के ऊपर निर्भर करता है। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ ही नहीं हुई हैं, अपितु परिवार और समाज की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं। वर्तमान समय में लोग बेटियों को बोझ समझकर दुनिया में आने से पहले ही मारें नहीं, इसलिए विकास की मुख्यधारा में महिलाओं को लाने के लिये भारत सरकार के द्वारा कई योजनाएँ चलाई गई हैं।
प्रश्न. गद्यांश के आधार पर बताइए कि महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता क्यों महसूस की गई?
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निसंदेह सहजता से हर एक दिन भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ जीते हुए, महिलाएँ किसी भी समाज का स्तम्भ हैं। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में समाज उनकी भूमिका को नजर अंदाज़ करता है। इसके चलते महिलाओं को बड़े पैमाने पर असमानता, उत्पीड़न, वित्तीय निर्भरता और अन्य सामाजिक बुराइयों का खामियाजा सहन करना पड़ता है। भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता के बहुत से कारण सामने आते हैं। प्राचीन काल की अपेक्षा मध्य काल में भारतीय महिलाओं के सम्मान स्तर में काफी कमी आयी। जितना सम्मान उन्हें प्राचीन काल में दिया जाता था, मध्य काल में वह सम्मान घटने लगा था। आधुनिक युग में कई भारतीय महिलाएँ कई सारे महत्त्वपूर्ण राजनैतिक तथा प्रशासनिक पदों पर पदस्थ हैं, फिर भी सामान्य ग्रामीण महिलाएँ आज भी अपने घरों में रहने के लिए बाध्य हैं और उन्हें सामान्य स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण महिलाएँ सदियों से घर तथा खेतों में पुरुषों के बराबर ही काम करती आई हैं, लेकिन वहाँ उन्हें सामंती सोच के कारण दूसरे दर्जे का नागरिक ही माना जाता रहा है। अब ग्रामीण समाज की सोच बदलने का वक्त आ गया है। सामाजिक असमानता, पारिवारिक हिंसा, अत्याचार और आर्थिक अनिर्भरता इन सभी से महिलाओं को छुटकारा पाना है तो जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनती हैं। जिससे वे अपने जीवन से जुड़े हर फैसले स्वयं ले सकती हैं और परिवार और समाज में अपना स्थान बनाती हैं। समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना महिला सशक्तिकरण है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में बराबर का भागीदार बनाया जाए। भारतीय महिलाओं का सशक्तिकरण बहुत हद तक भौगोलिक (शहरी और ग्रामीण), शैक्षणिक योग्यता, और सामाजिक एकता के ऊपर निर्भर करता है। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ ही नहीं हुई हैं, अपितु परिवार और समाज की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं। वर्तमान समय में लोग बेटियों को बोझ समझकर दुनिया में आने से पहले ही मारें नहीं, इसलिए विकास की मुख्यधारा में महिलाओं को लाने के लिये भारत सरकार के द्वारा कई योजनाएँ चलाई गई हैं।
प्रश्न. ग्रामीण सोच में परिवर्तन लाने के लिए क्या किया जा सकता है?
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निसंदेह सहजता से हर एक दिन भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ जीते हुए, महिलाएँ किसी भी समाज का स्तम्भ हैं। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में समाज उनकी भूमिका को नजर अंदाज़ करता है। इसके चलते महिलाओं को बड़े पैमाने पर असमानता, उत्पीड़न, वित्तीय निर्भरता और अन्य सामाजिक बुराइयों का खामियाजा सहन करना पड़ता है। भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता के बहुत से कारण सामने आते हैं। प्राचीन काल की अपेक्षा मध्य काल में भारतीय महिलाओं के सम्मान स्तर में काफी कमी आयी। जितना सम्मान उन्हें प्राचीन काल में दिया जाता था, मध्य काल में वह सम्मान घटने लगा था। आधुनिक युग में कई भारतीय महिलाएँ कई सारे महत्त्वपूर्ण राजनैतिक तथा प्रशासनिक पदों पर पदस्थ हैं, फिर भी सामान्य ग्रामीण महिलाएँ आज भी अपने घरों में रहने के लिए बाध्य हैं और उन्हें सामान्य स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण महिलाएँ सदियों से घर तथा खेतों में पुरुषों के बराबर ही काम करती आई हैं, लेकिन वहाँ उन्हें सामंती सोच के कारण दूसरे दर्जे का नागरिक ही माना जाता रहा है। अब ग्रामीण समाज की सोच बदलने का वक्त आ गया है। सामाजिक असमानता, पारिवारिक हिंसा, अत्याचार और आर्थिक अनिर्भरता इन सभी से महिलाओं को छुटकारा पाना है तो जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनती हैं। जिससे वे अपने जीवन से जुड़े हर फैसले स्वयं ले सकती हैं और परिवार और समाज में अपना स्थान बनाती हैं। समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना महिला सशक्तिकरण है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में बराबर का भागीदार बनाया जाए। भारतीय महिलाओं का सशक्तिकरण बहुत हद तक भौगोलिक (शहरी और ग्रामीण), शैक्षणिक योग्यता, और सामाजिक एकता के ऊपर निर्भर करता है। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ ही नहीं हुई हैं, अपितु परिवार और समाज की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं। वर्तमान समय में लोग बेटियों को बोझ समझकर दुनिया में आने से पहले ही मारें नहीं, इसलिए विकास की मुख्यधारा में महिलाओं को लाने के लिये भारत सरकार के द्वारा कई योजनाएँ चलाई गई हैं।
प्रश्न. अब लोग बेटियों को बोझ नहीं समझते, यह समाज की किस सोच का परिणाम है?
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निसंदेह सहजता से हर एक दिन भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ जीते हुए, महिलाएँ किसी भी समाज का स्तम्भ हैं। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में समाज उनकी भूमिका को नजर अंदाज़ करता है। इसके चलते महिलाओं को बड़े पैमाने पर असमानता, उत्पीड़न, वित्तीय निर्भरता और अन्य सामाजिक बुराइयों का खामियाजा सहन करना पड़ता है। भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता के बहुत से कारण सामने आते हैं। प्राचीन काल की अपेक्षा मध्य काल में भारतीय महिलाओं के सम्मान स्तर में काफी कमी आयी। जितना सम्मान उन्हें प्राचीन काल में दिया जाता था, मध्य काल में वह सम्मान घटने लगा था। आधुनिक युग में कई भारतीय महिलाएँ कई सारे महत्त्वपूर्ण राजनैतिक तथा प्रशासनिक पदों पर पदस्थ हैं, फिर भी सामान्य ग्रामीण महिलाएँ आज भी अपने घरों में रहने के लिए बाध्य हैं और उन्हें सामान्य स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण महिलाएँ सदियों से घर तथा खेतों में पुरुषों के बराबर ही काम करती आई हैं, लेकिन वहाँ उन्हें सामंती सोच के कारण दूसरे दर्जे का नागरिक ही माना जाता रहा है। अब ग्रामीण समाज की सोच बदलने का वक्त आ गया है। सामाजिक असमानता, पारिवारिक हिंसा, अत्याचार और आर्थिक अनिर्भरता इन सभी से महिलाओं को छुटकारा पाना है तो जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनती हैं। जिससे वे अपने जीवन से जुड़े हर फैसले स्वयं ले सकती हैं और परिवार और समाज में अपना स्थान बनाती हैं। समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना महिला सशक्तिकरण है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में बराबर का भागीदार बनाया जाए। भारतीय महिलाओं का सशक्तिकरण बहुत हद तक भौगोलिक (शहरी और ग्रामीण), शैक्षणिक योग्यता, और सामाजिक एकता के ऊपर निर्भर करता है। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ ही नहीं हुई हैं, अपितु परिवार और समाज की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं। वर्तमान समय में लोग बेटियों को बोझ समझकर दुनिया में आने से पहले ही मारें नहीं, इसलिए विकास की मुख्यधारा में महिलाओं को लाने के लिये भारत सरकार के द्वारा कई योजनाएँ चलाई गई हैं।
प्रश्न. महिला सशक्तिकरण से परिवार की आर्थिक स्थिति पर क्या प्रभाव दिखाई दिया?
नीचे दो अपठित गद्यांश दिए गए हैं। किसी एक गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के सही विकल्प चुनकर लिखिए
निसंदेह सहजता से हर एक दिन भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ जीते हुए, महिलाएँ किसी भी समाज का स्तम्भ हैं। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में समाज उनकी भूमिका को नजर अंदाज़ करता है। इसके चलते महिलाओं को बड़े पैमाने पर असमानता, उत्पीड़न, वित्तीय निर्भरता और अन्य सामाजिक बुराइयों का खामियाजा सहन करना पड़ता है। भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता के बहुत से कारण सामने आते हैं। प्राचीन काल की अपेक्षा मध्य काल में भारतीय महिलाओं के सम्मान स्तर में काफी कमी आयी। जितना सम्मान उन्हें प्राचीन काल में दिया जाता था, मध्य काल में वह सम्मान घटने लगा था। आधुनिक युग में कई भारतीय महिलाएँ कई सारे महत्त्वपूर्ण राजनैतिक तथा प्रशासनिक पदों पर पदस्थ हैं, फिर भी सामान्य ग्रामीण महिलाएँ आज भी अपने घरों में रहने के लिए बाध्य हैं और उन्हें सामान्य स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण महिलाएँ सदियों से घर तथा खेतों में पुरुषों के बराबर ही काम करती आई हैं, लेकिन वहाँ उन्हें सामंती सोच के कारण दूसरे दर्जे का नागरिक ही माना जाता रहा है। अब ग्रामीण समाज की सोच बदलने का वक्त आ गया है। सामाजिक असमानता, पारिवारिक हिंसा, अत्याचार और आर्थिक अनिर्भरता इन सभी से महिलाओं को छुटकारा पाना है तो जरूरत है महिला सशक्तिकरण की। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनती हैं। जिससे वे अपने जीवन से जुड़े हर फैसले स्वयं ले सकती हैं और परिवार और समाज में अपना स्थान बनाती हैं। समाज में उनके वास्तविक अधिकार को प्राप्त करने के लिए उन्हें सक्षम बनाना महिला सशक्तिकरण है। महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिलाओं को राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में बराबर का भागीदार बनाया जाए। भारतीय महिलाओं का सशक्तिकरण बहुत हद तक भौगोलिक (शहरी और ग्रामीण), शैक्षणिक योग्यता, और सामाजिक एकता के ऊपर निर्भर करता है। महिला सशक्तिकरण से महिलाएँ केवल आर्थिक रूप से सुदृढ़ ही नहीं हुई हैं, अपितु परिवार और समाज की सोच में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगे हैं। वर्तमान समय में लोग बेटियों को बोझ समझकर दुनिया में आने से पहले ही मारें नहीं, इसलिए विकास की मुख्यधारा में महिलाओं को लाने के लिये भारत सरकार के द्वारा कई योजनाएँ चलाई गई हैं।
प्रश्न. क्या महिलाओं के सशक्तिकरण का पक्ष मात्र आर्थिक रूप से सशक्त होना ही है?
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देश के आजाद होने पर बिता लम्बी अवधि
अब असह्य इस दर्द से हैं धमनियाँ फटने लगी
व्यर्थ सीढ़ीदार खेतों में कड़ी मेहनत किए
हो गया हूँ और जर्जर, बोझ ढोकर थक गया
अब मरूँगा तो जलाने के लिए मुझको,
अरे! दो लकड़ियाँ भी नहीं होंगी सुलभ इन जंगलों से।
वन कहाँ हैं, जब कुल्हाड़ों की तृषा है बढ़ रही
काट डाले जा रहे हैं मानवों के बन्धु तरुवर
फूल से, फल से, दलों से, मूल से, तरु-छाल से
सर्वस्व देकर जो मनुज को लाभ पहुँचाते सदा
कट रहे हैं ये सभी वन,
पर्वतों की दिव्य शोभा हैं निरन्तर हो रही विद्रूप,
ऋतुएँ रो रहीं गगनचुम्बी वन सदा जिनके हृदय से
फूटते झरने, नदी बहती सुशीतल नीर की
हर पहर नित चहकते हैं कूकते रहते विहग
फूल पृथ्वी का सहज शृंगार करते हैं जहाँ।
प्रश्न. 'अब असह्य इस दर्द से'-में असह्य दर्द का कारण क्या है?
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
देश के आजाद होने पर बिता लम्बी अवधि
अब असह्य इस दर्द से हैं धमनियाँ फटने लगी
व्यर्थ सीढ़ीदार खेतों में कड़ी मेहनत किए
हो गया हूँ और जर्जर, बोझ ढोकर थक गया
अब मरूँगा तो जलाने के लिए मुझको,
अरे! दो लकड़ियाँ भी नहीं होंगी सुलभ इन जंगलों से।
वन कहाँ हैं, जब कुल्हाड़ों की तृषा है बढ़ रही
काट डाले जा रहे हैं मानवों के बन्धु तरुवर
फूल से, फल से, दलों से, मूल से, तरु-छाल से
सर्वस्व देकर जो मनुज को लाभ पहुँचाते सदा
कट रहे हैं ये सभी वन,
पर्वतों की दिव्य शोभा हैं निरन्तर हो रही विद्रूप,
ऋतुएँ रो रहीं गगनचुम्बी वन सदा जिनके हृदय से
फूटते झरने, नदी बहती सुशीतल नीर की
हर पहर नित चहकते हैं कूकते रहते विहग
फूल पृथ्वी का सहज शृंगार करते हैं जहाँ।
प्रश्न. 'जब कुल्हाड़ों की तृषा है बढ़ रही'-कथन से क्या तात्पर्य है?
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देश के आजाद होने पर बिता लम्बी अवधि
अब असह्य इस दर्द से हैं धमनियाँ फटने लगी
व्यर्थ सीढ़ीदार खेतों में कड़ी मेहनत किए
हो गया हूँ और जर्जर, बोझ ढोकर थक गया
अब मरूँगा तो जलाने के लिए मुझको,
अरे! दो लकड़ियाँ भी नहीं होंगी सुलभ इन जंगलों से।
वन कहाँ हैं, जब कुल्हाड़ों की तृषा है बढ़ रही
काट डाले जा रहे हैं मानवों के बन्धु तरुवर
फूल से, फल से, दलों से, मूल से, तरु-छाल से
सर्वस्व देकर जो मनुज को लाभ पहुँचाते सदा
कट रहे हैं ये सभी वन,
पर्वतों की दिव्य शोभा हैं निरन्तर हो रही विद्रूप,
ऋतुएँ रो रहीं गगनचुम्बी वन सदा जिनके हृदय से
फूटते झरने, नदी बहती सुशीतल नीर की
हर पहर नित चहकते हैं कूकते रहते विहग
फूल पृथ्वी का सहज शृंगार करते हैं जहाँ।
प्रश्न. अंत्येष्टि के लिए लकड़ियाँ सलभ न होने का कारण है
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
देश के आजाद होने पर बिता लम्बी अवधि
अब असह्य इस दर्द से हैं धमनियाँ फटने लगी
व्यर्थ सीढ़ीदार खेतों में कड़ी मेहनत किए
हो गया हूँ और जर्जर, बोझ ढोकर थक गया
अब मरूँगा तो जलाने के लिए मुझको,
अरे! दो लकड़ियाँ भी नहीं होंगी सुलभ इन जंगलों से।
वन कहाँ हैं, जब कुल्हाड़ों की तृषा है बढ़ रही
काट डाले जा रहे हैं मानवों के बन्धु तरुवर
फूल से, फल से, दलों से, मूल से, तरु-छाल से
सर्वस्व देकर जो मनुज को लाभ पहुँचाते सदा
कट रहे हैं ये सभी वन,
पर्वतों की दिव्य शोभा हैं निरन्तर हो रही विद्रूप,
ऋतुएँ रो रहीं गगनचुम्बी वन सदा जिनके हृदय से
फूटते झरने, नदी बहती सुशीतल नीर की
हर पहर नित चहकते हैं कूकते रहते विहग
फूल पृथ्वी का सहज शृंगार करते हैं जहाँ।
प्रश्न. पेड़ों को मानव-बन्धु क्यों कहा गया है?
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
देश के आजाद होने पर बिता लम्बी अवधि
अब असह्य इस दर्द से हैं धमनियाँ फटने लगी
व्यर्थ सीढ़ीदार खेतों में कड़ी मेहनत किए
हो गया हूँ और जर्जर, बोझ ढोकर थक गया
अब मरूँगा तो जलाने के लिए मुझको,
अरे! दो लकड़ियाँ भी नहीं होंगी सुलभ इन जंगलों से।
वन कहाँ हैं, जब कुल्हाड़ों की तृषा है बढ़ रही
काट डाले जा रहे हैं मानवों के बन्धु तरुवर
फूल से, फल से, दलों से, मूल से, तरु-छाल से
सर्वस्व देकर जो मनुज को लाभ पहुँचाते सदा
कट रहे हैं ये सभी वन,
पर्वतों की दिव्य शोभा हैं निरन्तर हो रही विद्रूप,
ऋतुएँ रो रहीं गगनचुम्बी वन सदा जिनके हृदय से
फूटते झरने, नदी बहती सुशीतल नीर की
हर पहर नित चहकते हैं कूकते रहते विहग
फूल पृथ्वी का सहज शृंगार करते हैं जहाँ।
प्रश्न. इस कविता में क्या प्रेरणा दी गई है?
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थीं।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आहृलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।
मैंने पूछा 'यह क्या लाई'? बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा-'तुम्ही खाओ'।।
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।
प्रश्न. काव्यांश के आधार पर बताइए कि कवयित्री ने अपने बचपन को किस रूप में पुनः पाया?
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थीं।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आहृलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।
मैंने पूछा 'यह क्या लाई'? बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा-'तुम्ही खाओ'।।
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।
प्रश्न. कवयित्री वर्षों से किसे खोज रहीं थीं?
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थीं।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आहृलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।
मैंने पूछा 'यह क्या लाई'? बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा-'तुम्ही खाओ'।।
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।
प्रश्न. कवयित्री की बेटी के चेहरे पर किस कारण विजय-गर्व झलक रहा था?
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थीं।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आहृलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।
मैंने पूछा 'यह क्या लाई'? बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा-'तुम्ही खाओ'।।
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।
प्रश्न. मिट्टी खिलाने आई बेटी की छवि कैसी थी?
नीचे दो काव्यांश दिए गए हैं। किसी एक काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर सही विकल्प चुनकर लिखिए
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नन्दन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।।
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थीं।
कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आहृलाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।।
मैंने पूछा 'यह क्या लाई'? बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा-'तुम्ही खाओ'।।
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।।
प्रश्न. बेटी और माँ के बीच क्या संवाद हुआ?
'एक साल पहले बने कॉलेज में शीला अग्रवाल की नियुक्ति हुई थी।' संयुक्त वाक्य में बदलिए।
'जो व्यक्ति साहसी हैं उनके लिए कोई कार्य असंभव नहीं है।' सरल वाक्य में बदलिए।
'सवार का संतुलन बिगड़ा और वह गिर गया।' मिश्र वाक्य में बदलिए।
'केवट ने कहा कि बिना पाँव भोए आपको नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा।' आश्रित उपवाक्य छाँटकर भेद भी लिखिए।
'कठोर बनो परन्तु सहृदय रहो।' रचना के आभार पर वाक्य है
'कुछ छोटे भूरे पक्षियों द्वारा मंच सम्हाल लिया जाता है।' कर्तृवाच्य में बदलिए।
निम्न में से भाववाच्य है
'इसके द्वारा सात सुरों को गजब की विविभता के साथ प्रस्तुत किया गया।' वाक्य में वाच्य है
निम्न में से कर्मवाच्य है
'मेरे मित्र से चला नहीं जाता' कर्तृवाच्य में बदलिए।