निम्नलिखित में से अव्ययीभाव समास का एक उदाहरण कौन-सा है ?
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निम्नलिखित पर्यायवाची में से विछोह का पर्यायवाची शब्द बताओ?
दिये गए किस विकल्प में सभी शब्द अशुद्ध हैं?
‘छ’ ध्वनि का उच्चारण स्थान कौन -सा है?
‘दाँतों तले उँगली दबाना’ मुहावरे का सही अर्थ क्या है?
निम्नलिखित शब्दों में तद्भव शब्द पहचानिए।
‘वर्षा’ शब्द का उचित बहुवचन ज्ञात करें।
‘चालाक’ शब्द किस प्रकार का विशेषण है?
‘मीरा बहुत परेशान है।’ इस वाक्य का अपूर्ण भूतकाल में होता है-
"उसने चाक़ू से फल काटे l" वाक्य में कौन-सा कारक है?
निर्देश:- दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
भारत एक अनोखी स्थिति में है। अपनी उच्च प्राचीन संस्कृति और समृद्ध भाषाओं, दर्शनों के होते हुए भी अधकचरे रूप में अपने शासकों की भाषा अपनाने की होड़ में लगा हुआ है। भारत आर्थिक असमानता के ऐसे कगार पर खड़ा है कि तल की गहराई का अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। यूरोप के सारे देश जो उपनिवेशिकता की स्थिति में नहीं थे, उन की अपनी भाषाएं और संस्कृतियां सुरक्षित हैं। वे अपनी ही भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं। जर्मनी, फ्राँस, इटली, स्विटज़रलैण्ड, नीदरलैण्ड और पूर्वी यूरोप के सारे देश तथा रूस इत्यादि अपनी ही भाषा में अपनी ज़िन्दगी जीते हैं। अंतर सिर्फ़ इतना ही है कि वे उपनिवेश नहीं थे। उनका शासक अगर कोई थोड़ी बहुत देर तक था भी तो उन्हीं की संस्कृति का, उन्हीं के वर्ण का। ज्ञान-विज्ञान पर उनका भी उतना ही ऊँचा स्थान है जितना किसी भी अगुआ देश का। वे अंग्रेज़ी भाषा को सिर्फ एक “पूल” के तौर पर प्रयोग करते हैं। उतनी ही अंग्रेज़ी सीखते हैं जिससे वैश्विक ज्ञान-विज्ञान साझा कर सकें लेकिन अपनी सृजनात्मकता को अपनी ही भाषा में फलने-फूलने देते हैं। लेकिन लगता है कि हमारे देश में यह तर्क एक कमज़ोर आदमी का तर्क है क्योंकि वहाँ सारी ताकत अंग्रेज़ी से आती है। अपनी आत्मछवि को बाहर देखने की और मनोरंजन की भूख स्वाभाविक है और वो हम अपनी भाषा की फिल्में देख कर या अपनी भाषा के अख़बार पढ़ कर पूरा कर लेते हैं। कम उम्र के बच्चों को हम यह आत्मछवि बिल्कुल नहीं देना चाहते। उन्हें, इसलिए हम नाम-मात्र को ही अपनी भाषाओं के संपर्क में देखना चाहते हैं। फिल्में देखना और बात है, लेकिन किताब वे अंग्रेज़ी के अलावा किसी और देशीय भाषा में पढ़ें, यह हीन स्थिति है। भविष्य बिगाड़ने वाली बात! नितान्त औपनिवेशिक मनस्थिति! किसी ऊँचे वैज्ञानिक शोध या आविष्कार की बात तो दूर, कोई अन्य प्रकार का मौलिक चिन्तन भी इस उपनिवेशिक मनस्थिति ने वहाँ कभी पनपने नहीं दिया। सारे मौलिक रूप से आज़ाद देश और समाज अपनी सांस्कृतिक भाषा में ही आज भी सारी शिक्षा प्राप्त करते हैं, किताबें लिखते हैं, पढ़ते हैं। बहुत सीमित रूप से आवश्यकता के अनुरूप अंग्रेज़ी सीख लेते हैं। उन के बौद्धिक और नेता भी अपने देशों से बाहर जाकर अपनी ही भाषाओं में विश्वास के साथ बोलते हैं। ठीक जो कहना चाहते हैं, वही निर्भीकता और आत्मविश्वास से कहते हैं।
प्रश्न: दिए गए गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक क्या होगा?
निर्देश:- दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
भारत एक अनोखी स्थिति में है। अपनी उच्च प्राचीन संस्कृति और समृद्ध भाषाओं, दर्शनों के होते हुए भी अधकचरे रूप में अपने शासकों की भाषा अपनाने की होड़ में लगा हुआ है। भारत आर्थिक असमानता के ऐसे कगार पर खड़ा है कि तल की गहराई का अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। यूरोप के सारे देश जो उपनिवेशिकता की स्थिति में नहीं थे, उन की अपनी भाषाएं और संस्कृतियां सुरक्षित हैं। वे अपनी ही भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं। जर्मनी, फ्राँस, इटली, स्विटज़रलैण्ड, नीदरलैण्ड और पूर्वी यूरोप के सारे देश तथा रूस इत्यादि अपनी ही भाषा में अपनी ज़िन्दगी जीते हैं। अंतर सिर्फ़ इतना ही है कि वे उपनिवेश नहीं थे। उनका शासक अगर कोई थोड़ी बहुत देर तक था भी तो उन्हीं की संस्कृति का, उन्हीं के वर्ण का। ज्ञान-विज्ञान पर उनका भी उतना ही ऊँचा स्थान है जितना किसी भी अगुआ देश का। वे अंग्रेज़ी भाषा को सिर्फ एक “पूल” के तौर पर प्रयोग करते हैं। उतनी ही अंग्रेज़ी सीखते हैं जिससे वैश्विक ज्ञान-विज्ञान साझा कर सकें लेकिन अपनी सृजनात्मकता को अपनी ही भाषा में फलने-फूलने देते हैं। लेकिन लगता है कि हमारे देश में यह तर्क एक कमज़ोर आदमी का तर्क है क्योंकि वहाँ सारी ताकत अंग्रेज़ी से आती है। अपनी आत्मछवि को बाहर देखने की और मनोरंजन की भूख स्वाभाविक है और वो हम अपनी भाषा की फिल्में देख कर या अपनी भाषा के अख़बार पढ़ कर पूरा कर लेते हैं। कम उम्र के बच्चों को हम यह आत्मछवि बिल्कुल नहीं देना चाहते। उन्हें, इसलिए हम नाम-मात्र को ही अपनी भाषाओं के संपर्क में देखना चाहते हैं। फिल्में देखना और बात है, लेकिन किताब वे अंग्रेज़ी के अलावा किसी और देशीय भाषा में पढ़ें, यह हीन स्थिति है। भविष्य बिगाड़ने वाली बात! नितान्त औपनिवेशिक मनस्थिति! किसी ऊँचे वैज्ञानिक शोध या आविष्कार की बात तो दूर, कोई अन्य प्रकार का मौलिक चिन्तन भी इस उपनिवेशिक मनस्थिति ने वहाँ कभी पनपने नहीं दिया। सारे मौलिक रूप से आज़ाद देश और समाज अपनी सांस्कृतिक भाषा में ही आज भी सारी शिक्षा प्राप्त करते हैं, किताबें लिखते हैं, पढ़ते हैं। बहुत सीमित रूप से आवश्यकता के अनुरूप अंग्रेज़ी सीख लेते हैं। उन के बौद्धिक और नेता भी अपने देशों से बाहर जाकर अपनी ही भाषाओं में विश्वास के साथ बोलते हैं। ठीक जो कहना चाहते हैं, वही निर्भीकता और आत्मविश्वास से कहते हैं।
प्रश्न: भारत में किस बात की होड़ लगी रहती है?
निर्देश:- दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
भारत एक अनोखी स्थिति में है। अपनी उच्च प्राचीन संस्कृति और समृद्ध भाषाओं, दर्शनों के होते हुए भी अधकचरे रूप में अपने शासकों की भाषा अपनाने की होड़ में लगा हुआ है। भारत आर्थिक असमानता के ऐसे कगार पर खड़ा है कि तल की गहराई का अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। यूरोप के सारे देश जो उपनिवेशिकता की स्थिति में नहीं थे, उन की अपनी भाषाएं और संस्कृतियां सुरक्षित हैं। वे अपनी ही भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं। जर्मनी, फ्राँस, इटली, स्विटज़रलैण्ड, नीदरलैण्ड और पूर्वी यूरोप के सारे देश तथा रूस इत्यादि अपनी ही भाषा में अपनी ज़िन्दगी जीते हैं। अंतर सिर्फ़ इतना ही है कि वे उपनिवेश नहीं थे। उनका शासक अगर कोई थोड़ी बहुत देर तक था भी तो उन्हीं की संस्कृति का, उन्हीं के वर्ण का। ज्ञान-विज्ञान पर उनका भी उतना ही ऊँचा स्थान है जितना किसी भी अगुआ देश का। वे अंग्रेज़ी भाषा को सिर्फ एक “पूल” के तौर पर प्रयोग करते हैं। उतनी ही अंग्रेज़ी सीखते हैं जिससे वैश्विक ज्ञान-विज्ञान साझा कर सकें लेकिन अपनी सृजनात्मकता को अपनी ही भाषा में फलने-फूलने देते हैं। लेकिन लगता है कि हमारे देश में यह तर्क एक कमज़ोर आदमी का तर्क है क्योंकि वहाँ सारी ताकत अंग्रेज़ी से आती है। अपनी आत्मछवि को बाहर देखने की और मनोरंजन की भूख स्वाभाविक है और वो हम अपनी भाषा की फिल्में देख कर या अपनी भाषा के अख़बार पढ़ कर पूरा कर लेते हैं। कम उम्र के बच्चों को हम यह आत्मछवि बिल्कुल नहीं देना चाहते। उन्हें, इसलिए हम नाम-मात्र को ही अपनी भाषाओं के संपर्क में देखना चाहते हैं। फिल्में देखना और बात है, लेकिन किताब वे अंग्रेज़ी के अलावा किसी और देशीय भाषा में पढ़ें, यह हीन स्थिति है। भविष्य बिगाड़ने वाली बात! नितान्त औपनिवेशिक मनस्थिति! किसी ऊँचे वैज्ञानिक शोध या आविष्कार की बात तो दूर, कोई अन्य प्रकार का मौलिक चिन्तन भी इस उपनिवेशिक मनस्थिति ने वहाँ कभी पनपने नहीं दिया। सारे मौलिक रूप से आज़ाद देश और समाज अपनी सांस्कृतिक भाषा में ही आज भी सारी शिक्षा प्राप्त करते हैं, किताबें लिखते हैं, पढ़ते हैं। बहुत सीमित रूप से आवश्यकता के अनुरूप अंग्रेज़ी सीख लेते हैं। उन के बौद्धिक और नेता भी अपने देशों से बाहर जाकर अपनी ही भाषाओं में विश्वास के साथ बोलते हैं। ठीक जो कहना चाहते हैं, वही निर्भीकता और आत्मविश्वास से कहते हैं।
प्रश्न: यूरोपीय देश किस भाषा में शिक्षा लेते हैं?
निर्देश:- दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
भारत एक अनोखी स्थिति में है। अपनी उच्च प्राचीन संस्कृति और समृद्ध भाषाओं, दर्शनों के होते हुए भी अधकचरे रूप में अपने शासकों की भाषा अपनाने की होड़ में लगा हुआ है। भारत आर्थिक असमानता के ऐसे कगार पर खड़ा है कि तल की गहराई का अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। यूरोप के सारे देश जो उपनिवेशिकता की स्थिति में नहीं थे, उन की अपनी भाषाएं और संस्कृतियां सुरक्षित हैं। वे अपनी ही भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं। जर्मनी, फ्राँस, इटली, स्विटज़रलैण्ड, नीदरलैण्ड और पूर्वी यूरोप के सारे देश तथा रूस इत्यादि अपनी ही भाषा में अपनी ज़िन्दगी जीते हैं। अंतर सिर्फ़ इतना ही है कि वे उपनिवेश नहीं थे। उनका शासक अगर कोई थोड़ी बहुत देर तक था भी तो उन्हीं की संस्कृति का, उन्हीं के वर्ण का। ज्ञान-विज्ञान पर उनका भी उतना ही ऊँचा स्थान है जितना किसी भी अगुआ देश का। वे अंग्रेज़ी भाषा को सिर्फ एक “पूल” के तौर पर प्रयोग करते हैं। उतनी ही अंग्रेज़ी सीखते हैं जिससे वैश्विक ज्ञान-विज्ञान साझा कर सकें लेकिन अपनी सृजनात्मकता को अपनी ही भाषा में फलने-फूलने देते हैं। लेकिन लगता है कि हमारे देश में यह तर्क एक कमज़ोर आदमी का तर्क है क्योंकि वहाँ सारी ताकत अंग्रेज़ी से आती है। अपनी आत्मछवि को बाहर देखने की और मनोरंजन की भूख स्वाभाविक है और वो हम अपनी भाषा की फिल्में देख कर या अपनी भाषा के अख़बार पढ़ कर पूरा कर लेते हैं। कम उम्र के बच्चों को हम यह आत्मछवि बिल्कुल नहीं देना चाहते। उन्हें, इसलिए हम नाम-मात्र को ही अपनी भाषाओं के संपर्क में देखना चाहते हैं। फिल्में देखना और बात है, लेकिन किताब वे अंग्रेज़ी के अलावा किसी और देशीय भाषा में पढ़ें, यह हीन स्थिति है। भविष्य बिगाड़ने वाली बात! नितान्त औपनिवेशिक मनस्थिति! किसी ऊँचे वैज्ञानिक शोध या आविष्कार की बात तो दूर, कोई अन्य प्रकार का मौलिक चिन्तन भी इस उपनिवेशिक मनस्थिति ने वहाँ कभी पनपने नहीं दिया। सारे मौलिक रूप से आज़ाद देश और समाज अपनी सांस्कृतिक भाषा में ही आज भी सारी शिक्षा प्राप्त करते हैं, किताबें लिखते हैं, पढ़ते हैं। बहुत सीमित रूप से आवश्यकता के अनुरूप अंग्रेज़ी सीख लेते हैं। उन के बौद्धिक और नेता भी अपने देशों से बाहर जाकर अपनी ही भाषाओं में विश्वास के साथ बोलते हैं। ठीक जो कहना चाहते हैं, वही निर्भीकता और आत्मविश्वास से कहते हैं।
प्रश्न: यूरोपीय देश की सृजनात्मकता किस भाषा में थी?
निर्देश:- दिए गए गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
भारत एक अनोखी स्थिति में है। अपनी उच्च प्राचीन संस्कृति और समृद्ध भाषाओं, दर्शनों के होते हुए भी अधकचरे रूप में अपने शासकों की भाषा अपनाने की होड़ में लगा हुआ है। भारत आर्थिक असमानता के ऐसे कगार पर खड़ा है कि तल की गहराई का अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। यूरोप के सारे देश जो उपनिवेशिकता की स्थिति में नहीं थे, उन की अपनी भाषाएं और संस्कृतियां सुरक्षित हैं। वे अपनी ही भाषाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं। जर्मनी, फ्राँस, इटली, स्विटज़रलैण्ड, नीदरलैण्ड और पूर्वी यूरोप के सारे देश तथा रूस इत्यादि अपनी ही भाषा में अपनी ज़िन्दगी जीते हैं। अंतर सिर्फ़ इतना ही है कि वे उपनिवेश नहीं थे। उनका शासक अगर कोई थोड़ी बहुत देर तक था भी तो उन्हीं की संस्कृति का, उन्हीं के वर्ण का। ज्ञान-विज्ञान पर उनका भी उतना ही ऊँचा स्थान है जितना किसी भी अगुआ देश का। वे अंग्रेज़ी भाषा को सिर्फ एक “पूल” के तौर पर प्रयोग करते हैं। उतनी ही अंग्रेज़ी सीखते हैं जिससे वैश्विक ज्ञान-विज्ञान साझा कर सकें लेकिन अपनी सृजनात्मकता को अपनी ही भाषा में फलने-फूलने देते हैं। लेकिन लगता है कि हमारे देश में यह तर्क एक कमज़ोर आदमी का तर्क है क्योंकि वहाँ सारी ताकत अंग्रेज़ी से आती है। अपनी आत्मछवि को बाहर देखने की और मनोरंजन की भूख स्वाभाविक है और वो हम अपनी भाषा की फिल्में देख कर या अपनी भाषा के अख़बार पढ़ कर पूरा कर लेते हैं। कम उम्र के बच्चों को हम यह आत्मछवि बिल्कुल नहीं देना चाहते। उन्हें, इसलिए हम नाम-मात्र को ही अपनी भाषाओं के संपर्क में देखना चाहते हैं। फिल्में देखना और बात है, लेकिन किताब वे अंग्रेज़ी के अलावा किसी और देशीय भाषा में पढ़ें, यह हीन स्थिति है। भविष्य बिगाड़ने वाली बात! नितान्त औपनिवेशिक मनस्थिति! किसी ऊँचे वैज्ञानिक शोध या आविष्कार की बात तो दूर, कोई अन्य प्रकार का मौलिक चिन्तन भी इस उपनिवेशिक मनस्थिति ने वहाँ कभी पनपने नहीं दिया। सारे मौलिक रूप से आज़ाद देश और समाज अपनी सांस्कृतिक भाषा में ही आज भी सारी शिक्षा प्राप्त करते हैं, किताबें लिखते हैं, पढ़ते हैं। बहुत सीमित रूप से आवश्यकता के अनुरूप अंग्रेज़ी सीख लेते हैं। उन के बौद्धिक और नेता भी अपने देशों से बाहर जाकर अपनी ही भाषाओं में विश्वास के साथ बोलते हैं। ठीक जो कहना चाहते हैं, वही निर्भीकता और आत्मविश्वास से कहते हैं।
प्रश्न: भारत में अपनी भाषा में किताबें पढ़ने को हीन मानना कैसी मन:स्थिति है?
निम्नलिखित वाक्यों में से विशेषण शब्द छाँटकर लिखिएI
थोड़ा दूध देंने का कष्ट करें।
’मुख्यमंत्री ने बाढ़ पीडितों को अनाज और कपडे दिए’वाक्य में कौनसा कारक है?
‘ब्राह्मण’ शब्द का स्त्रीलिंग रूप क्या है?
रेखांकित छपे शब्द के लिए अपयुक्त विलोम शब्द का चयन करो - वह अपने विषय का पूर्ण अभिज्ञ है।
‘सम्राट’ शब्द का स्त्रीलिंग रूप क्या है?
‘रोहन ने धोबी को कपड़े दिए।’ वाक्य में कौनसा कारक है?
निम्नलिखित संज्ञा शब्दों से विशेषण शब्द बनाइए –
पुस्तक
‘क्षत्री’ शब्द का स्त्रीलिंग रूप क्या है?