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अपठित गद्यांश - 2 | Hindi Language for Teaching Exams - DSSSB TGT/PGT/PRT PDF Download

गद्यांश - 1

भारत में जन-आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। पिछले दो-तीन दशकों में शहरी एवं शिक्षित मध्यवर्गीय लोगों के बीच इस मसले पर सचेत समझदारी विकसित हुई है। विकास के आधुनिक संस्करण ने पारिस्थितिकीय संतुलन एवं विकास प्राथमिकताओं के मध्य द्वद्द की स्थिति खड़ी कर दी है। इसने कई जन आंदोलनों को जन्म दिया है। 70 का दशक सामाजिक आंदोलनों के लिहाज से बहुत सकल र्ण है। सामाजिक आंदोलनों के संदर्भ में इसे पैराडाइम शिफ्ट की तरह देखा जाता है| इसी दशक में महाआख्यानों के बरक्स छोटे मुद्दों ने वैश्विक स्तर पर अपनी छाप छोड़ी। चाहे वह महिला आंदोलन हो या फिर मानवाधिकार आंदोलन या फिर मध्य वर्ग के आंदोलन हो या शांति आंदोलन। पर्यावरणीय आंदोलन इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण कड़ी समझी जाती है। यह आंदोलन सन 973 में एक सुबह शुरू हुआ जब चमोली जिले के सुदूर पहाड़ी कस्बे गोपेश्वर में इलाहाबाद की खेल का सामान बनाने वाली फैक्ट्री के लोग देवदार के दस वृक्ष काटने के उद्देश्य से पहुँचे। आरंभ में ग्रामीणों ने अनुरोध किया कि वे वृक्ष ना काटें परंतु जब ठेकेदार नहीं माने तब ग्रामीणों ने चिन्हित वृक्षों का घेराव किया और उससे चिपक गए। पराजित ठेकेदारों को विवश होकर वापस जाना पड़ा। कुछ सप्ताह बाद ठेकेदार पुनः वापस आए और उन्होंने फिर पेड़ काटने की कोशिश की। 50 वर्षीय गौरा देवी के नेतृत्व में स्त्रियों ने इसका प्रतिरोध करते हुए जंगल जाने वाले मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। उनका कहना था कि ‘यह जंगल हमारा मायका है और हम पूरी ताकत से इसे बचाएँगी’।

इस आंदोलन की अग्रिम पंक्ति की सैनिक महिलाएँ थीं जिनका कार्यक्षेत्र घर के अंदर चौके और चूल्हे तक सीमित माना जाता है। भारत में जंगल को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण विद्यमान हैं। पहला है जीवनोत्पादक तथा दूसरा है जीवन विनाशक जिसे दूसरे शब्दों में ‘औद्योगिक भौतिकवादी दृष्टिकोण’ भी कहा जाता है। जीवनोत्पादक इृष्टिकोण जंगल के संसाधनों की निरंतरता तथा उनमें नवीन संभावनाओं को स्वीकार करता है ताकि भोजन तथा जल संसाधनों का कभी ना खत्म होने वाला भंडार बना रहे। जीवन विनाशक दृष्टिकोण कारखानों तथा बाजार से बँधा हुआ है जो जंगल के संसाधनों का अधिकाधिक दोहन अपने व्यावसायिक लाभ के लिए करना चाहता है। आंदोलन के आरंभिक दिनों बाहरी ठेकेदारों को भगाने में स्थानीय ठेकेदारों ने भी इनका भरपूर सहयोग किया क्‍योंकि इनके व्यावसायिक हित भी बाधित हो रहे थे, परंतु उनके जाने के बाद एक सरकारी निकाय (द फॉरैस्ट डेवेलपमेंट कारपोरेशन) ने फिर वहाँ के स्थानीय ठेकेदारों की सहायता से लकड़ी कटाई का कार्य शुरू किया। स्त्रियों नेयह देखते हुए अपने आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए जंगल के दोहन के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। वन विभाग के कई अधिकारियों ने स्त्रियों को यह समझाने का भी प्रयास किया कि जंगल लकड़ी का मुनाफा देते है। इसलिए उन्हें वे काट रहे हैं और जो लकड़ियाँ काटी जा रही है उनका जंगल के लिए कोई उपयोग नहीं है। वे जर्जर और ठूँठ है। महिलाओं ने उन्हें समझाया कि दरअसल यह जंगल के नवीनीकरण की प्रक्रिया है जिसमें पुराने तथा जर्जर हुए पेड़ नए पेड़ों के लिए जैविक खाद का कार्य करते हैं। जंगल के संबंध में महिलाओं की समझ ने चिपको आंदोलन को एक नई दिशा दी।

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Try yourself:चिपको आंदोलन किस तरह का जनआंदोलन था
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Try yourself:चिपको आंदोलन के स्थानीय ठेकेदारों का क्या उद्देश्य था?
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Try yourself:पर्यावरण संबंधी जन आंदोलन के जन्म के क्‍या कारण हैं?
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Try yourself:चिपको आंदोलन के आंदोलनकारी महिलाओं ने ठूंठ लकड़ियों के क्या लाभ बताए?
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Try yourself:सत्तर के दशक के सामाजिक आंदोलनों की क्‍या विशेषता है?
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गद्यांश - 2

‘विकास’ का सवाल आज विमर्श के केंद्र में है। आधुनिकता के प्रतिफल के रूप में प्रगट हुई ‘विकास’ की अवधारणा के बारे में लोगों का विश्वास था कि विकास की यह अदभुत घटना आधुनिक मनुष्य को अभाव, समाज और प्रकृति की दासता एवं जीवन को विकृत करने वाली शक्तियों से मुक्ति दिला देगी। लेकिन आधुनिक विकास के जोस्वप्न देखे थे उसके अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए। इसके फलस्वरूप लोगों का मन वैकल्पिक उपायों के बारे में सोचने लगा है। इस क्रम में हमें बरबस कुमारप्पा के विचार याद याद आते है जिन्होंने इसबात को मजबूती के साथ रखा है कि विकास की जो गांधीवादी अवधारणा है वही सार्थक एवं टिकाऊ है।

जे.सी. कुमारप्पा का आर्थिक दर्शन व्यापक और मौलिक है। कुमारप्पा का आर्थिक चिंतन गांधीवादी अहिंसा पद्धति पर आधारित होने के कारण व्यक्ति की स्वतंत्रता, सृजनशीलता तथा दैनिक काम से उसके स्वस्थ संबंध को महत्वपूर्ण मानता है। कुमारप्पा के अपुसार सार किसी के दैनिक कामों में ही उसके सभी आदर्श, सिद्धांत और धर्म प्रकट हो जाते है| यदि उचित रीति पर काम किया जाए तो वही काम मनुष्य के व्यक्तित्व, के विकास का रूप बन जाता है। कुमारप्पा बढ़ते हुए श्रम विभाजन के सर्दर्भ में वे लिखते है – “चीजों के बनाने की पद्धति में केंद्रीकरण के अंतर्गत जो श्रम-विभाजन होता है, जो कि स्टैंडर्ड माल तैयार करने के लिए आवश्यक है, उसमें व्यक्तिगत कारीगरी दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता। केंद्रित उद्योग में काम करने वाला उस बड़ी मशीन का एक हा भर बनकर रह जाता है। उसकी स्वतंत्रता और उसका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता|

कुमारप्पा के ये विचार आज के स्वयंचलित मशीन आधारित महाकाय उद्योगों में कार्यरत मजदूरों के जीवन का प्रत्यक्ष अध्ययन करने पर उन विचारों की सत्यता को सिद्ध करते हैं। आज इस बात को लेकर कोई दो राय नहीं है कि केंद्रीय उत्पादन व्यवस्था, अपने दुर्गणों से छुटकारा नहीं पा सकती। वह और भयावह तब बन जाती है जब वह “आवश्यकता के अनुसार उत्पादन” के बजाय “बाजार के लिए उत्पादन” पर ध्यान केंद्रित करती है। बेतहाशा उत्पादन बाजार की तलाश करने के लिए विवश होता है तथा उसका अंत गलाकाट परस्पर होड़ तथा युद्ध, उपनिवेशवाद इत्यादि में होता है। कुमारप्पा उपरोक्त तथ्यों को भलीभाँति परख चुके थे तथा स्थायी स्रोतों के दोहन पर ध्यान देने तथा उन्हें विकसित करने पर जोर देते रहे। दमा ‘विकास’ की जिस अवधारणा की बात करते हैं, उसके केंद्र में प्रकृति एवं मनुष्य है। मनुष्य की सुप्त शक्तियों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण निर्माण करना ही सच्चे विकास का उद्देश्य है।

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Try yourself:अवतरण के अनुसार “विकास' किसका प्रतिफल है?
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Try yourself:अवतरण के अनुसार केंद्रीकृत श्रम प्रणाली से क्या?
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Try yourself:अवतरण के अनुसार विकास की प्रक्रिया कैसी होनी चाहिए?
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Try yourself:कुमारप्पा के अनुसार शाश्वत विकास का लक्ष्य क्या है?
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Try yourself:अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता का क्या परिणाम होगा?
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गद्यांश - 3

इंसान अपनी स्मृति की आधारशिला पर टिका होता है| उसकी स्मृतियाँ उसकी अस्मिता है और ये स्मृतियाँ ही उसके वर्तमान को अतीत से जोड़ती हैं| हम शायद कलम कहाँ रखी है यह सतियाँ जाएँ, पर यह नहीं भूलते कि उर्दू क्लास के मौलवी साहब पान कैसे चबाते थे| लेकिन स्मृतियाँ कई बार हमारे दिमाग़ पर बोझ भी बन जाती हैं, फिर उन्हें दिमाग़ के कवाड़ से दूँढना कठिन होता है| लेकिन कोई छोटी बात, कोई गंध, कोई स्पर्श झट से आपको पुरानी स्मृति से जोड़ देते हैं|

संस्मरण वर्तमान में अतीत के बारे में लिखे जाते हैं| अतीत और वर्तमान के बीच वाचक के साथ काफ़ी कुछ घटित हो चुका होता है| संवेदना, भाषा, परिप्रेक्ष्य, अभिव्यक्ति, जीवन की प्राथमिकता, संबंध, दृष्टि आदि ऐसे बदल चुके होते हैं कि अतीत बिल्कुल उल्टा भी दिख सकता है| इमली तोड़ने के लिए आप बचपन में पेड़ पर चढ़े, गिरे, हाथ तुड़वा बैठे| तकलीफ़ हुई ऊपर से पिता ने पीटा, माँ ने कोसा| आज उसी घटना को याद कर हँसी आ सकती है| इमली की डाल कमज़ोर होती है, यह बच्चे को कहाँ पता? बेवकृफ़ी और उत्साह के मारे हाथ तुड़वा बैठे| पर तब वह हरक़त बेवकृफ़ी कहाँ लगी थी|

आजकल हिंदी साहित्य में संस्मरणों की बहार है| संस्मरण की बहार यहीं नहीं है| अमरीका में लेखन-विधा के गुरु हैं विलियम जिंसर| वे लेखन का मैनुअल लिखते हैं- जीवनी कैसे लिखें, आत्मकथा कैसे लिखें आदि आदि| उन्होंने संस्मरणों के धुँआधार प्रकाशन पर टिप्पणी की, “यह संस्मरण का युग है| बीसवीं सदी के अंत के पहले कभी भी अमरीकी धरती पर व्यक्तिगत आख्यान की ऐसी जबर्दस्त फसल कभी नहीं हुई थी| हर किसी के पास कहने के लिए एक कथा है और हर कोई कथा कह रहा है| संस्मरणों की बाढ़ से अमरीकी इतने दुखी हुए कि संस्मरणों की पैरोडी तक लिखी जाने लगी| शुक्र मनाइये कि हिंदी में मामला यहाँ तक नहीं पहुँचा है|”

संस्मरण क्‍यों लिखे जाते हैं? क्या संस्मरण नहीं लिखे तो लेखक के पेट में मरोड़ होगा? या उबकाई आ जाएगी? वह कौन-सी दुर्निवार इच्छा है जो संस्मरण लिखवाती है? हिंदी में संस्मरण यदाकदा लिखे जाते थे| आलोचना भी उसे एक अमहत्त्वपूर्ण विधा मानकर चलती थी, लिहाज़ा संस्मरणों की अनदेखी होती थी| जहाँ तक मेरा अनुमान है कि विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा नामवर सिंह पर लिखे संस्मरण ‘हक जो अदा न हुआ’ ने ऐसा धूम मचाया कि एकदम से इस विधा की क्षमता का पुनर्प्रकटीकरण हुआ और संस्मरण की ओर कई रचनाकार मुड़े| काशीनाथ सिंह का इस तरफ़ सबसे पहले मुड़ना संगत ही माना जाना चाहिए|

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Try yourself:जो कल सीधा तदखाई देा था वही आज उल्टा क्यों देख सकता है?
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Try yourself:बचपन में हाथ तुड़वाना बेवकृफ़ी क्‍यों नहीं लगती है?
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Try yourself:हिंदी साहित्य में संस्मरणों की स्थिति कैसी है?
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Try yourself:संस्मरण लेखन का उद्देश्य हुआ करता है....?
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Try yourself:“हम शायद कलम कहाँ रखी है यह भूल जाएँ, पर यह नहीं भूलते कि उर्दू क्लास के मौलवी साहब पान कैसे चबाते थे|" प्रस्तुत पंक्ति का क्या भाव है?
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गद्यांश - 4

मुझे एक अफ़सोस है, वह अफ़सोस यह है कि मैं उन्हें पूरे अर्थों में शहीद क्यों नहीं कह पाता हु मरते सभी हैं, यहाँ बचना किसको है! आगे-पीछे सबको जाना है, पर मौत शहीद की ही सार्थक है क्योंकि वह जीवन की विजय को घोषित करती है| आज यही ग्लानि मन में घुट-घुटकर रह जाती है हो प्रेमचंद शहादत से क्‍यों वंचित रह गए? मैं मानता हूँ कि प्रेमचंद शहीद होने योग्य थे, उन्हें शहीद बनना था|

और यदि नहीं बन पाए हैं वे शहीद तो मेरा मन तो इसका दोष हिंदी संसार को भी देता है| मरने से एक-सवा महीने पहले की बात है, प्रेमचंद खाट पर पड़े थे| रोग बढ़ गया था, उठ-चल न सकते थे| देह पीली, पेट फूला, पर चेहरे पर शांति थी|

मैं तब उनकी खाट के पास बराबर काफ़ी-काफ़ी देर तक बैठा रहा हूँ| उनके मन के भीतर कोई खीझ, कोई कड़वाहट, कोई मैल उस समय करकराता मैंने नहीं देखा, देखते तो उस समय वह अपने समस्त अतीत जीवन पर भी होंगे और आगे अज्ञात में कुछ तो कल्पना बढ़ाकर देखते ही रहे होंगे लेकिन दोनों को देखते हुए वह संपूर्ण शांत भाव से खाट पर चुपचाप पड़े थे| शारीरिक व्यथा थी, पर मन निर्विकार था|

ऐसी अवस्था में भी उन्होंने कहा- जैनेन्द्र! लोग ऐसे समय याद किया करते हैं ईश्वर| मुझे भी याद दिलाई जाती है| पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरुरत नहीं मालूम हुई है| शब्द हौले-हौले थिरता से कहे गए थे और मैं अत्यंत शांत नास्तिक संत की शक्ति पर विस्मित था| मौत से पहली रात को मैं उनकी खटिया के बराबर बैठा था| सबेरे सात बजे उन्हें इस दुनिया से आँख मीच लेनी थीं| उसी सबेरे तीन बजे मुझसे बातें होती थीं| चारों तरफ सन्नाटा था| कमरा छोटा और अंधेरा था| सब सोए पड़े थे| शब्द उनके मुँह से फुसफुसाहट में निकलकर खो जाते थे| उन्हें कान से अधिक मन से सुनना पड़ा था|

रात के बारह बजे ‘हंस’ की बात हो चुकी थी| अपनी आशाएँ, अपनी अभिलाषाएँ, कुछ शब्दों से और अधिक आँखों से वह मुझपर प्रकट कर चुके थे| ‘हंस’ की और ‘साहित्य’ की चिंता उन्हें तब भी दबाए थी| चिंता का केंद्र यही था कि ‘हंस’ कैसे चलेगा? नहीं चलेगा तो क्या होगा? ‘हंस’ के लिए जीने की चाह तब भी उनके मन में थी और ‘हंस’ न जिएगा, यह कल्पना उन्हें असहाय थी| हिंदी-संसार का अनुभव उन्हें आश्वस्त न करता| ‘हंस’ के लिए न जाने उस समय वे कितना झुककर गिरने को तैयार थे| अपने बच्चों का भविष्य भी उनकी चेतना पर दबाव डाले हुए था| मुझसे उन्हें कुछ ढॉढ्स था|

मुझे यह योग्य जान पड़ा कि कहूँ- ‘वह’ मरेगा नहीं! वह आपका अख़बार है, तब वह बिना झुके ही जिएगा| लेकिन मैं कुछ भी न कह सका और कोई आश्वासन उस साहित्य-सम्राट को आश्वस्त न कर सका|

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Try yourself:थिरता शब्द का अर्थ है
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Try yourself:प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीरषक हो सकता है?
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Try yourself:हंस नहीं जी पायेगा मैं 'हंस' क्या हो सकता है?
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Try yourself:प्रेमचंद को लेखक से क्या आशा थी?
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Try yourself:प्रेमचंद जी के व्यक्तित्व के विषय में कौन सा निष्कर्ष निश्चित रूप से निकाला जा सकता है?
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गद्यांश - 5

दुनिया शायद अभी तक के सबसे बड़े संकट से जूझ रही है। मौजूदा दौर की महामारी ने हर किसी के जीवन में हलचल मचा दी है। इस पर महामारी ने जीवन की सहजता को पूरी तरह बाधित कर दिया है। भारत में इतनी अधिक आबादी है कि इसमें किसी नियम कायदे को पूरी तरह से अमल में लाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। इसमें महामारी के संक्रमण को रोकने के मकसद से पूर्णबंदी लागू की गई और इसे कमोबेश कामयाबी के साथ अमल में भी लाया गया। लेकिन यह सच है कि जिस महामारी से हम कप झ रहे हैं, उससे लड़ने में मुख्य रूप से हमारे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता की ही बड़ी भूमिका है। लेकिन असली चिंता बच्चों और बुजुर्गों आती है।

इस मामले में ज़्यादातर नागरिकों ने जागरूकता और सहजबोध की वजह से जरूरी सावधानी बरती है। लेकिन इसके समानान्तर कं कई समस्याएँ खड़ी हुई हैं। मसलन आर्थिक गतिविधियां जिस बुरी तरह प्रभावित हुई हैं, उसने बहुत सारे लोगों के सामने संकट और ऊहापोह की स्थिति पैदा कर दी है। एक तरफ नौकरी और उसकी तनख्वाह पर निर्भर लोगों की लाचारी यह है कि उनके सामने यह आश्वासन था कि नौकरी से नहीं निकाला जाएगा, वेतन नहीं रोका जाएगा, वहीं उनके साथ हुआ उल्टा। नौकरी गई, कई जगहों पर तनख्वाह नहीं मिली या कटौती की गई और किराए के घर तक छोड़ने की नौवत आ गई। इस महामारी का दूसरा असर शिक्षा जगत पर पड़ा है, उसका तार्किक समाधान कैसे होगा, यह लोगों के लिए समझना मुश्किल हो रहा है। खासतौर पर स्कूली शिक्षा पूरी तरह से बाधित होती दिख रही है। यों इसमें किए गए वैकल्पिक इंतज़ामों की वजह से स्कूल भले बंद हों, लेकिन शिक्षा को जारी रखने की कोशिश की गयी है। स्कूल बंद होने पर बहुत सारे शिक्षकों को वेतन की चिंता प्राथमिक नहीं थी, बच्चों के भविष्य की चिंता उन्हें सता रही है। हालांकि एक ख़ासी तादाद उन बच्चों की है, जो लैपटॉप या स्मार्ट फोन के साथ जीते हैं, प तीती ओर बहुत सारे शिक्षक ऐसे भी हैं, जिन्हें कम्प्युटर चलाना नहीं आता। उन सबके सामने है ऑनलाइन कक्षाएँ लेने की। सबने हार नहीं मानी और तकनीक को खुले दिल से सीखा। इस तरह फिलहाल जो सीमा है, उसमें पढ़ाई-लिखाई को जारी रखने की पूरी कोशिश की जा रही है। 

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Try yourself:लोगों के जीवन में उहापोह की स्थिति कैसे आ गई?
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Try yourself:महामारी के समय में भी शिक्षकों ने शिक्षक होने का बोध कराया है- कैसे?
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Try yourself:उपरोक्त गदयांश किस विषयवस्तु पर आधारित है?
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Try yourself:जीवन की सहजता के बाधित होने से आप क्या समझते हैं?
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Try yourself:भारत में नियम-कानून लागू करना चुनौती क्‍यों है?
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