12. वर्तमान शिक्षा और भविष्य
मानव जीवन में शिक्षा का विशेष महत्त्व है। शिक्षा ही वह आभूषण है जो मनुष्य को सभ्य एवं ज्ञानवान बनाता है, अन्यथा शिक्षा के बगैर मनुष्य को पशु के समान माना गया है। शिक्षा के महत्व को समझते हुए ही प्रायः शैक्षणिक गतिविधियों को वरीयता दी जाती है। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली स्कूल, कॉलेजों पर केंद्रित एक व्यवस्थित प्रणाली है।
भारत की जो वर्तमान शिक्षा प्रणाली है, वह प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली से मेल नहीं खाती है। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली का ढाँचा औपनिवेशिक है, जब कि प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली गुरुकुल आधारित थी। वर्तमान शिक्षा प्रणाली एक संशोधित एवं अद्यतन शिक्षा प्रणाली तो है ही यह ज्ञान-विज्ञान के नए-नए विषयों को भी समाहित करती है। कंप्यूटर शिक्षा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसने मानव जीवन को सहज, सुंदर एवं सुविधाजनक बनाया है। इस शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत देश में नए-नए विश्वविद्यालयों, कॉलेजों एवं स्कूलों की स्थापना की गई और यह प्रक्रिया अनवरत जारी है। इसमें शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ाने के साथ-साथ साक्षरता दर में भी बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2011 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार इस समय देश की कुल साक्षरता दर 73.0 प्रतिशत है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें महिला साक्षरता की तरफ विशेष ध्यान दिया गया है। महिला साक्षरता बढ़ने से आज समाज में महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ हुई है। वर्तमान में महिलाओं की साक्षरता दर 64.6 प्रतिशत है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली की खूबियों एवं विशेषताओं के साथ-साथ इसकी कुछ कमजोरियाँ भी हैं जिसका हमारे समाज एवं देश पर बुरा प्रभाव दिखाई पड़ रहा है। जैसे-आज संयुक्त परिवार टूटकर एकाकी परिवारों में और एकाकी परिवार नैनो फेमिली के रूप में विभाजित हो रहे हैं। अब परिवारों में बड़े बुजुर्गों का स्थान घटता जा रहा है जो बच्चों को कहानियों एवं किस्सों द्वारा नैतिक शिक्षा देते थे। दादी, नानी की कहानियों का स्थान टी. वी., कार्टून, इंटरनेट और सिनेमा ने ले लिया है। जहाँ से मानवीय मूल्यों की शिक्षा की उम्मीद करना बेमानी बात है।
विद्यालयों में ऐसी शिक्षा जो बच्चों के चरित्र का निर्माण कर उनमें सामाजिक सरोकार विकसित करे उसका स्थान व्यावसायिक शिक्षा ने ले लिया है, जिसके अंतर्गत हम एक आत्मकेंद्रित, सामाजिक सरोकारों और मूल्यों से कटे हुए एक इंसान का निर्माण कर रहे हैं, जिससे समाज में बिखराव की स्थिति पैदा हो रही है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का एक बड़ा दोष यह भी है कि यह रोजगारोन्मुख नहीं है अर्थात इसमें कौशल और हुनर का अभाव है। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय डिग्रियाँ बाँटने वाली एजेंसियाँ बन गई हैं।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक, सफल, एवं आदर्श स्वरूप प्रदान करने के लिए इसमें बदलाव एवं सुधार की आवश्यकता है। जिससे यह जीवन को सार्थकता प्रदान करने एवं आजीविका जुटाने में सक्षम हो सके।
13. लोकतंत्र और चुनाव
भारतीय लोकतंत्र को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। वर्ष 1952 में वयस्क मताधिकार के आधार पर देश में संपन्न हुए पहले आम चुनाव के साथ हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई और क्रमशः नई सफलताओं के साथ भारतीय लोकतंत्र अब तक छह दशक से भी अधिक समय का सफ़र तय कर चुका है।
लोकतंत्र के शाब्दिक अर्थ के अनुसार यह शासन की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें सत्ता सामूहिक रूप से देश की जनता में निहित होती है। जनमत निर्माण में समाज के कमज़ोर से कमजोर व्यक्ति को आम चुनाव में स्वतंत्र रूप से भाग लेने का अधिकार होता है।
भारतीय लोकतंत्र का मूल आधार यहाँ की जनता है और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि संसद और विधान सभाओं में जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद मज़बूत है जो कि स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व जैसे आदर्शों पर टिकी है। भारतीय लोकतंत्र का सबसे प्रबल पक्ष इस बात में निहित है कि जब भी सरकार जनता की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, तब जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करके सरकार को सत्ता से बाहर कर देती है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण वर्ष 2014 में संपन्न 16वें लोक सभा चुनाव परिणाम के रूप में देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि 16वें लोकसभा चुनाव में 10 वर्षों से केंद्रीय सत्ता पर काबिज संप्रग सरकार को जनता ने धूल चटा दिया और एन डी ए गठबंधन को सत्ता की कमान सौंपी।
भारतीय लोकतंत्र के अनेक प्रबल पक्ष एवं विशेषताओं के होते हुए भी इसकी कुछ कमियाँ भी दिखाई पड़ती हैं। भूख, गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, किसानों के आत्महत्या की घटनाएँ, महँगाई एवं भ्रष्टाचार आदि भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी के रूप में दिखाई पड़ती है। भारतीय लोकतंत्र को हानि पहुँचाने में सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं भाषावाद जैसी समस्याओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संसद में होने वाले हंगामे और सांसदों के अमर्यादित व्यवहार ने संसदीय गरिमा का अवमूल्यन किया है, जिससे संसद की गरिमा का विगत कुछ वर्षों में ह्रास हुआ है।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव महापर्व का महत्त्व रखता है परंतु दुखद बात यह है कि भारत में कई चुनाव सुधारों को लागू करने बाद भी हम एक निर्दोष चुनाव प्रणाली विकसित नहीं कर पाए हैं। आज भी चुनावों में धनबल और बाहुबल का बढ़-चढ़कर इस्तेमाल हो रहा है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण अक्तूबर-नवंबर 2015 में संपन्न बिहार विधान सभा चुनाव हैं।
इन सब बातों के बावजूद भारतीय चुनाव प्रणाली में पारदर्शिता और सुधार के लिए समय-समय पर चुनाव आयोग द्वारा महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं; जैसे-पूर्व चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन की पहल पर मतदाता पहचान पत्र जारी किए गए, चुनावों में पारदर्शित लाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ई. वी. एम.) का प्रयोग शुरू किया गया, सितंबर 2013 से ई. वी. एम. के साथ ‘वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल’ (वीवीपीएटी) प्रणाली को जोड़ दिया गया, तो वहीं None of the above-NOTA का विकल्प उपलब्ध करवाकर ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार मतदाताओं को उपलब्ध करवाया गया।
अतः भारतीय लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ एक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव प्रणाली विकसित करने में सफल रहा है, जिसमें उत्तरोत्तर सुधार भी हो रहे हैं, जो एक मजबूत लोकतंत्र का प्रमुख लक्षण है।
14. बढ़ता जल संकट
जल मनुष्य, पशु, पक्षी व वनस्पति सभी के अस्तित्व व संवर्धन के लिए आधारभूत आवश्यकता है। गेटे ने जल के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि प्रत्येक वस्तु जल से उत्पन्न होती है व जल के द्वारा ही प्रतिपादित होती है। जल के महत्त्व के मद्देनज़र यू.एन.ओ. ने वर्ष 2003 को ‘अंतर्राष्ट्रीय स्वच्छ जल वर्ष’ के रूप में मनाया।
जल के महत्त्व पता होने के बावजूद भी आश्चर्य है कि जल का पूर्ण सदुपयोग न होकर अपव्यय व बरबादी हो रही है। आज भारत में प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 1900 क्यूबिक मीटर है। ऐसा अनुमान है कि इस दशक के अंत तक यह स्तर गिरकर 1000 क्यूबिक मीटर हो जाएगा। यदि किसी देश में प्रतिव्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 100 क्यूबिक मीटर से कम हो जाती है तब उस देश को जल संकट से ग्रस्त देश माना जाता है। उपर्युक्त तथ्य से स्पष्ट है कि यदि हमने जल-संरक्षण की तरफ ध्यान नहीं दिया तो भारत शीघ्र ही जल संकट से ग्रस्त देश की श्रेणी में आ जाएगा।
देश के तीव्र आर्थिक विकास, शहरीकरण, औद्योगीकरण बढ़ती जनसंख्या व पाश्चात्य जीवन शैली को अंधानुकरण के कारण जल की माँग अनियंत्रित रूप से बढ़ती जा रही है। गौरतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय खाद्यनीति अनुसंधान ने भी अनुमान लगाया है कि भारत में जल की माँग वर्ष 2000 में 634 बिलियन क्यूबिक मीटर थी जो बढ़कर 2025 में 1092 बिलियन क्यूबिक मीटर हो जाएगी। ऐसी संभावना व्यक्त की गई है कि भविष्य में जल के मुद्दे को लेकर लड़ाइयाँ लड़ी जाएँगी।
यह भी पाया गया है कि पानी की बरबादी में समाज के संभ्रांत व धनाढ्य कहे जाने वाले वर्गों की भूमिका सर्वाधिक है। पंचसितारा होटलों व धनाढ्य वर्ग की कोठियों में स्विमिंग पूल’ का निर्माण करवाया जाता है, मखमली दूब के बगीचों से ये होटल व कोठियाँ शोभायमान होती हैं। इसके अतिरिक्त, धनाढ्य वर्ग भूमिगत जल का भी अत्यधिक प्रयोग करता है। उनके अपव्यय का खामियाजा निम्न वर्ग को भुगतना पड़ता है।
जल की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए भूमिगत जल की अंधाधुंध निकासी की जाती है जिससे भूमिगत जल का स्तर काफ़ी नीचे चला जाता है। गुजरात के मेहसाणा व तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिलों में भू-जल स्रोत स्थाई तौर पर सूख चुके हैं। अन्य राज्यों में स्थिति अच्छी नहीं है। भविष्य में पेयजल की आपूर्ति पर संकट गहराएगा।
इस समस्या के निराकरण हेतु समाज के सभी वर्गों व सरकार को सामूहिक सतत प्रयास करने होंगे। हर व्यक्ति को अपनी जीवनशैली व प्राथमिकताएँ इस प्रकार निर्धारित करनी चाहिए ताकि अमृतरूपी जल की एक बूंद भी व्यर्थ न जाए। अमीर वर्ग द्वारा पानी की बरबादी पर रोक लगाने हेतु सार्थक कदम उठाए जाने चाहिए, अवैध वस्तु वे बोरिंग पर रोक लगाने की कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए तथा वैध बोरिंगों से भी नियंत्रित व निर्दिष्ट मात्रा में ही जल का निष्कासन हो, इसकी जाँच हेतु प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। पारंपरिक जल संरक्षण वें आधुनिक जल संरक्षण व्यवस्थाओं का उपयोग जल संरक्षण व प्रबंधन हेतु न्यायोचित व समन्वित ढंग से किया जाना चाहिए।
15. मेट्रो यात्रा
मेट्रो का नाम हमारे लिए काल्पनिक था। मेट्रो रेल की तरह है। दिल्ली में इसे साकार रूप देने के लिए कार्य सुचारु रूप से गति से होने लगा। स्तंभ खड़े होने लगे। जैसे-जैसे स्तंभ खड़े होते गए, स्तंभों के ऊपर पटरी टाँग दी गई। देखते ही देखते ऊपर ही स्टेशन बनने लगे। इस तरह स्तंभ, स्तंभों के ऊपर पटरी, स्टेशन, मेट्रो खड़ी हो गई। जनता के लिए सब कुछ आश्चर्य। लोगों को लगने लगा कि दिल्ली की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण यातायात की व्यवस्था चरमरा रही थी, वह व्यवस्थित हो जाएगी।
दिल्ली की जनसंख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है, उसके अनुरूप वाहनों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, जिसके कारण वाहनों की गति 10-15 कि. मी. प्रतिघंटा तक सिमट गई है? मेट्रो स्टेशनों की सुव्यवस्था को भी देखकर यात्री हतप्रभ होते हुए सुखद आश्चर्य का अनुभव करते हुए यात्रा करता है। यात्री टिकट लेकर सीढ़ियों से ऊपर पहुँचा नहीं कि मेट्रो आ गई। मेट्रो से प्रतीक्षा की तड़प भी समाप्त हो गई। बस यात्रा में जहाँ घंटों का समय लगता था, भीड़ और धक्का-मुक्की में श्वांस ऊपर को आती थी और भी अनेक परेशानियाँ थीं, उन सबसे छुटकारा मिल गया।
जिस दिन मेट्रो की गाड़ी को हरी झंडी दिखाई गई, उस दिन मेट्रो में यात्रा के लिए मुफ्त प्रबंध किया गया था। आश्चर्यजनित इच्छा के बिना किसी गंतव्य स्थान के मेट्रो की यात्रा का आनंद लेने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी और बहुत से लोग उस दिन यात्रा का आनंद लेकर वापस हो गए थे। मैंने भी मेट्रो-स्टेशन, ‘जहाँ प्रवेश पाने से लेकर, निकलने तक सभी को स्वचालित दरवाजों का सामना करना पड़ता है’ मन में अनपेक्षित भय लिए यात्रा की। स्टेशन का शांत वातावरण, एकदम चमकता हुआ साफ़-सुथरा, सजा हुआ देखकर आश्चर्य से दाँतों तले अँगुली दबा कर रह गया। टोकन लेकर मैं आगे बढ़ा। छोटे से गेट पर बने विशेष स्थान पर जैसे ही टोकन रखा, तभी खटाक से प्रवेश द्वार खुला और मैं स्वचालित सीढ़ियों से जा चढ़ा। ऊपर के सौंदर्य को जी भरकर देख भी न पाया था तब तक तो मेट्रो आ गई। मेट्रो-रुकी, माइक से सूचना मिल रही थी, यात्रियों को सावधान किया जा रहा था। मेट्रो का दरवाजा खुला और सभी यात्रियों को चढ़ता देख मैं भी चढ़ गया। स्वयमेव ही मेट्रो का दरवाजा बंद हुआ। मेट्रो के अंदर भी प्रत्येक स्टेशन की और सावधानियाँ बरतने की सूचना मिल रही थी, साथ ही सूचनाओं, स्टेशनों की स्वचालित लिखित सूचनाएँ हिंदी-अंग्रेज़ी में मिल रही थीं।
विश्व की सुप्रसिद्ध आधुनिक यातायात की सेवा में मेट्रो ने जो पहचान बनाई है, वह पूर्व में अप्रत्याशित ही थी, मात्र कल्पना थी, किंतु वह आज साकार रूप में है। ऐसी यात्रा के बारे में जापान, सिंगापुर देशों में सुनते थे तो परियों की कहानी जैसा लगता था। आज यह अपने देश की राजधानी महानगरी दिल्ली में सभी प्रकार की सुविधाओं से संपन्न दिल्ली में दिखाई दे रही है। भूमिगत है। तो कहीं आकाश में चलती दिखाई देती है। यात्रियों की सुविधाओं के लिए सभी व्यवस्थाएँ हैं, भूमिगत स्टेशनों को पूर्णत: वातानुकूलित बनाया गया है। ऐसी सुविधा संपन्न मेट्रो के लिए दिल्ली सरकार और केंद्रीय सरकार ने संयुक्त रूप से संबंधित संस्था में सन 1995 में पंजीकरण करवाया और 1996 में 62.5 कि.मी. दूरी के लिए मेट्रो परियोजना को स्वीकृति मिल गई । दिसंबर, 2002 में परियोजना को साकार रूप मिल गया। 24 दिसंबर, 2002 को प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हरी झंडी दिखाई और मेट्रो चल पड़ी। आज मेट्रो की उपयोगिता और सफलता को देखकर इस परियोजना ने पैर पसारना शुरू कर दिया है। कई रूट बने और शुरू हो गए। हैं और नए-नए रूटों पर प्रगति से कार्य चल रहा है। अब तो दिल्ली महानगर के समीप बसे नगरों को छू लिया है। प्रांतीय सीमाओं का भेद मिट गया है। अब यह मेट्रो नोएडा में निसंकोच प्रवेश कर गई है। इतना ही नहीं, मेट्रो के अस्तित्व को देखते हुए अन्य नगरों से भी इसके लिए माँगे उठने लगी है।
मेट्रो ने अपनी अलग पहचान अपना अलग अस्तित्व बनाया है। इसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बहुत से प्रबंध किए गए हैं। सामान्य जगहों की तरह मेट्रो में अभद्रता देखने को मिलती है। अभद्रता करने वालों के लिए दंड व्यवस्था भी की गई है। यह राष्ट्रीय संपत्ति सचमुच में अपनी संपत्ति प्रतीत होती है। इसके सौंदर्य को बनाए रखने के लिए यात्रियों के लिए निर्देश प्रसारित किए जाते हैं। इस तरह मेट्रो की यात्रा सुखद यात्रा है।
16. ग्लोबल वार्मिंग
प्रकृति ने जीव के लिए स्थल, जल और वायु के रूप में एक विस्तृत आवरण निर्मित किया है, जिसे हम ‘पर्यावरण’ की संज्ञा देते हैं। पर्यावरण के संतुलन को विकास के नाम पर बिगाड़ने का कार्य किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप धरती का वातावरण प्रदूषित हो रहा है। आज प्रकृति प्रदत्त जीवनदायी वायु, भूमि और जल जीवन घातक बन गए हैं। 1997 में जापान के क्योटो शहर में इस विषय पर विश्व सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें ग्लोबल वार्मिंग पर चिंता जताई गई थी। 30 नवंबर से 11 दिसंबर, 2015 के बीच पेरिस में ग्लोबल वार्मिंग पर सम्मेलन आयोजित किया गया।
ग्लोबल वार्मिंग अचानक उत्पन्न नहीं हुई है। इसकी शुरूआत औद्योगिक क्रांति व शहरीकरण से हुई। कोयला आधारित उद्योग वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं। अमेरिका के पेंसिलवेनिया, भारत में पानीपत, दिल्ली, बोकारो, मुंबई आदि शहरों में दिन में भी धुआँ छाया रहता है।
मनुष्य की विलासिता के स्वभाव ने भी प्रदूषण को बढ़ाया है। प्रशीतन के अनियमित प्रयोग ने वायुमंडल में क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस की मात्रा बढ़ा दी है। इसके कारण ओजोन परत नष्ट हो रही है। इस परत के न होने से स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ बढ़ जाएँगी। आणविक विस्फोट से उत्सर्जित रेडियोधर्मी प्रभाव सैकड़ों वर्षों तक रहता है। परिवहन के साधनों कार, स्कूटर, बस, ट्रक, वायुयान-इनकी अनियंत्रित बढ़ोतरी से हानिकारक गैसों की मात्रा बढ़ रही है।
इस तरह विभिन्न प्रदूषणों से पर्यावरण में बदलाव आ रहा है। कभी गरमी अधिक होती है तो कभी सरदी। वर्षा का समय चक्र भी बदल रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण तापमान भी बढ़ रहा है। यह आशंका जताई जा रही है कि यदि प्रदूषण कम नहीं हुआ तो 2050 तक पृथ्वी का तापमान 3.5° तक बढ़ जाएगा। इससे ग्लेशियर पिघलने का खतरा है और प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। तापमान की वृद्धि में अमेरिका, जापान सहित तमाम यूरोपीय देश अधिक जिम्मेदार हैं। ये 20 देश कुल कार्बनडाई ऑक्साइड का 80 फीसदी छोड़ते हैं। अमेरिका अकेला 25 प्रतिशत कार्बनडाई ऑक्साइड छोड़ता है। आज जरूरत है कि सभी देश इस पर गंभीरता से सोचें तथा विकसित देश अपनी जिम्मेदारी समझें।।
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