प्रशासनिक विवेक (Administrative Discretion)
लोक अधिकारी या सरकारी अधिकारी लोक नीतियों के महज क्रियान्वयक ही नहीं है बल्कि वे लोगों के जीवन से संबंधित निर्णय भी लेते हैं। जैसे: कर के बारे में, लोगों के बचाव या निलंबन के बारे में। ऐसा करते समय वे अपने विवेक का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ सवाल यह है कि नैतिक दुविधा को टालने हेतु निर्णय कैसे लिये जाये? दूसरे शब्दों में, सामान्य कल्याण का संवर्धन, बहुत हद तक प्रशासनिक विवेक के उपयोग या दुरूपयोग पर निर्भर करता है। विधायन द्वारा निर्धारित नियम एवं विनियम के तहत् और प्रख्यापित प्रक्रियाओं के भीतर, लोक अधिकारियों के लिए विवेक के इस्तेमाल की व्यापक संभावनाएँ होती हैं। विकल्पों का सामना करते समय लोक अधिकारियों के लिए चुनाव एक नैतिक समस्या पैदा करता है कि उनका चुनाव समाज के छोटे वर्ग को ही स्वीकार्य हो सकता है। यहाँ समस्या यह है कि विभिन्न विकल्पों में से कार्यवाही के लिए किसी मार्ग का चयन; निजी प्राथमिकताओं राजनीतिक या अन्य मान्यताएँ, या निजी उन्नयन के आधार पर किया जाता है, मतलब ज्ञान तथ्यों को अनादर करते हुये, विवेकी निर्णयन की संभावना।
भ्रष्टाचार (Corruption)
बहुसंख्यक अधिकारी सार्वजनिक पद के लिए आवश्यक उच्च मानकों का पालन करते है और सामान्य कल्याण के संवर्धन के प्रति समर्पित होते हैं। सार्वजनिक अधिकारियों का नैतिक मानक संपूर्ण रूप से समाज से प्रत्यक्षतः संबंधित होता है। यदि लोग यह स्वीकार करते हैं कि त्वरित प्रत्युत्तर को सुनिश्चित करने के लिए एक लोक अधिकारी से कुछ आर्थिक मदद या अन्य अधिकारी से कुछ आर्थिक मदद या अन्य प्रोत्साहन आवश्यक है, और अधिकारी प्रोत्साहन को स्वीकार करते हैं, तब लोगों की नजर में अधिकारियों व लोगों का नैतिक आचरण मानक वस्तुत: सौहार्दपूर्ण होता है।
निजी हितों के लिए लोक अधिकारियों द्वारा प्रष्टाचार सामान्यत: बहुत सूक्ष्म होता है, उदाहरण के तौर पर; कर्तव्य से बंधे किसी अधिकारी के प्रति लोगों द्वारा अनुग्रह और उस अधिकारी द्वारा अपनी लोक निष्ठा को क्रमशः कम करते हुये अनुग्रह दिखाने वाले लोगों के प्रति निष्ठा बढ़ाना। निजी हितों के परिणामस्वरूप प्रष्ट आचरण के संदर्भ में लोक अधिकारी द्वारा सामना किये गये नैतिक दुविधा प्राथमिक तौर पर परिस्थिति के प्रति उनकी प्रतिक्रिया से जुड़ा होता है। यदि प्रष्ट आचरण या भ्रष्टाचार करने के प्रयास का पता चल जाता है, तो यह संभव है कि अधिकारी की निजी निष्ठा या राजनीतिक मान्यताएँ, उसके आधिकारिक कर्तव्यों के साथ संघर्ष में हो सकती है।
प्रशासनिक गोपनीयता (Administrative Secrecy)
एक क्षेत्र जो कि खुद ऐसी परिस्थितियाँ एवं कार्रवाईयाँ सृजित करने में सक्षम है और जो कि एक बड़ा नैतिक दुविधा सिद्ध हो सकती है, वह है सार्वजनिक व्यवसायों का गोपनीय आचरण। यह ऐसा इसलिए है क्योंकि गोपनीयता अनैतिक आचरण को छिपाने का एक अवसर उपलब्ध करा सकता है। गोपनीयता, प्रष्टाचार का मित्र है और भ्रष्टाचार का व्यवहार हमेशा गोपनीयता में किया जाता है। सामान्यत: यह स्वीकार किया जाता है कि लोकतंत्र में लोगों को यह जानने का अधिकार है कि सरकार क्या चाहती है और सार्वजनिक मामलों का प्रशासखुले रूप में किये जाये, यह लोगों के हित में है।
भाई-भतीजावाद (Nepotism)
'भाई-भतीजावाद' का आचरण (योग्यता के सिद्धांत की उपेक्षा करते हुये अपने संबंधियों चा दोस्तों को सार्वजनिक पद पर नियुक्त करना) लोक सेवा की गुणवत्ता के क्षय का कारण बन सकता है। ऐसे कुछ चयनित लोगों का नीति निर्माताओं से व्यक्तिगत संबंध और आसानी से निलंबित या तबादला न किये जाने की निश्चितता के बल पर नियंत्रण उपायों को बिगाड़ने से 'समूह का मनोबल' (Esprit de Corps) एवं विश्वास भंग होता है, जिसका परिणाम प्रष्ट प्रशासन के रूप में सामने आता है।
सूचना रिसाव (Information Leaks)
आधिकारिक सूचनाएँ इस कदर संवेदी स्वभाव की होती हैं (उदाहरण के तौर पर, लवित कर वृद्धि, कर्मचारी की छंटनी, पेट्रोल/डीजल की कीमत में बढ़ोतरी इत्यादि) कि सूचना का प्रकटन अराजकता, भ्रष्टाचार को जन्म दे सकती है या कछ लोगों को अनुचित मौद्रिक फायदा पहुंचा सकती है। इसलिए सार्वजनिक उद्घोषणा से पूर्व आधिकारिक सूचना को प्रकट करना, प्रक्रियागत निर्धारण (Procedural Prescription) का उल्लंघन है और यह नैतिक दुविधा हो सकता है।
सार्वजनिक जवाबदेही (Public Accountability)
चूँकि , सार्वजनिक अधिकारी लोक नीतियों के क्रियान्वयक होते हैं, इसलिए उन्हें आधिकारिक कार्याकार्यवाईयों के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारियों, न्यायालय एवं लोगों के प्रति जवाबदेही होना चाहिये। हालांकि उनके लिए यह संभव है कि वे निर्धारित प्रक्रियाओं, पेशागत बहाना और यहाँ तक कि राजनीतिक पदधारकों रूपी पर्दे के पीछे जाये।
नीतिगत दुविधाएँ (Policy Dilemmas)
नीति निर्माता अक्सर प्रतिस्पर्धी उत्तरदायित्वों का सामना करते हैं। उनका, अपने वरिष्ठों के प्रति विशेषीकृत निष्ठा होती है, पर साथ ही समाज के प्रति भी निष्ठा होती है। उन्हें अन्य की ओर से और अन्य के हित में कार्य करले की स्वतंत्रता होती है, पर उन्हें अपने वरिष्ठों एवं समाज को अपने कार्यों के लिए जवाय जरूर देना होगा। राजनीतिक प्रक्रियाओं का आदर करने का आधिकारिक दायित्व, उसकी अपनी इस सोच की नीति निर्माण के उद्देश्यों का कैसे आचरण किया जाता है, से संघर्ष हो सकता है। दूसरे शब्दों में, सार्वजनिक पद पर बैठे किसी अधिकारी की दुविधा, लोक हित पर उसके अपने विचार और विधि की आवश्यकता के बीच संघर्ष है।
विविध (Miscellaneous)
ऊपर वर्णित संभावित हित संघर्षों के अलावा कुछ अन्य समस्या क्षेत्र भी है जिससे नैतिक दुविधाएँ उत्पन्न हो सकती हैं, वे निम्नलिखित हैं:
(i) उन अधिकारियों के संदर्भ में जो कि किसी खास राजनीतिक दल के प्रति सहानुभूति रखते हैं, ऐसे नौकरशाहों की राजनीतिक गतिविधियाँ निष्ठा के विभाजन रूपी परिणाम को जन्म दे सकता है।
(ii) अन्य कुछ सूक्ष्म नेतिक समस्याएँ है; बीमारी अवकाश विशेषाधिकार का दुरूपयोग, विस्तारित चाय अंतराल और सामान्य रूप से कार्यालय नियमों का उल्लंघन।
नैतिक दुविधाओं से सम्बन्धित सरकारी अधिकारी की दुविधाएँ
नैतिक दुविधा के संदर्भ में
कर्मचारियों की दुविधाएँ
नीतिशास्त्रीय मार्ग निर्देश के स्रोत कानून, नियम, विनिमय तथा संचेतना
लोक प्रशासन में लोक सेवकों से अपेक्षा की जाती है कि वे नैतिकता के आधार पर ही अधिकतम जनकल्याण को सुनिश्चित करें। सामान्यतः लोक व्यवहार में व्यक्तियों के सम्मुख तथा प्रशासन में लोक सेवकों के सम्मुख प्राय: यह प्रश्न उठता है कि जो कार्य किया जा रहा है या किया जा चुका है वह नैतिक है या अनैतिक। ऐसी स्थिति में नैतिकता रूपी कारक को प्राप्त करने के लिये एक मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है, और यह मार्गदर्शन कानून, नियम, विनिमय तथा संचेतना द्वारा प्राप्त होता है। जिसमें कानून, नियम, विनिमय को नैतिक मार्गदर्शन का बाल्य स्रोत जबकि संचेतना को नैतिक मार्गदर्शन के आंतरिक स्रोत के सा में देखा जाता है।
नियम तथा विनियम (Rules and Regulations)
नीतिशास्त्र में 'नियम' तथा 'विनियम' शब्दों का एक ही अर्थ है। तथापि, दोनों शब्दों के लिये कानूनी संदर्भ में कभी-कभी भिन्न अर्थ दिये जाते हैं। प्रत्येक कानून में नियमों के लिये इसे लागू (कार्यान्वित करना) अनिवार्य बनाने का प्रावधान होता है। नियम बनाने की शक्तियाँ सरकार की कार्यकारी शाखा (Executive Branch) में होती है। नियम कभी भी कानून से बाहर नहीं जा सकते तथा वे विधायिका द्वारा अभिपुष्टि के अधीन है। नियम अधीनस्थ कानून होते हैं।
'विनियम' शब्द का आजकल अर्थ उन विनियमों से है जो विनियामक शक्तियों जैसे 'केन्द्रीय विद्युत विनियमन आयोग' द्वारा किसी विशेष क्षेत्र जैसे विद्युत बीमा या टेलिकॉम के विनियमन के लिये जारी किये जाते हैं। तथापि, आजकल इसका प्रयोग कुछ खास आर्थिक गतिविधियों के विनियमन के साथ जुड़ा है। किन्तु न्याय-शास्त्रा में 'नियम' तथा 'विनियम' का एक ही अर्थ है।
कानूनों एवं नियमों में अन्तर (Differences between Laws and Rules)
नियम या विनियम का प्रयोजनन कानूनों के अर्थ या विषय-वस्तु को स्पष्ट करना है किन्तु कभी-कभी वे 'ऐसा करने में असफल रहते हैं। विनियम निजी (व्यक्तिगत) अच्छाई पर केन्द्रित होते है या उससे सम्बन्धित होते हैं जबकि कानूनों का प्रयोजन लोक अच्छाई (कल्याण) को बढ़ाना है। कानून केवल उन्हीं द्वारा लागू किये जा सकते हैं जो प्रभुसत्ता- या देश की शक्ति का प्रयोग करते हैं या जो कानूनी ढंग से गठित सरकार (या इसका विधायी पक्ष) हैं। विनियम, अधिकारियों, संगठनों, निजी व्यक्तियों और हस्तियों द्वारा बनाये जा सकते है। राष्ट्र के कानूनों का पालन इसकी शासित सीमाओं के भीतर होता है। नागरिक जब विदेश में होते हैं तो वे ज्यादातर प्रयोजनों के लिये उस देश के कानूनों से शासित नहीं होते। उदाहरण के लिये सरकारी संहिता में, निर्धारित नियम तथा विनियम सरकारी कर्मचारियों पर तब भी लागू होते हैं जब वे विदेश में होते हैं। इसी प्रकार के नियम जिन्हें मठवासी अपनी धार्मिक व्यवस्था के तहत अपना लेते हैं, उनके विदेश जाने पर भी उन पर लागू होते है। विद्यार्थियों को नोट करना चाहिये कि नियमों या विनियमों की जिन अवधारणाओं का विवरण हमने दिया है, वे नीतिशास्त्र से ली गई हैं, कानूनों से नहीं लेकिन नैतिक (नीतिशास्त्रीय) तया विधिक अवधारणाओं के बीच समानताएँ हो सकती हैं।
प्राकृतिक नियम (NaturalLaw)
एक्विनास प्राकृतिक नियम को धार्मिक अर्थों में परिभाषित करता है। यह 'बुद्धिवादी प्राणी में शाश्वत नियमों की भागीदारी है।' यह- 'हम सब में दिव्य (दैवी) प्रकाश की छांव है।' सेंट पॉल के अनुसार, प्राकृतिक नियम आदमियों के दिल पर लिखे है। हम प्राकृतिक नियम को मानव मन में प्राप्त देवी नैतिक विचार के रूप में समझ सकते हैं। हम प्राकृतिक नियमों के वजूद के बारे में कैसे निश्चित हो सकते हैं? इसका एक उत्तर यह है कि मनुष्य ने प्राचीन युग से ही, अपनी-अपनी सभ्यताओं के स्तरों की परवाह न करते हुये, सही और गलत कार्यों के बीच अन्तर किया है। उनका यह भी विश्वास था कि मानव को अच्छाई का अनुसरण व खुराई का त्याग करना चाहिये। चूंकि ये विचार मानव-जाति के विकास के साथ-साथ पैदा हुये हैं, अतः इन्हें मानवता की मानसिक बनावट का भाग माना जा सकता है।
प्राकृतिक नियमों (कानून) के भाग (Parts of Natural Law)
एक्विनास ने प्राकृतिक नियमों के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। इन सिद्धान्तों के उदाहरण है- अच्छाई करना, बुराई से बचना तथा तर्कणा के आदर्शों को मानना। मानव के मन में अच्छाई के लिये प्राकृतिक रूप से प्रेम और बुराई के लिये घृणा है। शेष सभी नैतिक सिद्धान्त प्राथमिक सिद्धान्तों से निरसित होते हैं।
प्राथमिक सिद्धान्त में ये द्वितीयक सिद्धान्त बिना किसी अधिक कठिनाई के प्राप्त किये जा सकते है। 'विजय अज्ञान मुक्त साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी इन्हें आसानी से समझ सकता है। 'विजय' अज्ञान, अविजय अज्ञान के विल्कुल विपरीत जरा-सी कोशिश से जीता जा सकता है और इसका प्रयास भी किया जाना चाहिये। अच्छा होने के प्राथमिक सिद्धान्त के अनुसरण में व्यक्ति को अपने से बड़ों का आदर करना चाहिये और दूसरों का ध्यान रखना चाहिये।
प्राकृतिक नियमों के तृतीयक सिद्धान्तों को प्राथमिक सिद्धान्तों से सरलता से प्राप्त नहीं किया जा सकता। उनमें सम्बन्धित तर्कणा की पूर्वकल्पना की गई होती है। इन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ लोगों को इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह 'अजेय अज्ञान का मामला है। ऐसे व्यक्ति का एक उदाहरण है जिसमें वह गरीबों की सहायता के लिये अमीरों को ठगना ठीक समझता है। प्राकृतिक नियमों के तीन स्तर यह स्पष्ट करते है कि समान मामलों में भी लोग विभिन्न नैतिक निष्कर्षों पर क्यों पहुंचते हैं। एक्विनास का कहना है कि सैद्धान्तिक सोच में सामान्य सिद्धान्त या समान धारणा को जानना सरल है, उनके परिणामों के तौर पर आये निष्कर्ष प्राप्त करना कठिन है। इसी प्रकार व्यक्ति कार्य के सामान्य सिद्धान्तों से सहमति जताते है तो इसी प्रकार के विशिष्ट मामलों में उनके उत्तर भिन्न होते हैं।
एक्विनास कहता है कि प्राकृतिक नियम हमें केवल यही नहीं बताते कि क्या अच्छा है, अपितु पालन करने के लिये हमारे ऊपर नैतिक कर्तव्य भी लाद देते हैं। प्राकतिक नियमों के आदेशों का पालन करने के लिये हमारी नैतिक जिम्मेदारी होती है। यह एक सार्वभौमिक नियम (कानून) है तथा जाति, राष्ट्र, धर्म और लिंग के विषय में सोचे विना- समस्त मानव जाति पर लागू है। जैसा कि हमने देखा है, लोग प्राकृतिक नियमों की विभिन्न प्रकार से व्याख्या कर सकते है या समझ सकते हैं। लेकिन उन्हें इनका अनुसरण अपनी सर्वोत्तम विचारशील समझ के अनुसार करना होगा। व्यावहारिक अर्थों में इसका अर्थ यह है कि लोगों को अपने कार्यों के नैतिक पक्षों की ओर भी सावधानी से विचार करना चाहिये।
कानूनों को भंग करने से प्रतिबंध व दण्ड मिलते हैं किन्तु प्राकृतिक कानूनों (नियमों) की अवमानना करने के परिणाम अस्पष्ट है। विधिक हंग से लागू करने वाले की अवपीड़क शक्ति की कमी वाले सभी नैतिक नियमों के मामलों में यह बात सच है। उदाहरण के लिये, यदि कोई चोरी कर भारतीय दण्ड संहिता का उल्लंघन करता है तो अपराधी पाये जाने पर उसे जेल हो सकती है। सामान्यतः कानूनी अपराध नैतिक चूकों का समूह है। जहाँ तक एक नैतिकता भंग की स्थिति होती है, कानूनी अपराध होने पर कानून ऐसे अपराधियों को दण्ड देगा। लेकिन यदि कोई अपने पड़ोसी से प्रेम करने के आदेश का उल्लंघन करता है तो सांसारिक कानून उसे सजा नहीं देगा। सभी धर्म कहते हैं कि पापियों को नर्क में तकलीफें झेलनी पड़ेगी। लेकिन ऐसी अवधारणाएं अनुभूतिमूलक है और तर्क बुद्धि के उपदेश के दायरे के बाहर की है।
नागरिक कानून (Civil Law)
एक्विनास सकारात्मक कानूनों को दैवीय और मानवीय के तौर पर बाँटता है। अब हम सकारात्मक, मानव निर्मित नागरिक कानून पर विचार करेंगे। एक्विनास सकारात्मक नागरिक कानून एवं प्राकृतिक कानून के बीच सम्बन्धों की चर्चा करता है। रोचक बात यह है कि उनका यह मानना है कि नागरिक कानून, जहाँ तक वे प्राकृतिक नियमों से लिये गये है, कानून की विशेषता ले लेते हैं। जब वे प्राकृतिक नियमों से अलग होते हैं तो वे कानून विकृति हो जाते हैं। हम उनके उन प्रकारों की चर्चा को अनदेखा कर सकते हैं जिनमें नागरिक कानून, प्राकृतिक नियमों (कानून) से भिन्न हो सकता है तथापि, यह एक महत्वपूर्ण बात कहता है कि लोग नागरिक का को मानने के लिये उत्तरदायी नहीं है जो प्राकृतिक कानून की पुष्टि नहीं करते। चर्चा का मध्ययुगीन ईश्वर मीमांसक संदर्भ अब प्रासंगिक नहीं है। लेकिन जो प्रासंगिक हैं, वह यह क्रांतिकारी कथन है कि कुछ खास परिस्थितियों में लोगों का कानून को तोड़ना उचित होगा। आज की आधुनिक भाषा में, यह एक वैधता का मामला है।
एक्विनास के अनुसार, लोगों द्वारा पालन किये जाने हेतु योग्यता पाने के लिये कानून को निम्नलिखित शतों को पूरा करना होगा-
यदि कोई कानून उपरोक्त शर्तों में से किसी को भी पूरा करने में असफल रहता है तो नागरिकों को उसका पालन करने की जरूरत नहीं है। यह वह मूलभूत विचार (सोच) है जो नागरिक सविनय अवज्ञा की अवधारणा को रेखांकित करता है। सविनय अवज्ञा में लोग उन अनुचित कानूनों की अवज्ञा करते हैं जो यद्यपि भली प्रकार लागू किये गये हैं, किन्तु उच्चतर नैतिक सिद्धान्तों का उल्लंघन करते हैं। इस प्रकार, नमक सत्याग्रह के दौरान महात्मा गांधी ने उस समय लागू नमक कानून को तोड़ा। ऐसे ही अनेक पश्चिमी देशों में 'प्रो-लाइफ' समूह उन कानूनों का विरोध करते हैं जो गर्भपात की अनुमति देते हैं।
दार्शनिकों का एक समूह मानता है कि प्रभुसत्तासम्पन्न या नियामक कानून से ऊपर हैं क्योंकि उनको दण्ड देने वाला कोई नहीं है। एक्विनास तर्क करता है कि प्रभुसत्तासम्पन्न कानून से ऊपर नहीं है वह इसका पालन करना चुन सकता है। एक्विनास का कहना है, "एक व्यक्ति जो भी कानून दूसरे के लिये बनाता है, उसे स्वर पालन करना चाहिये।" आधुनिक विचार यह है कि कोई भी कानन से ऊपर नहीं है। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, कानून केवल उन्हीं लोगों पर लागू होते हैं जो उनके लागू होने वाली न्यायिक सीमा के भीतर रहते हैं। भारत के कानून, स्वीडन में रहने वालों पर लागू नहीं होंगे।
10 videos|35 docs
|
|
Explore Courses for UPSC exam
|