पाठ का परिचय (Introduction of the Lesson) प्रस्तुत पाठ में श्लोकों के द्वारा विद्या के महत्त्व को बताया गया है। विद्या मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ धन है। विद्यावान् व्यक्ति का सर्वत्र सम्मान होता है, विद्या मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। विद्या कल्पतरु के समान मनुष्य के सभी कार्य पूर्ण करती है। विद्याहीन मनुष्य पशु के समान होता है। अतः मनुष्य को श्रेष्ठ प्राणी बनने के लिए विद्या रूपी धन को संचित करना चाहिए।
विद्या कल्पलता की तरह होती है। इस पाठ में विद्या का महत्त्व बताया गया है। यथा विद्या को चोर चुरा नहीं सकता, राजा छीन नहीं सकता और भाई बाँट नहीं सकता। विद्या सभी धनों में श्रेष्ठ है। इसे व्यय किए जाने पर यह बढ़ती है। विद्या मनुष्य का सौन्दर्य है। यह गुप्त से गुप्त धन है। यह अनेक भोगों को देने वाली है तथा सुख प्रदान करने वाली है। राजाओं में ज्ञान की पूजा होती है तथा धन की नहीं।
मनुष्य की शोभा न तो हार से बढ़ती है और न ही पुष्प अथवा अङ्गराग के द्वारा बढ़ती है। मनुष्य की शोभा ज्ञान से बढ़ती विद्या माता की तरह रक्षा करती है, पिता की तरह हित का साधन करती है। यह शोभा को बढ़ाती है। विद्या मनुष्य का सभी प्रकार से भला करती है।
सरलार्थ :
न चोरों के द्वारा चुराने योग्य है और न राजा के द्वारा छीनने योग्य है, न भाइयों के द्वारा बाँटने योग्य है और न भार (बोझ) बढ़ाने वाला है। हमेशा खर्च करने पर बढ़ता ही है। विद्या का धन सभी धनों में प्रमुख (सर्वोत्तम) है।
(क) न चौरहार्यं न च राजहार्य
न भ्रातभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥1॥
शब्दार्थाः (Word Meanings) :
(ख) विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्या-विहीनः पशुः ॥2॥
सरलार्थ :
विद्या मनुष्य का अधिक (अच्छा) स्वरूप है, छुपा हुआ गोपनीय धन है, विद्या भोग का साधन उपलब्ध कराने वाली है, कीर्ति और सुख प्रदान कराने वाली है, विद्या गुरुओं का गुरु है। विद्या विदेश जाने पर बन्धु (मित्र) के समान होती है, विद्या सबसे बड़ा देवता है। विद्या राजाओं में पूजी जाती है, धन नहीं। विद्या से रहित (मनुष्य) पशु के समान होता है।
शब्दार्थाः (Word Meanings) :
(ग) केयूराः न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कता मूर्धजाः।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्तेऽखिलभूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥3॥
सरलार्थ :
मनुष्य को न बाजूबन्द सुशोभित करते हैं, न चन्द्रमा के समान चमकदार हार, न स्नान, न शरीर पर सुगन्धित लेपन (चन्दन, केसर आदि), न बालों/चोटी में सजाए हुए फूल सुशोभित करते हैं और ना हीं सजाई गई चोटी ही। मनुष्य को एकमात्र वाणी, भली प्रकार सुशोभित करती है, जो परिष्कृत (संस्कारयुक्त) रूप में धारण की जाती है (व्यवहार में लाई जाती है)। अन्य सभी आभूषण नष्ट होते हैं, (परन्तु) वाणी का आभूषण सदैव रहने वाला आभूषण है।
शब्दार्थाः (Word Meanings):
(घ) विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयः
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा।
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु॥4॥
सरलार्थ :
विद्या वास्तव में (नाम) मनुष्य की अतुल्य कीर्ति है, भाग्यक्षय (बदकिस्मती) होने पर एक आश्रय/सहारा है। कामनापूर्ति करने वाली गाय अर्थात् कामधेनु है। विरह में प्रेम करती है और वही मनुष्य की तीसरी आँख होती है। सम्मान का स्थान है। कुल की महिमा है, (बहुमूल्य) रत्नों के बिना भी आभूषण है। अतः अन्य सब बातों को छोड़ विद्या पर अपना प्रभुत्व कर लो। .
शब्दार्थाः (Word Meanings) :
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