यह पाठ हमें श्रीमद्भगवद्गीता के महत्व के बारे में बताता है। गीता का उपदेश भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में अर्जुन को दिया था। इसमें जीवन जीने के सही मार्ग, धर्म, कर्तव्य और ज्ञान का महत्व समझाया गया है।
कुरुक्षेत्र में गीता जयंती का उत्सव मनाया जा रहा था। उसमें एक कथावाचक गीता का महत्व बता रहा था। तभी मिशेष नामक व्यक्ति ने अपने पिताजी से पूछा – “गीता क्या है और क्यों गाना चाहिए?”
तब पिता ने समझाया कि गीता भगवान कृष्ण का अमूल्य उपदेश है। इसे भक्ति और भाव से पढ़ना और गाना चाहिए।
(१) गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥
भावार्थ: यह श्लोक हमें बताता है कि गीता सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ है। इसे प्रेम और भक्ति के साथ पढ़ना और गाना चाहिए। अन्य शास्त्रों को पढ़ने से भी अधिक महत्व गीता का है, क्योंकि यह सीधे भगवान के मुख से निकला दिव्य उपदेश है।
(२) दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
भावार्थ: वह मनुष्य सच्चा ज्ञानी है जिसका मन दुःख में विचलित नहीं होता, जो सुख में आसक्त नहीं होता, और जो राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर स्थिर बुद्धि वाला रहता है।
(३) क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
भावार्थ: क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है, भ्रम से स्मृति जाती रहती है, स्मृति जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।
(४) तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
भावार्थ: हे अर्जुन! गुरु के पास जाकर विनम्रतापूर्वक प्रश्न करो और सेवा करो। जो तत्वदर्शी ज्ञानी होते हैं, वे तुम्हें सही ज्ञान प्रदान करेंगे।
(५) श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
भावार्थ: श्रद्धा रखने वाला, इन्द्रियों को संयमित करने वाला और लगन से प्रयास करने वाला व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है। और ज्ञान प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम शांति को पा लेता है।
(६) अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥
भावार्थ: जो किसी से द्वेष नहीं करता, सबके प्रति मित्रवत और करुणामय है, जो ‘मेरा-तेरा’ भाव से रहित और अहंकार से मुक्त है, जो सुख-दुःख में समान भाव रखता है और क्षमाशील है – वही सच्चा भक्त है।
(७) सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
भावार्थ: जो योगी सदैव संतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है, दृढ़ निश्चयी है, जिसने अपना मन और बुद्धि मुझमें अर्पित कर दी है, वह मेरा प्रिय भक्त है।
(८) यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥
भावार्थ: जिस मनुष्य से कोई भयभीत नहीं होता और जो स्वयं भी किसी से भयभीत नहीं होता, जो हर्ष, क्रोध और भय से मुक्त रहता है – वही मेरा प्रिय भक्त है।
(९) अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥
भावार्थ: जो वाणी बिना किसी को दुःख पहुँचाए सत्य, प्रिय और हितकारी होती है, वही वाणी तप कहलाती है। शास्त्रों का अध्ययन और अभ्यास करना भी वाणी का तप है।
1. गीता सुगीता कर्तव्य का मुख्य संदेश क्या है? | ![]() |
2. गीता में किस प्रकार के श्लोकों का समावेश है? | ![]() |
3. 'कर्म करो, फल की चिंता मत करो' का अर्थ क्या है? | ![]() |
4. गीता का अध्ययन क्यों महत्वपूर्ण है? | ![]() |
5. गीता सुगीता कर्तव्य में कौन सी प्रमुख शिक्षाएँ मिलती हैं? | ![]() |