Table of contents |
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कहानी परिचय |
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मुख्य विषय |
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कहानी का सार |
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कहानी की मुख्य बातें |
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कहानी से शिक्षा |
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शब्दार्थ |
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"न्याय की कुर्सी" लीलावती भागवत की कहानी है, जो स्वर्ग की सैर तथा अन्य कहानियाँ (राष्ट्रीय पुस्तक न्यास) से ली गई है। उज्जैन के एक मैदान में एक लड़का पत्थर को सिंहासन समझकर राजा बनने का खेल शुरू करता है और अपने दोस्तों की शिकायतों के फैसले करता है। उसकी न्याय-बुद्धि की चर्चा फैलती है, और लोग असली झगड़े लेकर आने लगते हैं। जब राजा को यह पता चलता है, तो वह हैरान होकर स्वयं देखने जाता है। पता चलता है कि वह पत्थर विक्रमादित्य का सिंहासन है, जिसकी मूर्तियाँ बोलती हैं। राजा उस पर बैठने की कोशिश करता है, लेकिन मूर्तियाँ उससे चोरी, झूठ और हिंसा के सवाल पूछती हैं। राजा प्रायश्चित करता है, पर अहंकार के कारण सिंहासन मूर्ति सहित उड़ जाता है।
"न्याय की कुर्सी" कहानी का मुख्य विषय है न्याय, नैतिकता और अहंकार से मुक्ति। यह कहानी बताती है कि सच्चा न्याय वही कर सकता है, जिसका मन स्वच्छ और निष्पक्ष हो, जैसा कि बच्चों के खेल में दिखाया गया है। राजा विक्रमादित्य का सिंहासन इस बात का प्रतीक है कि सत्ता और शक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण है सत्य, ईमानदारी और दूसरों के प्रति करुणा। राजा का अहंकार और उसकी गलतियाँ उसे सिंहासन पर बैठने से रोकती हैं, जिससे यह संदेश मिलता है कि सच्चे न्याय के लिए मन की पवित्रता और विनम्रता जरूरी है।
कहानी "न्याय की कुर्सी" उज्जैन शहर के बाहर एक बड़े मैदान से शुरू होती है, जहाँ कुछ टीले बिखरे हुए थे। एक दिन वहाँ बच्चे खेल रहे थे। एक लड़का दौड़ता-कूदता एक टीले पर चढ़ा और अचानक एक चिकने पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा। उसने देखा कि वह पत्थर कोई साधारण चीज नहीं थी। उसने अपने दोस्तों को बुलाया और उस पत्थर पर बैठकर शान से कहा, "यह मेरा सिंहासन है। मैं राजा हूँ, और तुम सब मेरे दरबारी। अपनी-अपनी शिकायतें लाओ, मैं उनका फैसला करूँगा।" दोस्तों को यह खेल बहुत पसंद आया। वे एक-एक करके काल्पनिक शिकायतें लेकर आते, गवाह बुलाते, और लड़का उनसे सवाल-जवाब करके फैसला सुनाता। यह खेल इतना मजेदार था कि बच्चे रोज़ इसे खेलने लगे।
धीरे-धीरे इस खेल की बात आसपास फैलने लगी। लोग उस लड़के की समझदारी और न्याय करने की कला की तारीफ करने लगे। कुछ लोग तो कहने लगे कि उसमें कोई दैवी शक्ति है। एक दिन दो किसानों के बीच ज़मीन को लेकर बड़ा झगड़ा हो गया। वे राजा के दरबार जाने की बजाय उस लड़के के पास गए और अपनी समस्या बताई। लड़के ने बहुत ध्यान से दोनों की बात सुनी और ऐसा फैसला दिया कि किसान हैरान रह गए। उस दिन से पूरे शहर के लोग अपनी शिकायतें लेकर उसी लड़के के पास आने लगे। कोई भी राजा के दरबार नहीं जाता था, क्योंकि लड़के के फैसले हमेशा सही और संतोषजनक होते थे।
यह बात जब राजा को पता चली, तो उसे बहुत गुस्सा आया। उसने कहा, "यह लड़का अपने आप को मुझसे बेहतर न्यायकर्ता समझता है? मैं खुद जाकर देखूँगा।" राजा अपने सैनिकों के साथ उस मैदान में पहुँचा और बच्चों का खेल देखने लगा। वह लड़के की बुद्धिमानी देखकर दंग रह गया और अपने मंत्री से बोला, "यह लड़का वाकई बहुत समझदार है। इतनी छोटी उम्र में इतनी बुद्धिमत्ता होना वास्तव में प्रशंसनीय है।" तभी किसी ने बताया कि वह रोज़ वाला लड़का नहीं है, बल्कि दूसरा लड़का है, क्योंकि पहला लड़का बीमार था। राजा को और आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि शायद उस पत्थर में ही कोई जादू है।
राजा के आदेश पर उस जगह को खोदा गया, और पत्थर को बाहर निकाला गया। तब पता चला कि वह कोई साधारण पत्थर नहीं, बल्कि एक बहुत सुंदर सिंहासन था, जिस पर खूबसूरत नक्काशी और चारों पायों पर चार देवदूतों की मूर्तियाँ बनी थीं। विद्वानों ने बताया कि यह राजा विक्रमादित्य का सिंहासन था, जो अपने न्याय और विवेक के लिए प्रसिद्ध थे। राजा ने सिंहासन को अपने दरबार में रखवाया और कहा कि वह उस पर बैठकर प्रजा की शिकायतें सुनेगा।
अगले दिन जब राजा सिंहासन पर बैठने गया, तो एक मूर्ति ने आवाज़ दी, "ठहरो!" मूर्ति ने पूछा, "क्या तुमने कभी चोरी नहीं की?" राजा ने शर्मिंदगी से स्वीकार किया कि उसने एक दरबारी की ज़मीन पर कब्ज़ा किया था। मूर्ति ने कहा कि वह सिंहासन पर बैठने योग्य नहीं है और उसे तीन दिन तक प्रायश्चित करना होगा। मूर्ति फिर आकाश में उड़ गई। राजा ने तीन दिन उपवास और प्रार्थना की। चौथे दिन जब वह फिर बैठने गया, तो दूसरी मूर्ति ने पूछा, "क्या तुमने कभी झूठ नहीं बोला?" राजा ने माना कि उसने कई बार झूठ बोला था। वह पीछे हट गया, और दूसरी मूर्ति भी उड़ गई।
तीन दिन और प्रायश्चित करने के बाद राजा फिर कोशिश करने गया। तीसरी मूर्ति ने पूछा, "क्या तुमने कभी किसी को चोट नहीं पहुँचाई?" राजा को अपनी गलतियाँ याद आईं, और वह फिर पीछे हट गया। तीसरी मूर्ति भी उड़ गई। तीन दिन बाद जब राजा चौथी बार सिंहासन की ओर बढ़ा, तो चौथी मूर्ति ने कहा, "जो बच्चे यहाँ बैठते थे, उनके मन साफ थे। क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम इस योग्य हो?" राजा ने सोचा कि वह राजा है, धनवान और बुद्धिमान है, तो वह ज़रूर योग्य है। लेकिन जैसे ही वह बैठने गया, चौथी मूर्ति सिंहासन समेत आकाश में उड़ गई।
कहानी "न्याय की कुर्सी" से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सच्चा न्याय करने के लिए मन का साफ और निष्पक्ष होना बहुत जरूरी है। राजा विक्रमादित्य का सिंहासन केवल उसी को स्वीकार करता है, जो चोरी, झूठ, या किसी को चोट पहुँचाने जैसे गलत कामों से मुक्त हो। कहानी यह भी सिखाती है कि अहंकार और घमंड इंसान को सही रास्ते से भटका सकता है, जैसे राजा अपने अहंकार के कारण सिंहासन पर नहीं बैठ पाया। हमें हमेशा नम्र, ईमानदार और दूसरों के प्रति दयालु रहना चाहिए।
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1. 'न्याय की कुर्सी' कहानी का मुख्य विषय क्या है ? | ![]() |
2. इस कहानी में कौन से मुख्य पात्र हैं और उनका भूमिका क्या है ? | ![]() |
3. 'न्याय की कुर्सी' कहानी से हमें कौन सी शिक्षा मिलती है ? | ![]() |
4. कहानी का सार क्या है ? | ![]() |
5. 'न्याय की कुर्सी' कहानी में कैसे न्याय का प्रदर्शन किया गया है ? | ![]() |