Table of contents |
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परिचय |
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पाठ का गद्यांश |
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श्लोक |
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शब्दार्थ (हिन्दी सहित) |
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व्याकरण |
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यह नाटक त्याग और बलिदान की महत्ता को दर्शाता है। इसमें वीरवर नामक राजपुरुष का चरित्र है जो राजा शूद्रक की सेवा करता है। वह अपने धन का एक अंश परिवार पर, एक अंश दान में और शेष अंश पत्नी को देता है। जब एक दिन वह एक करुणार्द्र रानी को देखता है, तब उसके त्याग और निष्ठा की परीक्षा होती है। वीरवर यह दिखाता है कि जब किसी उच्च उद्देश्य के लिए त्याग की आवश्यकता हो, तब अपने जीवन और सम्पत्ति का त्याग करना श्रेष्ठ होता है।
(१) धनान्यजीवितञ्चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत्।
सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति ॥
(२) जात्ये कृत्ये च मादृशाः क्षुद्रजातयः।
अनेन दृष्टो लोके न भूतो न भविष्यति ॥
वाच्य
उदाहरण
इस अध्याय से शिक्षा मिलती है कि जब किसी महान उद्देश्य के लिए त्याग करना पड़े तो अपने धन और जीवन का बलिदान करना ही श्रेष्ठ है। वीरवर ने इस आदर्श को अपने आचरण से सिद्ध किया।
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