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NCERT Solutions for Class 11 Hindi Antra - विष्णु खरे

Page No. - 33

प्रश्न-अभ्यास (क)

प्रश्न 1: कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होने के लिए किन तरीकों की ओर संकेत किया है? अपने शब्दों में लिखिए।
कवि के अनुसार आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होने के लिए लोगों ने गलत रास्तों को अपनाया है। लोग अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी का भी गला काटने से परहेज़ नहीं करते हैं। देश को खोखला बनाने में ये बहुत सहयोग दे रहे हैं। देश का पैसा गबन कर विदेशी बैंकों में डाल रहे हैं। बेईमानी करने में इन्हें ज़रा संकोच नहीं होता। इस मारे ये मालामाल, आत्मनिर्भर तथा गतिशील बने हुए हैं। कवि ने इनके ऐसे ही भ्रष्ट तरीकों की ओर संकेत किया है।


प्रश्न 2: हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार क्यों कहा है? स्पष्ट कीजिए।

हाथ फैलाने वाला व्यक्ति स्वयं को भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं करता। इस कारण उसकी ऐसी दशा हो जाती है कि उसे दूसरों के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं। उसका परिवार दर-दर की ठोकरें खाने को विवश हो जाता है। यदि वह अन्य लोगों की भांति भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाता, तो उसकी चाँदी हो जाती। उसके पास दुनिया की हर सुख-सुविधा विद्यमान होती। परन्तु वह स्वयं को इन सबसे दूर रखता है। वह गरीबी का जीवन तथा दूसरे के आगे हाथ फैलाना उचित समझता है लेकिन बेईमानी की एक दिन की रोटी कमाना उचित नहीं समझता। इसलिए कवि ने उसे ईमानदार कहा है। उसकी दशा उसकी ईमानदारी का प्रमाण है।


प्रश्न 3: कवि ने हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को लाचार, कामचोर, धोखेबाज़ क्यों कहा है?

प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी शक्ति विद्यमान होती है कि वह समाज में क्रांति उत्पन्न कर सकता है। समाज के प्रति उसके कुछ कर्तव्य बनते हैं। समाज में जो अनैतिक घट रहा है, उसका विरोध करना उसका कर्तव्य बनता है। वह आवाज़ उठा सकता है परन्तु उठाता नहीं है क्योंकि वह डरता है। हाथ फैलाने वाला व्यक्ति ऐसा ही व्यक्ति है। वह कुछ गलत नहीं करता है मगर गलत का विरोध भी नहीं करता। उसकी अच्छाई उसकी कमज़ोरी बन जाती है। वह लाचार हो जाता है।  उसे लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। यह उसकी लाचारी ही है, जो लोग उसका फायदा उठाते हैं। इस तरह वह स्वयं के साथ और समाज के प्रति अपने कर्तव्य के साथ धोखा करता है। यही कारण है कि कवि ने उसे लाचार, कमचोर तथा धोखेबाज़ कहा है।


प्रश्न 4: 'मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं' से कवि का क्या अभिप्राय है?

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ऐसे तबके को संबोधित करता है, जो भ्रष्टाचार तथा अनैतिकता में लिप्त हैं। कवि कहता है कि तुम्हें मुझसे डरने या प्रतिस्पर्धा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि में तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी नहीं हूँ। प्राय: अपने प्रतिद्वंद्वी के कारण लोग भयग्रस्त रहते हैं तथा उसे आगे निकलने या उसे गिराने का प्रयास करते हैं। लेखक उन्हें पहले से ही आगह कर देते हैं कि वह इस दौड़ में सम्मिलित नहीं है। अत: उन लोगों को उसे अपना प्रतिद्वंद्वी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। इसके साथ ही जो लोग यह समझते है कि वे भ्रष्टाचार तथा अनैतिकता में इनका साथ देगें और इसमें उनका हिस्सेदार बनेगा, तो यह धारण भी सत्य नहीं है। क्योंकि लेखक इस अनैतिकता तथा भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज़ नहीं उठा सकता है परन्तु इसमें अपनी हिस्सेदारी भी नहीं चाहता है। वह स्वयं को इससे दूर रखना चाहता है। प्रस्तुत पंक्ति में कवि का विरोध तथा कुछ न कर पाने का दुख साफ अभिलक्षित होता है।


प्रश्न 5: भाव सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) 1947 के बाद से .........  गतिशील होते देखा है
(ख) मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ ..........  एक मामूली धोखेबाज़
(ग) तुम्हारे सामने बिलकुल .............  लिया है हर होड़ से

(क) इन पंक्तियों का भाव यह है कि कवि 1947 के बाद के भारत में बहुत से लोगों ने अनैतिकता तथा भ्रष्टाचार के तरीकों का सहारा लेकर अतुलनीय धन कमाया है। जब उनसे कोई इस धन के विषय में बातचीत करता है, तो उनका जवाब होता कि उन्होंने यह धन आत्मनिर्भर तथा गतिशील होकर कमाया है। अर्थात इस धन को कमाने के लिए उन्होंने स्वयं पर विश्वास रखते हुए निरंतर परिश्रम किया है, जिसका परिणाम है कि वे मालामाल और धनवान हो गए हैं। कवि को ये सब मात्र दिखावा लगता है। उसके अनुसार ऐसा तो सभी करते हैं, फिर क्यों सभी मालामाल और धनवान नहीं होते हैं।  
(ख) भाव यह है कि भ्रष्ट लोगों को देखकर भी कवि कुछ नहीं कर पाता इसलिए वह स्वयं को  लाचार मानता है। परन्तु यदि प्रयास करता तो शायद कुछ बदलाव हो सकता था। यही कारण है कि वह स्वयं को कामचोर कहने से नहीं हिचकिचाता। ईमानदार लोगों की दशा को अनदेखा करने के कारण स्वयं को धोखेबाज़ भी कह डालता है। लोगों के भ्रष्ट व्यवहार ने उसके हाथ बाँध दिए हैं। वह अपने सम्मुख एक ईमानदार व्यक्ति को हाथ फैलाते देखता है परन्तु हालात उसे विवश कर देते हैं। वह उसकी ऐसी दशा देखकर भी चुप है। यही कारण है कि वह स्वयं को इस प्रकार के नामों से पुकारता है।  
(ग) भाव यह है कि कवि के अनुसार ईमानदार लोगों के समक्ष उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। उनके सम्मुख तो वह स्वयं को नंगा, लज्जा रहित तथा इच्छा रहित मानता है। वह किसी भी प्रकार की प्रतिस्पर्धा और टकराव की स्थिति से दूर रहना चाहता है।


प्रश्न 6: शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(क) कि अब जब कोई ......... या बच्चा खड़ा है।
(ख) मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी .......... निश्चिंत रह सकते हैं।

(क) कवि ने मुक्तछंद में कविता की रचना की है। इसकी भाषा सरल व सहज है। इसमें लाक्षणिकता का गुण है। हाथ फैलाना मुहावरे का बहुत उत्तम प्रयोग किया गया है, यह ईमानदार व्यक्ति की लाचारी का सूचक भी है। चाय तथा रोटी के माध्यम से उसकी भूख का उल्लेख किया गया है। इसके साथ ही पच्चीस पैसे में अनुप्रास अलंकार की छटा बिखरी हुई है।

(ख) कवि ने मुक्तछंद में कविता की रचना की है। इसकी भाषा सरल व सहज है। इसमें प्रतीकात्मकता का गुण है। इसमें व्यंजना का भी प्रयोग किया गया है। कवि तटस्थ रहता हुआ संघर्षशील व्यक्ति के सम्मुख आने से बचता है।


प्रश्न-अभ्यास (ख)

प्रश्न 1: सत्य क्या पुकारने से मिल सकता है? युधिष्ठिर विदुर को क्यों पुकार रहे हैं- महाभारत के प्रसंग से सत्य के अर्थ खोलें।

सत्य यदि पुकारने से मिल जाता, तो आज असत्य का बोलबाला नहीं होता। सत्य पुकारने से नहीं अपितु सत्य का आचरण करने, दृढ़ निश्चय तथा उसका सामना करने से मिलता है। उसके लिए लोगों को कठिन संघर्ष से गुजरना पड़ता है। जैसे धर्मराज युधिष्ठिर ने किया था। उन्होंने संपूर्ण जीवन सत्य का आचरण किया तथा सत्य को अपना धर्म समझा। यही कारण था कि वह धर्मराज कहलाए। धर्मराज कहलाने से पूर्व युधिष्ठिर भी सत्य को जानने के लिए मारे-मारे फिर रहे थे। विदुर ने उन्हें यह मार्ग दिखलाया था। जब युधिष्ठिर को ज्ञात हुआ कि विदुर सत्य के मार्ग से परिचित है, तो वह उनके पीछे हो लिए। वे विदुर के मुख से सत्य के विषय में सुनना चाहते थे। परन्तु विदुर उन्हें यह बताने से भाग रहे थे। महाभारत में विदुर एकमात्र ऐसे पात्र थे, जो विद्वान तथा महाज्ञानी थे। वह नीति-अनीति से परिचित थे। परन्तु कौरवों के प्रति उनकी निष्ठा ने उनके मुँह में पट्टी बाँध दी थी। उनके अतिरिक्त सत्य का सही ज्ञान किसी और को नहीं था। विदुर जानते थे कि सत्य का मार्ग बड़ा ही कठिन है। वे स्वयं को बहुत संतुलित रखते हुए इस मार्ग में बढ़ रहे थे। युधिष्ठिर के दृढ़ निश्चय के आगे उन्हें घुटने टेकने पड़े और वह वहीं रुक गए। जैसे ही युधिष्ठिर की आँखें विदुर की आँखों से मिली सत्य का ज्ञान रूपी प्रकाश उनकी अंतरात्मा में उतर गया और उनकी आत्मा भी उसके प्रकाश से प्रकाशित हो गई। अर्थात युधिष्ठिर को भी सत्य की महिमा का ज्ञान हो गया।


प्रश्न 2: सत्य का दिखना और ओझल होना से कवि का क्या तात्पर्य है?

सत्य स्वयं में एक प्रबल शक्ति है। उसे दिखने से कोई नहीं रोक सकते हैं परन्तु यदि परिस्थितियाँ इसके विरोध में आ जाएँ, तो वह शीघ्रता से ओझल हो जाता है। सत्य को हर समय अपने सम्मुख रखना संभव नहीं है क्योंकि यह कोई वस्तु नहीं है। यही कारण है कि यह स्थिर नहीं रह पाता और यही सबसे बड़े दुख की बात भी है। लोग अपने स्वार्थ के लिए सत्य को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं। उनके कारण सत्य कहीं ओझल हो जाता है और रह जाता है, तो असत्य। सत्य तभी प्रकट होता है, जब दृढ़तापूर्वक उसका आचरण किया जाता है या उस पर अडिग रहा जाए। युधिष्ठिर उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उन्होंने किसी भी परिस्थिति में सत्य का साथ नहीं छोड़ा।


प्रश्न 3: सत्य और संकल्प के अंतर्संबंध पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

सत्य और संकल्प में भक्त और भगवान के समान संबंध है। जैसे भक्त के बिना भगवान और भगवान के बिना भक्त का कोई अस्तित्व नहीं होता, वैसे ही सत्य के मार्ग में बढ़ते हुए यदि मनुष्य में संकल्प शक्ति की कमी है, तो सत्य तुरंत दम तोड़ देता है। सत्य का मार्ग बहुत कठिन और संघर्ष युक्त है। सत्य का आचरण करना लोहे के चने चबाने के समान है। इस पर चलते हुए विरोधों तथा विरोधियों का सामना करना पड़ता है। लोगों की प्रताड़ना तथा उलाहनाओं को भी झेलना पड़ता है। आज के युग में लोग अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए अधर्म तथा अनीति का सहारा लेते हैं। ऐसे में सत्य के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि अधर्म तथा अनीति में असत्य फलता-फूलता है। परन्तु जो लोग दृढ़ संकल्प होकर इस मार्ग में बढ़ते हैं, सत्य का परचम वहाँ सदैव लहराता रहता है।  उनके रहते सत्य दिनोंदिन प्रगति करता हुआ अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है। अत: सत्य और संकल्प में घनिष्ट संबंध है।


प्रश्न 4: 'युधिष्ठिर जैसा संकल्प' से क्या अभिप्राय है?

युधिष्ठिर जैसा संकल्प से तात्पर्य है: सत्य के मार्ग पर अडिग होकर चलने की शक्ति। युधिष्ठिर ने अपने जीवन में सत्य का मार्ग चुना था। इसके लिए उन्होंने विदुर तक को अपने सम्मुख झुकने पर विवश कर दिया था। वे उम्रभर इस मार्ग पर ही नहीं चले बल्कि उन्होंने इसे अपने आचरण में भी आत्मसात किया। उन्होंने कठिन से कठिन समय में भी सत्य का साथ नहीं छोड़ा। इसी कारण उन्होंने कष्टों को गले लगाया तथा अपनो का विरोध सहा। परन्तु फिर भी वह दृढ़तापूर्वक इस मार्ग पर बढ़ते चले गए तथा धर्म की स्थापना की। अपने दृढ़ संकल्प के कारण ही उन्हें धर्मराज की उपाधि से नवाज़ा गया। उनका जैसा संकल्प महाभारत के इतिहास में अन्य किसी और में देखने को नहीं मिलता है।


प्रश्न 5: सत्य की पहचान हम कैसे करें? कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।

कविता के अनुसार सत्य हमारे अंतकरण में विद्यमान होता है। उसे खोजने के लिए हमें अपने भीतर झाँकना आवश्यक है। सत्य के प्रति हमारे मन में संशय उत्पन्न हो सकता है परन्तु यह संशय हमारे भीतर व्याप्त सत्य को धूमिल नहीं कर पाता। हमें सदैव परिस्थिति, घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए सत्य को पहचानना चाहिए। मनुष्य परिस्थिति तथा घटनाक्रमों के अनुसार सत्य-असत्य के मध्य फंसा रहता है। जो स्वयं को इस स्थिति से निकालकर सत्य के स्वरूप को पहचानकर अडिग होकर इस मार्ग पर चलता है, वही सत्य के समीप पहुँच पाता है। सत्य का स्वभाव स्थिर नहीं है, उसे हमारे द्वारा स्थिरता प्रदान की जाती है। हम यदि उसे संकल्पपूर्वक अपने जीवन में व्यवहार में लाते हैं, तो इसका तात्पर्य है कि हमने सत्य को पहचान लिया है।


प्रश्न 6: कविता में बार-बार प्रयुक्त 'हम' कौन है और उसकी चिंता क्या है?

कविता में हम शब्द ऐसे लोगों का सूचक है, जो सारी उम्र सत्य की खोज के लिए मारे-मारे फिरते हैं। वे सत्य को पहचानना तथा जानना चाहते हैं। उनकी मुख्य चिंता यह है कि वे सत्य का स्थिर रूप-रंग और पहचान नहीं खोज पा रहे हैं। यदि वे इन्हें खोज लेते हैं, तो वे सत्य को स्थायित्व प्रदान कर सकेगें। परन्तु सत्य की पहचान और स्वरूप तो घटनाओं, स्थितियों तथा लोगों के अनुरूप बदलती रहती है। कहीं पर वे किसी के लिए सत्य है, तो कहीं पर किसी के लिए कुछ भी नहीं। हम इसी चिंता में ग्रस्त होकर उसकी पहचान पाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। परन्तु हर बार उनको निराशा हाथ लग रही है।


प्रश्न 7: सत्य की राह पर चल। अगर अपना भला चाहता है तो सच्चाई को पकड़।– इन पंक्तियों के प्रकाश में कविता का मर्म खोलिए।

आज का युग अधर्म और अनैतिकता के ताने-बाने में उलझकर रह गया है। लोग पूर्णता सत्य का आचरण नहीं करते हैं। असत्य का साम्राज्य चारों ओर फैल रहा है। कवि असत्य की विजय देखकर दुखी है। यह मानवता की हत्या है। यही कविता का मर्म है। कवि के अनुसार मानवता की भलाई इसी में ही कि वह सत्य के मार्ग पर चले। क्योंकि असत्य का मार्ग अधर्म और अनैतिकता को बढ़ावा देता है, इससे लोगों में निराशा, दुख, विरोध, क्रोध, लालच, स्वार्थ आदि भावों का विकास होता है। भाई-भाई को मारने पर आतुर हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य सत्य के मार्ग पर चलता है, तो धर्म और नैतिकता को बढ़ावा मिलता है। लोगों में इस कारण आशा, सुख, प्रेम, शांति तथा परोपकार जैसी भावनाओं का विकास होता है। यदि एक व्यक्ति असत्य को नकारता है, तो इससे कई लोगों का ही भला होता।


योग्यता-विस्तार

प्रश्न 1: आप सत्य को अपने अनुभव के आधार पर परिभाषित कीजिए।

सत्य के मार्ग पर चलना कठिन अवश्य होता है परन्तु इससे होने वाले लाभ भी कम नहीं है। मैंने अपने जीवन में इस बात को कई बार अनुभव किया है। कुछ समय पहले हमारे यहाँ एक अंकल आया करते थे। स्वभाव से वह बहुत विनम्र और हँसमुख थे। परन्तु वह जब भी घर आते घंटों तक घर में बैठ जाते थे। धीरे-धीरे उनका यह नित्यक्रम बनने लगा। माताजी व पिताजी को इस बात से बहुत कठिनाई होती। यदि वह किसी काम से बाहर जा रहे होते थे, तो उनके कारण अपना कार्य स्थगित करना पड़ता था। आखिर एक दिन मैं तंग आ गया। अंकल को उनकी गलती का अनुभव कराना आवश्यक था। माता-पिताजी उन्हें इसी बात का आभास कराते कि उनके आने से हमें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है। मैंने निर्णय लिया और अंकल को बहुत प्यार से कहा अंकल आपका आना हमें बहुत प्रिय है परन्तु कई बार आप ऐसे समय में आप आ जाते हैं कि हमारे काम रूक जाते हैं। पिताजी मेरे इस कथन पर आग बबुला हुए और उन्होंने मुझे थप्पड़ मार दिया। अंकल ने पापा को डांटा और बताया कि मैं तुम्हारे व्यवहार से बहुत दुखी हूँ। तुम्हारे बेटे ने सत्य कहा है। तुमने कभी मुझे ऐसा नहीं कहा। यदि तुम ऐसा कहते तो मैं बुरा मानने के स्थान पर प्रसन्न होता। अंकल ने मुझसे भी माफी माँगी और पिताजी को भी मुझसे माँफी माँगने को कहा। इसके बाद अंकल बराबर हमारे घर आते रहे परन्तु आने से पहले वह पिताजी को अवश्य उनके कार्यक्रम के बारे में पूछ लेते। इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य का मार्ग कठिन अवश्य है परन्तु इससे होने वाले लाभ भी कम नहीं है।


प्रश्न 2: आज़ादी के बाद बदलते परिवेश का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करने वाली कविताओं का संकलन कीजिए तथा एक विद्यालय पत्रिका तैयार कीजिए।

इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं दें।


प्रश्न 3: 'ईमानदारी और सत्य की राह आत्म सुख प्रदान करती है' इस विषय पर कक्षा में परिचर्चा कीजिए।

'ईमानदारी और सत्य की राह आत्म सुख प्रदान करती है' यह बात बहुत अच्छी कही गई है। एक बेईमान और झूठ बोलने वाला व्यक्ति सफलता की सीढ़िया चढ़ सकता है, इस तरह वह धनवान बन सकता है परन्तु अपने हृदय में वह कभी सुखी नहीं रह पाता। उसका मन उसे धिक्कारता रहता है। वह लोगों से कितना छुपाए परन्तु उसकी आँच हमेशा उसे हृदय में जलाती रहती है। इसका उदाहरण हम अपने जीवन में देख सकते हैं। यदि हम अपने स्वार्थ के लिए किसी से झूठ बोलते हैं, तो हम स्वयं को कचोटते रहते हैं। हर समय यह डर लगा रहता है कि कहीं हमारी पोल न खुल जाए। इसके विपरीत जब हम ईमानदारी से सत्य के साथ अपनी बात कहते हैं, तो सुनने वालों को वह कड़वी अवश्य लगती है लेकिन हम स्वयं अपने हृदय में प्रसन्न होते हैं और किसी प्रकार का भय हमें भयभीत नहीं कर पाता। सत्य बोलने वालों का जीवन सरल हो जाता है। सत्य उन्हें ईमानदारी की भावना की ओर प्रवृत करता है। इन दोनों भाव से जीवन में शांति और आत्म सुख प्रदान होता है। गांधी जी ने पूरी ईमानदारी और सत्य से अपना कर्तव्य निभाया था। यही कारण है कि आज लोगों द्वारा उन्हें पूजा जाता है।


प्रश्न 4: गांधी जी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' की कक्षा में चर्चा कीजिए।

विद्यार्थी गाँधी जी की आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' नामक पुस्तक विद्यार्थी अपने विद्यालय के पुस्तकालय से लेकर पढ़ें तथा इस आधार पर कक्षा में इस पर चर्चा करें।


प्रश्न 5: 'लगे रहो मुन्नाभाई' फ़िल्म पर चर्चा कीजिए।

'लगे रहो मुन्नाभाई' एक मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षाप्रद फ़िल्म है। यह गाँधी जी के मूल्यों उनके विचारों को व्यक्त करती हुई हमारी आँखों पर लगी झूठ और बेईमानी की पट्टी को उतार देती है। यह हमें सोचने पर विवश करती है कि गाँधी जी के मूल्यों तथा सिद्धान्तों को हमने भूला दिया है। इस फ़िल्म के निर्देशक ने अहिंसा, ईमानदारी और सत्य के मूल्यों की विशेषता तथा जीवन में उनके महत्व को उजागर किया है। यह फ़िल्म हमारा मार्गदर्शन करती है। संजय दत्त और अरशाद वारसी ने मुन्नाभाई तथा सरकिट के रूप में फ़िल्म में जान डाल दी है। एक ऐसा व्यक्ति जो झूठ, बेईमानी, मारपीट, दादगिरि इत्यादि में विश्वास रखता है और समाज में गुंडे के रूप में विख्यात है। वह अचानक कैसे गाँधी जी के द्वारा बताए अहिंसा, सत्य और ईमानदारी के सिद्धान्तों पर चलता हुआ आगे बढ़ता है। उसे इस मार्ग पर चलते हुए बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है मगर वह इससे हटता नहीं है। वह बढ़ता चला जाता है और सफल होता है।


प्रश्न 6: कविता में आए महाभारत के कथा-प्रसंगों को जानिए।

विद्यार्थी कविता पढ़िए और इस विषय पर स्वयं लिखिए।

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