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Revision Notes: भाषा शिक्षण के सिद्धांत | Hindi Language & Pedagogy - CTET & State TET PDF Download

परिचय


भौतिक या आध्यात्मिक रूप से, हर कथन एक मूलभूत सच्चाई—एक सिद्धांत—का उदाहरण है और हर कथन नियमों के लिए आधार प्रदान करता है। लेकिन, नियम अल्पकालिक हो सकते हैं और वे सुनिश्‍चित होते हैं। दूसरी ओर, सिद्धांत व्यापक होते हैं और सर्वदा टिक सकते हैं।उदाहरण के लिए, एक बच्चे को शायद यह नियम दिया जाए, “स्टोव को नहीं छूना।” लेकिन एक वयस्क के लिए इतना कहना ही काफ़ी होगा कि “स्टोव गरम है।” ध्यान दीजिए कि आख़िरी कथन ज़्यादा व्यापक है। क्योंकि यह सच्चा कथन हमारे कार्यों पर असर डालेगा—इस मामले में अगर हम पकाएँ, सेकें, या स्टोव बंद करें—यह एक अर्थ में एक सिद्धांत बन जाता है।उसी प्रकार भाषा शिक्षण के कुछ प्रमुख सिद्धांत होते हैं, जिनसे सही एवं प्रभावी शिक्षण का आधार स्पष्ट होता है। सर्वप्रथम, यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि शिक्षण हेतु तीन तत्वों का होना अत्यावश्यक है - शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यक्रम(पठन सामग्री)। इन्ही तत्वों पर शिक्षण के सभी सिद्धांत आधारित हैं क्यूंकि शिक्षक शिक्षार्थी को पाठ्यक्रम कैसे, कब और क्यों पढ़ाये, जिससे प्रभावी शिक्षण हो सके, यही सब शिक्षण को सही दिशा प्रदान करते हैं।

शिक्षण के कुछ सामान्य सिद्धांत

  • रूचि जागृत करने का सिद्धांत: छात्र के लिए शिक्षण तब तक सफल नहीं हो पायेगा, जब तक वह उसमे रूचि नहीं लेगा। पहले दंड या अनुशासन के माध्यम से ज्ञानार्जन कि प्रेरणा दी जाती थी। किन्तु अब रूचि जागृत करने पर अधिक बल दिया जाता है, जिससे छात्र स्वेच्छा से, पूरा ध्यान केंद्रित कर शिक्षा ग्रहण करें। तभी वे पाठ्य वास्तु के सही उद्देश्य और मूल भाव को समझकर शिक्षण सफल बनाएंगे।
  • प्रेरणा का सिद्धांत: यह भाषा अधिगम हेतु सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। रूचि, आवश्यकता और प्रयोजन शिक्षण में प्रमुख प्रेरक होते हैं। उद्देश्यहीन, प्रयोजन-रहित कार्य शिक्षण कार्य में शिथिलता उत्त्पन्न करते हैं। अतः हर संभव प्रयास द्वारा छात्रों को ज्ञानार्जन हेतु प्रेरित करना शिक्षक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
  • क्रिया द्वारा सिखाने (व्यावहारिक ज्ञान) का सिद्धांत: यह शिक्षण हेतु सबसे प्रभावी सिद्धांत है, जो छात्रों में रूचि और प्रेरणा भी जागृत करता है। इसके अनुसार जो भी बालक को सिखाया जाए, उसे बालक एक निष्क्रिय श्रोता नहीं, अपितु सक्रीय प्रतिभागिता द्वारा पूर्ण ध्यान केंद्रित करते हुए सीखने का प्रयास करता है।

मनोवैज्ञानिकों ने भाषा शिक्षण हेतु कुछ अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत

  • अनुबंधन का सिद्धांत: बच्चों के भाषा विकास हेतु यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सीखने में यदि प्रत्यक्ष किसी चीज़ का प्रयोग हो, तो शिक्षण का यह तरीका बहुत सरल और रुचिकर होगा। जैसे - दूध या पंखा को पुस्तकों की बजाय प्रत्यक्ष दिखाकर उसके बारे में सरलता से उसकी जानकारी दी जा सकती है।  
  • अनुकरण का सिद्धांत: वायगोत्स्की के अनुसार बच्चा सामजिक अंतःक्रिया द्वारा भाषा अर्जित करता है और सीखता है। यह प्रक्रिया सरल, सहज व् स्वाभाविक रूप से होती है।यदि उसके परिवार, समाज में कोई भाषा सम्बन्धी त्रुटि है, तो वह मातृभाषा के प्रभाव से बच्चे में भी आ जाती है।
  • भाषा अर्जन का सिद्धांत: यह सिद्धांत मुख्यतः चॉम्स्की का दिया हुआ है। उनके अनुसार बच्चों में भाषा सीखने की जन्मजात क्षमता होती है। उन्होंने सार्वभौमिक व्याकरण का नियम बताते हुए बताया था कि बच्चे एक निश्चित समय में अनुकरण द्वारा भाषा नियम जानकर धीरे-धीरे सही वाक्य बनाना सीख जाते हैं और नए शब्द भी सीख जाते हैं।
  • क्रियाशीलता का सिद्धांत: यह सिद्धांत भाषा प्रयोगों के अधिकाधिक अवसरों और सृजनात्मकता की ओर ध्यान देता है। इसके अनुसार कक्षा में परिचर्चा करना, प्रश्न पूछना आदि सहगामी क्रियायें बच्चों को सक्रीय, पठन के प्रति सजग, प्रोत्साहित और आनंदित रखती है। इससे भाषा शिक्षण बहुत सरल हो जाता है।
  • अभ्यास का सिद्धांत: किसी भी चीज़ को सीखने के लिए अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण होता है क्यूंकि उसी से वह हमारे व्यवहार में आती है और निपुणता भी आती है। भाषा प्रयोग के अधिकाधिक लिखित, मौखिक या वैचारिक अवसर मिलने से बच्चों का भाषा विकास सही प्रकार से होना संभव है।
  • जीवन समन्वय (ज्ञात से अज्ञात) का सिद्धांत: यह वैज्ञानिकों द्वारा सर्वमान्य है कि बच्चे उन विषयों में बहुत रूचि लेते हैं, जो उन्हें अपने जीवन से सम्बंधित लगती है। अतः किसी विषय को बच्चों के जीवन से जोड़कर उदाहरण द्वारा सिखाने से बच्चे उसे पूर्ण रूचि और प्रतिभागिता से सीखने का प्रयास करेंगे।
  • उद्देश्यपूर्ण शिक्षण का सिद्धांत: यह बहुत आवश्यक है कि शिक्षण से पूर्व शिक्षक एक निश्चित उद्देश्य को लेकर आगे बढ़े। इसी से सही पाठ्य सामग्री का चयन कर बच्चों को निश्चित समय में निर्धारित ज्ञान देने का प्रयास सफल हो सकता है। उद्देश्य व्यक्ति केंद्रित और समूह केन्दित कैसे भी हो सकते हैं - जैसे बच्चों कि श्रवण क्षमता का ज्ञान, काव्य पठन का कौशल आदि।
  • विविधता का सिद्धांत: भारत एक बहुभाषिक देश है और शिक्षक को इस बहुभाषिकता को कठिनाई नहीं अपितु संसाधन के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। विविधता प्रतिभा, शारीरिक क्षमता, विचारों के आधार पर भी हो सकती है। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए सही पठन सामग्री का चयन कर एक समावेशी कक्षा का आयोजन करने में समर्थ हो, जहाँ हर प्रकार के छात्रों को भाषा सीखने के सामान अवसर मिलें।
  • अनुपात एवं क्रम का सिद्धांत: भाषा कौशल विशेषत- चार प्रकार के होते हैं - सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना। सही कौशलों का सही से क्रमबद्ध एवं साथ -साथ विकास होना बहुत आवश्यक है। एक कौशल में कमी हो, तो भाषा विकास अधूरा ही माना जाएगा। भाषा शिक्षण का मूल उद्देश्य छात्रों में सभी भाषा कौशलों में निपुणता हासिल करवाना है, जिससे वे भाषा का प्रभावी और संदर्भयुक्त प्रयोग कर सकें।
  • बोलचाल का सिद्धांत: इसके अनुसार बातचीत के माध्यम से भाषा सरलता और स्थायी रूप से सीखी जाती है, जो लम्बे समय तक याद रहती है। यह भाषा के व्यावहारिक पक्ष पर केंद्रित है। सामजिक अंतःक्रिया द्वारा भाषा प्रयोग के सही सन्दर्भ में अधिकाधिक अवसर मिलते हैं और एक समृद्ध परिवेश की उपलब्धता होती है।
  • चयन का सिद्धांत: भाषा शिक्षण हेतु यह सिद्धांत अति महत्वपूर्ण है। कक्षा में किस प्रकार के छात्रों को कब, क्या और कैसे पढ़ना है, इसमें सही विधि, समय, पठन सामग्री और विषय का चयन बहुत महत्त्व रखता है। शिक्षक को हर समय मूल्यांकन करते रहना चाहिए कि कौनसी विधि सही काम कर रही है और बच्चों की आवश्यकताओं के अनुसार सही दृश्य-श्रव्य सामग्री उपलब्ध है या नहीं।
  • बाल केन्द्रितता का सिद्धांत: शिक्षक को यह समझना होगा कि शिक्षण के केंद्र में छात्र है। उसी के शिक्षण हेतु सभी प्रयास किये जा रहे हैं। इसलिए छात्र वर्ग की रूचि, उसका मानसिक स्तर, उसकी विशेष आवश्यकताओं, स्वभाव, विशेषताओं आदि का ज्ञान होना शिक्षण को सही दिशा प्रदान करता है। पठन सामग्री और विधि का चयन उसी आधार पर होना चाहिए।
  • शिक्षण सूत्रों का सिद्धांत: भाषा की शिक्षा देने के लिए शिक्षक कई विधियां या सूत्र अपनाता है, जैसे - सरल से जटिल की ओर, विशेष से सामान्य की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर, अंश से पूर्ण की ओर आदि। छात्रों की विविधता और आवश्यकताओं तथा चयनित विषय की गंभीरता को देखते हुए सही सूत्र का चयन बहुत महत्वपूर्ण रहता है।
  • साहचर्य(संगति) का सिद्धांत: बच्चे सर्वप्रथम भाषा अपने परिवार और समाज अर्थात अपनी संगति से सीखते हैं। इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि बच्चों को भाषा सीखने के लिए एक समृद्ध भाषिक परिवेश मिले, जिससे अपने हर तरह भाषा का प्रयोग होते देख बच्चा सहज रूप से भाषा को अधिक सीखने लगेगा। और सही संगति से भाषा के मानक रूप को भी सीखने में सक्षम होगा। यह संगति व्यक्ति, वस्तु (चार्ट, पुस्तक) या पर्यावरण किसी भी प्रकार की हो सकती है।
  • विभाजन का सिद्धांत: इसके अनुसार शिक्षक को ध्यान रखना चाहिए की चयनित पाठ को छोटे भागों में विभाजित कर बच्चों को एक-एक करके पढ़ाया जाए, जिससे बच्चे सरलता से उसे समझकर आगे बढ़ सकें। यह सिद्धांत सरल से जटिल के शिक्षण सूत्र को पोषित करता है।
  • पुनरावृति का सिद्धांत: यह अभ्यास को सबसे महत्वपूर्ण मानते हुए शिक्षक को निर्देश देता है कि पढ़े गए पाठ या विषय की सही अंतराओं पर लिखित-मौखिक परीक्षाओं या कक्षा सहगामी क्रियाओं द्वारा पुनरावृत्ति होते रहने से बच्चे का भाषा अधिगम अधिक सुदृढ़ होता है और उसके विचारों और ज्ञान में परिपक्वता भी आती है।

एक भाषा शिक्षक के रूप में आपका कर्तव्य होता है कि भाषा की शिक्षण प्रक्रिया को अधिक प्रभावी, रुचिकर बनाने हेतु तथा शिक्षार्थियों की अधिकाधिक प्रतिभागिता प्राप्त करने हेतु इन सभी सिद्धांतों को बहुत सही से प्रयोग में लाना चाहिए। ये सभी शिक्षण को सही दिशा प्रदान करने के साथ -साथ शिक्षण में आने वाली अपरिचित कठिनाइयों का हल ढूंढ़ने में भी शिक्षक के लिए बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

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