अज्ञातवास का तेरहवाँ वर्ष पूरा होने के बाद पांडव विराट राज के राज्य के उपप्लव्य नगर में रहने लगे। आगे के कार्यक्रम बनाने के लिए पांडवों ने अपने संबंधियों एवं मित्रों को बुलाने के लिए दूत भेजे। बलराम, सुभद्रा और अभिमन्यु सहित श्रीकृष्ण उपप्लव्य पहुँच गए। दो अक्षौहिणी सेना सहित काशिराज और वीर शैव्य तथा तीन अक्षौहिणी सेना सहित द्रुपद आ गए। द्रुपद के साथ उनके पुत्र शिखंडी और धृष्टद्युम्न भी थे। अनेक राजा सेना सहित पांडवों के सहायता के लिए आगे आए।
सबसे पहले अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह हुआ। इसके बाद आयोजित सभा में सबसे पहले बोलते हुए श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और दुर्योधन में संधि कराने के लिए तथा पांडवों को उनका राज्य दिलाने के लिए हस्तिनापुर दूत भेजकर संधि कराने की बात कही। उन्होंने कहा कि अगर दुर्योधन संधि को तैयार नहीं होता है तो तो सब लोग युद्ध की तैयारी करें और हमें भी सूचित कर दें। यह कहकर श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए।
विराट, द्रुपद, युधिष्ठिर आदि ने युद्ध की तैयारी में चारों ओर अपने दूत भेज दिए। उधर हस्तिनापुर में दुर्योधन भी युद्ध की तैयारी में लगा हुआ था। श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन स्वयं पहुँचा। उसी समय अर्जुन भी द्वारका पहुँचा। श्रीकृष्ण के भवन में दोनों ने साथ-साथ प्रवेश किया। दोनों सबंधी होने के कारण श्रीकृष्ण के शयनागार में पहुंच गए। उस समय श्रीकृष्ण विश्राम कर रहे थे। दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने एक ऊँचे आसन पर बैठ गया और अर्जुनपैरों की ओर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। श्रीकृष्ण की आँख खुली तो सामने अर्जुन को खड़ा देखकर उसका स्वागत किया। बाद में घूमकर पीछे देखा तो दुर्योधन को देखा और उसका भी स्वागत किया। उसके बाद उन्होंने दोनों से आने का कारण पूछा।
दुर्योधन ने उन्हें बताया कि उनके और पांडवों के बीच युद्ध होने वाला है इसलिए वह उनसे सहायता लेने आया है। वह यहाँ पहले आया था इसलिए पहले उसकी सहायता करनी चाहिए| दुर्योधन की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा कि मैंने पहले अर्जुन को देखा है यद्यपि मेरे लिए दोनों बराबर हैं। तथापि अर्जुन आपसे छोटा भी है अतः पहला हक उसी का है। उन्होंने अर्जुन से कहा कि एक तरफ़ मेरी विशाल सेना है और दूसरी तरफ़ मैं अकेला और मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊँगा। तुम्हें जो पसंद हो माँग लो। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को माँग लिया। दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि उसे श्रीकृष्ण की विशाल सेना मिल गई थी| दुर्योधन बहुत खुश हुआ और वह बलराम जी जहाँ बलराम ने उसे युद्ध में तटस्थ रहने का अपना निर्णय सुनाया। दुर्योधन प्रसन्न होकर हस्तिनापुर लौट गया। इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और पार्थ-सारथी की पदवी प्राप्त की।
मद्र देश के राजा शल्य नकुल-सहदेव के मामा थे। वे एक बड़ी सेना लेकर अपने भाँजों की सहायता के लिए चल पड़े। जब दुर्योधन को पता चला कि राजा शल्य विशाल सेना के साथ आ रहे हैं तो उसने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि यह सेना जहाँ डेरा डाले, वहाँ सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ। इस प्रकार उसने शल्य से अपने पक्ष में युद्ध करने का वचन ले लिया। शल्य ने उपप्लव्य नगर पहुँचकर युधिष्ठिर को अपनी स्थिति बताई तो उन्होंने उनसे अर्जुन की रक्षा का वचन ले लिया। युधिष्ठिर और द्रौपदी को मद्रराज शल्य ने दिलासा दिया कि दुर्योधन की दुष्टता के कारण विनाश उसी का होगा|
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