Table of contents |
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कवि परिचय |
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कविता का सारांश |
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कविता का भावार्थ |
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शब्दार्थ |
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यह पंक्तियाँ महान संत और कवि तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई हैं। उनका जन्म 1532 में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में हुआ था। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस और हनुमान चालीसा जैसी अमर कृतियाँ लिखीं, जिनमें श्रीराम की भक्ति और आदर्शों का सुंदर वर्णन मिलता है। उनके काव्य ने जनमानस में भक्ति और धार्मिक जागरूकता का संचार किया।
प्रस्तुत कविता में तुलसीदास जी ने श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी के वनवास जाने का मार्मिक वर्णन किया है। नगर से कुछ दूर निकलने के बाद चलते-चलते सीता जी थक जाती हैं, उनके माथे पर पसीने की बूंदें छलकने लगती हैं और उनके होंठ सूखने लगते हैं। इस अवस्था में भी वे श्रीराम से अनुरोध करती हैं कि वे किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करें। लक्ष्मण जी जल लेने जाते हैं, और इस बीच श्रीराम, सीता जी की थकान और कष्ट को देखकर व्याकुल हो उठते हैं। वे प्रेमपूर्वक उनके चरणों में लगे काँटे निकालने लगते हैं। यह देखकर सीता जी अपने पति के स्नेह और देखभाल से पुलकित हो जाती हैं। यह प्रसंग श्रीराम और सीता जी के मधुर संबंध, प्रेम और समर्पण को दर्शाता है।
(1)
पुर तें निकसीं रघुबीर – बधू, धरि धीर दए मग में डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै।।
फिरि बूझति हैं, “चलनो अब केतिक, पर्नकुटि करिहौं कित ह्वै?”।
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।।
भावार्थ: प्रथम पद में तुलसीदास जी लिखते हैं कि श्रीराम जी के साथ उनकी वधू, अर्थात् सीता जी, जैसे ही नगर से बाहर निकलती हैं, उनके माथे पर पसीना छलकने लगता है। साथ ही, उनके मधुर होंठ भी प्यास से सूखने लगते हैं। इस अवस्था में वे श्रीराम जी से पूछती हैं कि हमें अपनी पर्णकुटी (घास-फूस की झोंपड़ी) कहाँ बनानी है। उनकी इस परेशानी को देखकर श्रीराम जी भी व्याकुल हो जाते हैं और उनकी आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं।
(2)
“जल को गए लक्खनु, हैं लरिका परिखौं, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढे़।l
पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखारिहौं, भूभुरि-डाढे़।।”
तुलसी रघुबीर प्रियाश्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढे़।
जानकीं नाह को नेह लख्यो, पुलको तनु, बारिश बिलोचन बाढ़े।।
भावार्थ: इस पद में जब श्री लक्ष्मण जी पानी लेने जाते हैं, तब सीता जी श्रीराम से कहती हैं, "स्वामी, आप थक गए होंगे, अतः कृपया पेड़ की छाया में कुछ देर विश्राम कर लीजिए।" उनकी इस चिंता और व्याकुलता को देखकर श्रीराम जी कुछ समय के लिए पेड़ के नीचे विश्राम करते हैं। इसके बाद वे सीता जी के पैरों से काँटे निकालने लगते हैं। अपने प्रियतम के इस प्रेमपूर्ण व्यवहार को देखकर सीता जी मन ही मन पुलकित अर्थात आनंदित हो उठती हैं।
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