पाठ का सार
इस पाठ में यह बात बिलवकुल स्पष्ट कर दी र्गइ है कि देश में जितने भी दंगे- फसाद होते हैं, वे सब धर्म के ही नाम पर होते हैं। धार्मिक उन्माद पैदा कर ही दंगा फैलाया जाता है। लेखक का कहना है कि धर्म और ईमान के नाम पर वैसे लोग ही प्राण तक गँवा देने पर उतारू रहते हैं, जिन्हें धर्म आरै इर्मान के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। जो धर्म ओर ईमान का शाब्दिक और वास्तविक अर्थ नहीं जानते, वे धर्म और ईमान के लिए जुझारू हो जाते हैं।
लेखक ने भारत ही नहीं, विदेशों में भी इस प्रकार की धूर्तता का पर्दाफाश किया है। लेखक को इस बात का अफसोस है कि देश में आज़ादी के दिनों में भी धर्म के ठेकेदारों को स्वाधीनता आंदोलन में प्रवेश दिया गया, जो अनुचित था। इसका दूरगामी दुष्परिणाम होना था। आखिरकार दुष्परिणाम सामने आया भी।
महात्मा गांधी धर्म की सही व्याख्या करने वाले थे । महात्मा गांधी का धर्म किसी और धर्म का प्रतिद्वंद्वी नहीं था। उनके धर्म से संबंध्ति विचारों से किसी का भी अहित नहीं होता है, क्योंकि उनका धर्म सीधा मानवतावाद से जुड़ा हुआ है।
महात्मा गांधी धर्म को सर्वत्र स्थान देते हैं। वे एक पग भी धर्म के बिना चलने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि धर्म से महात्मा गांधी का अर्थ धर्म के अंदर ऊँचे और उदात्त तत्वों से है। महात्मा गांधी जी के अनुसार भलमनसाहत की कसौटी केवल मनुष्य का आचरण है।
इस पाठ में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आज भी देश में धर्म और संप्रदाय के नाम पर जो वुफछ भी बुरा हो रहा है, उत्पात हो रहा है या जुल्म हो रहा है, उनको पिछले दिनों हमने ही आमंत्रित किया है। देश की स्वाधीनता के संग्राम ने ही मौलाना अब्दुल बारी और शंकराचार्य को देश के सामने दूसरे रूप में पेश किया और उन्हें अधिक शक्तिशाली बना दिया। हमारे इस काम का फल यह हुआ कि इस समय, हमारे हाथों से बढ़ाई गईं इनकी शक्तियाँ ही हमारी जडे़ं उखाड़ रही हैं और देश में मज़हबी पागलपन, प्रपंच और उत्पात का राज्य स्थापित कर रही हैं।वस्तुतः इसके आगे और कोई बात है भी नहीं। ऊपर कही गई बातों को, ऐसा नहीं है कि कोई नहीं समझ रहा है। यहाँ तो बात यह है कि हमारे राजनेता इस बात को भलीभाँति समझकर भी नासमझ बने हुए हैं।
इस बनावटी नासमझी से उन्हें यह लाभ है कि राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में उन्हें सहूलियत होती है। वे जानते हैं कि धार्मिक उन्माद पैलाना बहुत गलत है। पिफर भी वे धार्मिक उन्माद पैलाने से बाज़ नहीं आते क्योंकि वोट की राजनीति करने के लिए यह सब करना उनके लिए अनिवार्य-सा है। जब तक हमारे राजनेताओं की चाल ऐसी रहेगी, भारत धर्म और संप्रदाय के नाम पर उलझता रहेगा।
लेखक परिचय
गणेशशंकर विद्यार्थी
इनका जन्म सन 1891 में मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में हुआ था। एंट्रेंस पास करने के बाद कानपूर दफ्तर में मुलाजिम हो गए। फिर 1921 में 'प्रताप' साप्ताहिक अखबार निकालना शुरू किया। ये आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी को साहित्यिक गुरु मानते थे। इनका ज्यादा समय जेल में बिता। कानपुर में 1931 में मचे सांप्रदायिक दंगों को शांत करवाने के प्रयास में इनकी मृत्यु हो गयी।
कठिन शब्दों के अर्थ
1. क्या है धर्म की आड़? |
2. स्पर्श का अर्थ क्या होता है? |
3. हिन्दी की उपयोगिता क्या है? |
4. कक्षा 9 की परीक्षा में क्या विषय होते हैं? |
5. क्या धर्म की आड़ एक समझौता होता है? |
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